कृषि आद्या के पूजन का लोक पर्व
तेलंगाणा का राज्योत्सव बतकम्मा
जनजातीय
नृत्यों में पुरुषों के संग महिलाएं भी बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं. वे अपनी भागीदारी
आदि से अन्त तक यों बेरोक-टोक दर्ज करती हैं, ज्यों घर-गिरस्ती
में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर ज़िम्मेवारी निभाती हों. इसके विपरीत, तेलुगु
ग्राम्य अंचलों में ऐसे लोक-नृत्य इने-गिने हैं, जिनमें महिलाएं अकेले
या पुरुषों के संग हिल-मिलकर थिरकती हों. ऐसे कुछ एक नृत्य हैं भी तो किसी न किसी
अनुष्ठान से जुड़े हैं. नृत्यों में महिलाओं की ना-भागीदारी के पीछे सामाजिक वर्जना
रही होगी कि वे अपनी कायिक सम्पदा का झूम-झूमकर खुले आम बेपरदा प्रदर्शन न करें. फिर
भी, नारी-नृत्य
मानने योग्य तीन तेलुगु अनुष्ठान तो हैं ही. इनमें किसी न किसी ताल पर नपा-तुला
अंग संचालन अवश्य है. ये हैं तेलंगाणा के बतकम्मा-बोड्डेम्मा नृत्य, तटीय आंध्र के गोब्बी
नृत्य और रायलसीमा के जट्टी जामु. फिर तेलुगु जाति के ग्राम्य जीवन में ऐसा कौन-सा
अवसर होगा, जिसके लिए अनेक गीत न हों? यह और बात है कि इन
गीतों के साथ बाजा-गाजा नहीं होता.
तेलंगाणा
के घर-घर में मनाया जाने वाला वासन्ती उत्सव है बतकम्मा-बोड्डेम्मा. ग्रामीण
स्त्रियों के सामान्य लोकाचार का द्योतक. महिलाएं बतकम्मा के नाम से गौरी पूजन ही नहीं करतीं, स्त्रीत्व और पारिवारिक
संरचना में स्त्री के वर्चस्व का स्मरण कराने वाला महत्वपूर्ण उत्सव भी मनाती हैं.
कहना चाहिए कि यह है ही गौरी पूजन का महोत्सव. गौरी पर चर्चा हम आगे करेंगे. बतकम्मा
का शाब्दिक अर्थ है चिरन्तन नारी.
यह उत्सव
दशहरे के साथ पड़ता है. इसमें नौ दिन का समारोह मनाया जाता है. यह असोज मास के पहले
दिन से प्रारम्भ होता है. बतकम्मा पर्व के समारम्भ के नौ दिन पहले से क्वांरी कन्याएं
बोड्डेम्मा उत्सव मनाने लगती हैं. जैसाकि राणाप्रसाद शर्मा ‘पौराणिक कोश’ में गौरी व्रत की
प्रविष्टि में कहते हैं, “होलिका भस्म और काली मिट्टी के मिश्रण से गौरी की मूर्ति
बनाकर स्त्रियां पूजती हैं,” बरतन बनाने की काली-चिकनी मिट्टी से सात आरोही कुण्डलियों
की बोड्डेम्मा की प्रतिमा गढ़ी जाती है. उसे नीचे से ऊपर तक रंग-बिरंगे फूलों से सजाया
जाता है. उसके बीचोबीच वेंपलि वृक्ष (बन नील या सरफोंक) की टहनी खोभ दी जाती है.
