Friday 25 May 2012

रावण की रामायण

रावण की रामायण

भ्राता वैश्रवणस्याहं साप्त्न्यो वरवर्णिनि.
रावणो नाम भद्रं ते दशग्रीवः प्रतापवान्.. (अरण्य.,46.2)
(मैं कुबेर का सौतेला भाई प्रतापी दशग्रीव रावण हूँ. तुम्हारा भला हो.)

संरक्तनयनः श्रीमांस्तप्तकाञ्चनकुण्डलः.
दशास्यो विंशतिभुजो बभूव क्षणदाचरः.. (अरण्य., 47.7)
(उस समय श्रीमान रावण के सभी नेत्र लाल हो उठे थे. तब रावन निज रूप देखावा
--वह दस मुखों और बीस भुजाओं से लैस हो गया.)

दशग्रीव स्थितो धर्मे पुराणे सत्यसंश्रयः. जटायुर्नाम नाम्नाहं गृध्रराजो महाबलः.(अरण्य., 48.3)
(दशग्रीव! मैं पुरातन धर्म में आस्था रखने वाला, सत्यप्रतिज्ञ और महाबलवान गृध्रराज हूँ. मेरा नाम जटायु है --निर्भय चलेसि न जानेहि मोहि.)

ततः स तां कपिरभिपत्य पूजितां चरन् पुरीं दशमुखबाहुपालिताम्.
अदृश्य तां जनकसुतां सुपूजितां सुदुःखितां पतिगुणवेगनिर्जिताम्.. (सुन्दरकाण्ड, 6.16)
(दशमुख के बाहुबल से शासित उस प्रशंसनीय पुरी में चारों ओर खोज लेने के बावजूद, अपने पति के गुणों पर न्योछावर, अत्यन्त दुखियारी और परम पूजनीय जनकनन्दिनी को न पाकर कपिवर बड़ी चिन्ता में पड़ गए -–मंदिर महुँ न दीखि बैदेही.)



देवगन्धर्वकन्याश्च नागकन्याश्च तास्ततः. परिवार्य दशग्रीवं विविशुस्तद्गृहोत्तमम्.(सुं.20.40)
(देव, गन्धर्व और नाग-कन्याएं भी दशग्रीव को चारों ओर से घेरकर उसके साथ ही उस उत्तम राजभवन में चली गईं –-भवन गयउ दसकंधर .)

पौलस्त्यस्य वरिष्ठस्य रावणस्य महात्मनः. दशग्रीवस्य भार्यात्वं सीते न बहु मन्यसे.(सुं.21.4)
(सीते! तुम पुलस्त्य के कुल में जन्मे सर्वश्रेष्ठ दशग्रीव महामना रावण की भार्या बनना भी कोई बहुत बड़ी बात नहीं समझतीं?)

शिरोभिर्दशभिर्वीरं भ्राजमानं  महौजस्यं. नानाव्यालसमाकीर्णैः शिखरैरिव मन्दरम्. (सुन्दर.47.6)
(दस मस्तकों से सुशोभित महाबली रावण ना-ना प्रकार के सर्पों से भरे हुए, अनेक शिखरों से शोभायमान मन्दराचल के समान प्रतीत हो रहा है.)

एतौ पादौ मया स्निग्धौ शिरोभिः परिपीडितौ.(अरण्य., 53.33)
(तुम्हारे इन स्निग्ध चरणों पर मैं अपने दसों मस्तक रख रहा हूँ.)

दशाननः क्रोधविवृत्तनेत्रो यतो यतोsभ्येति रथेन संख्ये.
(दशानन की आँखें क्रोध से घूम रही थीं...)
दशास्यो विंशतिभुजः प्रगृहीतशरासनः. अदृश्यत दशग्रीवो मैनाक इव पर्वतः..
निरस्यमानो रामस्तु दशग्रीवेण रक्षसा. (युद्ध., 90.31-32)
(बीस भुजाओं में धनुष लिए दस मस्तकों वाला रावण मैनाक पर्वत के समान दिखाई देता था. राक्षस दशग्रीव के बाणों से आहत राम...)

खर आरूढ़ नगन दससीसा. मुंडित सिर खंडित भुज बीसा.. (सुन्दरकाण्ड, 10.2)
चलत दसानन डोलति अवनि.(बालकाण्ड, 181.3)
दसमुख बसबर्ती नर नारी. (बालकाण्ड, 181.6)
जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनै दससीसा. (बालकाण्ड, 182.4 छं.)
