Thursday 10 November 2011


                   भारत में मन्दिर निर्माण :  
            आन्‍ध्र की काकतीय कला और स्‍थापत्‍य

भारत में सामुदायिक धार्मिक स्‍थापत्‍य की परम्‍परा वैदिक काल (ईसा पूर्व 1500-700) से चली आ रही है. वैदिक धर्म में आस्‍था रखने वाले इतिहासकार मानते हैं कि ईश्‍वर की प्रार्थना-उपासना के लिए मन्दिर की इमारत का निर्माण यज्ञ-वेदी को केन्‍द्र में रखकर किया जाता था. यह एक सादा-चौकोर कक्ष होता था. इससे एक और मण्‍डप जुड़ा होता था. इसकी लक्‍कड़-फूस की छत साधारणत: क्रमश: शंक्वाकार और सपाट होती थी. गुप्‍त काल (चौथी से छठी ईस्‍वी) तक आते-आते इस सीधी-सादी कच्‍ची इमारत ने मन्दिर के अत्‍यन्‍त बुनियादी ढॉंचे का शाश्‍वत रूप ग्रहण कर लिया. इस पर कारीगरी की मज़बूती, बारीकियां, नज़ाकत, सजावट, स्‍थापत्‍य तथा आकृतिमूलक अलंकरण छाता चला गया.

इतिहासकारों का दूसरा वर्ग वैदिक काल में संरचनात्‍मक देव मन्दिरों (Structural Temples) के अस्तित्‍व से इनकार करता है. ऐसे सबसे प्रारम्भिक मन्दिर के अवशेष एक फ्रेंच पुरातत्‍वविद् ने सन् 1951 में सुर्ख़ कोतल, अफ़गानिस्‍तान में खोजे थे. यह मन्दिर ईश्‍वर को समर्पित नहीं है. यह राजा कनिष्‍क (127-151 ईस्‍वी) को समर्पित है.

इस्‍लाम की मान्‍यता के अनुसार बादशाह अल्‍लाह का साया (ज़िल्‍लेसुबहानी, ज़िल्‍लिल्‍लाह, ज़िल्‍लेइलाही) होता है तो हिन्‍दू मान्‍यता के अनुसार राजा, ईश्‍वर का प्रतिनिधि. बादशाह और राजा दोनों के ही विशिष्‍ट निवास होते हैं -- महल. फिर क़ायनात के शहंशाह और ब्रह्माण्‍ड के राजाधिराज का अनन्‍य निवास तो निरपवाद रूप से होना चाहिए. विशेष्‍ा रूप से तब, जब मनुष्‍य ने वैदिक काल के अन्तिम दौर में ईश्‍वर की कल्‍पना को संकल्‍पना में परिवर्तित करके मूर्तिमान कर दिया. इतिहासकार के.ए.नीलकण्‍ठ शास्‍त्री कहते भी हैं, ‘तमिल भाषा में मन्दिर और महल दोनों के लिए एक ही संज्ञा है ‘कोयिल’ और इसी प्रकार संस्‍कृत में ‘प्रासाद’.
   
कृष्‍णा नदी की उपत्‍यका में 150 ईस्‍वी के आसपास बुद्ध प्रतिमा की रचना के बाद तो पूजा-स्‍थल के रूप में चैत्‍य-स्‍तूपों के निर्माण की शृंखला ही चल पड़ी. बौद्ध और जैन सम्‍प्रदायों ने आन्‍ध्र वासियों की सृजनात्‍मक प्रतिभा की जैसे भूख जगा दी. आन्‍ध्र वासियों ने रोचक परम्‍पराओं का सूत्रपात करके बौद्ध निर्माण-कला में बडा़ भारी योगदान दिया. आन्‍ध्र के कारीगरों ने इतने विशाल चैत्‍य खड़े कर दिए कि उन्‍हें चैत्‍य शैल की संज्ञा दी गई. इनके बनाए भीमकाय स्‍तूप उत्‍कृष्‍ट अभियान्त्रिकी कौशल के महान स्‍मारक हैं. ये चैत्‍य वृत्‍तायतन और शालायतन (गजपृष्‍ठ) दोनों ही प्रकार के होते थे. माना जाता है कि परवर्ती पौराणिक (=ब्राह्मण=हिन्‍दू) मन्दिर इन्‍हीं चैत्‍य-स्‍तूपों के प्रतिदर्श (Model) पर विकसित हुए. श्री नीलकण्‍ठ शास्‍त्री कहते हैं, अब यह तथ्‍य सर्वमान्‍य है कि मन्दिर-भक्ति मूल वैदिक धर्म का हिस्‍सा नहीं है’.

आगे श्री एल.एम.जोशी कहते हैं, इस समय तक यज्ञानुष्‍ठान के स्‍थान पर मन्दिर-अनुष्‍ठान लोकप्रिय हो गए थे.’ यहॉं अमरावती का उल्‍लेख प्रसंगोचित होगा. आनन्‍द कुमारस्‍वामी ने इसे 200 ईस्‍वी पूर्व निर्मित स्‍तूप माना है. अमरावती से ही प्राप्‍त एक पूजित मूर्ति बताती है कि स्‍तूपयुक्‍त मन्दिरों  का निर्माण भक्ति-स्‍थल के रूप में किया जाता था.

श्री बी एस एल  हनुमन्‍त राव बताते हैं कि एकदम प्रारम्भिक हिन्‍दू मन्दिरों के अवशेष आन्‍ध्र में नागार्जुनकोण्‍डा घाटी में पाए गए हैं -- ऐन बौद्ध क्षेत्र के बग़ल में. श्री एन रमेशन के अनुसार यह भगवान शिव को समर्पित ध्‍वजस्‍तम्‍भ युक्‍त पुष्‍पभद्रस्‍वामी मन्दिर है. भारत भर में यही प्राचीनतम मन्दिर होना चाहिए. मन्दिर स्‍थापत्‍य और मन्दिरगत मूर्तिशिल्‍प की परम्‍परा पल्‍लव सम्‍भवत: यहीं से  महाबलिपुरम् तथा चालुक्‍य अपने साथ वातापी (बादामी) लेते गए थे.

