Thursday 20 September 2012


राक्षसों की राम कहानी (7)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)

अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते सलक्ष्मणाम्.
न तु प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः.. (अरण्य. 9.18-19)
(हे सीता, मैं अपने प्राण त्याग सकता हूँ, तुम्हारा और लक्ष्मण का परित्याग भी कर सकता हूँ, लेकिन अपनी प्रतिज्ञा को, विशेष रूप से ब्राह्मणों के लिए की गई प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ सकता.)
वसन्तो धर्मनिरता वने मूलफलाशनाः.
न लभन्ते सुखं भीता राक्षसैः क्रूरकर्मभिः.
भक्ष्यन्ते राक्षसैर्भीमैर्नरमांसोपजीविभिः. (अरण्य. 9.5-6)
(हे भीरु, फल-मूल खाकर सदा वन में धर्मनिरत रहने वाले ऋषि-मुनि इन क्रूर राक्षसों के कारण कभी सुख नहीं पाते. नर-मांस पर जीवन निर्वाह करने वाले ये भयानक राक्षस इन्हें मार-मारकर खा जाते हैं.)
होमकाले तु सम्प्राप्ते पर्वकालेषु चानघ.
धर्षयन्ति स्म दुर्धर्षा राक्षसाः पिशिताशनाः.. (अरण्य. 9.11)
(अग्निहोत्र के समय और पर्व के अवसरों पर ये अत्यन्त दुर्धर्ष मांसभोजी राक्षस हमें धर दबाते हैं.)

यदि वाल्मीकि रामायण के अन्तःसाक्ष्यों पर विश्वास करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत में कभी नर-मांस खाने वाली नस्ल मौजूद रही है. राक्षसों के नर-भक्षी होने का पहला उल्लेख हमें रामायण के बालकाण्ड में मिलता है:
भक्षार्थं जातसंरम्भा गर्जन्ती साभ्यधावत. (25.11)
(क्रुद्ध ताड़का मुनि को खा जाने के लिए गरजती हुई दौड़ी.)
पश्य लक्ष्मण दुर्वृत्तान्राक्षसान्पिशिताशनान्. (29.13)
(लक्ष्मण, वह देखो! दुराचारी-मांसभक्षी राक्षस आ पहुँचे.)
राक्षसान्पापकर्मस्थान्यज्ञघ्नानरुधिराशनान्. (29.18)
(यज्ञ में विघ्न डालकर पाप करने और रक्त पीने वाले राक्षसों को मार गिराता हूँ.)
इस प्रसंग के बाद मायावी मारीच से हमारी मुलाक़ात सीधे अरण्यकाण्ड में होती है, जहाँ वह रावण से अपनी आपबीती कह रहा है:
व्यचरन् दण्डकारण्यमृषिमांसानि भक्षयन्. (36.2)
(मैं ऋषियों का मांस खाता हुआ दण्डकारण्य में विचरण कर रहा था.)
निहत्य दण्डकारण्ये तापसान्धर्मचारिणः.
रुधिराणि पिबंस्तेषां तथा मांसानि भक्षयन्.. (37.5)
(दण्डकारण्य के भीतर धर्मानुष्ठान में लगे हुए तापसों को मारकर उनका रक्त पीना और मांस खा जाना ही मेरा काम था.)
वैसे, अरण्यकाण्ड से राक्षसों के नर-भक्षी होने और मनुष्य-रक्त का पान करने के उल्लेख हमें  बार-बार मिलने लगते हैं. इस क्रम में हमारी भेंट सबसे पहले वन्य विराध से होती है:     
अहं वनमिदं दुर्गं विराधो नाम राक्षसः.
चरामि सायुधो नित्यमृषिमांसानि भक्षयन्.. (अरण्य. 2.12-13)
(मैं विराध नामक राक्षस हूँ. ऋषियों का मांस प्रतिदिन खाता हूँ और इस दुर्गम वन में हथियार से लैस होकर घूमता रहता हूँ.)