कह दसकंठ कवन तैं बंदर. मैं रघुवीर दूत दसकंधर.. (लंकाकाण्ड, 19.1)

अपने यहाँ रावण का उल्लेख होने की देर भर है कि एक ऐसे चरित्र की छवि हमारे मन में अनायास ही उजागर हो जाती है, जिसके दस सिर और बीस हाथ हैं:  
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा. रावन नाम बीर बरिबंडा..
आम भारतीय मानस में तो यह धारणा गहरी पैठ ही चुकी है, प्रबुद्ध कला-क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रह पाया है. रावण को दशानन दिखाना दस्तूर बन चुका है. किसी को भी कुटिल चित्रित करना हो, दस सिरों वाली उसकी तस्वीर बना दी जाती है और वह रावण की प्रतिनिधि होती है. रावण की तस्वीर को अपढ़-गंवार भी खूब पहचानता है. छोटे-छोटे शहरों तक में दशहरे के अवसर पर रावण का दस सिर, बीस हाथ वाला पुतला हर साल जलाकर यह कोशिश की जाती है कि उसकी दशानन-विंशभुज छवि हमारे मन में अमिट बनी रहे. इसलिए देखना होगा कि क्या मूल राम-कथा के सिरजनहार महाकवि वाल्मीकि ने राक्षसराज रावण को इसी तरह चित्रित किया है.
वाल्मीकि ने रावण को विभिन्न परिस्थितियों में पेश किया है. वह सो रहा है, वह मरा पड़ा है, वह अपने दरबार में सिंहासन पर आसीन है, अपने रथ पर सवार वह युद्ध कर रहा है. ऐसी सभी अवस्थाओं में उसका यथार्थ चित्रण हमें वाल्मीकि कृत रामायण में पढ़ने को मिलता है. विशेष रूप से सोए हुए और मृतक रावण के चित्र हमें उसके वास्तविक रूप तक सहज ही पहुँचा देते हैं. शास्त्र कहते भी हैं: और-और समय तो व्यक्ति अपने आपको दसियों मुखौटों के पीछे छिपा सकता है, लेकिन नींद में और शव रूप में उसका असली चेहरा अपने आप सामने आए बग़ैर नहीं रहता. आइए देखें:
सीता को खोजते हुए हनुमान रावण के महल में एक से दूसरे कमरे में नींद में डूबे राक्षसों के बीच घूम रहे हैं. रावण दिन भर के कार्य-व्यापार के बाद विश्राम कर रहा है. वह भी गहरी नींद में चारों खाने चित पड़ा है -–सयन किए देखा कपि तेहिं:
काञ्चनाङ्गदनद्धौ च ददर्श स महात्मनः. विक्षिप्तौ राक्षसेन्द्रस्य भुजाविन्द्रध्वजोपमौ..
(उन्होंने महाकाय राक्षसराज रावण की फैली हुई दो भुजाएं देखीं, जो सोने के बाज़ूबन्द से विभूषित इन्द्रध्वज के समान जान पड़ती थीं.)
ऐरावतविषाणाग्रैरापीडितकृतव्रणौ. वज्रोल्लिखितपीनांसौ विष्णुचक्रपरिक्षतौ.
(उन भुजाओं पर ऐरावत के नुकीले दान्तों के प्रहार के चिह्न बन गए थे. कन्धे माँसल थे. उन पर वज्र-आघात के निशान  दिखाई पड़ते थे. वे भुजाएं किसी समय विष्णु-चक्र से भी क्षत-विक्षत हो चुकी थीं.)
पीनौ समसुजातांसौ संगतौ बलसंयुतौ. सुलक्षणनखाङ्गुष्ठौ स्वङ्गुलीतललक्षितौ..
(दोनों भुजाओं का हर एक भाग-प्रतिभाग आपस में समान, कन्धे उनके समुपयुक्त और अस्थियों के जोड़ सुदृढ़ थे. वे उत्तम लक्षण वाले नखों और बलिष्ठ अँगूठों से सुशोभित थीं. उनकी अंगुलियां और हथेलियां सुन्दर दिखाई देती थीं.)
संहतौ परिघाकारौ वृत्तौ करिकरोपमौ. विक्षिप्तौ शयने शुभ्रे पञ्चशीर्षाविवोरगौ.(सुन्दर.8.13-16) (वे पुष्ट-सुगठित, परिघ के समान गोलाकार, हाथी की सूण्ड की भाँति लम्बी और कसरती माँसपेशियों वाली थीं. शुभ्र शायिका पर फैली वे बाँहें पाँच-पाँच फन वाले दो सर्पों के समान दिखाई देती थीं.)
ताभ्यां स परिपूर्णाभ्यायां भुजाभ्यां राक्षसाधिपः.
