Friday 29 August 2014

दक्खिन के काबा में
सादगी का लालित्य

तवाफ़-ए-काबः शर्फ़ मीसर्त गर नीस्त
बया बकाबः मुल्क-ए-दक्कन इबादत कुन.

इसलाम की वर्जनाओं को नकारकर रचा और मक्का मस्जिद के प्रतिष्ठापन समारोह में किसी शायर की ओर से बादशाह को भेंट किया गया उपर्युक्त फ़ारसी शेर मुस्लिम स्थापत्य के क़ुत्ब शाही शाहकार मक्का मस्जिद की शान ज़ाहिर करने के लिए काफी है. पत्थर की पटिया पर खुदी हुई ये पंक्तियां चिरंजीवी शिलालेख की तरह इस मस्जिद की मध्यवर्ती कमान के बाजू चिनी हुई हैं.

बैतुलअतीक़ से मक्का मस्जिद

सन् 1617 में मक्का मस्जिद की आधार-शिला रखे जाने का ऐतिहासिक किस्सा पाठक पीछे पढ़ ही चुके हैं. इस शिया इमारत की नींव डालने वाले सुल्तान मुहम्मद क़ुत्ब शाह ने पवित्र मक्का की चौकोर मस्जिद के मुँहबोले नाम बैतुलअतीक़ (पुराना घर) के आधार पर इस मस्जिद का नाम भी बैतुल अतीक़ ही रखा था. धर्मनिष्ठ हिन्दू जिस तरह किसी भी प्रकार के लेखन के प्रारम्भ में ऊँ’, श्री आदि अंकित करते हैं, उसी तरह बहुत सारे मज़हबी मुसलमान शुरु में ‘786’ या ‘786/92’ लिखते हैं. आँकड़ा 786 बिस्मिल्लाह अर रहमान निर रहीम का और 92 रसूल लिल्लाह का संख्यात्मक मान है. इसी तर्ज़ पर अरबी शब्द बैतुलअतीक़ का संख्यात्मक मान 1023 है और यही इसके प्रतिष्ठापन का हिजरी संवत भी. ग़ौरतलब है कि मस्जिदों को इस तरह के नाम देने की परम्परा चली आ रही है, ताकि संख्यात्मक मान से उनके प्रतिष्ठापन वर्ष का पता चल सके.
बादशाह औरंगज़ेब के शासन-काल में इस मस्जिद का नाम बैतुलअतीक़ से बदलकर मक्का मस्जिद रख दिया गया. इस नामकरण के बारे में यह भी कहा जाता है कि मुहम्मद क़ुत्ब शाह ने पवित्र मक्का की मिट्टी मंगाकर कुछ ईंटें बनवाई थीं, जो मस्जिद की मध्यवर्ती कमान के ऊपर चिनी गईं. दूसरी ओर, तारीख़-ए-फ़रख़ुन्दा का लेखक कुछ और ही कहता है: काबा की यह विशेषता है कि वहाँ मज़हबी सफर पर आने वालों का ताँता हर वक़्त लगा रहता है. ठीक इसी प्रकार, एक लम्हा भी ऐसा नहीं गुज़रता, जब मक्का मस्जिद भी नमाज़ी बन्दों से खाली रहती हो. यही वजह थी कि हैदराबाद की रियाया ने इस मस्जिद का नाम मक्का मस्जिदसहज ही स्वीकार कर लिया और इसी नाम से यह दुनिया में मशहूर भी हो गई.