इयं नारी वरारोहा मम भार्या भविष्यति.
युवयोः पापयोश्चाहं पास्यामि रुधिरं मृधे.. (अरण्य. 2.13)
(यह स्त्री बड़ी सुन्दर है. यह मेरी पत्नी बनेगी. तुम दोनों पापी युवकों को मारकर मैं तुम्हारा रक्त पियूंगा.)
पंचवटी में अपने लिए बनाई हुई पर्णकुटी में राम-लक्ष्मण-जानकी स्थापित हो चुके थे. एक दिन राक्षसी शूर्पणखा पहुँचकर पहले राम से प्रणय-याचना करती हुई बोली:
इमां विरूपामसतीं करालां निर्णतोदरीम्.
अनेन सह ते भ्रात्रा भक्षयिष्यामि मानुषीम्.. (अरण्य. 16.23)
(यह स्त्री कुरूप, ओछी, विकृत, धंसे हुए पेट वाली मानवी है. मैं इसे तुम्हारे भाई समेत खा जाऊँगी.)
राम से अस्वीकृति पाकर और लक्ष्मण के हाथों नाक-कान गँवाकर शूर्पणखा अपने भाई खर  के पास पहुँची और उसने यह इच्छा व्यक्त की:
तस्याश्चानृजुवृत्तायास्तयोश्च हतयोरहम्.
सफेनं पातुमिच्छामि रुधिरं रणमूर्धनि.. (अरण्य.18.15)
(मैं उस कुटिल स्त्री और दोनों राजकुमारों के युद्ध में मारे जाने पर रणभूमि में उनका फेनिल रक्त पीना चाहती हूँ.)
एष मे प्रथमः कामः कृतस्तात त्वया भवेत्.
तस्यास्तयोश्च रुधिरं पिबेयमहमाहवे.. (अरण्य. 18.16)
(रणभूमि में उस स्त्री और उन पुरुषों का रुधिर पीना मेरी पहली इच्छा है, जिसे तुम्हें पूरा करना है.)
खर ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि जाकर उन तीनों मनुष्यों को मार डालो, फिर मेरी यह बहन उन तीनों का लहू पिएगी:
इयं च रुधिरं तेषां भगिनी मम पास्यति.. (अरण्य. 18.19)
शूर्पणखा ने राक्षसों की पराजय के समाचार में खर को बताया:

एते च निहता भूमौ रामेण निशितैः शरैः.
ये च मे पदवीं प्राप्ता राक्षसाः पिशिताशनाः. (अरण्य. 20.12)
(मेरे साथ गए हुए सारे के सारे मांसभक्षी राक्षस मारे गए.)
खर ने शूर्पणखा को आश्वासन दिया:
रामस्य रुधिरं रक्तमुष्णं पास्यसि राक्षसि. (अरण्य. 21.5)
(हे राक्षसी, तुम्हें राम का गरम-गरम रक्त पीने को मिलेगा.)
सकामा भगिनी मेsस्तु पीत्वा तु रुधिरं तयोः. (अरण्य. 22.22)
(मेरी बहन उन दोनों का ख़ून पीकर सफल मनोरथ हो जाए.)
शरभंग मुनि के आश्रम के आस-पास अन्य ऋषियों के आश्रमों में राम को राक्षसों से खाए जाने के बाद बचे हुए तापसों के कंकाल दिखाए गए. इससे राम को राक्षसों की नर-भक्षी प्रवृत्ति का पता लग गया था. सो, वह सीता की सुरक्षा को लेकर किसी न किसी प्रकार आशंकित और मन-मस्तिष्क से सजग थे. इसलिए माया-मृग के वध के समय उसके छद्म-आर्तनाद को सुनकर लक्ष्मण पर्णशाला में सीता को अकेली छोड़ आए तो राम को क्रोध आया और यह भय भी सताने लगा कि इस अबला को अकेली पाकर क्रूर राक्षस कहीं खा न जाएं:
स्वस्ति स्यादपि वैदेह्या राक्षसैर्भक्षणं विना. (अरण्य. 55.4)
(वैदेही कुशल से तो होंगी? उन्हें राक्षस खा तो नहीं गए होंगे?)
