Friday 25 November 2016

हैदराबाद का लोक पर्व

बोनालु

इधर कश्मीर से कन्याकुमारी और उधर अटक से कटक तक भारत भूमि का हर अंचल लोक संस्कृति सम्पन्न है. आन्ध्र-तेलंगाणा के लोक पर्व और लोक कलाएं भी यहाँ की अलग-अलग रंग की माटी तथा विविधवर्णी परम्पराओं की अनन्य महक में सराबोर हैं. देवी-देवताओं,  विशेषतः ग्राम देवताओं की भक्ति में निमज्जित लोक पर्वों में यहाँ के लोग-बाग बड़े उत्साह से सामूहिक रूप में भाग लेते हैं. तृण-मूल स्तर के ये प्रतिभागी होटल-रेस्तरां-बंगला-फ्लैट-फास्ट फुड वाली गिटपिटाती आंग्लवाणी और सितारा मार्का सूट-बूटधारी कुलीन-अभिजात सभ्यता से दूर-दूर तक अछूते हैं. इनके क़दमों और ज़मीन के बीच वही सम्बन्ध है, जो लोहे और चुम्बक के बीच होता है. विशुद्ध लोक कला की ही तरह लोक पर्वों से जुड़े रस्म-रिवाज, सामूहिक व्यवहार, आस्था-सरोकार और दुःख-दर्द हमारा साक्षात्कार लाखों-लाख गँवई जनों की आडम्बर विमुख सृजनशील अभिव्यक्ति से कराते हैं. ये धार्मिक-लोक पर्व ग्रामीणों के लिए न केवल देवी-देवताओं के प्रति साभार श्रद्धा अर्पित करने के माध्यम हैं, बल्कि बरास्ता गीत-संगीत-नृत्य-नाटक उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के बहाने भी हैं. लोक पर्वों से जुड़ी लोक कथाओं और लोक कलाओं से आम आदमी के सरल जीवन मूल्यों और तरल जीवन शैली का पता चलता है.

मुख्य रूप से नगरद्वय हैदराबाद-सिकन्दराबाद और गौण रूप से तेलंगाणा के कुछ हिस्सों में आषाढ़ मास (जुलाई-अगस्त) में मनाया जाने वाला लोक पर्व बोनालु धार्मिक आस्था के साथ-साथ लोक कला से भी जुड़ा है. इसे स्थानीय तेलुगुभाषी हिन्दुओं का अल्पशिक्षित निम्न और निम्न मध्यम वर्ग मनाता है. सच पूछें तो किसी भी लोक पर्व से पाण्डित्यपूर्ण शास्त्रीय ब्राह्मणत्व की कोई नाते-रिश्तेदारी है भी नहीं. यह त्योहार शक्तिरूपा महाकाली को समर्पित है. यह अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति होने पर देवी को धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है. इसमें ग्राम देवी गंगम्मा तल्ली (=मैया) की पूजा भी समाविष्ट है. महीने भर के तीस दिनों, विशेष रूप से चार रविवारों में फैले इस पर्व के पहले और अन्तिम दिन तेलंगाणा की ग्राम देवी एल्लम्मा की विशेष पूजा की जाती है. इस पूजा का धर्मग्रन्थ विहित कोई विधि-विधान नहीं है और न हैं संस्कृत के गूढ़ मन्त्र-श्लोक-स्तोत्र. गंगम्मा-एल्लम्मा की निश्चित रूप-आकार वाली कोई मूर्ति तक नहीं होती है. किसी भी शिला को हल्दी-कुंकुम पोत दिया और उसे गंगम्मा-एल्लम्मा देवी की संज्ञा से अभिहित कर दिया! इस स्थिति में निराकार और अनिश्चिताकार ईश्वर में क्या अन्तर रह जाता है?

देवी को अर्पित किया जाने वाला बोनम्‌वस्तुतः तेलुगु भाषा के भोजनम्‌ (भोजन) शब्द का लघु रूप है और बोनालुबहुवचन भोजनालुका. त्योहार के समय पारम्परिक रेशमी साड़ियों में लिपटी और सोने के आभूषणों से सजी-धजी महिलाएं नीम की छोटी-छोटी टहनियों, हल्दी, कुंकुम और सफेद खड़िया के लेप से सजे हुए ठेठ स्थानीय आकृति के पीतल या मिट्टी के घड़ों को सिर पर एक के ऊपर एक धरे जुलूस के रूप में माता के मन्दिर की ओर चल पड़ती हैं. दूध-चीनी मिलाकर पकाया हुआ मीठा भात (और कभी-कभी प्याज भी) भरे इन घड़ों के ऊपर रखा जाता है जलता हुआ दीया. जुलूस के आगे-आगे चलते हैं डप्पू(डफवादक) और नाचते हुए पुरुष. फिर महिलाएं भला पीछे क्यों रहें? अधिकतर मध्य वय की महिलाएं और प्रौढाएं सिरों पर जमे घड़े सम्हालते हुए डफ-ताल पर मन ही मन माता का गुणगान करती हुई बेख़ुदी में नृत्य करने लगती हैं. माना जाता है कि इन झूमती-नाचती आत्म-विस्मृत महिलाओं पर उग्ररूपा देवी आविष्ट होती हैं. मन्दिर की ओर बढ़ती हुई इन आवेशोन्मत्त महिलाओं के चरणों पर रास्ते में पड़ने वाले घरों से निकलकर गृहणियां शीतल जल अर्पित करती हैं, ताकि देवी माँ का उग्र रूप शान्त हो सके. यही भाव-समाधिस्थ महिलाएं बोनालु की अगली सुबह भक्तों को बताती हैं कि उनका आने वाला साल कैसा रहेगा. इसे रंगम्‌कहते हैं.
यहाँ यह जान लेना प्रासंगिक होगा कि बोनालु बहुत पुराना त्योहार नहीं है. यह सन्‌ 1869 में हैदराबाद में कथित रूप से देवी के प्रकोप के कारण फैली महामारी प्लेग को भगाने के उद्देश्य से मनाया जाने लगा था. निज़ाम की हुकूमत के दौर में बोनालु की शोभा पराकाष्ठा पर थी. कहते हैं, क्रुद्ध देवी को शान्त करने के लिए धूम-धाम से किए जाने वाले आयोजन में बादशाह सलामत ख़ुद शामिल होते थे.

स्थानीय मान्यता के अनुसार, आषाढ़ मास में देवी अपने मायके पधारती हैं. सो, उनके प्रति प्रेम और स्नेह जताने के लिए लोग पक्वान्न के रूप में हर तरह का चढ़ावा लाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे बिटिया के ससुराल से मायके आने पर विशेष व्यंजन पकाए जाते हैं. फिर देवी माता तो अपनी दिव्य दुहिता ठहरीं न.

देवी को समारोहपूर्वक घर लिवा लाने के लिए विलक्षण वेश-भूषा में निकलता है उनका भाई पोतराजु (पोतुल राजु). दैवी शक्ति का भाई विकट बल का प्रतिरूप होना ही चाहिए. इसलिए पोतराजु का रूप दिया जाता है किसी गठीली देह वाले पुरुष को. अल्पवसन काया पर आपादमस्तक हल्दी का लेप, ललाट पर कुंकुम का टीका, गले में फूलों का हार, कमर में घुटनों तक कसी हुई चुस्त-चमकदार लाल-लाल धोती-फटका और टखनों में झनझनाते घुंघरू. जी हाँ, बोनालु का समारम्भकर्ता अपना यही पोतराजु ख़ुशी में दोनों हाथों से कोड़े फटकारता हुआ गली-गली में जुलूस की अगुआई करता है. कमर के अतराफ़ नीम की सपत्र टहनियां बाँधी हुई माता रानी के आवेश में मस्त महिलाएं पोतराजु के पीछे-पीछे चलती हैं. डफ की ताल और तुरही की लय में तन्मय पोतराजु को गाँव, मोहल्ले और बिरादरी का संरक्षक माना जाता है.

पोतराजु खेतिहर जातियों में लोकप्रिय ग्राम देवता भी हैं. तेलंगाणा का किसान अपने खेत में हल्दी से तिलकित चूना पुता पत्थर रखता है. यही हैं चोरों और फसल उजाड़ने वाले जानवरों से खेतों को सुरक्षित रखने वाले देवता पोतराजु. इनका कोपभाजन कोई नहीं बनना चाहता. फसल कट जाने पर कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए इनके आगे मुर्गे की बलि दी जाती है. पोतराजु सम्भवतः मुर्गप्रिय देवता हैं. इसलिए बोनालु के दौरान पोतराजु का बाना धारण करने वाला गबरू अपने दाँतों से मुर्गे की गर्दन एक ही वार में काट डालता है.