मस्जिद का निर्माण

दारोगा मीर फ़ैज़ुल्लाह बेग और चौधरी रंगय्या उर्फ़ हुनरमन्द ख़ाँ की निगरानी में मस्जिद की तामीर लगभग आठ हज़ार मिस्त्री-मज़दूरों के श्रम से पूरी हुई. मक्का मस्जिद के निर्माण पर अन्दाज़न 30,00,000 हुन (मध्य दक्खिन का प्राचीन सिक्का) खर्च हुए. एक अनुमान के अनुसार यह सिक्का 4.5 मुगल रुपये के समान था. मस्जिद का निर्माण अब्दुल्लाह क़ुत्ब शाह और अन्तिम क़ुत्ब शाही शासक अबुल हसन तानाशाह के दौर में भी जारी रहा. तुज़ुक-ए-क़ुत्ब शाही के अनुसार यह निर्माण-कार्य कुल सतहत्तर बरस बाद औरंगज़ेब के समय 1104 हिजरी (सन् 1693) में पूरा हुआ.
दक्खिन की सबसे शानदार और प्रभावशाली मस्जिदों में अग्रणी तथा हैदराबाद की सबसे बड़ी इस मस्जिद की विशालता का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रांगण में लगभग दस हज़ार नमाज़ी एक साथ नमाज़ पढ़ स कते हैं.

मुख्य प्रवेश-द्वार से इमारत के परिसर में दाख़िल होते ही ज़मीन से गज भर से ज़्यादा ऊँचा, 360 फुट लम्बा अहाता नज़र आता है -–एकदम औरस-चौरस. यहीं एक किनारे वज़ू के लिए पानी से लबालब भरा हौज़ है. सैयद अली असगर बिलगिरामी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Landmarks of the Deccan में लिखते हैं, “इस हौज़ के दोनों ओर लगी आठ फुट लम्बी सिल्लियां मैसरम गाँव के किसी मन्दिर से ली गई थीं, जिसका नाम-ओ-निशान अब नहीं रह गया है.” प्रांगण में ही संग-ए-स्याह और संगमरमर में बने लम्बे-चौड़े तख्त बिछे हैं. माना जाता है कि आप इन अलंकृत और चमकाए हुए तख़्तों पर एक बार बैठ जाएं तो मस्जिद आपको यहाँ दोबारा आने की दावत देती है. इनमें से एक तख्त कुछ साल पीछे बम धमाके में टूट गया था. प्रांगण में ग्रेनाइट की फर्श बिछाई गई है.

प्रवेश-द्वार के पास ही हिन्दू-मुस्लिम श्रद्धालु मस्जिद में पारम्परिक रूप से पल रहे असंख्य कबूतरों को धर्म-निरपेक्ष भाव से दाना चुगाते हैं. ये कबूतर भी जैसे जानते हैं कि यहाँ आने वालों से डरने की ज़रूरत नहीं है तथा निडर-निस्संकोच भाव से दाना चुगने के लिए लोगों के हाथों और कन्धों पर आ बैठते हैं.