सातवीं फुनगी के ऊपर लिंग के आकार का कुंकुम से सजा गीली हल्दी का पिंड या कलश रखा
जाता है. सँझा वेला में सभी कन्याएं ताली बजा-बजाकर गीत गाते हुए बोड्डेम्मा की
प्रतिमा के चहुँ ओर गोल दायरे में घूमती हैं. जनजातीय लोगों में कन्या के मातृत्व क्षमता
प्राप्त कर लेने पर आयोज्य धार्मिक अनुष्ठानों के सिलसिले की छाया इस उत्सव में
देखी जा सकती है. क़बीलों में कन्याओं की गोद आने पर इसी प्रकार के नृत्य किए जाते
हैं. इस अवसर पर माटी का पिण्ड बनाकर उसमें टहनी खोभना संसार भर के अनेक प्राचीन
समुदायों में प्रचलित सामान्य परिपाटी है. प्रसंगवश, ऐलाम, मेसोपोटामिया, ट्रांसकासपिया, एशिया माइनर, सीरिया, फिलीस्तीन, साइप्रस आदि के साथ-साथ
मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से मिट्टी की बहुतेरी एक-सी मूर्तियां मिली हैं. आम मान्यता
है कि शक्ति के रूप में विकसित ये उत्पादकता की जन्मदात्री महामाता या प्रकृति का आदिरूप
हैं. इनकी उपासना सम्भवतः अनातोलिया में प्रारम्भ हुई थी. इन मूर्तियों की समानताएं
इस निष्कर्ष पर पहुँचाती हैं कि यह देवी सिन्धु नदी से नील नदी तक पूज्य थीं. अत्यन्त
प्रतिष्ठित ग्राम देवियां इन्हींकी प्रतिनिधि हैं. आदिम जातियों में इनकी उपासना
की लोकप्रियता से सिद्ध होता है कि अनार्यों के राष्ट्रीय देवताओं में इनका प्रमुख
स्थान था. हिन्दुओं में निर्विलीन आर्य-पूर्व जनजातियों में माता या धरती माता की विशेष
उपासना होती है.
बोड्डेम्मा
उत्सव के समापन पर बतकम्मा उत्सव मनाया जाता है. बतकम्मा की प्रतिमा फूलों से बनाई
जाती है. विशेष रूप से समूचे तेलुगु अंचल में सहज-सुलभ फूलों की ढेरी से. इसमें तेलंगाणा
का राजपुष्प तंगेडु (तरवार) सबसे महत्वपूर्ण होता है. गेंदा, सेवन्ती, कनेर, गुनुगु (लाल
मुर्ग़ा) आदि अन्य फूल हैं. फूलों को पीतल की बड़ी परात में मन्दिर के शंक्वाकार गोपुरम्
के रूप में सजाया जाता है. इसके सबसे ऊपरी भाग में हल्दी की पिण्डी रखी जाती है.
यही है बतकम्मा. ग्राम देवियों के नाम में अम्मा प्रत्यय सूचित करता है कि वे गाँव
की स्वामिनी मैया होती हैं. उनके क्षेत्राधिकार में रहते ग्रामवासियों को उनका
अयाचित संरक्षण प्राप्त रहता है. ग्राम-सीमा के परे ग्राम देवी की शक्ति और
संरक्षण समाप्त हो जाते हैं. आगे, हर साँझ को इस देवी की पूजा करके प्रसाद वितरित किया जाता
है. दसवें दिन गाँव की महिलाओं और बच्चों का जुलूस बतकम्मा को पास के पोखर या नदी-नहर
की ओर ले चलता है. विसर्जन से पहले इस सुमन-विग्रह को पोखर या नदी-नहर के तटबँध पर
रख दिया जाता है. फिर महिलाएं हथेलियों से ताल दे-देकर इसके चहुँ ओर गोल घेरे में घूमती
हैं. बतकम्मा की स्तुति गाती हैं. इस अनुष्ठान के अनगिनत गीत हैं. उत्सव के नवों
दिन ये गीत गाए जाते हैं.