पोतराजु के संग चलता है देवी का प्रतीक घटम्‌धारक पुजारी. चार डफवादक मोहल्ले में देवी माँ के शुभागमन की घोषणा करते हैं. पुजारी हर घर के दरवाजे पर रुककर माता के लिए महिलाओं से चढ़ावा स्वीकार करता है. गृहणियां पुजारी का पद प्रक्षालन करके जैसे माता को नमन करती हैं. स्वयं पुजारी भी कभी-कभी नाच उठता है. इस प्रकार बोनालु पुरुषों के सामूहिक उल्लास-नृत्य का पर्व बन जाता है. हैदराबाद में बोनालु पर्व का शुभारम्भ बालाहिसार, गोलकोण्डा स्थित महाकाली मन्दिर में पूजा से होता है. माता के सम्मान में यहाँ से निकलने वाली शोभा-यात्रा सिकन्दराबाद के उज्जैनी महाकाली मन्दिर पहुँचती है. फिर यह महोत्सव नगर भर के विभिन्न देवी मन्दिरों में मनाया जाता है. कहते हैं, निज़ाम के दौर में महामारी के समय देवी की प्रतिमा उज्जैन से लाकर यहाँ प्रतिष्ठित की गई थी.

बीते ज़माने में देवी को भैंसे की बलि चढ़ाई जाती थी. रोग-बीमारी और भूत-प्रेत से बचाव के लिए अब मुर्गों की बलि चढ़ाई जाती है. इसके अतिरिक्त, भक्तों की हर एक टोली माता को तोट्टेला(झूला) अर्पित करती है. तोट्टेला बाँस की खपच्चियों के सहारे खड़ा किया गया रंगीन पर्नी-कागज से बना ढाँचा होता है.

देवी माँ की पूजा वाले बोनालु के दिन परिवार का चढ़ाया हुआ प्रसाद रिश्तेदारों और मेहमानों में वितरित कर दिया जाता है. त्योहार के अन्तिम चरण में भक्त परिवार सामूहिक रूप से माँस-मच्छी के भोज का आनन्द लेते हैं.

बोनालु की अन्तिम रस्म है घटम्‌अर्थात्‌ घड़ों का विसर्जन. अक्कन्ना-मादन्ना (अन्तिम क़ुत्ब शाह अबुल हसन तानाशाह के मन्त्री) मन्दिर, हरी बावली का घटम्‌ जुलूस के आगे-आगे चलता है. हाथी पर सवार. अगल-बगल घुड़सवार और अक्कन्ना-मादन्ना की झलकियां. पुराने शहर के घटम्‌ जुलूस में शामिल लाल दरवाजा, उप्पुगुड़ा, मीर आलम मण्डी, कसार हट्टा, सुल्तान शाही जगदम्बा मन्दिर, बंगारु मैसम्मा मन्दिर, शाह अली बण्डा, अली जाह कोटला, गवलीपुरा, दरबार मैसम्मा, अलियाबाद और मुत्यालम्मा मन्दिर, चन्दूलाल बेला के घट अन्त में अफ़ज़ल गंज स्थित नया पुल पर मूसा नदी में सिरा दिए जाते हैं.
बोनालु पर्व की शुरुआत चाहे जिस सिलसिले में हुई हो, हैदराबाद के तेलुगुभाषी देवी-भक्तों के लिए अब यह सप्ताह भर चलने वाला खाने-पीने और जश्न मनाने का उत्सव बन गया है. तभी तो देवी मन्दिरों से जुड़े मोहल्लों में बोनालु के अवसर पर खूब सारे भोंपू बजते और रास्ते भर नीम के बन्दनवार लगाए जाते हैं. जी हाँ, आन्ध्र-तेलंगाणा में भेषज गुण युक्त नीम को शुभ और पवित्र जो माना जाता है.
--बृहस्पति शर्मा
- - - - - -

BOX-1
एक देवी दो नाम : रेणुका अवतार एल्लम्मा

मुख्यतः नगरद्वय हैदराबाद-सिकन्दराबद और गौणतः तेलंगाणा में मनाया जाने वाला आषाढ़ी पर्व बोनालुपूरी तरह से ग्राम देवी एल्लम्मा की पूजा-अर्चना पर केन्द्रित है. कर्णाटक, तमिलनाडु, तेलंगाणा, आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र सहित अधिकतर दक्षिण भारत में पूज्य हैं एल्लम्मा. अलबत्ता, अलग-अलग स्थान पर इनके नाम भी अलग-अलग हैं. कहीं महाकाली, कहीं जोगम्मा, कहीं सोमलम्मा, कहीं गुण्डम्मा, कहीं पोचम्मा, कहीं मैसम्मा, कहीं जगदम्बिका, कहीं होलिअम्मा, कहीं रेणुका माता तो कहीं रेणुका देवी. इनमें से कम से कम चार नाम (महाकाली, मैसम्मा, जगदम्बिका और रेणुका) एल्लम्मा को अखिल भारतीय रूप में पूज्य पौराणिक दुर्गा भवानी की छवियों में विलीन कर देते हैं. यहाँ तक कि स्थानीय भक्तों को मान्य एल्लम्मा देवी की कथा वस्तुतः ऋषि जमदग्नि की सहधर्मिणी रेणुका की ही कथा है. रेणुका देवी से सम्बन्धित किंवदन्तियां महाभारत, हरिवंश और भागवत पुराण में मिलती हैं:

एल्लम्मा देवी (श्री रेणुका देवी) रेणुका राज को यज्ञ से प्राप्त पुत्री थी. राजा के कुलगुरु अगस्त्य ऋषि के परामर्श से रेणुका देवी का विवाह जमदग्नि से कर दिया गया था. तब रेणुका देवी की अवस्था मात्र आठ वर्ष की थी. रुचिक मुनि और सत्यवती के पुत्र जमदग्नि ने कठिन तपस्या की थी. उन्होंने क्रोधाग्नि से वरदान प्राप्त किया था. वह महादेव शिव के अवतार माने जाते हैं. रेणुका देवी और जमदग्नि रामशृंग पर्वत (वर्तमान सौदत्ती, बेलगाँव जिला, कर्णाटक) पर रहते थे. रेणुका ने अहर्निश सेवा-टहल से जमदग्नि का दिल जीत लिया था. उधर पाँचवें पुत्र के जन्म के बाद ऋषिवर ने पूर्ण संयम का व्रत धारण कर लिया था.

रेणुका तड़के उठ जाती. पवित्र मलप्रभा नदी में स्नान करती. नदी तीर पर जमा बालुका से नित नवीन घट तैयार करती. वहाँ रहने वाले एक सर्प को कुण्डलित करके सिर पर धर लेती. उसी पर सद्यःनिर्मित जलघट टिकाकर पूजा-पाठ के लिए जमदग्नि के पास ले जाती. प्रसंगवश, संस्कृत में रेणुका का अर्थ है महीन बालू.

रेणुका के पाँच पुत्र हुए: वसु, विश्ववसु, बृहद्ध्यानु, भृत्वकण्व और रामभद्र. माता-पिता का सर्वाधिक स्नेह प्राप्त रामभद्र भगवान शिव-पार्वती का भी कृपा-पात्र था. दैव युगल ने उसे अम्बिकास्त्र प्रदान किया था. इसलिए उसे परशुराम भी कहते थे. इन्हीं परशुराम ने ऋषि-मुनियों को तंग करने वाले दुष्ट क्षत्रियों का संहार कर दिया था. इन्हींको विष्णु का छठा अवतार माना जाता है.

एक दिन की बात है. रेणुका देवी अपनी दिनचर्या के अनुसार प्रभात वेला में नदी तट पर पहुँची. वहाँ उसने देखा कि गन्धर्व युगल मुक्त-भाव से जल-विहार कर रहा है. इस दृश्य ने उसे बाँध लिया. पल भर के लिए उसका ध्यान भंग हो गया. उसे रति-सुख भोगे एक अरसा बीत चुका था. वह चट्टान के पीछे जा छिपी. उसने रति की मस्ती में डूबे गद्गद्‌ प्रेमियों के कण्ठ-स्वर सुने. वह संयम खो बैठी. उसके मन में वासना जाग उठी, “गन्धर्व की प्रेमिका के स्थान पर तो मुझे होना चाहिए.” मुहूर्त भर के लिए उसे लगा, जैसे वह स्वयं अपने पति जमदग्नि के साथ जल-विहार कर रही है. कुछ देर बाद उसे होश आया. वह ख़ुद को कोसने लगी. उसने जल्दी-जल्दी स्नान किया. लेकिन, यह क्या? वह यह देखकर काँप गई कि प्रतिदिन की भाँति बालुका से घड़ा बनाए न बनता था. फिर वह सर्प भी हाथ न आया. वह अदृश्य हो गया था. उसकी ध्यान-साध्य योग-शक्ति विलुप्त हो चुकी थी. बेचारी रेणुका देवी निराश-उदास हो गई. वह आश्रम को खाली हाथ लौट आई. यह देखकर जमदग्नि क्रुद्ध हो गए. योगबल से घटनाक्रम समझने में उन्हें क्षण भर लगा. उन्होंने रेणुका देवी को शाप दे दिया. रेणुका देवी की देह पर देखते-देखते मवाद भरे फोड़े-फुड़िया छा गए. रोगग्रस्त रेणुका घिनौनी दिखाई देने लगी. उसे घर से निकाल दिया गया. वह दक्षिणापथ में भीख माँगते-माँगते भटकने को अभिशप्त थी. उसे जमदग्नि की सुन्दर-सलोनी जीवनसंगिनी के रूप में अब कोई नहीं पहचान सकता था.