शुशुभेsचलसंकाशः शृंगाभ्यामिव मन्दरः.. (सुन्दर., 8.20)
(उन दो बड़ी-बड़ी और गोलाकार भुजाओं से सन्नद्ध राक्षसराज दो शिखरों से संयुक्त मन्दराचल के समान सुशोभित था.)
रावण के इस पूरे के पूरे वर्णन में भुजाओं के लिए द्विवचन का प्रयोग किया गया है. इससे पता चलता है कि उसके दो ही भुजाएं थीं. इसी क्रम में उसका सिर भी एक ही बताया गया है:
तस्य राक्षससिंहस्य निश्चक्राम महामुखात्. शयानस्य विनिःश्वासः पूरयन्निव तद् गृहम्..
(सोए हुए राक्षसराज के भरे-पूरे मुँह से निकलने वाली सौरभयुक्त साँस से पूरे का पूरा घर महक रहा था.)  और भी
मुक्तामणिविचित्रेण काञ्चनेन विराजिता. मुकुटेनापवृत्तेन कुण्डलोज्ज्वलिताननम्..
(कुण्डल से प्रकाशमान रावण का मुखारविन्द मस्तक से हटे हुए मुक्तामणि जटित स्वर्णिम मुकुट की आभा से और भी दमक रहा था.)
यहाँ मुखात् और आननम् दोनों ही एकवचन हैं. उसके एक ही मुख था. इसलिए एक ही सिर, एक ही ग्रीवा (गरदन) और दो भुजाएं. हनुमान की नज़र धोखा नहीं खा सकती.
युद्ध-क्षेत्र में रावण का पार्थिव शरीर पड़ा है. विभीषण उसे देखकर कहते हैं:
निक्षिप्य दीर्घौ निश्चेष्टौ भुजावङ्दभूषितौ. मुकुटेनापवृत्तेन भास्कराकारवर्चसा. (युद्ध., 60.3)
ध्यात्व्य है कि भुजौऔर उसका विशेषण द्विवचन हैं और मकुटेण एकवचन. वैसे, इस श्लोक का अर्थ है –-बाज़ूबन्दों से सुशोभित आपकी दोनों लम्बी भुजाएं निश्चेष्ट होकर फैली पड़ी हैं. सूर्य की भाँति दैदीप्यमान आपका मुकुट भी अलग जा पड़ा  है.
रावण की पत्नियां युद्ध-भूमि की ओर लपकती हैं और उसके पार्थिव शरीर पर गिरकर विलाप करती हैं:
काचिदङ्के शिरः कृत्वा रुरोद मुखमीक्षती. स्नापयन्ती मुखं बाष्पैस्तुषारैरिव पङ्कजम्..
अर्थात्, कोई उसके सिर को अपनी गोद में लेकर उसके मुख को निहार-निहारकर रोने लगी और आँसुओं से उसका मुख ऐसे भिगोने लगी, जैसे ओस की बून्दें कमल को भिगोती हैं --  यहाँ शिरः और मुखम् एकवचन हैं.
और पत्नियों का विलाप देखिए:
उद्धृत्य च भुजौ काचिद्भूमौ स्म परिवर्तते. हतस्य वदनं दृष्ट्वा काचिन्मोहमुपागमत.(यु.98.9)
(कोई अपनी दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर पछाड़ खाकर गिरी और भूमि पर लोटने लगी. कोई मारे गए पति का मुख देखकर मूर्छित हो गई.)
यहाँ भुजौ द्विवचन और वदनं एकवचन है.
रावण की पटरानी मन्दोदरी अपने मृत पति के मुख का वर्णन करते हुए कहती है:
...किरीटकूटोज्ज्वलितं ताम्रास्यं दीप्तकुण्डलम्.
मदव्याकुललोलाक्षं भूत्वा यत्पानभूमिषु.
विविधस्रग्धरं चारु वल्गुस्मितकथं शुभम्..
तदेवाद्य तवैवं हि वक्त्रं न भ्राजते प्रभो.
(जो मुखमण्डल किरीट से जगमगाता रहता था, जिसके अधर ताम्रवर्णी थे, जिसमें कुण्डल दमकते रहते थे, पानभूमि में जिसकी आँखें मदमस्त और चंचल दिखाई देती थीं, जो विविध पुष्पहारों से सुशोभित रहता था, जो मुस्कुराकर मीठी-मीठी बातें करता था, वही आपका सुन्दर-मनोहर मुखारविन्द आज निष्प्रभ हो गया है, प्रभु!)