अविभक्त
आन्ध्र के अन्य भागों में सावन भर का उत्सव मनाया जाता है ‘मंगल गौरी व्रतम्’. इस दौरान
हिन्दू परिवार मंगलवार और शुक्रवार को गौरी पूजन करते हैं. इस उत्सव का सबसे
रंग-बिरंगा भाग है गृह संकुल आंगन में बतकम्मा विग्रह के चहुँ ओर स्त्रियों का
वृत्ताकार नृत्य. क्या बूढ़ी, क्या प्रौढ़ा और क्या तरुणी, इसमें सभी
सोत्साह सम्मिलित होती हैं. कोमल पद संगति के साथ गोल-गोल घूमते और तालियों से
लय-ताल का काम लेते हुए बतकम्मा नृत्य ग्रामीण महिलाओं की प्रकृति और संवेदनशीलता
को बख़ूबी अभिव्यक्त करते हैं. बतकम्मा का प्रत्येक गीत ‘उय्यालो’ या ‘चँदामामा’ या ‘वोलालो’ की टेक पर
समाप्त होता है. गीत का एक-एक शब्द ग्रामीण कल्पना आसन्न प्राकृतिक बिम्बों और
क्रियाओं को प्रतिध्वनित करता है.
जनश्रुति
के अनुसार, बतकम्मा चोल नरेश धर्मांगद-सत्यवती की पुत्री थी. वे युद्धों
में अपने सौ भर पुत्र गँवा चुके थे. उन्होंने लक्ष्मी से प्रार्थना की कि वह उनके
घर पुत्री के रूप में जन्म लें. मैया ने उनकी सुन ली. लक्ष्मी राजमहल में जनमीं तो
ऋषि-मुनि पधारे. देवी को आशीर्वाद दिया: ‘बतकम्मा’ अर्थात् ‘अमर रहो.’ बतकम्मा ने आगे चलकर विष्णु
अवतार चक्रांक से ब्याह किया था.
एक
अन्य कथा इस उत्सव का सम्बन्ध शिव की सहचरी पार्वती के गौरी/दुर्गा रूप से जोड़ती
है. भागवत (10.53.25), ब्रह्माण्ड पुराण (2.25.18), वायु पुराण (43.38, 106.58), विष्णु पुराण (5.32.12), रघुवंश (2.26) और
कुमारसम्भव (7.95) में पार्वती को गौरी कहा गया है. गौरी ने युद्ध में
महिषासुर को वधा था. वह बुरी तरह थककर मूर्छित हो गई थीं. तब ऋषि-मुनि ‘बतकम्मा-बतकम्मा’ कहकर उनसे उठ
बैठने की प्रार्थना करने लगे. वह असोज की दशमी को पुनः जाग्रत हो गईं.
इस
प्रसंग में गौरी के विषय में जिज्ञासा जाग्रत होनी स्वाभाविक है. पुरानिक
एनसाइक्लोपीडिया में वेट्टम् मणि कहते हैं, “शिव-पार्वती ने विश्व-भ्रमण
करते हुए बरसों मधुमास मनाया. एक दिन की बात है. वनदेवता शिव अपनी पर्वतीय अर्धांगिनी
को हँसी-ठिठोली में ‘काली-काली’ कहकर छेड़ने लगे. वह अधमतम नीलमणि की नाईं काली थीं. बार-बार
काली कहने से बात बढ़ गई. पार्वती को भ्रम हो गया. उन्होंने समझा, शिव को उनकी काली काया
पसन्द नहीं. वह दुःख से काँपने लगीं. बोलीं, ‘तीर से लगा
घाव भर जाता है. वृक्ष की फुनगी काट दें, तो ऋतु आने पर वह भी फिर-फिर बढ़ जाती है. इसके उलट, कठोर शब्दों
से लगा घाव कभी नहीं भरता. मैं काली जनमी तो मेरा क्या दोष? अपनी काली काया के साथ
आपके निकट अब कभी न आऊँगी. मैं चली.’ उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया था. वह आकाश में उड़ चलीं. कुछ
समय बाद एक विशाल वन में जा पहुँचीं. अपने स्मरण-मन्त्र से चार परिचारिकाएं
उत्पन्न कीं. सोमप्रभा, जया, विजया और जयन्ती. फिर एक पैर पर कड़ी तपस्या में लीन हो गईं.