न मेsस्ति संशयो वीर सर्वथा जनकात्मजा.
विनष्टा भक्षिता वापि राक्षसैर्वनचारिभिः.. (अरण्य. 57.17)
(हे वीर, मुझे सन्देह नहीं कि वन में विचरने वाले राक्षसों ने जनक कुमारी को मार ही डाला होगा या फिर वे उन्हें खा गए होंगे.)
दुःखिताः खरघातेन राक्षसाः पिशिताशनाः. (अरण्य. 56.16)
(मेरे हाथों खर के मारे जाने से मांसभक्षी राक्षस दुःखी थे.)
मित्रता के हित सुग्रीव का गुणगान करते हुए राक्षस कबन्ध राम से कहता है:
नरमांसाशिनां लोके नैपुण्यादधिगच्छति. (अरण्य. 68.18)
(वह नरभक्षी राक्षसों के सारे के सारे ठिकानों को अच्छी तरह जानते हैं.)
राक्षसों के नर-भक्षी होने सम्बन्धी अगले निर्देश हमें सुन्दरकाण्ड में मिलते हैं. सीता की खोज में लंका जाते हुए समुद्र-मार्ग में हनुमान का आमना-सामना भी दो ऐसी ही राक्षसियों क्रमशः सुरसा और सिंहिका से हुआ था:
मम भक्ष्यः प्रदिष्टस्त्वमीश्वरैर्वानरर्षभः.
अहं त्वां भक्षयिष्यामि प्रविशेदं ममाननम्.. (1.136)
(वानरश्रेष्ठ, देवताओं ने तुम्हें मेरा भक्ष्य बनाकर अर्पित कर दिया है. मैं तुम्हें खाऊँगी. तुम मेरे मुँह में चले आओ.)
अद्य दीर्घस्य कालस्य भविष्याम्यहमाशिता.
इदं हि मे महात्सत्त्वं चिरस्य वशमागतम्.. (1.167)
(बड़े लम्बे समय बाद आज यह लम्बा-चौड़ा जीव मेरे वश में आया है. इसे खा लेने पर लम्बे समय तक मुझे भूख नहीं लगेगी.)
सुन्दरकाण्ड में ही आगे चलकर रावण के महलों में सीता को न पाकर हनुमान के मन में आशंका हुई:
आहो क्षुद्रेण चानेन रक्षन्ती शीलमात्मनः.
अबन्धुर्भक्षिता सीता रावणेन तपस्विनी.
अथवा राक्षसेन्द्रस्य पत्नीभिरसितेक्षणा.
अदुष्टा दुष्टभावाभिर्भक्षिता सा भविष्यति.. (11.11-12)
(कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने शील की रक्षा में तत्पर असहाय तपस्विनी सीता को नीच रावण ने खा लिया हो अथवा दुर्भाव से भरी राक्षसराज रावण की पत्नियों ने ही कजरारी आँखों वाली सीता को अपना आहार बना लिया हो.)
फिर सीता ने रावण का विवाह-प्रस्ताव ठुकरा दिया तो उसने सीता को अपना मन अनुकूल बनाने के लिए दो महीने की मोहलत देते हुए यह धमकी भी दी कि वह अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं तो उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके उसके कलेवे में परोस दिए जाएंगे:
द्वाभ्यामूर्ध्वं तु मासाभ्यां भर्तारं मामनिच्छ्तीम्.
मम त्वां प्रातराशार्थमारभन्ते महानसे.. (20.9)
इसी तरह सीता पर निगरानी रखने वाली राक्षसियों ने भी उन्हें धमकाया था कि यदि वह रावण से विवाह न करेंगी तो वे ही उन्हें चट कर जाएंगी:
एतदुक्तं च मे वाक्यं यदि त्वं न करिष्यसि.