अभिशप्त रेणुका देवी अन्ततः वन की ओर चल पड़ी. वह तपस्या में लीन हो गई. उसे स्वप्न में सन्त एकनाथ और जोगीनाथ ने दर्शन दिए. रेणुका देवी ने सन्तों से अपने पतिदेव का प्रेम पुनः हासिल करने का उपाय पूछा. सन्तों ने उन्हें एक शिवलिंग दिया. बोले, “जा, पास की झील में स्नान करके तीन दिन तक इस शिवलिंग का पूजन कर. फिर नगर में भिक्षा माँग-माँगकर चावल जमा कर. जमा किए गए चावल में से आधा हमें दे दे. आधा भाग गुड़ मिलाकर पका ले. उसे भक्तिभाव से स्वयं ग्रहण कर. चौथे दिन अपने पति जमदग्नि के पास चली जा.”
सन्तों ने रेणुका देवी को चेतावनी दी, “जमदग्नि तुझे पूरी तरह क्षमा नहीं करेंगे. तुझे कुछ पलों का बिरह सहन करना ही होगा. तब तू अमरता और पति का संग दोनों प्राप्त कर लेगी. इसके बाद भक्तजन तुझे पूजा करेंगे.” यह कहकर सन्तजन अन्तर्धान हो गए. कर्णाटक में एक मास विशेष में भिक्षा में चावल जमा करने का यह उपक्रम आज भी जारी है.

सन्तों से विनिर्दिष्ट उपाय का अनुपालन करके रेणुका देवी चौथे दिन आश्रम जा पहुँची. उन्हें देखते ही जमदग्नि फिर क्रुद्ध हो उठे. उन्होंने अपने पुत्रों को आदेश दिया कि वे अपनी माँ को दण्ड दें. लेकिन, पहले चारों ने किसी न किसी बहाने इनकार कर दिया. जमदग्नि ने उन्हें शाप दे दिया कि वे नपुंसक हो जाएं.

जमदग्नि ने अब अपने पाँचवें पुत्र परशुराम को आज्ञा दी. वह आज्ञाकारी ही नहीं, पिता के चहेते-लाड़ले भी थे. उन्होंने अपनी माँ का सिर एक ही वार में धड़ से अलग कर दिया. यह देखकर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि देवी के सिर हजारों की संख्या में बढ़कर दिशा-दिशा में फैल गए हैं. इस चमत्कार से उनके चारों पुत्र और तमाशबीन देवी के भक्त हो गए. वह उनका कटा सिर पूजने लगे.

दूसरी ओर जमदग्नि परशुराम की आज्ञाकारिता से प्रसन्न हो उठे. उन्होंने पुत्र से वर माँगने को कहा.     परशुराम ने जमदग्नि से नि:स्संकोच वर माँगा कि वह रेणुका देवी को पुनर्जीवित कर दें. ऋषि अपने वचन से मुकर नहीं सकते थे. उन्होंने रेणुका देवी को जीवन-दान दे तो दिया, लेकिन उनकी नाराज़गी दूर नहीं हुई थी. उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह रेणुका देवी का मुँह कभी नहीं देखेंगे. वह हिमालय की कन्दरा में तपस्या करने चल दिए. जमदग्नि उस क्रोधी धड़े के पुण्यात्मा हैं, जिनके अक्षमाशील आग्नेय क्रोध से संस्कृत साहित्य भरा पड़ा है. बाद में परशुराम भी पिता के पास पहुँच गए. इनकी कथा महाभारत में मिलती है, जहाँ वह बहिष्कृत-परित्यक्त कर्ण को रहस्यमय मन्त्रों और अमोघ अस्त्रों का विद्या-दान करते गुरु के रूप में मिलते हैं.

दलित जन रेणुका देवी की पूजा दिव्य शक्ति के रूप में करते हैं. वह बहुतेरे दलितों, अनुसूचित जातियों-जनजातियों और पिछड़े वर्गों की संरक्षक हैं. भक्त उन्हें विश्वमातृ जगदम्बाके रूप में पूजते हैं. जनश्रुतियों के अनुसार, कालिका अवतार एल्लम्मा एक ओर अहंकार के काल की प्रतीक हैं तो दूसरी ओर हैं अपनी सन्तान के प्रति करुणावतार माता.                                                                           

रेणुका बनाम एल्लम्मा: मौखिक परम्परा

अनेक पारम्परिक लोक कथाओं के अनुसार, रेणुका और एल्लम्मा एक ही देवी के दो अलग-अलग नाम हैं. दूसरी ओर, एक मौखिक परम्परा दोनों को एक-दूसरे से अलग बताती है. उसके अनुसार, परशुराम से जान बचाने के लिए रेणुका देवी भागते-भागते किसी टाँडे में पहुँच गई. एल्लम्मा नामक वृद्धा ने उसे अपनी कुटिया में शरण दी, लेकिन परशुराम ने उसे ढूँढ निकाला. एल्लम्मा ने उसे बचाने का प्रयत्न किया तो परशुराम ने उसका सिर भी धड़ से अलग कर दिया. बाद में परशुराम ने उसे पुनर्जीवित तो कर दिया, लेकिन उनसे चूक हो गई. उन्होंने एल्लम्मा का सिर रेणुका के धड़ से जोड़ दिया. जमदग्नि ने इसी काया को अपनी धर्मपत्नी स्वीकार किया. रेणुका का सिर जुड़ी वृद्धा एल्लम्मा की काया को दलित जन तबसे मातृशक्ति के रूप में पूजते रहे हैं.                                                                                                                            

BOX-2                                   रेणुका झील

हिमाचल प्रदेश में रेणुका देवी के नाम पर रेणुका अभयारण्य है. जनश्रुति के अनुसार, राजा सहस्रार्जुन (कार्तवीर्य अर्जुन) रेणुका से प्रेम करता था. एक बार की बात है. परशुराम आश्रम में नहीं थे. तभी उसने ऋषि जमदग्नि और उनके चारों पुत्रों की हत्या कर दी. सहस्रार्जुन के पंजे से बचने के लिए रेणुका ने झील में छलाँग लगा दी. वह अदृश्य हो गई. देवताओं ने उसे जीवन-दान दिया और सुषुप्त नारी के रूप में पसरी झील ने रेणुका को अमर कर दिया. उत्तर भारत के गाज़ीपुर स्थित जमनिया में भी रेणुका मन्दिर है.

कर्णाटक के चन्द्रगुत्ती नामक स्थान पर (सोराबा तालुका, शिमोगा) में भी पहाड़ी पर रेणुकाम्बे (एल्लम्मा) मन्दिर है. कदम्ब कालीन यह मन्दिर प्राचीन स्थापत्य कला की मिसाल है. रेणुका देवी का एक अन्य मन्दिर माहूर, महाराष्ट्र में है. इसे देवी का जन्म-स्थान भी माना जाता है. इसका उल्लेख देवी भागवत के अन्तिम अध्याय देवी गीता में मिलता है.                                                                      *                


Monday 14 November 2016

कृषि आद्या के पूजन का लोक पर्व
तेलंगाणा का राज्योत्सव बतकम्मा

जनजातीय नृत्यों में पुरुषों के संग महिलाएं भी बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं. वे अपनी भागीदारी आदि से अन्त तक यों बेरोक-टोक दर्ज करती हैं, ज्यों घर-गिरस्ती में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर ज़िम्मेवारी निभाती हों. इसके विपरीत, तेलुगु ग्राम्य अंचलों में ऐसे लोक-नृत्य इने-गिने हैं, जिनमें महिलाएं अकेले या पुरुषों के संग हिल-मिलकर थिरकती हों. ऐसे कुछ एक नृत्य हैं भी तो किसी न किसी अनुष्ठान से जुड़े हैं. नृत्यों में महिलाओं की ना-भागीदारी के पीछे सामाजिक वर्जना रही होगी कि वे अपनी कायिक सम्पदा का झूम-झूमकर खुले आम बेपरदा प्रदर्शन न करें. फिर भी, नारी-नृत्य मानने योग्य तीन तेलुगु अनुष्ठान तो हैं ही. इनमें किसी न किसी ताल पर नपा-तुला अंग संचालन अवश्य है. ये हैं तेलंगाणा के बतकम्मा-बोड्डेम्मा नृत्य, तटीय आंध्र के गोब्बी नृत्य और रायलसीमा के जट्टी जामु. फिर तेलुगु जाति के ग्राम्य जीवन में ऐसा कौन-सा अवसर होगा, जिसके लिए अनेक गीत न हों? यह और बात है कि इन गीतों के साथ बाजा-गाजा नहीं होता.
तेलंगाणा के घर-घर में मनाया जाने वाला वासन्ती उत्सव है बतकम्मा-बोड्डेम्मा. ग्रामीण स्त्रियों के सामान्य लोकाचार का द्योतक. महिलाएं बतकम्मा के नाम से गौरी पूजन ही नहीं करतीं, स्त्रीत्व और पारिवारिक संरचना में स्त्री के वर्चस्व का स्मरण कराने वाला महत्वपूर्ण उत्सव भी मनाती हैं. कहना चाहिए कि यह है ही गौरी पूजन का महोत्सव. गौरी पर चर्चा हम आगे करेंगे. बतकम्मा का शाब्दिक अर्थ है चिरन्तन नारी.