सौ बरस बाद ब्रह्मा प्रकटे. उन्होंने अचरज जताया कि महादेव की सहचरी को घोर तप की आवश्यकता
आन पड़ी! पार्वती ने उन्हें आपबीती कह सुनाई. ब्रह्मदेव ने पार्वती को वरदान दिया, ‘हे पतिव्रते, तेरी काली काया
आज कमल की पाँखुरी के रंग में ढल जाएगी. अपने गौर वर्ण के कारण तू गौरी कहलाएगी.’ पार्वती उसी
क्षण काली-कुरूप से गोरी-छबीली में रूपान्तरित हो गईं. तबसे गौरी कहलाती हैं.” माथे
पर आड़ा-खड़ा तिलक धरने वाले पण्डितों से ऊल-जुलूल व्याख्याओं की ही आशा की जा सकती
है. पुराण ऐसी बेतुकी कपोल कल्पनाओं के ज़ंग लगे पिटारे हैं.
आइकॉनोग्राफ़ी
ऑव द हिन्दूस, बुद्धिस्ट्स ऐंड जैनस के लेखक आर.एस. गुप्ते बताते हैं कि भाद्रपद
में लम्बा लोक अनुष्ठान मनाया जाता है गणेश चतुर्थी. देश के कुछ भागों में व्रत के
कर्मकाण्ड के बीच वनदेवता गणेश को प्रस्थान कर जाना पड़ता है. उनके स्थान पर एक
देवी का नाम सुनने को मिलता है. वह हैं गौरी. पौराणिक गौरी से अलग. वह कुछ पौधों
की गठरी भर होती हैं. इसके साथ होती है एक कुमारी कन्या की प्रतिमा. यहाँ से व्रत
का चरित्र स्त्री प्रधान हो जाता है. इकट्ठा किए गए पौधों को स्त्रियां हल्दी से
बनाई गई चौक पर रख देती हैं. इन पौधों का गट्ठर बनाया जाता है तो सुहागिनों को
कुंकुम दिया जाता है. तमाम व्रत इस गट्ठर के आसपास सिमटा होता है. इसमें केवल
स्त्रियां भाग लेती हैं. इन पौधों और क्वांरी कन्या को स्त्रियां घर के एक-एक कमरे
में ले जाती हैं. उससे पूछती हैं, “गौरी, क्या देख रही हो?” वह उत्तर देती है, “समृद्धि. ढेरों धन-धान्य.”
गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फ़र्श पर उसके पैरों के
निशान बनाए जाते हैं.
अगले
दिन समारोह के प्रारम्भ में चावल और नारियल की गिरी से बने हुए पिण्ड देवी के
सामने रखे जाते हैं. हर एक सुहागिन अपने हाथों काता हुआ अपने से सोलह गुणा लम्बा
सूत गौरी के सामने रखती है. शाम में घर की सभी कन्याएं देर तक नाचती-गाती और सखियों
के घर जाती हैं. अगले दिन गौरी-प्रतिमा को अर्धचन्द्राकार मालपुए चढ़ाए जाते हैं.
प्रत्येक स्त्री पिछली रात प्रतिमा के सामने रखा सूत उठा लेती है. उसका गोला बनाकर
सोलह गाँठें लगाती है. उन्हें हल्दी में रंगकर गले में पहन लेती है. यह सूती हार
वह अगली फ़सल की कटाई के दिन तक पहने रहती है. उसी दिन सूरज ढलने से पहले उसे नदी
में विधिपूर्वक विसर्जित कर देती है. इस बीच, जिस दिन सूती हार गले
में पहना जाता है, उसी दिन गौरी-प्रतिमा को नदी-ताल में सिरा दिया जाता है.
उसके किनारे से मिट्टी लाकर घर के बगीचे में बिखेर दी जाती है. देवी की प्रतिमा
नदी तक स्त्री ही ले जाती है. उसे चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़कर न देखे.