नीरद सी.चौधरी के अनुसार सबसे पुराने सामुदायिक मन्दिर(Community Temple) चौथी-पॉंचवीं सदी के हैं. छठी से सोलहवीं सदी के बीच मन्दिर स्‍थापत्‍य का बीजभूत विकास हुआ. संरचनात्‍मक मन्दिर निर्माताओं ने सातवीं से ग्‍यारहवीं सदी के दौरान मन्दिर के रूप को शैलीगत सौन्‍दर्य के शिखर पर पहुँचा दिया. हिन्‍दू मन्दिरों के विकास का चरण विभिन्‍न राजवंशों के उत्‍थान-पतन से जुडा़ रहा -- विशेष्‍ा रूप से दक्षिण भारत में, देखें-

पश्चिमी चालुक्‍य       543-753 ईस्‍वी  बादामी, पट्टदकल
राष्‍ट्रकूट             753-982 ईस्‍वी  ऐहोळे, एलोरा, एलिफेंटा
पल्‍लव              600-900 ईस्‍वी  महाबलिपुरम, कांचीपुरम्
पूर्वी चालुक्‍य         सातवीं से ग्‍यारहवीं सदी
चोल                नवीं से तेरहवीं सदी
पाण्‍ड्य              सातवीं से सोलहवीं सदी

यहीं यह संकेत भी सूचनात्‍मक होगा कि मौर्य-काल से ही शैलभंजित (Rock-Cut) मन्दिरों की समान्‍तर परम्‍परा आठवीं सदी तक निर्विघ्‍न रूप से आगे बढ़ती रही. आन्‍ध्र में नेल्‍लूर के पास भैरवकोण्‍डा में कोण्‍डवीडु सामन्‍तों के बनवाए हुए और उण्‍डवल्‍ली के शैलभंजित मन्दिर भी सातवीं-आठवीं सदी के ही हैं.      

उत्‍तर भारत में जिस समय संस्‍कृत-प्राकृत के विराट क्षितिज से हिन्‍दी भाषा का चन्‍द्रोदय हो रहा था, लगभग उसी समय दक्षिण भारत के आन्‍ध्रदेश में काकतीय नामक राजशक्ति का सूर्योदय हो रहा था. ग्‍यारहवीं सदी के तीसरे दशक से पहले 150 वर्ष तक सामन्‍तों के रूप में और फिर अगले पौने दो सौ बरस तक सम्‍प्रभु नरेशों के रूप में --कुल 325वर्ष-- इस राजवंश ने मन्दिर निर्माण में स्‍थापत्‍य और मूर्तिशिल्‍प का अद्भुत शृंखलाबद्ध विकास किया.

मन्दिरों के इन दोनों पहलुओं में काकतीय स्‍थपति और शिल्‍पी दोनों ने ही बला की सौन्‍दर्य-चेतना का प्रदर्शन किया है.  

काकतीय स्‍थापत्‍य और मूर्तिकला का दृश्‍य सौन्‍दर्य
पूर्वी दक्खिन के इस राजवंश ने अपने काल के प्रमुख कलात्‍मक घटनाक्रम को इस समय जोड़कर देख सकने के लिए हमारे सामने स्‍थापत्‍य, मूर्तिकला और चित्रकला तक का भारी खज़ाना छोड़ रखा है. बहुत ही उपयुक्‍त संख्‍या में आभूषणों से सजी पूरी ऊँचाई पर पहुँची हुई छरहरी मानव आकृतियां जैसे शातवाहन और ईक्ष्‍वाकु राजवंशों से होकर पल्‍लव, चोल और अन्‍य कलमों से गुज़रते हुए न केवल काकतीय कला की पहचान बन गई हैं, बल्कि वे दक्षिण भारत के पूर्वी तट की कलात्‍मक शैलियों को जोड़ने वाली कड़ी भी हैं. काकतीय कला को देखने पर यह बात अच्‍छी तरह उभरकर आती है कि इसने अपने आपको स्‍थानीय परम्‍परा की जड़ों से कभी कटने नहीं दिया. अलावा इसके, काकतीय शैली और दक्खिन की परवर्ती हिन्‍दू शैलियों में साम्‍य भी नज़र आता है. यह इस बात का संकेत है कि काकतीय अपनी कला में दक्षिण भारत के अन्‍य राजपरिवारों से राजनीतिक सम्‍बन्‍ध भी कला के माध्‍यम से प्रतिबिम्‍बित करना चाहते थे. इन राजपरिवारों में हम कल्‍याणी के उत्‍तरवर्ती चालुक्‍यों का नाम ले सकते हैं, जिनका प्रभुत्‍व आन्‍ध्र प्रदेश क्षेत्र तक पहुँच गया था. भारत की बहुतेरी अन्‍य कलाओं के विपरीत, सुखद आश्‍चर्य की बात है कि बहुसंख्‍यक काकतीय स्‍मारकों के निर्माण की सही-सही तारीखों के शिला अभिलेख उपलब्‍ध हैं. फिर इनमें से बहुत सारे स्‍मारक सघन अध्‍ययन के लिए अनुसन्‍धाताओं की बाट जोह रहे हैं. काकतीय स्‍मारक ग्‍यारहवीं-बारहवीं सदी की दक्खिनी इमारतों का भली प्रकार संजोया हुआ अभिलिखित अनुक्रम पेश करने में समर्थ हैं और यही सर्वोत्‍कृष्‍ट निर्माण-गतिविधियों का काल भी है, तो ये स्‍मारक आज के दिन ऐतिहासिक-वैज्ञानिक दृष्टि से अपने अध्‍ययन का तकाज़ा करने वाले प्रबल अभ्‍यर्थी हैं.