यह उत्सव दशहरे के साथ पड़ता है. इसमें नौ दिन का समारोह मनाया जाता है. यह असोज मास के पहले दिन से प्रारम्भ होता है. बतकम्मा पर्व के समारम्भ के नौ दिन पहले से क्वांरी कन्याएं बोड्डेम्मा उत्सव मनाने लगती हैं. जैसाकि राणाप्रसाद शर्मा पौराणिक कोश में गौरी व्रत की प्रविष्टि में कहते हैं, “होलिका भस्म और काली मिट्टी के मिश्रण से गौरी की मूर्ति बनाकर स्त्रियां पूजती हैं,” बरतन बनाने की काली-चिकनी मिट्टी से सात आरोही कुण्डलियों की बोड्डेम्मा की प्रतिमा गढ़ी जाती है. उसे नीचे से ऊपर तक रंग-बिरंगे फूलों से सजाया जाता है. उसके बीचोबीच वेंपलि वृक्ष (बन नील या सरफोंक) की टहनी खोभ दी जाती है. सातवीं फुनगी के ऊपर लिंग के आकार का कुंकुम से सजा गीली हल्दी का पिंड या कलश रखा जाता है. सँझा वेला में सभी कन्याएं ताली बजा-बजाकर गीत गाते हुए बोड्डेम्मा की प्रतिमा के चहुँ ओर गोल दायरे में घूमती हैं. जनजातीय लोगों में कन्या के मातृत्व क्षमता प्राप्त कर लेने पर आयोज्य धार्मिक अनुष्ठानों के सिलसिले की छाया इस उत्सव में देखी जा सकती है. क़बीलों में कन्याओं की गोद आने पर इसी प्रकार के नृत्य किए जाते हैं. इस अवसर पर माटी का पिण्ड बनाकर उसमें टहनी खोभना संसार भर के अनेक प्राचीन समुदायों में प्रचलित सामान्य परिपाटी है. प्रसंगवश, ऐलाम, मेसोपोटामिया, ट्रांसकासपिया, एशिया माइनर, सीरिया, फिलीस्तीन, साइप्रस आदि के साथ-साथ मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से मिट्टी की बहुतेरी एक-सी मूर्तियां मिली हैं. आम मान्यता है कि शक्ति के रूप में विकसित ये उत्पादकता की जन्मदात्री महामाता या प्रकृति का आदिरूप हैं. इनकी उपासना सम्भवतः अनातोलिया में प्रारम्भ हुई थी. इन मूर्तियों की समानताएं इस निष्कर्ष पर पहुँचाती हैं कि यह देवी सिन्धु नदी से नील नदी तक पूज्य थीं. अत्यन्त प्रतिष्ठित ग्राम देवियां इन्हींकी प्रतिनिधि हैं. आदिम जातियों में इनकी उपासना की लोकप्रियता से सिद्ध होता है कि अनार्यों के राष्ट्रीय देवताओं में इनका प्रमुख स्थान था. हिन्दुओं में निर्विलीन आर्य-पूर्व जनजातियों में माता या धरती माता की विशेष उपासना होती है.

बोड्डेम्मा उत्सव के समापन पर बतकम्मा उत्सव मनाया जाता है. बतकम्मा की प्रतिमा फूलों से बनाई जाती है. विशेष रूप से समूचे तेलुगु अंचल में सहज-सुलभ फूलों की ढेरी से. इसमें तेलंगाणा का राजपुष्प तंगेडु (तरवार) सबसे महत्वपूर्ण होता है. गेंदा, सेवन्ती, कनेर, गुनुगु (लाल मुर्ग़ा) आदि अन्य फूल हैं. फूलों को पीतल की बड़ी परात में मन्दिर के शंक्वाकार गोपुरम्‌ के रूप में सजाया जाता है. इसके सबसे ऊपरी भाग में हल्दी की पिण्डी रखी जाती है. यही है बतकम्मा. ग्राम देवियों के नाम में अम्मा प्रत्यय सूचित करता है कि वे गाँव की स्वामिनी मैया होती हैं. उनके क्षेत्राधिकार में रहते ग्रामवासियों को उनका अयाचित संरक्षण प्राप्त रहता है. ग्राम-सीमा के परे ग्राम देवी की शक्ति और संरक्षण समाप्त हो जाते हैं. आगे, हर साँझ को इस देवी की पूजा करके प्रसाद वितरित किया जाता है. दसवें दिन गाँव की महिलाओं और बच्चों का जुलूस बतकम्मा को पास के पोखर या नदी-नहर की ओर ले चलता है. विसर्जन से पहले इस सुमन-विग्रह को पोखर या नदी-नहर के तटबँध पर रख दिया जाता है. फिर महिलाएं हथेलियों से ताल दे-देकर इसके चहुँ ओर गोल घेरे में घूमती हैं. बतकम्मा की स्तुति गाती हैं. इस अनुष्ठान के अनगिनत गीत हैं. उत्सव के नवों दिन ये गीत गाए जाते हैं.

अविभक्त आन्ध्र के अन्य भागों में सावन भर का उत्सव मनाया जाता है मंगल गौरी व्रतम्‌’. इस दौरान हिन्दू परिवार मंगलवार और शुक्रवार को गौरी पूजन करते हैं. इस उत्सव का सबसे रंग-बिरंगा भाग है गृह संकुल आंगन में बतकम्मा विग्रह के चहुँ ओर स्त्रियों का वृत्ताकार नृत्य. क्या बूढ़ी, क्या प्रौढ़ा और क्या तरुणी, इसमें सभी सोत्साह सम्मिलित होती हैं. कोमल पद संगति के साथ गोल-गोल घूमते और तालियों से लय-ताल का काम लेते हुए बतकम्मा नृत्य ग्रामीण महिलाओं की प्रकृति और संवेदनशीलता को बख़ूबी अभिव्यक्त करते हैं. बतकम्मा का प्रत्येक गीत उय्यालोया चँदामामाया वोलालोकी टेक पर समाप्त होता है. गीत का एक-एक शब्द ग्रामीण कल्पना आसन्न प्राकृतिक बिम्बों और क्रियाओं को प्रतिध्वनित करता है. 

जनश्रुति के अनुसार, बतकम्मा चोल नरेश धर्मांगद-सत्यवती की पुत्री थी. वे युद्धों में अपने सौ भर पुत्र गँवा चुके थे. उन्होंने लक्ष्मी से प्रार्थना की कि वह उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें. मैया ने उनकी सुन ली. लक्ष्मी राजमहल में जनमीं तो ऋषि-मुनि पधारे. देवी को आशीर्वाद दिया: बतकम्माअर्थात्‌ अमर रहो. बतकम्मा ने आगे चलकर विष्णु अवतार चक्रांक से ब्याह किया था.

एक अन्य कथा इस उत्सव का सम्बन्ध शिव की सहचरी पार्वती के गौरी/दुर्गा रूप से जोड़ती है. भागवत (10.53.25), ब्रह्माण्ड पुराण (2.25.18), वायु पुराण (43.38, 106.58), विष्णु पुराण (5.32.12), रघुवंश (2.26) और कुमारसम्भव (7.95) में पार्वती को गौरी कहा गया है. गौरी ने युद्ध में महिषासुर को वधा था. वह बुरी तरह थककर मूर्छित हो गई थीं. तब ऋषि-मुनि बतकम्मा-बतकम्माकहकर उनसे उठ बैठने की प्रार्थना करने लगे. वह असोज की दशमी को पुनः जाग्रत हो गईं.

इस प्रसंग में गौरी के विषय में जिज्ञासा जाग्रत होनी स्वाभाविक है. पुरानिक एनसाइक्लोपीडिया में वेट्टम्‌ मणि कहते हैं, “शिव-पार्वती ने विश्व-भ्रमण करते हुए बरसों मधुमास मनाया. एक दिन की बात है. वनदेवता शिव अपनी पर्वतीय अर्धांगिनी को हँसी-ठिठोली में काली-काली कहकर छेड़ने लगे. वह अधमतम नीलमणि की नाईं काली थीं. बार-बार काली कहने से बात बढ़ गई. पार्वती को भ्रम हो गया. उन्होंने समझा, शिव को उनकी काली काया पसन्द नहीं. वह दुःख से काँपने लगीं. बोलीं, ‘तीर से लगा घाव भर जाता है. वृक्ष की फुनगी काट दें, तो ऋतु आने पर वह भी फिर-फिर बढ़ जाती है. इसके उलट, कठोर शब्दों से लगा घाव कभी नहीं भरता. मैं काली जनमी तो मेरा क्या दोष? अपनी काली काया के साथ आपके निकट अब कभी न आऊँगी. मैं चली.उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया था. वह आकाश में उड़ चलीं. कुछ समय बाद एक विशाल वन में जा पहुँचीं. अपने स्मरण-मन्त्र से चार परिचारिकाएं उत्पन्न कीं. सोमप्रभा, जया, विजया और जयन्ती. फिर एक पैर पर कड़ी तपस्या में लीन हो गईं. सौ बरस बाद ब्रह्मा प्रकटे. उन्होंने अचरज जताया कि महादेव की सहचरी को घोर तप की आवश्यकता आन पड़ी! पार्वती ने उन्हें आपबीती कह सुनाई. ब्रह्मदेव ने पार्वती को वरदान दिया, ‘हे पतिव्रते, तेरी काली काया आज कमल की पाँखुरी के रंग में ढल जाएगी. अपने गौर वर्ण के कारण तू गौरी कहलाएगी.पार्वती उसी क्षण काली-कुरूप से गोरी-छबीली में रूपान्तरित हो गईं. तबसे गौरी कहलाती हैं.” माथे पर आड़ा-खड़ा तिलक धरने वाले पण्डितों से ऊल-जुलूल व्याख्याओं की ही आशा की जा सकती है. पुराण ऐसी बेतुकी कपोल कल्पनाओं के ज़ंग लगे पिटारे हैं.