आस्यम् और वक्त्रम् दोनों ही एकवचन हैं. निद्रामग्न और मृत दोनों ही स्थितियों में वाल्मीकि ने रावण को साधारण मनुष्य की नाईं एक सिर और दो भुजाओं वाला चित्रित किया है. क्या पता, जागते हुए वह अलग प्रतीत होता हो! देखना होगा कि उसे सक्रिय अवस्था में वाल्मीकि ने कैसा चित्रित किया है.
पंचवटी की पर्णकुटी में सीता के सामने प्रकट हुआ तो रावण अपनी ख्याति और शौर्य का गुणगान करने लगा. अपनी शक्ति के बारे में वह कहता है:
उद्वहेयं भुजाभ्यां तु मेदिनीं अम्बरे स्थितः.
भुजाभ्यां द्विवचन है. इसलिए उसकी दो ही भुजाएं हैं.
सीता को लंका ले जाने के बाद रावण उन्हें अपना प्रासाद, विहार वाटिकाएं, आभूषण आदि दिखाता है. सीता अविचलित रहती हैं तो वह उनके चरणों में शीश झुकाकर कहता है:
न चाsपि रावणः काञ्चिनमूर्ध्ना स्त्रीं प्रणमेत ह.
(रावण किसी स्त्री को सिर झुकाकर प्रणाम नहीं करता, केवल तुम्हारे सामने इसका शीश झुका है.)
मूर्ध्ना एकवचन होने से पता चलता है कि रावण के एक ही सिर था. इन दोनों उद्धरणों में रावण सूचित कर रहा है कि उसके एक सिर और दो ही भुजाएं हैं. यदि रावण के सचमुच दस सिर और बीस भुजाएं होतीं तो सीता ने उससे यह प्रश्न अवश्य किया होता कि एक मानुषी ऐसे असाधारण राक्षस से ब्याह कैसे कर सकती है या वह किसी साधारण मानुषी से ऐसा प्रस्ताव कैसे कर सकता है.  
सीता का हरण करके ले जाते हुए रावण को वयोवृद्ध जटायु ने ही सबसे निकट से देखा था. उन्हींको रावण दस सिर वाला नज़र आया था:
दशग्रीव स्थितो धर्मे पुराणे सत्यसंश्रयः.(अरण्य., 48.3)   और
तिष्ठ तिष्ठ दशग्रीव मुहूर्तं पश्य रावण. (अरण्य., 48.27)
(दशग्रीव रावण! ठहरो, ठहरो, केवल घड़ी भर रुक जाओ.)
...वामबाहून्दश तदा व्यपाहरदरिंदमः. (अरण्य., 49.33)
(जटायु ने रावण की दसों बाईं भुजाओं को उखाड़ लिया.)
लेकिन, इन्हीं जटायु से संघर्ष करते हुए राक्षसराज ने अपनी दो मुट्ठियों से उन पर घूंसे बरसाए और दो ही पैरों से उन्हें लात मारी:
मुष्टिभ्यां चरणाभ्यां च गृध्रराजं अपोथयत्.
ग़ौरतलब है कि सीता हरण करके ले जाते रावण को अद्भुत दृष्टि-सम्पन्न सम्पाति और उनके पुत्र सुपार्श्व ने भी देखा था. ये दोनों ही उसके दस सिर, बीस हाथों का कोई उल्लेख नहीं करते.
हनुमान अशोक वाटिका में सीता को सम्बोधित करने ही वाले थे कि उन्होंने देखा, कुछ लोग मशालें लिए उसी तरफ़ चले  आ रहे हैं. वह फ़ौरन उस पेड़ की डाल-पत्तियों में छिप गए, जिस पर चढ़े बैठे थे. उसी हुजूम में उन्हें रावण दिखाई पड़ा. हनुमान को पहचानते देर न लगी कि यह वही व्यक्ति है, जिसे उन्होंने महल में सोया पड़ा देखा था:
सोsयम् एव पुरा षेते पुरमध्ये गृहोत्तमे.
इससे सुनिश्चित हो जाता है कि जागृत अवस्था में भी रावण वैसा ही नज़र आता था, जैसा नींद में.
दुर्व्यवहार के लिए रावण को कोस रही हैं सीता. यहाँ उसकी आँखों के लिए प्रयुक्त शब्द द्विवचन और जीभ के लिए एकवचन है:
इमे ते नयने क्रूरे विकृते कृष्णपिंगले.
(मेरी ओर दृष्टि डालते समय तेरी ये क्रूर और काली-पीली आँखें...)
विवृत्य नयने क्रूरे जानकीमन्ववैक्षत.
(जानकी को आँखें तरेरकर क्रूर दृष्टि से देखा.)
...कथं व्याहरतो मां ते न जिह्वा पाप शीर्यति..