काकतीय मन्‍दिरों की योजना सामान्‍यत: इकहरे देवालय वाली है या फिर तीन देवालय वाली त्रिकूटाचल. प्रारम्भिक काकतीय राजधानी हनुमकोण्‍डा स्थित तथाकथित सहस्र स्‍तम्‍भ मन्दिर त्रिकूट प्ररूप दर्शाता है. काकतीय राजवंश के नरेश रुद्र प्रथम ने इसे सन् 1162 में तीन देवताओं को समर्पित किया था : रुद्रेश्‍वर (शिव), वासुदेव (विष्‍णु) और  सूर्यदेव. एक शिलापट्ट पर इसका अभिलेख मन्दिर ही में मौजूद है. इमारत के दो प्रमुख हिस्‍से -- वियुक्‍त मण्‍डप और वास्‍तविक मन्दिर एक अपेक्षाकृत संकरे चबूतरे के ज़रिए जुड़े हैं. इस पर नन्‍दी की मूरत विराजमान है. सहस्र स्‍तम्‍भ मन्दिर नाम गुमराह करने वाला नाम है, क्‍योंकि वास्‍तविक मन्दिर में इतने सारे स्‍तम्‍भ हैं ही नहीं. वियुक्‍त मण्‍डप में भी स्‍तम्‍भ तीन सौ से कम ही होंगे. अलबत्‍ता, रुद्रेश्‍वर देवालय अवश्‍य श्लिष्‍ट है -- रुद्र राजा भी और रुद्र शिव भी. वियुक्‍त मण्‍डप और वास्‍तविक मन्दिर की दीवारों पर गुम्फित गढ़तें नजा़कत से तराशी गई हैं तो पादांग (Plinth) और दीवारों दोनों पर ही प्रक्षिप्‍त चित्र. मन्दिर के मुख्‍य मोटिफ़ (Motif) आलंकारिक मूर्तिशिल्‍प विहीन नहीं हैं. इनमें लघुकाय मन्दिर शिल्‍पों समेत स्‍थापत्‍य रूपों का समावेश किया गया है. ये बहुत सारी अन्‍य दक्खिनी शैलियों की याद दिलाते हैं. दुर्भाग्‍यवश, तीनों ही देवालयों का ऊपरी ढॉंचा नदारद है. इसलिए इनकी मूल बाह्याकृति अज्ञात ही बनी रहेगी. अलबत्‍ता, भीतर की ओर उत्‍कीर्ण शिल्‍प लबालब समृद्ध है. बहुत ही नाजु़क और परिनिष्ठित प्रतिमाएं सिरजने के लिए जैसे एक-एक पत्‍थर की सतह को चिकना-चमकाकर तराशा गया है. द्वारमण्‍डप की ओर से तीनों देवालयों से जुड़े केन्‍द्रीय मण्‍डप पर नज़र डालें तो तक्षण शिल्‍प की भरपूर सज्‍जा के दर्शन हाते हैं. विशेषत: ठेठ दक्खिन की अनेक उप-शैलियों का निर्वहण करते स्‍तम्‍भ-अभिकल्‍प (Design) इस कारीगरी के महत्‍वपूर्ण तत्‍व हैं. उत्‍तर भारतीय विविध शैलियों के बहुतेरे मन्दिरों की तरह, दक्षिण में प्रारम्भिक पश्चिमी चालुक्‍य परम्‍परा का निर्वाह करते मन्दिरों की तर्ज़ पर अन्‍तश्‍छद (Ceiling) भी विस्‍तार से तराशी गई है -- मुख्‍य रूप से ज्‍यामितीय और बेल-बूटे के प्रतिमान (Patterns). तराश का सबसे सुन्‍दर काम तीनों देवालयों के प्रवेश-मार्ग में दिखाई देता है, जिनके अपने बाहरी भित्तिस्‍तम्‍भ (Pilaster) युक्‍त द्वारमण्‍डप हैं. ये हमें मुखशाला (Antechamber) होते हुए देवालय के द्वार पर पहुँचा देते हैं. तीनों देवालयों के बीच सन्धि-स्‍थलों पर निर्मित मुखमण्‍डप (Porch) से होकर मन्दिर के केन्‍द्रीय मण्‍डप में यथेष्‍ट रोशनी दाखि़ल होती है.  