विशाल अहाता पार करके हम छेनी से टंके हुए बढ़िया ग्रेनाइट पत्थर के चौकों (Ashlar) से निर्मित 225 फुट लम्बी, 180 फुट चौड़ी और 75 फुट ऊँची इमारत से रूबरु होते हैं. नमाज़ पढ़ने के लिए बना मस्जिद का विशाल भीतरी हॉल भारी-भरकम स्तम्भों के बीच तीन अन्तर्मार्गों (Bays) में बँटा है. इन अन्तर्मार्गों की गुम्बदीय छत चड्ढेदार मिहराबों के सिद्धान्त (Principle of Intersection of Arches) पर बनाई गई है और अभ्यन्तर (Interior) के इन्हीं क़द्दावर स्तम्भों पर आश्रित है. यही ठोस एकाश्म (Monolithic‌) स्तम्भ इमारत के भीतरी हिस्से में मनोरम माहोल रचते हैं. केवल मध्यवर्ती अन्तर्मार्ग पर ही स्कन्धित छत (Shouldered Roof) है. मस्जिद के मुहार (Facade) में भरपूर चौड़ाई वाली पाँच बुलन्द कमानें हैं. कमानों में की गई क्षैतिजिक सजावट, चाप स्कन्धों (Arch Spandrels) के बीच सादे (अपूर्ण?) गोल चक्रों और पुष्प रूपों का उभरवाँ काम छोड़ दें तो मुहार अनलंकृत ही है. मुहार तिपतिया डिज़ाइन के छोटे मुण्डेरदार प्राचीर (Parapet of Small Merlons) और औसत आकार के कपोत (Cornice) से जुड़ा है. कपोत अलंकृत बन्धन-धन्नी (Tie-Beams) के माध्यम से आपस में जुड़े कोष्ठकों पर टिका है. धन्नियों के कारण दूर से ये कोष्ठक छोटे-छोटे  मिहराबों जैसे दिखाई देते हैं. मस्जिद के दोनों किनारों पर कंगूरे बनाए गए हैं. दोनों कंगूरों के पुश्तों के ऊपर स्तम्भाश्रित गुमटियां (Cupola) हैं. शाहजहाँ के दौर की विशिष्ट परवर्ती मुगल शैली में निर्मित गुमटी से बाहर झाँकता हुआ सुन्दर कपोत और अत्यन्त आकर्षक परिरेखा (Contour) वाला सुडौल गुम्बद सचमुच देखने की चीज़ है. लेकिन, इस मस्जिद में सचमुच उल्लेखनीय बात कोई है तो यह कि 108 मीटर चौड़े अहाते के आगे खड़ी 67 मीटर लम्बी और 54 मीटर चौड़ी विशालकाय इमारत के बावजूद वास्तुशिल्पी हृदयस्पर्शी अभ्यन्तर और सन्तुलित अनुपात वाले भवन-मुख के निर्माण में सफल रहा है. फलस्वरूप, सादगी के लालित्य और अत्यन्त राजसी गरिमा से सराबोर पूरी की पूरी संरचना पर्यटकों के मन पर गहरी छाप छोड़ती है.
मस्जिद के भीतर ख़ुत्बे का मिहराब एक और ख़ास हिस्सा है. टैवर्निए के अनुसार, “मिहराब की शिला को खदान से खोदकर बाहर लाने में पूरे पाँच साल लगे. इस काम में सैकड़ों मज़दूर लगे थे और 700 जोड़ा बैलों की मदद से इसे मस्जिद के नियत स्थान तक पहुँचाया गया.”

औरंगज़ेब प्रसंग

जब औरंगज़ेब ने गोलकोण्डा पर चढ़ाई की तो मस्जिद की तामीर जारी थी. बहुत सम्भव है, जंग के दौरान तामीर रोकनी पड़ी हो. काम प्रायः पूरा हो गया था. लगता है, केवल भीतरी मीनारों की तामीर ही कुछ हद तक बाकी थी. अन्ततः गोलकोण्डा के पतन के बाद औरंगज़ेब ने हुक्म जारी किया कि तामीर जहाँ की तहाँ रोक दी जाए. उन्हीं के हुक्म से मीनारें बनकर तैयार तो हो गईं, लेकिन राजसत्ता की उदासीनता और पैसे की तंगी के चलते ये इमारत लम्बाई-चौड़ाई के अनुपात में पूरी ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाई. पड़ोस में चारमीनार की खूबसूरत मीनारें स्पष्ट करती हैं कि भवन की समानुपाती क़ुत्ब शाही मीनारें तीन-चार अलंकृत मंज़िलों में पूरी होती हैं, जबकि औरंगज़ेब की ज़िद से इस क़ुत्ब शाही इमारत पर मुगल शैली की सिर्फ एक मंज़िला ठिगनी मीनारें ही चस्पां कर दी गईं.

इस प्रकार मस्जिद की तामीर में बादशाह औरंगज़ेब का योगदान मीनारों के आंशिक निर्माण के अलावा, ख़ुदा के इस घर में आगन्तुकों को सिर झुकाकर भेजने वाली ज़ंजीर जड़े मुख्य प्रवेश-द्वार और एक मामूली धूप-घड़ी तक ही सीमित है.