ध्यातव्य है कि इस अनुष्ठान की व्यापकता और अवशेष शास्त्रीय नवरात्र या दुर्गा उत्सव
में भी मौजूद हैं. महामहोपाध्याय पाण्डुरङ्ग वामन काणे ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में बताते हैं, “दुर्गा पूजा चारों
वर्णों के लोग ही नहीं, जातिबाह्य लोग भी कर सकते हैं...दुर्गा पूजा म्लेच्छ, दस्यु (चोर, निष्कासित हिन्दू) अंग, बंग, कलिंग के
लोग,
किन्नर, बर्बर और शक भी करते हैं...पवित्र मिट्टी की वेदिका बनाई
जाती है, उस पर जौ और गेहूँ बो दिए जाते हैं...इस दिन दुर्गा की
मिट्टी की प्रतिमा बिल्व की शाखा के साथ घर लाकर पूजी जाती है. दशमी तिथि को नदी या
तालाब के पास जाकर संगीत, गायन और नृत्य के साथ मन्त्रोच्चार करके प्रतिमा को विसर्जित
किया जाता है. प्रार्थना की जाती है, ‘हे दुर्गा, हे विश्वमातृ, आप अपने स्थान को प्रस्थान करें और साल भर बाद पुनः पधारें.’”
इस व्रत-अनुष्ठान
के बाद होती है कथा: एक बार की बात है. एक कंगाल था. दलिद्दर से तंग आकर डूब मरने
को नदी पर पहुँचा. वहाँ एक वृद्धा सुहागिन मिली. उसने आत्महन्ता रंक को घर लौटने
को मना लिया. वह उसके साथ हो ली तो समृद्धि भी चली आई. वृद्धा के लौटने का समय
आया. उसे विदा करने के लिए कंगाल नदी तक गया. नदी किनारे की मुट्ठी भर मिट्टी देकर
वृद्धा बोली, “समृद्धि चाहता है तो इसे अपनी सारी सम्पत्ति पर छिड़क दे.”
वृद्धा ने यह भी कहा कि वह भादों में गौरी के सम्मान में ऐसा ही अनुष्ठान किया करे.
देवीप्रसाद
चट्टोपाध्याय ने इस कथा से सीधा-सा अभिप्रेत प्रस्तुत किया है. नदी-ताल की कछारी
भूमि खेती-बाड़ी के लिए सबसे उपयुक्त होती है. वृद्धा बीतते मौसम का और कन्या खिलने
को तैयार नए मौसम की प्रतीक है. छुई-मुई का प्रतीक यही संकेत करता है. लेटी हुई आकृति
या पुतला पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक है. चावल तथा मोटे अनाज का चढ़ावा संकेत
करता है कि तब यह अन्न प्रस्फुटित हो रहा होता है. अनाज की यह भेंट भादवी धान की
नई फ़सल की आशा में चढ़ाई जाती है. लेटी हुई आकृति का आधी रात को देह तजना उस मौसम
में खेतों में काम के अन्तिम दिन का संकेत है. लेटी हुई आकृति को धरती माता की गोद
में सुला देना, चारों ओर रेत बिखेरना और सोलह गाँठों वाले गोले बनाना आदि
पुराने मौसम की समाप्ति और नए मौसम के समारम्भ के प्रतीक हैं. संसार भर की आदिम
जातियां ऐसे अनुष्ठान रचाती हैं. अपने यहाँ इन्हींको हिन्दू रूप दिया गया है. सोलह
गाँठें लगाना, सोलह सूत्रों के गोले बनाना और उनके हार बना लेना संकेत
हैं कि धान की फ़सल के लिए सोलह सप्ताह लगते हैं.
सारा
अनुष्ठान कृषि से सम्बन्धित है. उसका केन्द्र-बिन्दु है भरपूर फ़सल की इच्छा. सो, इसे केवल स्त्रियां ही सम्पन्न
करती हैं. इसमें देवता या पुरुष के लिए स्थान नहीं है. वह इसलिए कि गौरी फ़सल की
भारतीय देवी है. उसे हम मैक्सिको की अनाज की देवी, टोंगा द्वीप समूह की
आलो आलो, ग्रीस की दिमित्तर या रोम की देवी सेरीस के समकक्ष मान
सकते हैं. प्रश्न उठता है, कृषि पुरुष-क्षेत्र है तो उसकी अधिष्ठात्री देवी क्यों हो? गर्भावस्था और स्तन्य
काल में स्त्रियों की गति अवरुद्ध हो जाती है. इसलिए शिकार का ज़िम्मा पुरुष पर आन
पड़ा और खाद्य-सामग्री जुटाने का स्त्री पर. स्त्री बीज बोने लगी. खुरपी चलाने लगी.