हनुमकोण्‍डा से 60 कि.मी. उत्‍तर-पूर्व में छोटा-सा गॉंव भर रह गया है पालम्‍पेट. काकतीय काल में इसका जीवनावश्‍यक महत्‍व था. सन् 1213 के एक शिला अभिलेख से पता चलता है कि इसे काकतीय नरेश गणपति के सेनापति रेचेर्ल रुद्र ने बसाया था. इसी अभिलेख से पता चलता है कि पालम्‍पेट का चर्चित-प्रसिद्ध रामप्‍पा मन्दिर सेनानायक रुद्र ने अपने नरेश गणपति देव को उपहार में दिया था. इसे रुद्र के नाम पर श्लिष्‍ट रूप में रुद्रेश्‍वर भी कहते हैं -- शिव के रुद्र रूप को समर्पित. प्राय: कहा जाता है कि रामप्‍पा मन्दिर उत्‍कृष्‍ट दक्खिनी स्‍थापत्‍य का प्रतिनिधि है, जबकि यह पूरी तरह से ठेठ काकतीय इमारत नहीं है. दीवार से घिरे लम्‍बे-चौड़े अहाते के भीतर रामप्‍पा एकल-देवालय वाला मन्दिर है. अहाते में बहुत सारी छोटी इमारतें भी हैं. इस पूर्वाभिमुख मन्दिर में स्‍तम्‍भों पर आधारित मण्‍डप हैं और हैं तीन ओर निकले हुए बड़े-बड़े मुखमण्‍डप, मुखशाला ओर वास्‍तविक मन्दिर. ये सभी एक विशाल स्‍वस्तिकाकार पादांग पर टिके हैं. बाहर की ओर से मुखमण्‍डप और केन्‍द्रीय मण्‍डप अपने प्रक्षेपण और सपाट छत के साथ तीखे कोणाकार नज़र आते हैं और पश्चिम में ईंटों से निर्मित वितान से विपर्यास (contrast) उत्‍पन्‍न करते हैं. दक्षिण भारत के अन्‍य उदाहरणों की तरह शिखर उत्‍तर और दक्षिण भारतीय रूपों का संगम प्रस्‍तुत करता है -- इसमें दक्षिण भारतीय शिखरों के सोपानित क्रम के साथ उत्‍तर भारतीय शिखरों की जटिलता, बारीकियां और  समग्र आकृति का समन्‍वय जो किया गया है.
                                                         
इस मन्दिर की सबसे उल्‍लेखनीय विशेषता है इमारत के भीतर और बाहर उत्‍कीर्ण कला की गुणवत्‍ता, विशेष रूप से द्वारमण्‍डप पर और छत के नीचे. अन्‍तत: प्रारम्भिक पश्चिमी चालुक्‍य पद्धति को जारी रखते हुए पालम्‍पेट रामप्‍पा में नजा़कत से तराशी हुई, महीनता से प्रसंस्‍कृत और शीशे की तरह चमकाई हुई नारी आकृतियां अपनी मिसाल आप हैं. इन लगभग आदमकद मूर्तियों को मदनिका (Bracket Figures) कहते हैं. ये सभी विभिन्‍न नृत्‍य मुद्राओं और भंगिमाओं में लीन हैं. यौवन इनसे फूटा पड़ रहा है. देह का अनुपात किसी भी आधुनिक विश्‍व सुन्‍दरी को लजा दे. इस समय तक सुन्‍दर स्‍त्री का मोटिफ़ अलसा कन्‍या के रूप में शास्‍त्रबद्ध हो गया था. सम्‍भवत: इस समय तक रची जा चुकी स्‍थापत्‍य संहिता शिल्‍प प्रकाश ऐसी महत्‍वपूर्ण षोड़श कन्‍याओं का निरूपण करती है. इस ग्रन्‍थ के अनुसार अलसा तो स्‍थापत्‍य की प्राण है. यह मान्‍यता दृढ़ रूप ले चुकी थी कि स्‍त्री के बिना मन्दिर निष्‍फल होता है. यहॉं एक-एक मदनिका जैसे एक-एक दिशा से मन्दिर में जीवन का संचार कर रही है. सभी असाधारण रूप से छरहरी (आन्‍ध्र प्रान्‍त का शैलीगत अधिमान) कमनीय, रमणीय, अत्‍यन्‍त सुचिक्‍कण त्‍वचा, जिसे आभूषणों और परिधान की बारीकी से अलग दृश्‍यमान रूप दिया गया है. बहुत सारी मूर्तियों की मुद्राएं इतनी ज्‍़यादा अनुशासित रखी गई हैं कि इनसे कलाकारों को पूरे दक्षिण एशिया में प्रचलित समकालीन अन्‍य स्‍तरीय शैलियों के ज्ञान का पता भी चल जाता है. इन मूर्तियों के साथ सामान्‍यत: बहुत बारीकी से तराशे हुए लता-कुंज या लताएं जुड़ी हैं. इससे ठेठ काकतीय संगतराश की बारीकियों की अभिव्‍यक्ति में रुचि ज़ाहिर होती है.
      
मन्दिर के भीतर स्‍तम्भित मण्‍डप की परिधि पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लघु देवालयों से युक्‍त बेंचें इसकी आकर्षक विशेषता है. एक लघु देवालय में गणेश की मूर्ति है तो दूसरे में दुर्गा का महिषासुर मर्दिनी रूप. शैली में ये आकृतियां मदनिकाओं से मिलती-जुलती ज़रूर हैं, लेकिन इनके रूप में वह लोच नहीं है. दुर्गा की अनेक पूर्ववर्ती मूर्तियों के विपरीत इस झाँकी में भैंसा बहुत दबा-दबा है और विजयिनी दुर्गा का वर्चस्‍व पूरी रचना पर छाया हुआ है. भवानी के सिर के पीछे नुकीले कोण वाला चाप अनेक काकतीय शिल्‍प कृतियों में दिखाई देता है. हॉं, वह प्राय: अलंकृत होता है, सादा नहीं. मन्दिर की अन्‍तश्‍छद को भी सघन रूप से तराशा गया है.
                              
थोड़े में बहुत कहना हो तो रामप्‍पा मन्दिर की खूबसूरती को बयान करने की कोशिश शब्‍दों की असमर्थता बयान करने जैसी है. भारत का यह एकमात्र मन्दिर है, जो अपने निर्माता नरेश-नायक के नाम से नहीं, बल्कि अपने स्‍थपति के नाम से जाना जाता है.