कहा जाता है, जब मस्जिद का निर्माण समुचित सज-धज के साथ पूरा कराने की फरियाद शहंशाह औरंगज़ेब से की गई तो कला, संगीत और स्थापत्य के मामले में अपनी ख्याति के अनुरूप उन्होंने फ़ारसी का यह मशहूर शेर दोहरा दिया:
कारे दुनिया कसे तमाम नकर्द
हर्चः गीरद मुख़्तसर गीरद.
अर्थात, दुनिया का कारोबार आज तक कोई शख़्स पूरा नहीं कर पाया है. इसलिए किसी काम की ज़िम्मेदारी लो तो उसे न्यूनतम रूप में निपटा दो. तुज़ुक-ए-क़ुत्ब शाही से यह भी पता चलता है कि क़ुत्ब शाही दौर में यहाँ प्रतिदिन छत्तीस मन अनाज पकाकर गरीबों में बाँटा जाता था. खुल्द मकान (मरणोपरान्त बादशाह औरंगज़ेब का नाम) के शासन-काल में अनाज की यह मात्रा घटाकर प्रति दिन बारह मन कर दी गई.

मस्जिद के मुख्यद्वार पर अंकित ख़ुत्बा वर्ष 32 सूचित करता है कि जब निर्माण का यह चरण पूरा हुआ तो औरंगज़ेब को गद्दीनशीन हुए बत्तीस बरस हो चुके थे और वह वर्ष था 1100 हिजरी (सन् 1688).

आसार-ए-मुबारक

मस्जिद के आँगन में उत्तर की तरफ एक कमरे में पैग़म्बर मुहम्मद का बाल और कुछ अन्य अवशेष (आसार-ए-मुबारक) सुरक्षित रखे बताए जाते हैं. मस्जिद के पिछवाड़े ख़ानक़ाह (आश्रम) है और दक्षिण के एक कोने में क़ुरआन शरीफ़ के अध्ययन के लिए मदरसे की इमारत. मालूम हो कि शाही मस्जिदें नमाज़ अदा करने की जगहें भर नहीं होती थीं. उनके साथ सराय, मदरसे और ख़ानक़ाह आदि जुड़ी होती थीं. इस तरह मुस्लिम समुदाय में मस्जिदें लगभग वही सामाजिक भूमिका निभाती थीं, जो भारत के हिन्दू समाज में मन्दिर निभाते थे.

आसफ़ जाहों की कब्रगाह

प्रांगण के दक्षिणी हिस्से में मकबरों का पर्याप्त लम्बा ढाँचा ध्यान आकर्षित करता है. शहर के अतापुर इलाक़े में स्थित आसफ़िया राजपरिवार की शाही कब्रगाह महलों से काफी दूर महसूस होने लगी तो शाही मृतकों को दफ़नाने के लिए मस्जिद का यह हिस्सा चुन लिया गया. मीर निज़ाम अली ख़ाँ बहादुर की माँ उम्दा बेगम साहिबा के देहान्त के समय से इस जगह का इस्तेमाल बतौर कब्रगाह शुरु हो गया. फिर खुद निज़ाम अली ख़ाँ (1761-1803 ई.) से लेकर छठे निज़ाम मीर महबूब अली ख़ाँ (1869-1911ई.) समेत इस खानदान के कुल सोलह सदस्य यहीं दफ़नाए गए. बताया जाता है कि इन मकबरों पर संगमरमर की छह जालियां लगी थीं, जिन पर ख़ुत्बे अंकित थे.
आसफ़ जाहों की कब्रगाह के निर्माण में कहने के लिए इस बात का ध्यान तो रखा गया है यह तामीर मुख्य इमारत के शिल्प से मेल खाए, यानी वही ऐशलर ग्रेनाइट, वही कमानें, वही मीनारें, वही... लेकिन, सच यही है कि प्रार्थना-उपासना के प्रयोजन से निर्मित इस चौदहवीं के चाँद जैसे निर्विकार, जीवन्त और भव्य क़ुत्ब शाही भवन के लिए यह सौन्दर्यहन्ता मृतक-पार्थिव स्मारक स्थायी आसफ़ जाही ग्रहण के समान है.