अस्मिन्मुहूर्ते सर्वास्त्वां भक्षयिष्यामहे वयम्.. (22.22)
प्रतीत होता है, वनों में और लंका में रहते-रहते सीता को भी पता चल चुका था कि राक्षस नर-भक्षी होते हैं. सो, यह रहा राक्षसियों को उनका उत्तर:
न मानुषी राक्षसस्य भार्या भवितुमर्हति.
कामं खादत मां सर्वा न करिष्यामि वो वचः.. (22.7)
(कोई मानव-कन्या किसी राक्षस की पत्नी नहीं बन सकती. तुम लोग भले ही मुझे खा जाओ, मैं तुम्हारी बात नहीं मान सकती.)
राक्षसों की रक्त-पिपासा कुम्भकर्ण के रूप में तो जैसे अमिट हो गई है:
बुभुक्षितः शोणितमांसगृध्नुः प्रविश्य तद्वानरसैन्यमुग्रम्.
चखाद रक्षांसि हरीन्पिशाचान्नृक्षांश्च मोहाद्युधि कुम्भकर्णः.. (युद्ध.55.72)
  (कुम्भकर्ण को भूख सता रही थी. वह रक्त-मांस के लिए मचल रहा था. उग्र वानर सेना में घुसकर वह वानर-भालुओं के साथ-साथ भ्रमवश राक्षस-पिशाचों को भी खा जाने लगा.)
उसने राम को चुनौती दी:
ततस्त्वां भक्षयिष्यामि दृष्टपौरुषविक्रमम्. (युद्ध. 55.106)
(तुम्हारे बल-विक्रम को देख लेने के बाद ही मैं तुम्हें खाऊँगा.)
रामायण के इन कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि आदिकवि वाल्मीकि ने लंकावासियों के लिए राक्षस शब्द का प्रयोग उनकी नर-भक्षी प्रवृत्ति को रेखांकित करने के लिए ही किया है. फिर यह शब्द अवश्य ही किसी ऐसे शब्द से निकलकर आया होगा, जिसका अर्थ रक्त होता हो. तेलुगु भाषा में शब्द हैं रक्कसि और राक्कासि’. दोनों ही का अर्थ है रक्त पीने वाले. यदि अन्तिम ध्वनि असि या आसि हटा दें तो बच रहता है रक्क या राक्क’. सामान्य प्रयोग में यही शब्द रक्त का रूप ले लेता है. गोण्डों की कुइ भाषा में भी रक्क इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है. यह शब्द सभी द्रविड़ भाषाओं में विद्यमान है और उन्हींसे तनिक परिवर्तन के साथ संस्कृत में चला आया है. द्रविड़ भाषाओं में वर्ण सामान्यतः में बदल जाता है, जिससे राचसि और राच्चसि शब्द बनते हैं. यही संस्कृत में क्षवर्ण में बदल जाता है. इस प्रकार संस्कृत में राक्षस तथा रक्ष जन्म लेते हैं.
राक्षसों से निकट से जुड़े हैं पिशाच, बल्कि वे उनसे मिलते-जुलते हैं (सीता को अपने महल में ले जाते ही रावण ने हुक्म जारी किया कि पिशाच उनकी निगरानी करें). फिर इस शब्द की संरचना और अर्थ भी राक्षस-समान ही होना चाहिए. आइए, इस शब्द की व्युत्पत्ति देखें. संस्कृत में यह पिशितम् (मांसम्) और अश्नाति के योग से बना है, लेकिन इसे समझाने के लिए लम्बी-चौड़ी सफ़ाई दी जाती है: अश्+कर्मणि अण् इति अण्; ततः प्रषोदर्दीनि यथोपदिष्टम इति शिता भागस्य शचादेशः. शब्द के एक भाग का लोप और उसकी जगह अलग ही अन्त्य ध्वनि, यह करामात गृहीत शब्द को आर्य चोला पहनाने के लिए की जाती है. पिशित में से पहले शित का लोप करके पि छोड़ दिया जाता है; फिर आश की जगहअश’+‘अन बन जाता है शाच और इस प्रकार हमें उपलब्ध होता है पि+शाच=पिशाच. इस स्पष्टीकरण से पता चलता है कि पिशाच संस्कृत का अपना शब्द नहीं है. प्रतीत होता है, यह पिश और अच के संयोग से बना है. द्रविड़ भाषाओं में और अस में भेद नहीं है. सो, ‘पिस’+‘अस प्राप्त होता है. अस या असि कुइ ज़बान में पुरुषवाचक अन्त्य ध्वनि है और पिश या पीश का अर्थ होता है मांस. इस प्रकार अनपढ़-अधपढ़ वर्ग के तेलुगु भाषियों के उच्चारण के अनुसार पिसासि शब्द व्यवहार में है. इसीको पढ़े-लिखे तेलुगुभाषी पिशाचि कहते हैं.