अभी यह लेख लिखा ही जा रहा था कि 28 जुलाई 2011 को  Times of India ने मुख-पृष्‍ठ पर एक दु:खद खबर छापी. गोदावरी नदी पर निर्माणाधीन देवदुला सिंचाई परियोजना के लिए रामप्‍पा मन्दिर से महज़ आठ सौ मीटर की दूरी पर गुज़रती सुरंग की खुदाई के कारण मन्दिर जगह-जगह इस क़दर दरक गया है कि इसे गिरने से शायद भगवान भी न बचा सकें. गॉंववालों का कहना है कि सुरंग के लिए डायनामाइट के इस्‍तेमाल से मन्दिर की दीवारें, छत, स्‍तम्‍भ, शहतीर सभी तड़क गए हैं और बालुकाधारित तकनीक(Sandbox Technique) से बनी नींव बुरी तरह हिल गई है. इक्‍कीस किलोमीटर लम्‍बी इस सुरंग के अलावा, रामप्‍पा से धर्मसागर के बीच 58 किलोमीटर लम्‍बी एक और सुरंग पर भी कार्य चल रहा है. केन्‍द्रीय जल आयोग से सुरंग खोदने की अनुमति न मिलने के बावजूद राज्‍य सरकार ने लागत घटाने के लिए यह रास्‍ता अख्ति़यार किया. Times  of  India  की रपट के बाद सुरंग का काम रोक ज़रूर दिया गया, लेकिन इसे जो अपूरणीय क्षति पहुँचनी थी, पहुँच चुकी है.
     
परवर्ती दक्षिण भारतीय संस्‍कृतियों पर काकतीय कला का प्रभाव
                 
काकतीय राजवंश के पतन (सन् 1323) और विजयनगर साम्राज्‍य के उदय (सन् 1336) में केवल तेरह वर्ष का अन्‍तराल है. समझा जाता है कि विजयनगर सम्राज्‍य के संस्‍थापक हरिहर-बुक्‍का बन्‍धु अन्तिम काकतीय नरेश प्रतापरुद्र के राजकर्मी थे. काकतीय वंश के पतन के बाद वे भागकर काम्पिली चले गए थे. उनके पलायन से लेकर विजयनगर साम्राज्‍य की नींव डालने तक के रोमांचक विवरण इतिहास में मिल जाते हैं. अस्‍तु.
             
काकतीय और विजयनगर साम्राज्‍य में भौगोलिक, भाषिक और सांस्‍कृतिक साम्‍य है. विजयनगर का उत्‍तर-पूर्वी इलाका तो ख़ास तौर से तेलुगु और कन्‍नड़ भाषा-भाषियों का मिला-जुला इलाका रहा है. यहॉं के नागरिकों की बहुत सारी सांस्‍कृतिक-धार्मिक परम्‍पराएं साझी हैं. यह कहना अनुचित न होगा कि विजयनगर साम्राज्‍य, काकतीय सांस्‍कृतिक परम्‍परा का विस्‍तार ही है. साहित्‍य, कला और स्‍थापत्‍य में ऐसे अनेक तत्‍व हैं, जिन्‍हें देखकर लगता है कि ये तो काकतीय प्रान्‍त से चलकर विजयनगर के सॉंचे में ढल गए हैं. क्‍या मन्दिर-निर्माण, क्‍या स्‍थापत्‍य-शैली और क्‍या स्‍थापत्‍य-अलंकरण --विजयनगर ने सभी कुछ बहुत दूर-दूर तक काकतीय कला-स्‍थापत्‍य से ग्रहण किया है. काकतीय स्‍थापत्‍य परम्‍परा में अनेक स्‍तम्‍भों वाले जिन मन्दिरों को सहस्र स्‍तम्‍भ कहा जाता है, वैसे ही मन्दिरों को हम्‍पी में हजारराम मन्दिर कहा जाता है. अनेक स्‍तम्‍भ वाले मण्‍डपों की अवधारणा का उद्भव काकतीय स्‍थापत्‍य परम्‍परा की धरोहर है. निष्‍कर्षत: कह सकते हैं कि विजयनगर, काकतीय सौन्‍दर्य-परम्‍परा का औरस वारिस है.
                                
         -- बृहस्‍पति शर्मा     
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Saturday 15 October 2011



देवनागरी की दक्खिनी सहोदर
तेलुगु-कन्‍नड़ लिपियां

              
भारतीय संस्‍कृति की अद्वितीय उपलब्धि के रूप में बार-बार दोहराई जाने वाली आप्‍तोक्ति अनेकता में एकता वस्‍तुत: भारतीय वर्णमाला और लिपियों के मूलभूत एकत्‍व के सिवा कुछ नहीं है. भारतीय उप-महाद्वीप और वर्तमान भारत के विशाल भू-भाग की तो बात ही छोडि़ए, आन्‍ध्र प्रदेश के ही तीन भू-खण्‍डों -- तेलंगाणा, रायल सीमा और तटीय आन्‍ध्र -- की संस्‍कृति-सभ्‍यता में भी बला की भिन्‍नता है. बस, कहने भर को पूरे आन्‍ध्र प्रदेश की भाषा तेलुगु है. भारत की लगभग सभी भाषाओं ने जैसे ध्‍वनियों के लिए स्‍वानिकी संस्‍कृत की अपनाई है, वैसे ही उसकी लिखित प्रस्‍तुति के लिए लिपि-चिह्न ब्राह्मी के अपनाए हैं. इस प्रकार भारत की सांस्‍कृतिक एकता केवल और केवल यहॉं की भाषाओं में चरितार्थ हो पाई है.