आइकॉनोग्राफ़ी ऑव द हिन्दूस, बुद्धिस्ट्स ऐंड जैनस के लेखक आर.एस. गुप्ते बताते हैं कि भाद्रपद में लम्बा लोक अनुष्ठान मनाया जाता है गणेश चतुर्थी. देश के कुछ भागों में व्रत के कर्मकाण्ड के बीच वनदेवता गणेश को प्रस्थान कर जाना पड़ता है. उनके स्थान पर एक देवी का नाम सुनने को मिलता है. वह हैं गौरी. पौराणिक गौरी से अलग. वह कुछ पौधों की गठरी भर होती हैं. इसके साथ होती है एक कुमारी कन्या की प्रतिमा. यहाँ से व्रत का चरित्र स्त्री प्रधान हो जाता है. इकट्ठा किए गए पौधों को स्त्रियां हल्दी से बनाई गई चौक पर रख देती हैं. इन पौधों का गट्ठर बनाया जाता है तो सुहागिनों को कुंकुम दिया जाता है. तमाम व्रत इस गट्ठर के आसपास सिमटा होता है. इसमें केवल स्त्रियां भाग लेती हैं. इन पौधों और क्वांरी कन्या को स्त्रियां घर के एक-एक कमरे में ले जाती हैं. उससे पूछती हैं, “गौरी, क्या देख रही हो?” वह उत्तर देती है, “समृद्धि. ढेरों धन-धान्य.” गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फ़र्श पर उसके पैरों के निशान बनाए जाते हैं.

अगले दिन समारोह के प्रारम्भ में चावल और नारियल की गिरी से बने हुए पिण्ड देवी के सामने रखे जाते हैं. हर एक सुहागिन अपने हाथों काता हुआ अपने से सोलह गुणा लम्बा सूत गौरी के सामने रखती है. शाम में घर की सभी कन्याएं देर तक नाचती-गाती और सखियों के घर जाती हैं. अगले दिन गौरी-प्रतिमा को अर्धचन्द्राकार मालपुए चढ़ाए जाते हैं. प्रत्येक स्त्री पिछली रात प्रतिमा के सामने रखा सूत उठा लेती है. उसका गोला बनाकर सोलह गाँठें लगाती है. उन्हें हल्दी में रंगकर गले में पहन लेती है. यह सूती हार वह अगली फ़सल की कटाई के दिन तक पहने रहती है. उसी दिन सूरज ढलने से पहले उसे नदी में विधिपूर्वक विसर्जित कर देती है. इस बीच, जिस दिन सूती हार गले में पहना जाता है, उसी दिन गौरी-प्रतिमा को नदी-ताल में सिरा दिया जाता है. उसके किनारे से मिट्टी लाकर घर के बगीचे में बिखेर दी जाती है. देवी की प्रतिमा नदी तक स्त्री ही ले जाती है. उसे चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़कर न देखे. ध्यातव्य है कि इस अनुष्ठान की व्यापकता और अवशेष शास्त्रीय नवरात्र या दुर्गा उत्सव में भी मौजूद हैं. महामहोपाध्याय पाण्डुरङ्ग वामन काणे धर्मशास्त्र का इतिहास में बताते हैं, “दुर्गा पूजा चारों वर्णों के लोग ही नहीं, जातिबाह्य लोग भी कर सकते हैं...दुर्गा पूजा म्लेच्छ, दस्यु (चोर, निष्कासित हिन्दू) अंग, बंग, कलिंग के लोग, किन्नर, बर्बर और शक भी करते हैं...पवित्र मिट्टी की वेदिका बनाई जाती है, उस पर जौ और गेहूँ बो दिए जाते हैं...इस दिन दुर्गा की मिट्टी की प्रतिमा बिल्व की शाखा के साथ घर लाकर पूजी जाती है. दशमी तिथि को नदी या तालाब के पास जाकर संगीत, गायन और नृत्य के साथ मन्त्रोच्चार करके प्रतिमा को विसर्जित किया जाता है. प्रार्थना की जाती है, ‘हे दुर्गा, हे विश्वमातृ, आप अपने स्थान को प्रस्थान करें और साल भर बाद पुनः पधारें.

इस व्रत-अनुष्ठान के बाद होती है कथा: एक बार की बात है. एक कंगाल था. दलिद्दर से तंग आकर डूब मरने को नदी पर पहुँचा. वहाँ एक वृद्धा सुहागिन मिली. उसने आत्महन्ता रंक को घर लौटने को मना लिया. वह उसके साथ हो ली तो समृद्धि भी चली आई. वृद्धा के लौटने का समय आया. उसे विदा करने के लिए कंगाल नदी तक गया. नदी किनारे की मुट्ठी भर मिट्टी देकर वृद्धा बोली, “समृद्धि चाहता है तो इसे अपनी सारी सम्पत्ति पर छिड़क दे.” वृद्धा ने यह भी कहा कि वह भादों में गौरी के सम्मान में ऐसा ही अनुष्ठान किया करे.

देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने इस कथा से सीधा-सा अभिप्रेत प्रस्तुत किया है. नदी-ताल की कछारी भूमि खेती-बाड़ी के लिए सबसे उपयुक्त होती है. वृद्धा बीतते मौसम का और कन्या खिलने को तैयार नए मौसम की प्रतीक है. छुई-मुई का प्रतीक यही संकेत करता है. लेटी हुई आकृति या पुतला पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक है. चावल तथा मोटे अनाज का चढ़ावा संकेत करता है कि तब यह अन्न प्रस्फुटित हो रहा होता है. अनाज की यह भेंट भादवी धान की नई फ़सल की आशा में चढ़ाई जाती है. लेटी हुई आकृति का आधी रात को देह तजना उस मौसम में खेतों में काम के अन्तिम दिन का संकेत है. लेटी हुई आकृति को धरती माता की गोद में सुला देना, चारों ओर रेत बिखेरना और सोलह गाँठों वाले गोले बनाना आदि पुराने मौसम की समाप्ति और नए मौसम के समारम्भ के प्रतीक हैं. संसार भर की आदिम जातियां ऐसे अनुष्ठान रचाती हैं. अपने यहाँ इन्हींको हिन्दू रूप दिया गया है. सोलह गाँठें लगाना, सोलह सूत्रों के गोले बनाना और उनके हार बना लेना संकेत हैं कि धान की फ़सल के लिए सोलह सप्ताह लगते हैं.

सारा अनुष्ठान कृषि से सम्बन्धित है. उसका केन्द्र-बिन्दु है भरपूर फ़सल की इच्छा. सो, इसे केवल स्त्रियां ही सम्पन्न करती हैं. इसमें देवता या पुरुष के लिए स्थान नहीं है. वह इसलिए कि गौरी फ़सल की भारतीय देवी है. उसे हम मैक्सिको की अनाज की देवी, टोंगा द्वीप समूह की आलो आलो, ग्रीस की दिमित्तर या रोम की देवी सेरीस के समकक्ष मान सकते हैं. प्रश्न उठता है, कृषि पुरुष-क्षेत्र है तो उसकी अधिष्ठात्री देवी क्यों हो? गर्भावस्था और स्तन्य काल में स्त्रियों की गति अवरुद्ध हो जाती है. इसलिए शिकार का ज़िम्मा पुरुष पर आन पड़ा और खाद्य-सामग्री जुटाने का स्त्री पर. स्त्री बीज बोने लगी. खुरपी चलाने लगी. इसी प्रक्रिया ने स्त्री को कृषि की आविष्कर्ता बनाया. जे. डी. बरनाल ने लिखा है, “खाद्य-सामग्री इकट्ठा करना स्त्रियों का कार्य था. इसलिए कृषि की खोज उन्होंने ही की. बैलों से हल चलाने या जुताई के आविष्कार तक वे कृषि करती रहीं.”