इसी प्रक्रिया ने स्त्री को कृषि की आविष्कर्ता बनाया. जे. डी. बरनाल ने लिखा है, “खाद्य-सामग्री इकट्ठा
करना स्त्रियों का कार्य था. इसलिए कृषि की खोज उन्होंने ही की. बैलों से हल चलाने
या जुताई के आविष्कार तक वे कृषि करती रहीं.”
ब्रिफो
कहते हैं, ”खेती-बाड़ी की कला का पूर्ण विकास स्त्रियों के हाथों हुआ है.”
एहरेन्फेल्स तो यहाँ तक कहते हैं, “कृषि का आदिम रूप और इसके साथ-साथ मातृ अधिकार का एक रूप
सबसे पहले भारत में ही विकसित हुआ. सामान्य भौगोलिक और पुरातात्विक स्थिति इस
सिद्धान्त के पक्ष में है कि विश्व में मातृ सत्तात्मक संस्कृतियों का आविर्भाव
भारत में ही हुआ.” वह भारतीय मातृ अधिकार ही था, जिसने भूमध्य सागर की
द्रोणी, प्राच्य अफ्रीका, निकट पूर्व और विशेषतः दक्षिण अरब के क्षेत्रों में
प्राचीन मातृ सत्तात्मक सभ्यताओं को जन्म दिया. मानव सभ्यता में शिकार और पशु-चारण
के दौर में देवता प्रमुख हैं, जबकि इन्हीं चरणों के प्रारम्भिक काल में देवियों का स्थान
ऊँचा है. इससे हमें वैदिक और अवैदिक दृष्टिकोणों के संकेत मिलते हैं.
वैदिक
धर्म-उपासना में देवियों का स्थान नितान्त गौण है. विश्व-संचालन में उनकी भूमिका
नगण्य. किसीका थोड़ा-बहुत महत्व है तो वह है उषा. आंकड़ों के हिसाब से वह तीसरी
श्रेणी में आती है. दूसरा स्थान सरस्वती का है, लेकिन वह
निम्नतम श्रेणी में गिनी जाती हैं. कुछेक की स्तुति में एक-एक ऋचा और पृथ्वी की
स्तुति में तीन छन्दों की छोटी-सी ऋचा रची गई है. एक में रात्रि का आह्वान है. इसी
प्रकार देव-पत्नियों के रूप में वेदों में देवियों का स्थान बहुत तुच्छ है. उनका
कोई स्वतन्त्र रूप नहीं है. ऐसी पत्नियां भी इन्द्र सरीखे देवताओं के ही पास थीं.
उनके नाम भी देवताओं के नामों के साथ स्त्रीलिंग प्रत्यय ‘अणी’ जोड़कर लिए
गए हैं. वेदकुल में वैदिक जनों की पशुपालक अर्थ-व्यवस्था ही पुरुष-प्रभुत्व का
भौतिक आधार थी. अलबत्ता, वैदिक साहित्य में मिलने वाले कृषि के गिने-चुने उल्लेखों
में देवताओं के स्थान पर प्रायः देवियां हैं. जैसे, ऋग्वेद में
सीता का आह्वान है. सीता अर्थात् खेत में हल चलने से बनी खाँच. हाँ, सूत्रों में देवी अधिक
जीवन्त है. गोभिल गृह्यसूत्र में सीता, आशा, आरद और अनघ की चर्चा है. इनका आह्वान जुताई, बुआई और कटाई के अवसर पर
विशेष धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता था. फिर पारस्कर गृह्यसूत्र में उर्वरा, सीता, यजा, शामा और भूत देवियों का
उल्लेख है. ये सभी कृषि-कार्यों से सम्बद्ध थीं.