भारत में मध्‍यवर्ती स्‍थान रखने वाली दो द्रविड़ भाषाएं -- तेलुगु और कन्‍नड़ -- राष्‍ट्र के यथा मान्‍य सांस्‍कृतिक एकत्‍व को पर्याप्‍तत: निरूपित करती हैं. इन भाषाओं की लेखन  प्रणाली और लिपियां ब्राह्मी के प्रति विपुल कृतज्ञता व्‍यक्‍त करती हैं. आन्‍ध्र-कर्नाटक के एक से दूसरे सिरे के बीच मिलने वाले अशोक कालीन और दूसरे शिला अभिलेखों से ब्राह्मी के व्‍यापक व्‍यवहार का पता तो चलता ही है, क्षेत्रीय विभेद भी साफ़ तौर पर समझ आते हैं. सैकड़ों बरस के काल-प्रवाह में ब्राह्मी की दक्खिनी किस्‍म धीरे-धीरे आदि तेलुगु-कन्‍नड़ लिपि के रूप में विकसित हुई. ठौर-ठौर के छोटे-मोटे विभेदों के साथ इस लिपि का प्रयोग दक्खिन के सभी शासक राजवंश सदियों तक व्‍यापक रूप से करते रहे. फिर दक्खिन का अड़ोस-पड़ोस भी इस प्रचलन से अछूता नहीं रह गया था. पच्छिम में बाणवासी कदम्‍ब नरेशों और बादामी के शुरुआती चालुक्‍य नरेशों के शिला अभिलेखों में इसी लिपि का प्रयोग हुआ है. पूरब में शालंकायन शासकों और वेंगी के प्रारम्भिक चालुक्‍य क्षत्रपों को भी हम इसी लिपि का प्रयोग करते देखते हैं. क्‍या पूरब और क्‍या पच्छिम, ईसा की सातवीं शताब्‍दी तक का समय गुज़र जाने के बाद भी तेलुगु-कन्‍नड़ के आद्य रूप में मिलने वाले शिला अभिलेखों में कोई ज्‍़यादा क्षेत्रीय विभेद दिखाई नहीं देते. इस काल के ज्‍यादा पुराने शिला अभिलेख शालंकायन और कदम्‍ब काल के शिला अभिलेखों की तुलना में गुफा ब्राह्मी वर्णों के अधिक निकट हैं. इस काल के परवर्ती शिला अभिलेखों में वर्णों के गोल-गोल रूप मिलने प्रारम्‍भ हो जाते हैं.
सातवीं शताब्‍दी के लगभग मध्‍य में तेलुगु-कन्‍नड़ लिपि के इस आद्य रूप का विकास जैसे एक बिचले रूप में हुआ. यह बिचला रूप दक्खिन और उसके अगल-बगल में कोई तीन सौ बरस तक प्रयोग में रहा. इधर पच्छिम में इस बिचले रूप का व्‍यापक प्रयोग  बादामी चालुक्‍यों, मान्‍यखेट के राष्‍ट्रकूटों, गंगवाड़ी के गंग शासकों, मैसूर और अन्‍य छोटी-मोटी रियासतों में देखने को मिलता है. उधर पूरब में वेंगी चालुक्‍य और उनके क्षत्रप इस लिपि का व्‍यापक प्रयोग करते थे. इस दौरान अलग-अलग शिला अभिलेखों में वर्णों का दाहिनी ओर झुकाव साफ नज़र आता है, जबकि पूरबी चालुक्‍यों के शिला अभिलेखों में वर्ण चौकोर और सीधे खड़े हैं. इसी बीच पाद-स्‍वरों की लेखन पद्धति में परिवर्तन की शुरुआत नज़र आने लगती है. यह परिवर्तन आगे चलकर एक ओर तेलुगु-कन्‍नड़ लिपि के तो दूसरी ओर ग्रन्‍थ लिपि के बीच प्रमुख भेद बन गया. फिर यही व्‍यंजनों की ध्‍वन्‍यात्‍मक लम्‍बाई और व्‍यंजनों के नीचे अंकित पादाक्षर-चिह्नों को व्‍यंजन के दाहिनी ओर लाने वाला चिह्न भी बन गया.

तेलुगु और कन्‍नड़ भाषाएं पहली बार इस काल में शिला अभिलेखों में अवतरित हुईं. इस समय तक शिला अभिलेखों की लिपि भले ही तेलुगु-कन्‍नड़ होती थी, लेकिन भाषा या तो प्राकृत होती थी या फिर संस्‍कृत. हॉं, इन अभिलेखों में अपने-अपने इलाके के तेलुगु और कन्‍नड़ के शब्‍द ज़रूर मिल जाते थे, ख़ास तौर से व्‍यक्तियों और गॉंवों के नाम के मामले में. सबसे पुराने कन्‍नड़ शिलालेखों में से एक बादामी में वैष्‍णव गुफा के बाहर चालुक्‍य मंगलेश (598-610ई) का है. एक और ऐसा अभिलेख है काकुस्‍थवर्मन का हलमिडि शिला अभिलेख . पुलकेशिन द्वितीय के 634 ई. के ऐहोळे शिला अभिलेख के अन्‍त में कन्‍नड़ में पृष्‍ठांकन है, जबकि पूरा अभिलेख संस्‍कृत में है. हो सकता है, पृष्‍ठांकन तनिक बाद में जोड़ा गया हो. दूसरी ओर बादामी चालुक्‍यों के ज्‍़यादातर ताम्र-पत्र संस्‍कृत में हैं, लेकिन अधिकतर शिला अभिलेख कन्‍नड़ में अब तक ज्ञात सबसे पुराने तेलुगु शिला अभिलेख रेनाडु के तेलुगु चोल शासकों के हैं. ये पाषाण अभिलेख हैं और आन्‍ध्र प्रदेश के अनन्‍तपुर तथा कड़पा जिलों में मिलते हैं. इन्‍हें छठी से आठवीं सदी के बीच का माना जाता है. कुल मिलाकर ऐसे आठ अभिलेख हैं और सब के सब तेलुगु भाषा में हैं. इस काल में भी तेलुगु और कन्‍नड़ साफ़ तौर पर दो अलग-अलग भाषाओं के रूप में मिलती हैं, लिपि हालांकि दोनों की एक ही है. कालमल्‍ल के तेलुगु चोल शिला अभिलेख में कतिपय वर्ण तमिल ग्रन्‍थ वर्णों से मिलते-जुलते हैं, मिसाल के तौर पर लृ लिपि-चिह्न. इसी काल के इरागुडिपाडु शिला अभिलेखों को ही लें. एक तेलुगु शिला अभिलेख में द्रविड़ ध्‍वनि लृ मिलती है. तमिळ-मळयालम भाषाओं में आज भी शेष यह ध्‍वनि, तेलुगु-कन्‍नड़ में नि:शेष हो गई है. यह ध्‍वनि एक प्रकार का मूर्धन्‍य-संघर्षी व्‍यंजन है, जिसे नवीं सदी के लगभग मध्‍य में तेलुगु ने तज दिया और कुछ समय बाद कन्‍नड़ ने भी बाहर कर दिया.