ब्रिफो कहते हैं, ”खेती-बाड़ी की कला का पूर्ण विकास स्त्रियों के हाथों हुआ है.” एहरेन्फेल्स तो यहाँ तक कहते हैं, “कृषि का आदिम रूप और इसके साथ-साथ मातृ अधिकार का एक रूप सबसे पहले भारत में ही विकसित हुआ. सामान्य भौगोलिक और पुरातात्विक स्थिति इस सिद्धान्त के पक्ष में है कि विश्व में मातृ सत्तात्मक संस्कृतियों का आविर्भाव भारत में ही हुआ.” वह भारतीय मातृ अधिकार ही था, जिसने भूमध्य सागर की द्रोणी, प्राच्य अफ्रीका, निकट पूर्व और विशेषतः दक्षिण अरब के क्षेत्रों में प्राचीन मातृ सत्तात्मक सभ्यताओं को जन्म दिया. मानव सभ्यता में शिकार और पशु-चारण के दौर में देवता प्रमुख हैं, जबकि इन्हीं चरणों के प्रारम्भिक काल में देवियों का स्थान ऊँचा है. इससे हमें वैदिक और अवैदिक दृष्टिकोणों के संकेत मिलते हैं.

वैदिक धर्म-उपासना में देवियों का स्थान नितान्त गौण है. विश्व-संचालन में उनकी भूमिका नगण्य. किसीका थोड़ा-बहुत महत्व है तो वह है उषा. आंकड़ों के हिसाब से वह तीसरी श्रेणी में आती है. दूसरा स्थान सरस्वती का है, लेकिन वह निम्नतम श्रेणी में गिनी जाती हैं. कुछेक की स्तुति में एक-एक ऋचा और पृथ्वी की स्तुति में तीन छन्दों की छोटी-सी ऋचा रची गई है. एक में रात्रि का आह्वान है. इसी प्रकार देव-पत्नियों के रूप में वेदों में देवियों का स्थान बहुत तुच्छ है. उनका कोई स्वतन्त्र रूप नहीं है. ऐसी पत्नियां भी इन्द्र सरीखे देवताओं के ही पास थीं. उनके नाम भी देवताओं के नामों के साथ स्त्रीलिंग प्रत्यय अणीजोड़कर लिए गए हैं. वेदकुल में वैदिक जनों की पशुपालक अर्थ-व्यवस्था ही पुरुष-प्रभुत्व का भौतिक आधार थी. अलबत्ता, वैदिक साहित्य में मिलने वाले कृषि के गिने-चुने उल्लेखों में देवताओं के स्थान पर प्रायः देवियां हैं. जैसे, ऋग्वेद में सीता का आह्वान है. सीता अर्थात्‌ खेत में हल चलने से बनी खाँच. हाँ, सूत्रों में देवी अधिक जीवन्त है. गोभिल गृह्यसूत्र में सीता, आशा, आरद और अनघ की चर्चा है. इनका आह्वान जुताई, बुआई और कटाई के अवसर पर विशेष धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता था. फिर पारस्कर गृह्यसूत्र में उर्वरा, सीता, यजा, शामा और भूत देवियों का उल्लेख है. ये सभी कृषि-कार्यों से सम्बद्ध थीं.

आर्य जबसे अपेक्षाकृत शान्तिपूर्ण जीवन बिताने लगे, तबसे देवियों की उपासना को सर्वोच्च स्थान मिला. दुर्गा को प्रकृति और वसन्त की देवी, काली को चिरन्तनता-निस्सीमता की देवी, सरस्वती को महत्तम प्रज्ञा की देवी और शक्ति को समस्त सृष्टि की माता माना गया.

वेदोत्तर हिन्दू धर्म में वेदों के प्रति पूर्ण औपचारिक आस्था के बावजूद, इन्द्र, वरुण, मित्र, प्रजापति, मातरिश्वा जैसा कोई प्रमुख देवता नहीं था. जिस पशुपालक अर्थ-व्यवस्था ने वैदिक देवताओं की परिकल्पना को जन्मा था, उसे और सुदृढ़ बनाने के लिए वह वेदोत्तरकाल में विद्यमान नहीं थी. इसलिए वैदिक देवताओं को विलुप्त होना पड़ा. लोक-जीवन पर पितृ-अधिकार के तत्व थोप भले ही दिए गए थे, फिर भी मातृ-अधिकार के अवशेष पूर्णतः समाप्त नहीं किए जा सके. भारतीय जन साधारण खेतिहर बना रहा. उसकी आस्था माता या शक्ति में बराबर बनी रही. बहुसंख्यक भारतीय किसान अब जनजातीय समाज में भले ही न रहते हों, उनमें देवताओं का स्थान गौण और जीवन पर देवियों का प्रभाव मुख्य है. इस वास्तविकता की पृष्ठभूमि में वही आद्या हैं, जिनकी मृण्मूर्तियां प्राचीन सभ्यता स्थलों पर मिली हैं. आदिभारतीय जनमानस में मूलभूत देवी की स्मृति आज तक जीवित है तो इसलिए कि उसके भौतिक आधार-तत्व अब तक विद्यमान हैं.

यह बात नहीं कि उत्तरवर्ती भारतीय देवकुल में देवता न हों. जो भी हैं, मुख्यतः कृषि से सम्बद्ध हैं. वे प्रायः अग्रगण्य नहीं हैं या किसी न किसी रूप में देवियों से जुड़ गए हैं. इस विलय का सुपरिचित उदाहरण शिवलिंग है, जिसकी योनिपीठ गौरीपट्टम्‌ ही है.  

गोब्बम्मा
तटीय आन्ध्र प्रदेश में बतकम्मा का प्रतिरूप है गोब्बी आटा. यह फ़सल कटाई का उत्सव है. भरपूर उपज हुई है. खलिहान धान से लबालब भरे हैं. इस अवसर पर किसान उत्सव मनाता है. यह उत्सव संक्रान्ति पर्व के भाग के रूप में मनाया जाता है. सच्चाई तो यह है कि तेलुगु नव वर्ष संक्रान्ति का शुभारम्भ गोब्बम्मा नृत्य से होता है.

संक्रान्ति मनाने के लिए आन्ध्र प्रदेश के घर-घर का आंगन कलापूर्ण रंगोलियों से सजाया जाता है. कन्याएं गोबर के छोटे-बड़े गोलों से गोब्बियांतैयार करती हैं. उन पर चावल के आटे से रेखाएं खींचती हैं. उन्हें हल्दी-कुँकुम से सजाती हैं. उनके बीचोबीच फूल खोभ दिया जाता है. यह सामान्यतः चटक पीला गुम्मड़ी का फूल (गेंदा) होता है. गोब्बी घर के सामने आँगन में रंगोली पर रख दी जाती है. इसे कभी-कभी घर के पिछवाड़े भी रखा जाता है. कन्याओं में होड़ मच जाती है कि कौन कितनी बड़ी रंगोली सजाएगी. जितना बड़ा आँगन, उतनी बड़ी रंगोली. रंगोली आंगन में ही सिमट जाती तो क्या बात थी. रंगोलियों की नक्काशी तो गली-कूचे तक पसर जाती है. समृद्धि की देवी की अगवानी के लिए एक-एक पथ पर जैसे रंग-बिरंगी क़ालीन ही बिछा दी जाती है.

गोब्बी नृत्य वृत्ताकार होता है. रास की तरह. गोब्बियों को एक जगह स्थापित करके नवान्न से पूजा जाता है. उनकी आरती उतारी जाती है. फिर ताली बजा-बजाकर लक्ष्मी-गौरी के गुण गाती कन्याएं उनकी परिक्रमा करने लगती हैं. सूखी गोब्बियां दिन ढले अगल-बगल की दीवारों पर सम्भालकर रख दी जाती हैं. संक्रान्ति के दिन कन्याएं गाँव की स्त्रियों को आमन्त्रित करके ताज़ा गोब्बियों के चहुँ ओर नृत्य करती हैं. सूखी गोब्बियों पर प्रसाद पकाकर आमन्त्रित स्त्रियों में वितरित किया जाता है.
गोब्बी नृत्य भी बतकम्मा की तर्ज़ पर अनुष्ठानों में नारी-विश्वास की कोमल अभिव्यक्ति है. इसके गीत सदैव कमल जैसे भाई, सेवन्ती जैसी बहिना और मोगरा जैसे पति के लिए गोब्बम्मा से आशीर्वाद माँगते हैं.

कुछ लोग मानते हैं कि गोब्बीशब्द गरबा का रूपान्तरण होना चाहिए. गरबा है गुजरात का नृत्य. अधिक सम्भव है कि यह शब्द कृष्ण-प्रेयसी गोपी से बना होगा. तमिल ग्रन्थ तिरुप्पवै और तेलुगु के कवि अन्नमय्या के पदों में इसके हवाले मिलते हैं. जनश्रुति के अनुसार, प्राचीन काल में सूखा-अकाल में वर्षा के लिए रेपल्ले की गोपियां कात्यायनी (दुर्गा) की आराधना करती थीं. वे उत्तम पति की प्राप्ति के लिए भी इन्हींकी पूजा-अर्चना करती थीं. कहते हैं, देवी वर्षा कराती थीं और कृष्ण जैसा उत्तम पति पाने की मनोकामना भी पूरी करती थीं.