आर्य
जबसे अपेक्षाकृत शान्तिपूर्ण जीवन बिताने लगे, तबसे
देवियों की उपासना को सर्वोच्च स्थान मिला. दुर्गा को प्रकृति और वसन्त की देवी, काली को चिरन्तनता-निस्सीमता
की देवी, सरस्वती को महत्तम प्रज्ञा की देवी और शक्ति को समस्त
सृष्टि की माता माना गया.
वेदोत्तर
हिन्दू धर्म में वेदों के प्रति पूर्ण औपचारिक आस्था के बावजूद, इन्द्र, वरुण, मित्र, प्रजापति, मातरिश्वा जैसा कोई
प्रमुख देवता नहीं था. जिस पशुपालक अर्थ-व्यवस्था ने वैदिक देवताओं की परिकल्पना को
जन्मा था, उसे और सुदृढ़ बनाने के लिए वह वेदोत्तरकाल में विद्यमान
नहीं थी. इसलिए वैदिक देवताओं को विलुप्त होना पड़ा. लोक-जीवन पर पितृ-अधिकार के
तत्व थोप भले ही दिए गए थे, फिर भी मातृ-अधिकार के अवशेष पूर्णतः समाप्त नहीं किए जा
सके. भारतीय जन साधारण खेतिहर बना रहा. उसकी आस्था माता या शक्ति में बराबर बनी
रही. बहुसंख्यक भारतीय किसान अब जनजातीय समाज में भले ही न रहते हों, उनमें देवताओं का स्थान
गौण और जीवन पर देवियों का प्रभाव मुख्य है. इस वास्तविकता की पृष्ठभूमि में वही
आद्या हैं, जिनकी मृण्मूर्तियां प्राचीन सभ्यता स्थलों पर मिली हैं. आदिभारतीय
जनमानस में मूलभूत देवी की स्मृति आज तक जीवित है तो इसलिए कि उसके भौतिक
आधार-तत्व अब तक विद्यमान हैं.
यह बात
नहीं कि उत्तरवर्ती भारतीय देवकुल में देवता न हों. जो भी हैं, मुख्यतः
कृषि से सम्बद्ध हैं. वे प्रायः अग्रगण्य नहीं हैं या किसी न किसी रूप में देवियों
से जुड़ गए हैं. इस विलय का सुपरिचित उदाहरण शिवलिंग है, जिसकी
योनिपीठ गौरीपट्टम् ही है.
गोब्बम्मा
तटीय
आन्ध्र प्रदेश में बतकम्मा का प्रतिरूप है गोब्बी आटा. यह फ़सल कटाई का
उत्सव है. भरपूर उपज हुई है. खलिहान धान से लबालब भरे हैं. इस अवसर पर किसान उत्सव
मनाता है. यह उत्सव संक्रान्ति पर्व के भाग के रूप में मनाया जाता है. सच्चाई तो
यह है कि तेलुगु नव वर्ष संक्रान्ति का शुभारम्भ गोब्बम्मा नृत्य से होता है.
संक्रान्ति
मनाने के लिए आन्ध्र प्रदेश के घर-घर का आंगन कलापूर्ण रंगोलियों से सजाया जाता
है. कन्याएं गोबर के छोटे-बड़े गोलों से ‘गोब्बियां’ तैयार करती हैं. उन पर चावल के आटे से रेखाएं खींचती हैं. उन्हें
हल्दी-कुँकुम से सजाती हैं. उनके बीचोबीच फूल खोभ दिया जाता है. यह सामान्यतः चटक
पीला गुम्मड़ी का फूल (गेंदा) होता है. गोब्बी घर के सामने आँगन में रंगोली पर रख
दी जाती है. इसे कभी-कभी घर के पिछवाड़े भी रखा जाता है. कन्याओं में होड़ मच जाती
है कि कौन कितनी बड़ी रंगोली सजाएगी. जितना बड़ा आँगन, उतनी बड़ी
रंगोली. रंगोली आंगन में ही सिमट जाती तो क्या बात थी. रंगोलियों की नक्काशी तो गली-कूचे
तक पसर जाती है. समृद्धि की देवी की अगवानी के लिए एक-एक पथ पर जैसे रंग-बिरंगी
क़ालीन ही बिछा दी जाती है.