तेलुगु-कन्‍नड़ लिपि के विकास का अगला चरण संक्रमण चरण कहलाता है. इस चरण में प्रयुक्‍त रूप आधुनिक तेलुगु-कन्‍नड़ लिपि से बहुत भिन्‍न नहीं है. पूरब में यह रूप पहले-पहल लगभग ग्‍यारहवीं सदी के पूर्वी चालुक्‍यों के शिला अभिलेखों में दिखाई देता है. पश्चिम में अलबत्ता यह तनिक पहले के गंग शिला अभिलेखों में दिखाई देता है. धीरे-धारे करके यह चरण इन लिपियों को लगभग तेरहवीं सदी में अगले चरण में पहुँचा देता है और इसमें अन्‍तर धीमे ही सही, लेकिन दोनों लिपियों को निश्चित रूप से अलग कर देता है. दरअसल, इस काल में एक तेलुगु कवि मंचन्‍ना तेलुगु के लिए ख़ास तौर से आन्‍ध्रलिपि शब्‍द का प्रयोग करते हैं.
                  
इस संक्रमण काल में ही वर्णों की अपनी नोक-पलक का विकास हुआ, जिसे अब हम तेलुगु-कन्‍नड़ लिपियों में देखते हैं. कन्‍न्‍ड़ में दीर्घ मध्‍यम स्‍वरों का अंकन व्‍यंजन के दाएं उसी पंक्ति में लिपि-चिह्न रखकर प्रारम्‍भ हुआ. यही वह समय था, जब महाप्राण वर्णों को उनके ध्‍वनि उच्‍चारण चिह्न प्राप्‍त हुए और बिन्‍दु रूप अनुस्‍वार भी वर्ण-शीर्ष से लुढ़़कता-लुढ़कता अन्‍तत: सुन्‍ना या शून्‍य रूप में दो व्‍यंजन वर्णों के बीच जगह बना बैठा. कन्‍नड़ में रेफ़युक्‍त व्‍यंजन रूप की विशेषता सुरक्षित रही. यह कन्‍नड़ में अब तक प्रचलित है, जबकि तेलुगु ने इसे पिछली सदी में बाहर कर दिया. महाप्राण-अनुस्‍वार की यह अत्‍यन्‍त प्राचीन पद्धति चौथी सदी के शालंकायन शिला अभिलेखों, छठी सदी के विष्‍णुकुण्डिन अभिलेखों और सातवीं-आठवीं सदी के पल्‍लव शिला अभिलेखों में ग्रन्‍थ लिपि और तेलुगु-कन्‍नड़ लिपियों दोनों ही में पाई जाती है. यह संक्रमण काल कुछ समय के लिए तब तक चलता रहा, जब तक कि लगभग विजयनगर शासकों के काल में ये दोनों लिपि रूप अन्‍तत: जुदा नहीं हो गए.

उन्‍नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में छपाई की शुरुआत के साथ ही इन दोनों ही लिपियों ने अभूतपूर्व मानकीकृत रूप और एकरूपता हासिल की. इसके साथ ही दोनों लिपियों की जुदाई सम्‍पन्‍न हो गई. परन्‍तु, आज भी दोनों में से कोई एक लिपि जानने वाले व्‍यक्ति के लिए दूसरी लिपि पढ़ पाना बहुत कठिन नहीं है. इससे दोनों लिपियों की सदियों पुरानी सोहबत और सहोदर रिश्‍ते का पता चलता है.

अब नन्‍दीनागरी लिपि. विजयनगर शासकों ने संस्‍कृत भाषा में लिखित अपने ताम्रपत्र अनुदानों और यथा अवसर शिला आभिलेखों के लिए भी व्‍यापक रूप से उत्तर भारत की देवनागरी के जिस दक्खिनी रूप का प्रयोग किया, उसे नन्‍दीनागरी कहते हैं. चन्‍द्रगुप्‍त विक्रमादित्‍य द्वितीय के नगर  (=महानगर) पाटलिपुत्र का दक्खिनी प्रतिरूप था पहले वाकाटक साम्राज्‍य और बाद को राष्‍ट्रकूटों का प्रसिद्ध स्‍थल नन्‍दीनगर (नान्‍देड़). इसी स्‍थल से मूलत: सम्‍बद्ध नन्‍दीनागरी में बीती सदियों में ताड़पत्रों पर संस्‍कृत पोथियां लिखी जाती रहीं. दक्षिण  भारत के प्राच्‍य विद्या पुस्‍तकालयों में इस प्रकार की पाण्‍डुलिपियां भरी पड़ी हैं.