तेलंगाणा में स्त्रियों के निमित्त स्त्रियों का दूसरा अनन्य नृत्य है कामुड़ु और रायलसीमा में जट्टि जामु. कामुड़ु में स्त्रियां, विशेषतः कामकाजी स्त्रियां, बतकम्मा जैसा ही घेरेदार नृत्य करती हैं. जट्टि जामु किसी समय एक प्रकार का कोलाटम्‌ नृत्य रहा होगा. कम से कम नाम तो यही संकेत करता है. जट्टि पद कोला को और जामु यम अर्थात्‌ काल को ध्वनित करता है. इसका अर्थ हुआ कोला नृत्य का समय. सदैव पूनों की रात में आयोज्य नृत्य-गायन जट्टि जामु भी घेरेदार नृत्य है. इसमें सम्मिलित स्त्रियां बारी-बारी से अपनी दाईं हथेली को पड़ोसन की बाईं हथेली से टकराकर और इसी प्रकार पड़ोसन अपनी बाईं हथेली को दूसरी पड़ोसन की दाईं हथेली से टकराकर लय-ताल उत्पन्न करती हैं.

इनमें से किसी भी नृत्य में संगत के लिए थाप देने का वाद्य नहीं होता. ताली का ही सहारा होता है. ये सभी नृत्य किसी न किसी अनुष्ठान से जुड़े हैं. इनसे अभिप्रेत है भरपूर उपज का उत्सव, समृद्धि तथा परिवार-कल्याण. चाहे बतकम्मा हो, चाहे गोब्बेम्मा या फिर कामुड़ु-जट्टि जामु, पारम्परिक लोक-गीत, ताली की ताल और लयपूर्ण नृत्य सामान्य रूप से ग्राम्य जीवन में और विशेष रूप से उत्सव में मनभावन रंग भर देते हैं.
--बृहस्पति शर्मा
<+> <+> <+> <*!*> <+> <+> <+>


  

Friday 29 August 2014

दक्खिन के काबा में
सादगी का लालित्य

तवाफ़-ए-काबः शर्फ़ मीसर्त गर नीस्त
बया बकाबः मुल्क-ए-दक्कन इबादत कुन.

इसलाम की वर्जनाओं को नकारकर रचा और मक्का मस्जिद के प्रतिष्ठापन समारोह में किसी शायर की ओर से बादशाह को भेंट किया गया उपर्युक्त फ़ारसी शेर मुस्लिम स्थापत्य के क़ुत्ब शाही शाहकार मक्का मस्जिद की शान ज़ाहिर करने के लिए काफी है. पत्थर की पटिया पर खुदी हुई ये पंक्तियां चिरंजीवी शिलालेख की तरह इस मस्जिद की मध्यवर्ती कमान के बाजू चिनी हुई हैं.

बैतुलअतीक़ से मक्का मस्जिद

सन् 1617 में मक्का मस्जिद की आधार-शिला रखे जाने का ऐतिहासिक किस्सा पाठक पीछे पढ़ ही चुके हैं. इस शिया इमारत की नींव डालने वाले सुल्तान मुहम्मद क़ुत्ब शाह ने पवित्र मक्का की चौकोर मस्जिद के मुँहबोले नाम बैतुलअतीक़ (पुराना घर) के आधार पर इस मस्जिद का नाम भी बैतुल अतीक़ ही रखा था. धर्मनिष्ठ हिन्दू जिस तरह किसी भी प्रकार के लेखन के प्रारम्भ में ऊँ’, श्री आदि अंकित करते हैं, उसी तरह बहुत सारे मज़हबी मुसलमान शुरु में ‘786’ या ‘786/92’ लिखते हैं. आँकड़ा 786 बिस्मिल्लाह अर रहमान निर रहीम का और 92 रसूल लिल्लाह का संख्यात्मक मान है. इसी तर्ज़ पर अरबी शब्द बैतुलअतीक़ का संख्यात्मक मान 1023 है और यही इसके प्रतिष्ठापन का हिजरी संवत भी. ग़ौरतलब है कि मस्जिदों को इस तरह के नाम देने की परम्परा चली आ रही है, ताकि संख्यात्मक मान से उनके प्रतिष्ठापन वर्ष का पता चल सके.
बादशाह औरंगज़ेब के शासन-काल में इस मस्जिद का नाम बैतुलअतीक़ से बदलकर मक्का मस्जिद रख दिया गया. इस नामकरण के बारे में यह भी कहा जाता है कि मुहम्मद क़ुत्ब शाह ने पवित्र मक्का की मिट्टी मंगाकर कुछ ईंटें बनवाई थीं, जो मस्जिद की मध्यवर्ती कमान के ऊपर चिनी गईं. दूसरी ओर, तारीख़-ए-फ़रख़ुन्दा का लेखक कुछ और ही कहता है: काबा की यह विशेषता है कि वहाँ मज़हबी सफर पर आने वालों का ताँता हर वक़्त लगा रहता है. ठीक इसी प्रकार, एक लम्हा भी ऐसा नहीं गुज़रता, जब मक्का मस्जिद भी नमाज़ी बन्दों से खाली रहती हो. यही वजह थी कि हैदराबाद की रियाया ने इस मस्जिद का नाम मक्का मस्जिदसहज ही स्वीकार कर लिया और इसी नाम से यह दुनिया में मशहूर भी हो गई.


मस्जिद का निर्माण

दारोगा मीर फ़ैज़ुल्लाह बेग और चौधरी रंगय्या उर्फ़ हुनरमन्द ख़ाँ की निगरानी में मस्जिद की तामीर लगभग आठ हज़ार मिस्त्री-मज़दूरों के श्रम से पूरी हुई. मक्का मस्जिद के निर्माण पर अन्दाज़न 30,00,000 हुन (मध्य दक्खिन का प्राचीन सिक्का) खर्च हुए. एक अनुमान के अनुसार यह सिक्का 4.5 मुगल रुपये के समान था. मस्जिद का निर्माण अब्दुल्लाह क़ुत्ब शाह और अन्तिम क़ुत्ब शाही शासक अबुल हसन तानाशाह के दौर में भी जारी रहा. तुज़ुक-ए-क़ुत्ब शाही के अनुसार यह निर्माण-कार्य कुल सतहत्तर बरस बाद औरंगज़ेब के समय 1104 हिजरी (सन् 1693) में पूरा हुआ.
दक्खिन की सबसे शानदार और प्रभावशाली मस्जिदों में अग्रणी तथा हैदराबाद की सबसे बड़ी इस मस्जिद की विशालता का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रांगण में लगभग दस हज़ार नमाज़ी एक साथ नमाज़ पढ़ स कते हैं.

मुख्य प्रवेश-द्वार से इमारत के परिसर में दाख़िल होते ही ज़मीन से गज भर से ज़्यादा ऊँचा, 360 फुट लम्बा अहाता नज़र आता है -–एकदम औरस-चौरस. यहीं एक किनारे वज़ू के लिए पानी से लबालब भरा हौज़ है. सैयद अली असगर बिलगिरामी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Landmarks of the Deccan में लिखते हैं, “इस हौज़ के दोनों ओर लगी आठ फुट लम्बी सिल्लियां मैसरम गाँव के किसी मन्दिर से ली गई थीं, जिसका नाम-ओ-निशान अब नहीं रह गया है.” प्रांगण में ही संग-ए-स्याह और संगमरमर में बने लम्बे-चौड़े तख्त बिछे हैं. माना जाता है कि आप इन अलंकृत और चमकाए हुए तख़्तों पर एक बार बैठ जाएं तो मस्जिद आपको यहाँ दोबारा आने की दावत देती है. इनमें से एक तख्त कुछ साल पीछे बम धमाके में टूट गया था. प्रांगण में ग्रेनाइट की फर्श बिछाई गई है.

प्रवेश-द्वार के पास ही हिन्दू-मुस्लिम श्रद्धालु मस्जिद में पारम्परिक रूप से पल रहे असंख्य कबूतरों को धर्म-निरपेक्ष भाव से दाना चुगाते हैं. ये कबूतर भी जैसे जानते हैं कि यहाँ आने वालों से डरने की ज़रूरत नहीं है तथा निडर-निस्संकोच भाव से दाना चुगने के लिए लोगों के हाथों और कन्धों पर आ बैठते हैं.