अब हम समझ सकते हैं कि राक्षस और पिशाच शब्द कह रहे हैं कि वे रक्त-पिपासु और नर-मांस खाने वालों की संज्ञाएं हैं. वाल्मीकि रामायण के अनुसार, दण्डकारण्य में और उसके आसपास रहने वाली ऋक्ष-वानर जैसी जनजातियां सुनिश्चित रूप से जानती थीं कि लंकावासी राक्षस और उनके सजातीय आदमख़ोर हैं. प्राचीन राक्षस और पिशाच जातियों का कुछ ऐसा ही गुण हमें तनिक पहले तक कुइ ज़बान बोलने वाली गोण्ड जनजाति में भी विद्यमान दिखाई देता है. अब से लगभग सवा सौ वर्ष पहले तक भी गोण्ड नर-बलि दिया करते थे. यह प्रथा उनमें इस क़दर प्रचलित थी कि सन् 1841 के फरवरी मास में ही कोई 250 मरिया (बलि दिए जाने वाले मनुष्य) अमावस्या के रोज बलि चढ़ चुके थे. उस वक़्त के रिकार्ड बताते हैं कि सन् 1837 से 1854 के बीच कर्नल कैम्पबेल ने 1506 लोगों की जान बचाई थी. इनमें 717 पुरुष और 789 स्त्रियां थीं.
इन आँकड़ों से कम से कम गोण्डों के निश्चित नरमेध-प्रेम की पुष्टि तो होती ही है, जो मध्य भारत की प्राचीन राक्षस नस्ल की सन्तति हैं. प्रतीत होता है, नर-बलि की यह प्राचीन प्रथा  कथित नर-भक्षण के राक्षस-स्वभाव का ही अवशेष है, जिसे गोण्डों ने कालान्तर में किसी न किसी प्रकार के बाहरी-भीतरी दबाव या सुधार के चलते स्थानापन्न रूप से अपना लिया था. अंग्रेज़ों की कड़ाई के चलते इन्हें नर-बलि बन्द करनी पड़ी. फिर भी, गोण्डों की ख़ून की अनबुझ प्यास ने नर-बलि के स्थान पर अब भैंसे की बलि अपना ली है. बलि के लिए अभिप्रेत पशु के साथ गोण्ड उसी बेरहमी से पेश आते हैं, जिस बेरहमी से वे बलि के लिए फाँसे गए मनुष्य के साथ पेश आते थे या फिर राक्षस जिस नृशंसता से कभी मनुष्यों के साथ. 
रामायण में आदिकवि वाल्मीकि के अलावा सीता-राम और अन्यान्य चरित्रों की साखियां पुष्टि करती हैं कि विराध, कबन्ध और पुलस्त्य कुल के जनस्थान वासियों समेत सभी लंकाई राक्षस नर-भक्षी थे. गुसाईं जी ने भी लिखा है: कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं. और तो और, राक्षस स्वयं कबूल कर रहे हैं कि वे नर-भक्षी हैं. लेकिन, प्रश्न उठता है कि क्या इक़बाल-ए-जुर्म, सबूत-ए-जुर्म भी हो सकता है? क्या विभिन्न आर्य चरित्रों के बयानों को तर्कातीत और अकाट्य प्रमाण माना जा सकता है? क्या गोण्डों में प्रचलित नर-बलि की प्रथा को नर-भक्षण का अवशेष मान लेना निरापद है? 