नन्‍दीनागरी लिपि का उद्भव भारत के मध्‍य प्रान्‍त में प्रचलित नागरी के एक रूप से हुआ है. दक्खिनी नागरी के इस रूप को स्‍पष्‍टत: दर्शाने वाला सम्‍भवत: सबसे पुराना शिला अभिलेख राष्‍ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग (754 ई.) का सामांगड़ अनुदान है. दक्खिन में पाए जाने वाले ग्‍यारहवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों, बल्कि उससे तनिक पहले के शिला अभिलेखों में भी नागरी का यह दक्षिण भारतीय रूप पूर्णत: विकसित दिखाई देता है. वर्ण-विन्‍यास की सामान्‍य समरूपता के कारण सरसरी तौर पर नन्‍दीनागरी और देवनागरी लिपियां मिलती-जुलती दिखाई देती हैं. लेकिन, बारीकी से देखें तो इनके बीच अन्‍तर बड़े स्‍पष्‍ट हो जाते हैं, विशेष्‍ा रूप से कुछ ख़ास वर्णों में, जैसे मन्‍द उच्‍चरित ओष्‍ठ्य और , तालव्‍य ऊष्‍म . अन्तिम मकार और वर्ग अनुनासिकों तक के लिए वैकल्पिक अनुस्‍वार का प्रयोग इस लिपि की ठेठ खा़सियत है. तेलुगु-कन्‍नड़ लिपियों में यह अनुस्‍वार दो व्‍यंजनों के बीच उसी पंक्ति में अंकित किया जाता है. नन्‍दी- नागरी की यह विशेषता देवनागरी के प्रभाव स्‍वरूप है. यही नहीं, तेलुगु-कन्‍नड़ लिपियों में अर्धाक्षर के प्रयोग की पद्धति देवनागरी पद्धति से उल्‍टी है. ह्रस्‍व-दीर्घ , ह्रस्‍व-दीर्घ रेफ़युक्‍त के लिए स्‍वतन्‍त्र-एकल लिपिचिह्न और तेलुगु-कन्‍नड़ की अतिरिक्‍त उपलब्धियां हैं, जबकि इनके ककहरा में देवनागरी की तरह संयुक्‍त व्‍यंजन ज्ञ स्‍वतन्‍त्र वर्ण के रूप में सम्मिलित नहीं है.

नन्‍दीनागरी की चर्चा का समापन करते हुए इस ठेठ लिपि के दो-दो शिला अभिलेखों के विवरण देना चाहेंगे. पहले दो, दक्षिण भारत के बाहर से. ये दिलचस्‍प अभिलेख बताते हैं कि विजयनगर शासकों के अलावा भी इन्‍हें चाहने वाले पहले से रहे हैं.
            
पहले दोनों शिला अभिलेख प्रसिद्ध तीर्थ गया में मिले हैं. यहॉं गौरी नामक महिला ने अपने मृत पति मल्लिकार्जुन का श्राद्ध कराया. मल्लिकार्जुन वरंगल के काकतीय प्रतापरुद्र का समकालीन था. यह शिला अभिलेख गौरी ने लिखवाया था. बारहवीं सदी के इस लेख में कुछ वर्णों का झुकाव स्‍पष्‍टत: नन्‍दीनागरी की ओर है.
दूसरा अभिलेख होयसला नरसिंह तृतीय (तेरहवीं सदी) के काल का है. कन्‍नड़-भाषी क्षेत्र के एक भक्‍त ने गया में ही एक मठ का निर्माण कराया. लेख में इसीके विवरण हैं. इस अभिलेख का सबसे दिलचस्‍प आकर्षण इसकी भाषा है -- कन्‍नड़ और लिपि है नन्‍दीनागरीबिरला संजोग. गद्य में लिखित पच्‍चीस पंक्तियों के इस कन्‍नड़ अभिलेख का समुपयुक्‍त समापन कन्‍नड़ लिपि में देवरस नामांकित पंक्ति से होता है.

दो अन्‍य नन्‍दीनागरी अभिलेख दक्षिण भारत में प्राप्‍त ताम्र-पत्र अनुदान हैं. इनमें से एक 18 अप्रैल 1524 ईस्‍वी दिनांकित श्री कृष्‍णराय का पेय्यलबण्‍डा अनुदान है. संस्‍कृत छन्‍द और ठेठ देवनागरी लिपि में यह विजयनगर शासकों के समय का है.  लेकिन, इसकी 88 से लेकर 98 तक ग्‍यारह पंक्तियां नन्‍दीनागरी में लिखित कन्‍नड़ गद्य है. तेलुगु-कन्‍नड़ लिपि में लिखित श्री विरूपाक्ष से यह अभिलेख समाप्‍त होता है.
      
दूसरा ताम्र-पत्र 21 अप्रैल 1613 ईस्‍वी दिनांकित वेंकटपति देव प्रथम का कन्‍दुकुरु अनुदान है. इसमें तेलुगु अंकों का प्रयोग किया गया है. अभिलेख तेलुगु वर्णों में लिखित श्री वेंकटेश पर समाप्‍त होता है. इसमें तिरुपति के भगवान वेंकटेश्‍वर को भूमि और खेतों का अनुदान निर्दिष्‍ट है.

इस प्रकार दक्षिण भारत की लिपियां ही हैं, जो भारतीय संस्‍कृति के कथित एकत्‍व को उजागर और सम्‍पुष्‍ट करती हैं. शायद इसीसे कुछ लोग यह विचारणीय उद्गार व्‍यक्‍त करते हैं कि भारतीय संस्‍कृति राष्‍ट्र के एक कोने से दूसरे कोने तक एक है, लेकिन विभिन्‍न प्रान्‍तों में उसकी अभिव्‍यक्ति भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार से हुई है.                  
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                                                       -- बृहस्‍पति शर्मा