(मुझसे पाप भरी बातें करते हुए तेरी जीभ क्यों नहीं गल जाती?)
इससे आगे के श्लोकों में भी भुजाओं और कानों में पहने हुए रावण के कुण्डलों के लिए प्रयुक्त शब्द (भुजाभ्यां और कुण्डलाभ्यां) द्विवचन ही हैं. दो भुजाएं, दो कानों में दो कुण्डल और दो आँखें तो सिर निश्चय ही एक मात्र.   
जब इन्द्रजित ने हनुमान को बन्दी बनाकर दरबार में रावण के सामने पेश किया (दसमुख सभा दीखि कपि जाई) तो उन्होंने राक्षसराज को शिरोभिर्दशभिःसहित दैदीप्यमान देखा (सुन्दर., 47.6). (तुलना करें, ‘पालत सृजत हरत दससीसा और सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी’) इस अभिव्यक्ति से भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसके तुरन्त बाद रावण को पूर्णचन्द्राभवक्त्रेण बताया गया है. यहाँ वक्त्रेण एकवचन है, जो एक ही सिर का द्योतक है. यदि रावण के सचमुच दस सिर होते तो उसे दस सिरों के साथ दैदीप्यमान कहा गया होता.
इसी प्रकार शूर्पणखा अपनी व्यथा-कथा और जनस्थान में राक्षसों के संहार का समाचार लेकर लंका में रावण के सामने हाज़िर हुई तो रावण के लिए विंशद्भुजं दशग्रीवं दर्शनीयपरिच्छदम्’ (अरण्य., 30.8) कहा गया –-तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ. और, सुनि दससीस जरे सब गाता. इसका भी शाब्दिक अर्थ नहीं लिया जा सकता, क्योंकि उसी सर्ग में उसे द्विबाहु भी कह दिया गया है: निवारयति बाहुभ्यां यः शैलशिखरोपमः (अरण्य., 30.16).
यहाँ तक कि युद्ध-भूमि में भी रावण के एक ही सिर का उल्लेख है. रावण जब पहली बार युद्ध-भूमि में पहुँचा तो राम के यह पूछने पर कि यह कौन है, विभीषण ने बताया:  
असौ किरीटी चलकुण्डलास्यो नगेन्द्रविन्ध्योपमभीमकायः.
(यह सिर पर मुकुट धारण किए है. इसका मुख कानों में हिलते हुए कुण्डलों से अलंकृत है. इसका शरीर गिरिराज हिमालय और विन्ध्याचल के समान विशाल एवं भयंकर है.)
विभीषण ने दस सिर और बीस हाथों का कोई उल्लेख नहीं किया और न राम ही को रावण के दस सिर, बीस हाथ नज़र आए.   
इसी क्रम में रावण-लक्ष्मण युद्ध का रुख़ करें. बक़ौल तुलसी, पहले तो सत सत सर मारे दस भाला’, फिर प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही’. 
...तं विह्वलन्तं सहसाभ्युपेत्य जग्राह राजा तरसा भुजाभ्याम्.
(लक्ष्मण को विह्वल हुआ देखकर राजा रावण सहसा उनके पास जा पहुँचा और उनको अपनी दोनों भुजाओं से वेगपूर्वक उठाने लगा -–परयो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही.)
...तं पीडयित्वा बाहुभ्यां न प्रभुर्लङ्घनेsभवत्.
(रावण, लक्ष्मण को अपनी दोनों भुजाओं में दबाकर हिला तक नहीं पाया.)
यहाँ भुजाभ्याम् और बाहुभ्याम् दोनों ही द्विवचनों से रावण के दो बाँहों की ही सूचना मिलती है.    
युद्ध के दौरान वानर सेनापति नील ने रावण के सिर से लेकर रथ के ध्वज-स्तम्भ के ऊपरी हिस्से तक और फिर वहाँ से वापस उसके सिर पर नृत्य किया था:
ध्वजाग्रे धनुषश्चाग्रे किरीटाग्रे च तं हरिम्. लक्ष्मणोsथ हनूमांश्च रामश्चापि सुविस्मिताः..
(नील को कभी रावण की ध्वजा पर, कभी धनुष पर और कभी मुकुट पर बैठा देखकर राम, लक्ष्मण और हनुमान को भी बड़ा विस्मय हुआ.)
यहाँ एकवचन किरीटाग्रे एक ही मुकुट के कारण एक ही सिर की सूचना देता है. फिर राम-रावण का अन्तिम युद्ध याद कीजिए. तब भी उसके एक ही सिर है, जिसके कटने पर उसकी जगह उसी रूप-आकार का दूसरा सिर उग आता है! अन्त में तंग आकर राम ने ब्रह्मास्त्र से रावण के हृदय पर प्रहार किया:
...रावणस्य शिरोsच्छिन्दच्छ्रीमज्ज्वलितकुण्डलम्.