उल्लेखनीय है कि कलात्मक क़ुत्ब शाही इमारतों और मस्जिदों के निर्माण का सिलसिला मक्का मस्जिद की नींव का पत्थर रखे जाने के साथ खत्म नहीं हो गया. क़ुत्ब शाही स्थापत्य की ऊँची पहचान तो दरअसल सुल्तान अब्दुल्लाह क़ुत्ब शाह के ज़माने (1626-72 ईस्वी) में कायम हुई, जब उसने पुष्प-अलंकरण को सर्वत्र अनिवार्य तत्व के रूप में अपना लिया. सच तो यह है कि स्थापत्य के इसी ठेठ क़ुत्ब शाही रूप और शैली ने उस समय साम्राज्य भर में निर्मित अनेक मस्जिदों पर अपनी छाप छोड़ रखी है.

तो आइए, किसी दिन आँखों को कला-कौशल से भरपूर हैदराबाद की क़ुत्ब शाही मस्जिदों का सौन्दर्य निहारने का सुख प्रदान करें.
--बृहस्पति शर्मा

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Monday 18 August 2014

मक्का मस्जिद


शहर हैदराबाद के बाज़ारों में सुबह से ही अजीब-सी चहल-पहल है. गली-कूचों से निकलकर लोगों का सैलाब चारमीनार की तरफ जाने वाली राहों में दाखिल हो रहा है. चारमीनार के चारों तरफ बनी सड़कें चार बड़ी-बड़ी नद्दियां लग रही हैं, जिनमें पानी नहीं, इंसानों की धारा बह रही है. घरों से निकलकर लोग इस सैलाब की ताकत बढ़ाते चले जा रहे हैं. यह इंसानी सैलाब अपने निर्धारित केन्द्र की तरफ बढ़ रहा है. चारमीनार तक पहुँचकर यह दक्खिन-पच्छिम के लम्बे-चौड़े मैदान में विलीन होता जा रहा है.

नौजवानों की टोलियां अपने रूप-रंग और चुस्त लिबास में ज़िन्दगी और ज़िन्दादिली की मिसाल पेश कर रही हैं. बड़े-बूढ़े और धर्मभीरु लोग अपने-अपने हथियार सम्हाले, सिरों पर किस्म-किस्म की पगड़ियां बान्धे चले आ रहे हैं. कोई बादशाह की असाधारण तपस्या और दीन-धरम में ईमान का दीवाना है तो कोई उनकी सधुक्कड़ ज़िन्दगी के किस्से सुना रहा है. किसीकी ज़बान पर सल्तनत की हर-दिल-अज़ीज़ मलिका हयात बख़्श बेग़म के प्रजा-कल्याण के लिए किए गए कामों और ख़ैर-ख़ैरात का ज़िक्र है तो कोई उनके अब्बा मुहम्मद क़ुली की  दानी तबीयत और उस ज़माने की मौज-मस्ती से मौजूदा ज़माने के हालात की तुलना कर रहा है. लेकिन, ज़्यादातर लोगों में गुफ्तगू आज के उत्सव पर हो रही है, जिसमें हिस्सा लेने के लिए हर शख़्स बड़ी लगन से चारमीनार की तरफ बढ़ रहा है.

कई दिन पहले शहर भर में और आस-पास हर गली-कूचे में जहाँपनाह के हुक्म से मुनादी फेर दी गई है, “शहर के बीचोबीच अज़ीमुश्शान मस्जिद तामीर की जानी है. इसका संग-ए-बुनियाद वही शख़्स रखेगा, जिसकी नमाज़ में बारह साल की उम्र के बाद एक भी नागा न हुआ हो.”