गोब्बी
नृत्य वृत्ताकार होता है. रास की तरह. गोब्बियों को एक जगह स्थापित करके नवान्न से
पूजा जाता है. उनकी आरती उतारी जाती है. फिर ताली बजा-बजाकर लक्ष्मी-गौरी के गुण
गाती कन्याएं उनकी परिक्रमा करने लगती हैं. सूखी गोब्बियां दिन ढले अगल-बगल की
दीवारों पर सम्भालकर रख दी जाती हैं. संक्रान्ति के दिन कन्याएं गाँव की स्त्रियों
को आमन्त्रित करके ताज़ा गोब्बियों के चहुँ ओर नृत्य करती हैं. सूखी गोब्बियों पर
प्रसाद पकाकर आमन्त्रित स्त्रियों में वितरित किया जाता है.
गोब्बी
नृत्य भी बतकम्मा की तर्ज़ पर अनुष्ठानों में नारी-विश्वास की कोमल अभिव्यक्ति है.
इसके गीत सदैव कमल जैसे भाई, सेवन्ती जैसी बहिना और मोगरा जैसे पति के लिए गोब्बम्मा से
आशीर्वाद माँगते हैं.
कुछ
लोग मानते हैं कि ‘गोब्बी’ शब्द गरबा का रूपान्तरण होना चाहिए. गरबा है गुजरात का नृत्य.
अधिक सम्भव है कि यह शब्द कृष्ण-प्रेयसी गोपी से बना होगा. तमिल ग्रन्थ तिरुप्पवै
और तेलुगु के कवि अन्नमय्या के पदों में इसके हवाले मिलते हैं. जनश्रुति के अनुसार, प्राचीन काल में सूखा-अकाल
में वर्षा के लिए रेपल्ले की गोपियां कात्यायनी (दुर्गा) की आराधना करती थीं. वे उत्तम
पति की प्राप्ति के लिए भी इन्हींकी पूजा-अर्चना करती थीं. कहते हैं, देवी वर्षा कराती थीं
और कृष्ण जैसा उत्तम पति पाने की मनोकामना भी पूरी करती थीं.
तेलंगाणा
में स्त्रियों के निमित्त स्त्रियों का दूसरा अनन्य नृत्य है कामुड़ु और रायलसीमा में
जट्टि जामु. कामुड़ु में स्त्रियां, विशेषतः कामकाजी स्त्रियां, बतकम्मा जैसा ही घेरेदार
नृत्य करती हैं. जट्टि जामु किसी समय एक प्रकार का कोलाटम् नृत्य रहा होगा. कम से
कम नाम तो यही संकेत करता है. जट्टि पद कोला को और जामु यम अर्थात् काल को ध्वनित
करता है. इसका अर्थ हुआ कोला नृत्य का समय. सदैव पूनों की रात में आयोज्य नृत्य-गायन
जट्टि जामु भी घेरेदार नृत्य है. इसमें सम्मिलित स्त्रियां बारी-बारी से अपनी दाईं
हथेली को पड़ोसन की बाईं हथेली से टकराकर और इसी प्रकार पड़ोसन अपनी बाईं हथेली को
दूसरी पड़ोसन की दाईं हथेली से टकराकर लय-ताल उत्पन्न करती हैं.
इनमें
से किसी भी नृत्य में संगत के लिए थाप देने का वाद्य नहीं होता. ताली का ही सहारा
होता है. ये सभी नृत्य किसी न किसी अनुष्ठान से जुड़े हैं. इनसे अभिप्रेत है भरपूर उपज
का उत्सव, समृद्धि तथा परिवार-कल्याण. चाहे बतकम्मा हो, चाहे गोब्बेम्मा या फिर
कामुड़ु-जट्टि जामु, पारम्परिक लोक-गीत, ताली की ताल और लयपूर्ण
नृत्य सामान्य रूप से ग्राम्य जीवन में और विशेष रूप से उत्सव में मनभावन रंग भर
देते हैं.
--बृहस्पति शर्मा
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