इस बात में कोई सन्देह नहीं कि राक्षस मांसाहारी थे. हों भी क्यों नहीं? दुनिया भर में सभी आदिवासी और जनजातियां विविध प्रकृत कारणों से मांसाहारी हैं. शाकाहार न तो उनकी परिस्थिति-अनुकूल है और न स्वभाव-अनुकूल. परन्तु, राक्षस सचमुच नर-भक्षी थे --यह दावा करते संकोच और संशय होता है. इस लेख-शृंखला की छठी कड़ी में हम देख आए हैं कि रावण की भोजशाला एवं मधुशाला पानभूमि में पकाकर अनछुए रखे और खाने से बचे हुए आहार में नर-मांस सिरे से नदारद है. यही नहीं, कुम्भकर्ण को युद्ध के लिए जगाते समय राक्षसों के एकत्र किए हुए खाने-पीने के पदार्थों में भी रक्त-मांस तो है, लेकिन नर-मांस का दूर-दूर तक पता नहीं है!
हम समझ सकते हैं कि वाल्मीकि आर्य नस्ल के पक्षधर कवि थे. उन्होंने अपने महाकाव्य के आर्य नायक तथा उनके सहायकों को श्रेष्ठ-सुशील और खलनायक अनार्य राक्षसों को न केवल विकृत-विकराल मनुष्य बताया है, बल्कि अपने काव्य के आर्य श्रोता-पाठकों के मन में उनके प्रति घृणा-जुगुप्सा उत्पन्न करने की दृष्टि से राक्षसों को नर-भक्षी रूप तक में चित्रित कर डाला है. समय के प्रवाह में, राक्षसों का यह रूप-स्वभाव तो आगे आने वाले रामायण आधारित काव्यों के लिए जैसे राक्षस चरित्र-चित्रण का आधार ही बन गया. हम यह कल्पना भी कर सकते हैं कि यदि किसी राक्षस-पक्ष के कवि ने राम-रावण के चरित्रों पर आधारित ऐसे किसी काव्य की रचना की होती तो उसने राक्षसों को विकृत-विकराल नर-भक्षी मनुष्यों के रूप में कभी प्रस्तुत न किया होता. हाँ, हो सकता है कि हमारे सामने आर्य मनुष्यों का कुछ और ही रूप होता. अलावा इसके, रामायण-पूर्व वैदिक साहित्य आर्य-अनार्य जातियों के न केवल मांसाहारी होने, बल्कि अन्यान्य पशु-पक्षियों के साथ-साथ गो-मांस खाने के सन्दर्भों तक से भरा पड़ा है. फिर भी, उस सम्पूर्ण साहित्य में नर-मांस खाए जाने का कोई हवाला नहीं मिलता.
राक्षस और आर्य नस्लें आपस में बैरी थीं. बहुत सम्भव है कि शक्तिशाली राक्षस सामाजिक-राजनैतिक कारणों से आर्यों का वध करते रहे हों और उनकी बलि भी देते रहे हों, जैसाकि हम उनकी सन्तति गोण्डों के मामले में देखते हैं. प्राचीन भारतीय साहित्य किस्म-किस्म के मेधों सहित नर-मेध के सन्दर्भों से अछूता नहीं है और हमारे अपने बीच औघड़ मार्ग पर चलने वालों में नर-बलि की घटनाएं तो आज तक सामने आती ही रहती हैं. सो, हम राक्षसों को निर्विवाद रूप से नर-बलि देने वाले आर्य-रिपु तो मान सकते हैं, नर-भक्षी नहीं.
--बृहस्पति शर्मा  
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स्रोत:
  1. VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. रामचरितमानस
  4. THE MYTH OF THE HOLY COW by SRI D.N. JHA