एलान के बाद शहर का हर शख़्स मुकर्रर दिन का इन्तज़ार कर रहा है. पुरानी तर्ज़ के बुज़ुर्ग महसूस कर रहे थे कि क़ुत्ब शाही सल्तनत की इस दिल लूट लेने वाली राजधानी की आन-बान के अनुरूप शानदार मस्जिद मौजूद नहीं है. हैदराबाद के महबूब बादशाह मुहम्मद क़ुली ने ख़्याल रखा था कि यह शहर दुनिया के किसी भी शहर की आन-बान पर भारी पड़े. उन्होंने चारमीनार, दौलतख़ाना-ए-आली और दार-उल-शफ़ा जैसी भव्य-बुलन्द इमारतें बनवाईं. सैकड़ों नफ़ीस-पाकीज़ा हमाम, मदरसे और मुसाफ़िरख़ाने तामीर कराए. रह गई तो बस जामा मस्जिद. आकार और ऊँचाई के लिहाज़ से इसे उल्लेखनीय इमारतों की श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता. सच तो यह है कि मुहम्मद क़ुली का दिल ज़्यादातर साहित्य, शायरी और ललित कलाओं में लगता था. उन्हें मौजूदा सुल्तान मुहम्मद क़ुत्ब शाह की तरह दीन-धरम और दर्शन शास्त्र में रुचि नहीं थी. मुहम्मद क़ुली की ज़िन्दगी इश्क-मुहब्बत की बतासी बतकही में गुज़र गई. सच मानें तो हैदराबाद शहर और इसकी तमाम शान इसी आशिक मिजाज़ जाँबाज़ की बेनज़ीर मुहब्बत और लगन की अमर यादगार है.

चारमीनार के पहलू में जमा भीड़ के चलते तिल धरने को जगह नहीं है. मैदान के बीच विशाल इमारत की बुनियाद तैयार है. बुनियाद के बीचोबीच लम्बा-चौड़ा शामियाना खड़ा किया गया है. लक-दक लिबास में लिपटे अमीरों और शाही ख़िदमतगारों की दो-पंक्ति कतारें खड़ी हैं. पूरे हुजूम की नज़रें रह-रहकर दौलतख़ाना-ए-आली से चारमीनार की तरफ निकलने वाली सड़क पर जा टिकती हैं. इन तरुणों को युवा बादशाह का इन्तज़ार है. गरदनों की दाएं-बाएं-ऊपर-नीचे हलचल के साथ रंग-बिरंगे शमलों और रूमालों का लहराना समन्दर की बेचैन लहरों का समां बान्ध रहा है.

सुबह दस बजा चाहते हैं. शाही निशान का हाथी चारमीनार के पहलू में पहुँच गया है. हाथी पर नज़र पड़ते ही मजमे में शोर-शराबा शान्त हो गया है. हर कोई बादशाह के दीदार की कोशिश कर रहा है. इन्हें यक़ीन है कि बादशाह सलामत का मुखड़ा नज़र आ जाए तो साल भर की मुसीबतें दूर हो जाएंगी.

शाही निशान के हाथी के बाद दूसरे बहुत सारे हाथी नज़र आए. रौबदार लिबास, कमर में तलवारें, पीठ पर ढालें और हाथ में तीर-कमान से लैस तातारी घोड़ों पर सवार कोई डेढ़ सौ सिपाही कतार दर कतार चारमीनार के नीचे दो-दो की पंक्ति बान्धकर खड़े हो गए. फिर एक और दस्ता तुरही फूँकते और शहनाई बजाते हुए मैदान में दाखिल हो रहा है. इस दस्ते के पहुँचने के साथ ही मजमा दो फाँकों में बँटकर ख़ासा चौड़ा रास्ता खुल जाता है. चमत्कार भरा यह नज़ारा देखने वालों ने महसूस किया, जैसे हज़रत मूसा ने भयंकर आँधी-तूफ़ान में इस्माईल को नील नदी पार कराने के लिए रास्ता बना दिया हो. अगल-बगल पचास-साठ प्यादों से घिरे घोड़े पर सवार बादशाह सलामत आगे बढ़ रहे हैं. नक़ीब[i] बचो-बचो, नज़रें नीची करो चिल्ला रहे हैं. चोबदार सोना मढ़ी हुई लाठी लिए हुए मजमे से रास्ता खाली करा रहे हैं. संगी-सवारों के पास बरछे हैं. कुछ के पास मोरछल. वे बादशाह सलामत पर दोनों ओर से मोरछल झल रहे हैं. धूप से बचाने के लिए बादशाह के सिर पर 
छत्र की छाया. 