(...चमचमाते कुण्डलों  से शोभायमान रावण का शीश काट डाला.)
तच्छिरः पतितं भूमौ दृष्टं लोकैस्त्रिभिस्तदा. तस्यैव सदृशं चान्यद्रावणस्योत्थितं शिरः..
(...उसका कटा हुआ शीश भूमि पर गिर पड़ा, जिसे तीनों लोकों के प्राणियों ने देखा. रावण के कन्धों पर उसी रूप-आकृति का दूसरा शीश निकल आया -–सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे.)
तत्क्षिप्रं क्षिप्रहस्तेन रामेण क्षिप्रकारिणा. द्वितीयं रावणशिरश्छिन्नं संयति सायकैः..
(चुस्ती से हाथ चलाने वाले सत्वर राम ने अपने बाणों से रावण का वह दूसरा सिर भी काट डाला -–काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस.)
छिन्नमात्रं च तच्छीर्षं पुनरन्यत्स्म दृश्यते. तदप्यशनिसंकाशैश्छिन्नं रामेण सायकैः.. (युद्धकाण्ड, 96.20 से 23)
(उस सिर के कटते ही पुनः उत्पन्न नया सिर दिखाई देने लगा. राम ने अपने वज्र तुल्य बाणों से उसे भी काट डाला -–काटत बढ़हिं सीस समुदाई.)
...चिक्षेप परमायत्तसतं शरं मर्मघातिनम्.. (युद्धकाण्ड, 97.15)
(राम ने मर्मस्थलों को विदीर्ण कर देने वाला वह बाण बड़े वेग से रावण पर छोड़ा -–खैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस.)
...बिभेद हृदयं तस्य रावणस्य दुरात्मनः.. (युद्धकाण्ड, 97.17)
(उस बाण ने दुरात्मा रावण का हृदय विदीर्ण कर डाला --सायक एक नाभि सर सोषा. अपर लगे भुज सिर करि रोषा.)
रुधिराक्तः स वेगेन जीवितान्तकरः शरः. रावणस्य हरन्प्राणान्विवेश धरणीतलम्. (युद्ध.97.18)
(शरीर का अन्त करके रावण का प्राणघाती वह रक्तरंजित बाण वेगपूर्वक धरती में समा गया -–मंदोदरि आगें भुज सीसा. धरि सर चले जहाँ जगदीसा.. प्रबिसे सब निषंग महुँ जाई.)
फिर
गतासुर्भीमवेगस्तु नैर्ऋतेन्द्रो महाद्युतिः. पपात स्यन्दनाद्भूमौ वृत्रो वज्रहतो यथा. (युद्ध., 97.21)
(प्राणान्त होते ही अत्यन्त वेगवान, नैऋत्य दिशा का स्वामी वह महाप्रतापी असुर रथ से गिरकर भूमि पर ऐसे लुढ़क गया, जैसे इन्द्र के वज्र से मारा गया वृत्र –-लै सिर बाहु चले नाराचा. सिर भुज हीन रुंड महि नाचा..)
हम पहले देख ही चुके हैं कि मनुष्यवत रावण के शव के एक ही सिर और दो हाथ हैं. यह देखकर आश्चर्य होता है कि पूरे के पूरे युद्ध में राम ने रावण के हाथ काटने के लिए एक भी प्रहार नहीं किया, जैसाकि कुम्भकर्ण के साथ गुज़र चुका था. सम्भवतः राक्षसराज का अंग-भंग करवाना आदिकवि का उद्देश्य ही नहीं था. वह तो उसका सम्पूर्ण विनाश ही चित्रित करना चाहते थे.
इन साक्ष्यों से पुष्टि हो जाती है कि किसी भी अन्य मनुष्य की तरह रावण के भी एक ही सिर और मात्र दो भुजाएं थीं. यह कल्पना कि रावण के दस सिर और बीस भुजाएं (नाहिं तो अस होइहि बहुबाहू --कभी-कभी तो चार पैर भी) थीं, कुछ अन्तर्वेशकों की कारगुज़ारी है. इन्होंने यह सोचने का लेश मात्र भी कष्ट नहीं उठाया कि इस प्रकार की काव्य-अतिशयोक्ति से आगे चलकर आम पाठकों के दिल-ओ-दिमाग़ के साथ-साथ ललित कलाओं तक अभिव्यक्ति में रावण की क्या छवि निर्मित हो जाएगी. फिर परवर्ती राम कथाकारों सहित रामायण के भाषा-टीकाकार भी इस छवि के बचाव में दलीलें देने में ही लगे रहे.  