विशाल अहाता पार करके हम छेनी से टंके हुए बढ़िया ग्रेनाइट पत्थर के चौकों (Ashlar) से निर्मित 225 फुट लम्बी, 180 फुट चौड़ी और 75 फुट ऊँची इमारत से रूबरु होते हैं. नमाज़ पढ़ने के लिए बना मस्जिद का विशाल भीतरी हॉल भारी-भरकम स्तम्भों के बीच तीन अन्तर्मार्गों (Bays) में बँटा है. इन अन्तर्मार्गों की गुम्बदीय छत चड्ढेदार मिहराबों के सिद्धान्त (Principle of Intersection of Arches) पर बनाई गई है और अभ्यन्तर (Interior) के इन्हीं क़द्दावर स्तम्भों पर आश्रित है. यही ठोस एकाश्म (Monolithic‌) स्तम्भ इमारत के भीतरी हिस्से में मनोरम माहोल रचते हैं. केवल मध्यवर्ती अन्तर्मार्ग पर ही स्कन्धित छत (Shouldered Roof) है. मस्जिद के मुहार (Facade) में भरपूर चौड़ाई वाली पाँच बुलन्द कमानें हैं. कमानों में की गई क्षैतिजिक सजावट, चाप स्कन्धों (Arch Spandrels) के बीच सादे (अपूर्ण?) गोल चक्रों और पुष्प रूपों का उभरवाँ काम छोड़ दें तो मुहार अनलंकृत ही है. मुहार तिपतिया डिज़ाइन के छोटे मुण्डेरदार प्राचीर (Parapet of Small Merlons) और औसत आकार के कपोत (Cornice) से जुड़ा है. कपोत अलंकृत बन्धन-धन्नी (Tie-Beams) के माध्यम से आपस में जुड़े कोष्ठकों पर टिका है. धन्नियों के कारण दूर से ये कोष्ठक छोटे-छोटे  मिहराबों जैसे दिखाई देते हैं. मस्जिद के दोनों किनारों पर कंगूरे बनाए गए हैं. दोनों कंगूरों के पुश्तों के ऊपर स्तम्भाश्रित गुमटियां (Cupola) हैं. शाहजहाँ के दौर की विशिष्ट परवर्ती मुगल शैली में निर्मित गुमटी से बाहर झाँकता हुआ सुन्दर कपोत और अत्यन्त आकर्षक परिरेखा (Contour) वाला सुडौल गुम्बद सचमुच देखने की चीज़ है. लेकिन, इस मस्जिद में सचमुच उल्लेखनीय बात कोई है तो यह कि 108 मीटर चौड़े अहाते के आगे खड़ी 67 मीटर लम्बी और 54 मीटर चौड़ी विशालकाय इमारत के बावजूद वास्तुशिल्पी हृदयस्पर्शी अभ्यन्तर और सन्तुलित अनुपात वाले भवन-मुख के निर्माण में सफल रहा है. फलस्वरूप, सादगी के लालित्य और अत्यन्त राजसी गरिमा से सराबोर पूरी की पूरी संरचना पर्यटकों के मन पर गहरी छाप छोड़ती है.
मस्जिद के भीतर ख़ुत्बे का मिहराब एक और ख़ास हिस्सा है. टैवर्निए के अनुसार, “मिहराब की शिला को खदान से खोदकर बाहर लाने में पूरे पाँच साल लगे. इस काम में सैकड़ों मज़दूर लगे थे और 700 जोड़ा बैलों की मदद से इसे मस्जिद के नियत स्थान तक पहुँचाया गया.”

औरंगज़ेब प्रसंग

जब औरंगज़ेब ने गोलकोण्डा पर चढ़ाई की तो मस्जिद की तामीर जारी थी. बहुत सम्भव है, जंग के दौरान तामीर रोकनी पड़ी हो. काम प्रायः पूरा हो गया था. लगता है, केवल भीतरी मीनारों की तामीर ही कुछ हद तक बाकी थी. अन्ततः गोलकोण्डा के पतन के बाद औरंगज़ेब ने हुक्म जारी किया कि तामीर जहाँ की तहाँ रोक दी जाए. उन्हीं के हुक्म से मीनारें बनकर तैयार तो हो गईं, लेकिन राजसत्ता की उदासीनता और पैसे की तंगी के चलते ये इमारत लम्बाई-चौड़ाई के अनुपात में पूरी ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाई. पड़ोस में चारमीनार की खूबसूरत मीनारें स्पष्ट करती हैं कि भवन की समानुपाती क़ुत्ब शाही मीनारें तीन-चार अलंकृत मंज़िलों में पूरी होती हैं, जबकि औरंगज़ेब की ज़िद से इस क़ुत्ब शाही इमारत पर मुगल शैली की सिर्फ एक मंज़िला ठिगनी मीनारें ही चस्पां कर दी गईं.

इस प्रकार मस्जिद की तामीर में बादशाह औरंगज़ेब का योगदान मीनारों के आंशिक निर्माण के अलावा, ख़ुदा के इस घर में आगन्तुकों को सिर झुकाकर भेजने वाली ज़ंजीर जड़े मुख्य प्रवेश-द्वार और एक मामूली धूप-घड़ी तक ही सीमित है.

कहा जाता है, जब मस्जिद का निर्माण समुचित सज-धज के साथ पूरा कराने की फरियाद शहंशाह औरंगज़ेब से की गई तो कला, संगीत और स्थापत्य के मामले में अपनी ख्याति के अनुरूप उन्होंने फ़ारसी का यह मशहूर शेर दोहरा दिया:
कारे दुनिया कसे तमाम नकर्द
हर्चः गीरद मुख़्तसर गीरद.
अर्थात, दुनिया का कारोबार आज तक कोई शख़्स पूरा नहीं कर पाया है. इसलिए किसी काम की ज़िम्मेदारी लो तो उसे न्यूनतम रूप में निपटा दो. तुज़ुक-ए-क़ुत्ब शाही से यह भी पता चलता है कि क़ुत्ब शाही दौर में यहाँ प्रतिदिन छत्तीस मन अनाज पकाकर गरीबों में बाँटा जाता था. खुल्द मकान (मरणोपरान्त बादशाह औरंगज़ेब का नाम) के शासन-काल में अनाज की यह मात्रा घटाकर प्रति दिन बारह मन कर दी गई.

मस्जिद के मुख्यद्वार पर अंकित ख़ुत्बा वर्ष 32 सूचित करता है कि जब निर्माण का यह चरण पूरा हुआ तो औरंगज़ेब को गद्दीनशीन हुए बत्तीस बरस हो चुके थे और वह वर्ष था 1100 हिजरी (सन् 1688).

आसार-ए-मुबारक

मस्जिद के आँगन में उत्तर की तरफ एक कमरे में पैग़म्बर मुहम्मद का बाल और कुछ अन्य अवशेष (आसार-ए-मुबारक) सुरक्षित रखे बताए जाते हैं. मस्जिद के पिछवाड़े ख़ानक़ाह (आश्रम) है और दक्षिण के एक कोने में क़ुरआन शरीफ़ के अध्ययन के लिए मदरसे की इमारत. मालूम हो कि शाही मस्जिदें नमाज़ अदा करने की जगहें भर नहीं होती थीं. उनके साथ सराय, मदरसे और ख़ानक़ाह आदि जुड़ी होती थीं. इस तरह मुस्लिम समुदाय में मस्जिदें लगभग वही सामाजिक भूमिका निभाती थीं, जो भारत के हिन्दू समाज में मन्दिर निभाते थे.

आसफ़ जाहों की कब्रगाह

प्रांगण के दक्षिणी हिस्से में मकबरों का पर्याप्त लम्बा ढाँचा ध्यान आकर्षित करता है. शहर के अतापुर इलाक़े में स्थित आसफ़िया राजपरिवार की शाही कब्रगाह महलों से काफी दूर महसूस होने लगी तो शाही मृतकों को दफ़नाने के लिए मस्जिद का यह हिस्सा चुन लिया गया. मीर निज़ाम अली ख़ाँ बहादुर की माँ उम्दा बेगम साहिबा के देहान्त के समय से इस जगह का इस्तेमाल बतौर कब्रगाह शुरु हो गया. फिर खुद निज़ाम अली ख़ाँ (1761-1803 ई.) से लेकर छठे निज़ाम मीर महबूब अली ख़ाँ (1869-1911ई.) समेत इस खानदान के कुल सोलह सदस्य यहीं दफ़नाए गए. बताया जाता है कि इन मकबरों पर संगमरमर की छह जालियां लगी थीं, जिन पर ख़ुत्बे अंकित थे.
आसफ़ जाहों की कब्रगाह के निर्माण में कहने के लिए इस बात का ध्यान तो रखा गया है यह तामीर मुख्य इमारत के शिल्प से मेल खाए, यानी वही ऐशलर ग्रेनाइट, वही कमानें, वही मीनारें, वही... लेकिन, सच यही है कि प्रार्थना-उपासना के प्रयोजन से निर्मित इस चौदहवीं के चाँद जैसे निर्विकार, जीवन्त और भव्य क़ुत्ब शाही भवन के लिए यह सौन्दर्यहन्ता मृतक-पार्थिव स्मारक स्थायी आसफ़ जाही ग्रहण के समान है.

उल्लेखनीय है कि कलात्मक क़ुत्ब शाही इमारतों और मस्जिदों के निर्माण का सिलसिला मक्का मस्जिद की नींव का पत्थर रखे जाने के साथ खत्म नहीं हो गया. क़ुत्ब शाही स्थापत्य की ऊँची पहचान तो दरअसल सुल्तान अब्दुल्लाह क़ुत्ब शाह के ज़माने (1626-72 ईस्वी) में कायम हुई, जब उसने पुष्प-अलंकरण को सर्वत्र अनिवार्य तत्व के रूप में अपना लिया. सच तो यह है कि स्थापत्य के इसी ठेठ क़ुत्ब शाही रूप और शैली ने उस समय साम्राज्य भर में निर्मित अनेक मस्जिदों पर अपनी छाप छोड़ रखी है.

तो आइए, किसी दिन आँखों को कला-कौशल से भरपूर हैदराबाद की क़ुत्ब शाही मस्जिदों का सौन्दर्य निहारने का सुख प्रदान करें.
--बृहस्पति शर्मा

< > < > < > < > < >