जहाँपनाह अमीरों और ख़िदमतगारों से भरे शामियाने में दाखिल हो रहे हैं. शाही नक़ीब बुलन्द आवाज़ में एलान कर रहा है -–आला हज़रत, ज़िल्लेसुभानी जाँनशीन सरीर-ए-सल्तनत-ओ-कामरानी मुआदलत पनाह सुल्तान मुहम्मद शाह हुक्म फ़रमाते हैं, “यहाँ जमा शहर के शरीफ़ और कुलीन लोगों में बारह साल की उम्र से अब तक जिसकी एक भी नमाज़ वक़्त से न टली हो, वह शख़्स आगे बढ़े और अपने हाथ से ख़ुदा के घर का संग-ए-बुनियाद रक्खे.”

सन्नाटा छा गया है. लगता है, इंसान पत्थर की मूर्तियां बन गए हैं. साँस लेने तक की आवाज़ सुनाई नहीं देती. चन्द लम्हों बाद नक़ीब ने इस हुक्म को दोहराया. हर शख़्स दूसरे की तरफ देखने लगता है. मजमे का मजमा इन्तज़ार कर रहा है कि यह गौरव किस बड़भागी को हासिल होगा. कोई हलचल नहीं. एक मुहल्ले के बाशिन्दे दूसरे मुहल्ले के बाशिन्दों को तो एक टोली दूसरी टोली के लोगों को देख रही है. लगता है, सब के सब किसी जंजीर से बन्धे हैं. किसीको भी हलचल करने तक की इजाज़त नहीं है.  

थोड़ी देर बाद शाही नक़ीब तीसरी बार ज़रा और विस्तार से रुक-रुककर मजमे को शाही हुक्म समझा रहा है. यह क्या! सन्नाटा तोड़कर भीड़ को चीरते हुए दो शख़्स आगे बढ़ते नज़र आ रहे हैं. इनमें से एक इस्लामी कानून के मुताबिक कसम खाने के बाद अर्ज़ करता है:
“बारह बरस की उम्र से अब तक कोई नमाज़ वक्त से नहीं टली. अलबत्ता, एक रोज़ सुबह की नमाज़ में दूसरी रक़्अत[ii] पढ़ रहा था कि सूरज निकल आया.”
दूसरे शख़्स ने भी कसम खाकर कहा, “एक बार सुबह की नमाज़ पढ़ी थी, लेकिन सूरज ऊगने का वक्त हो गया था. शक होने पर नमाज़ दुबारा पढ़ी थी. सिवा इसके हर नमाज़ वक्त पर अदा की है.”
दोनों बयानों से मजमे में हलचल मचने लगी थी. सुल्तान मुहम्मद खुद आगे बढ़े. पवित्र क़ुरआन की कसम खाई और बा-आवाज़ बुलन्द कहने लगे, “जिसके घर की बुनियाद डालनी है, उस एक-अकेले परमपिता की क़ुव्वत और दबदबे की कसम, बारह साल की उम्र से आज तक, आधी रात के बाद की नमाज़ समेत, पाँचों वक्त की नमाज़ हर रोज़ वक्त पर पूरी हुई है.” खुद सुल्तान ने मस्जिद की बुनियाद का पत्थर सिर पर उठाया और उसे नींव में रखकर मस्जिद की तामीर की शुरुआत की. नमाज़ के पाबन्द दोनों भाग्यशाली नौजवानों को बादशाह ने भर थाल सोना और जवाहरात इनाम में दिए.                                  
(सन् 1613)

-मूल:सैयद मुहीउद्दीन क़ादरी
-पुनर्सृजन: बृहस्पति शर्मा
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[i] बादशाह की सवारी के आगे आवाज़ लगाता चलने वाला राज-कर्मचारी
[ii] नमाज़ में एक क़याम (खड़ा होना), एक रक़्अ (झुकना) और दो सज़्दों (ज़मीन पर माथा टेकना) का योग