अब दशानन’, ‘दशग्रीव और दशास्य जैसे नाम रावण के पर्याय बन ही गए हैं तो इनकी पड़ताल कर लेना भी प्रसंगोचित होगा. भाषा-विज्ञान की सहायता लिए बिना कई विद्वानों ने इन नामों को मनगढ़न्त तरीके से व्याख्यायित करने के प्रयत्न किए हैं. इसमें दो राय नहीं कि राक्षस, द्रविड़ जाति के मनुष्य थे. वे द्रविड़ परिवार की भाषाएं बोलते थे. ज़ाहिर है, उनके नाम भी द्रविड़ भाषा में होंगे. यह बात और है कि आर्य-परिवार की भाषा का व्यवहार करने वालों ने इन संज्ञाओं पर संस्कृत का गहरा रंग चढ़ा रखा है. आदिकवि वाल्मीकि भी इसके अपवाद नहीं हैं. इन्हें समझने के लिए उस रंग को हटाकर देखना होगा. रावण नाम भी ऐसा ही है. तमिल भाषा में यह शब्द आज भी इरैवण के रूप में मौजूद है और राजा, अधिराज तथा स्वामी के अर्थ में प्रयुक्त होता है. इसी प्रकार लंका भी इलंका है. इसका अर्थ है पहाड़ पर बसा शहर. संस्कृत में अंगीकृत द्रविड़ शब्द रावण की संरचना कुछ इस प्रकार है: रावयति भीषयति सर्वान् --रु+णिच्+ल्युट्. अर्थात्, क्रन्दन करने वाला, चीखने वाला, दहाड़ने वाला, शोक के कारण रोने-धोने वाला. एच.एच. विल्सन भी रावण शब्द की व्युत्पत्ति रु से ही मानते हैं, जिसका अर्थ है -–मनुष्य जाति के लिए दुःखदायी. इस रु का प्रेरणात्मक रूप राव’, ‘अणप्रत्यय के साथ जुड़कर रावणबन जाता है. द्रविड़ भाषाओं में अणया अन पुल्लिंगवाचक एकवचन अन्तिम ध्वनि है, जैसे रावण के नाना के नाम माल्यवानमें. इस नाम के मूल में मलैशब्द है, जो द्रविड़ भाषाओं में पर्वत का अर्थ देता है. इसीका उच्चारण मालय रूप में भी होता है, जैसे गंजम मालय’. (हमें हिमालयशब्द की व्युत्पत्ति की पड़ताल भी इसी आलोक में करनी होगी –-हिम+मालय = हिम का पर्वत न कि हिम का घर) जब पुल्लिंगवाचक एकवचन ध्वनि अनइसके अन्त में जुड़ जाती है तो माल्यन रूप बनता है. स्वर विच्छेद न होने देने के लिए जोड़ देने पर यही माल्यवान या मलैयावन बन जाता है. इसका अर्थ है पहाड़ी लोग. काल्डवेल मलयिननशब्द को एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसमें यह पुल्लिंगवाचक एकवचन प्रत्यय अप्रधान कारक या रूपरचनात्मक आधार में जोड़ा गया है. वह आगे कहते हैं, “कभी-कभी तो रूपरचनात्मक इन केवल श्रुति माधुर्य के लिए जोड़ दिया जाता है, जैसे विल्लन और विल्लिनन (धनुर्धर) के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है.”
कुइ ज़बान में एक शब्द है रिवअर्थात् रोना या चीत्कार. तेलुगु भाषा में रिव्व का अर्थ है पतली छड़ी या बेंत, क्योंकि हवा में तेज़ी से लहराने पर इससे रिव ध्वनि निकलती है. इसी रिव का प्रेरणात्मक रूप रव्वा तेलुगु भाषा में चीत्कार के अर्थ में विद्यमान है. कन्नड़ भाषा का रव शब्द भी यही अर्थ देता है. रव्वा में एक के हट जाने और के दीर्घ बन जाने से हमें रावशब्द प्राप्त होता है. इसमें अण का ही एक और लघु रूप प्रत्यय जुड़ने से रावणशब्द की रचना होती है. अर्थात्, वह व्यक्ति जो औरों को रुलाकर रख दे. ये सामासिक रूप भी देखिए -–लोक-रावण, शत्रु-रावण और रिपु-रावण. ये बताते हैं कि रावण (बिस्व परितापी) ने दुनिया भर को अपने आतंक के मारे रुला-रुलाकर बेहाल कर रखा था:  
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी. गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी.
निज संताप सुनाएसि रोई. काहू तें कछु काज न होई.. (बालकाण्ड, 183.4)
भूत तक तो उससे काम्पते थे -–नदैर भूतविराविणम् (युद्धकाण्ड). प्रतीत होता है, उसके भयंकर अट्टहास के आगे अच्छे-अच्छों का रोना निकल आता होगा. इस रवके बन्धु-बान्धव भी हैं: रवण=हथघण्टी, रवली=सुरीला, रवमु=शोर. फिर यही रव क्या हिन्दी में स्वतन्त्र रूप में और कलरवआदि शब्दों में भी विद्यमान नहीं है?  द्रविड़ भाषाओं में रव के एक से ज़्यादा सजातीय शब्दों की मौजूदगी और कुइ बोली में’ ‘रिव शब्द की उपस्थिति सिद्ध करती है कि रिव ही वह धातु रूप है, जिससे रावणशब्द की व्युत्पत्ति हुई है.
रावण को दिए जाने वाले दूसरे नाम देवकण्टक, ब्राह्मणघ्नः और मुनीन्द्रघ्नः आदि तो किसी भी राक्षस के नाम हो सकते हैं. सभी राक्षस देवताओं, ब्राह्मणों और मुनियों के शत्रु जो ठहरे. अतः हम दश की ओर मुड़ते हैं. रावण का एक नाम दशग्रीवहै. रावण को दस गर्दन वाले रूप में प्रस्तुत करना वाल्मीकि का अभिप्राय कभी नहीं रहा होगा. फिर किसी भी भाषा में सिरकहने के स्थान पर कोई गर्दनकहे, बात समझ में नहीं आती. दरअसल, बोलचाल की ज़बान में शब्दों के बीच सामान्यतः इसलिए घुसेड़ा जाता है कि उनमें  संस्कृत की सुगन्ध पैदा कर दी जाए. इस दशग्रीव में से भी यदि हटा दें तो गीवबच रहता है. कुइ बोली में गीव प्रेरणार्थक क्रियाएं बनाने के लिए संज्ञा के बाद जोड़ा जाता है, जिसका अर्थ है कराना. देखें मेस्पा-गीवा=परिवर्तन करना/कराना, वेता-गीवा=गरम करना/कराना, वज्ज-गीवा=रुलाना. दशग्रीव के वास्तविक रूप दशगीव का भी वही अर्थ होगा, जो रावण का होता है. फिर दोनों एक ही व्यक्ति के नाम जो ठहरे. देखिए, रावणो नाम् भद्रं ते दशग्रीवः प्रतापवान् --अर्थात् मेरा नाम रावण है. डरो नहीं. मेरे पास दशगीव की शक्ति है. दश=उत्पीड़न, गीव=करना. वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य में दशका प्रयोग इसी अर्थ में किया है:
...परिमृष्टो दशान्तेन दशाभागेन सेव्यते. (अरण्यकाण्ड, 68.8)
(जो मनुष्य दुर्दशाग्रस्त हो जाता है, वह किसी अन्य दुर्दशाग्रस्त व्यक्ति से ही सहायता प्राप्त करता है.)
...दशाभागगतो हीनस्त्वं राम सहलक्ष्मणः. (अरण्यकाण्ड, 68.9)
(राम! आप और लक्ष्मण बुरी दशा के शिकार हो चले हैं...)
ठीक इसी प्रकार दशानन की भी व्युत्पत्ति है दश-इन-अन-अ. अर्थात्, वह जो उत्पीड़न करे. इस शब्द में इन स्वर माधुर्य के लिए जोड़ा गया है और अन्त में भी. अन् पुल्लिंगवाचक एकवचन प्रत्यय है. इसी तर्ज़ पर दशास्य मूलतः दश+असि था. इसमें असिकुइ बोली में व्यक्तिवाचक संज्ञा बनाने के लिए जोड़ा जाता है. यही दशासि या दशास संस्कृत में दशास्य बन जाता है. दशमुख और दशशीर्षवाल्मीकि रामायण के लम्बे श्लोकों में बाद में जोड़े गए हैं. सो, उन पर चर्चा आवश्यक नहीं.   
यह विचार करना प्रासंगिक होगा कि दश शब्द रावण के नाम के अतिरिक्त किसी और नाम से जुड़ता है तो क्या अर्थ देता है. दशरथऐसा ही शब्द है. संस्कृत के पण्डित मानते हैं कि दशरथ युद्ध में दस रथों के नायक थे. इसलिए उन्हें यह नाम मिला. एक तो, रामायण में कहीं भी इस आशय का  उल्लेख नहीं है. दूसरे, इससे यह बात सामने आती है कि कौसल्या (अदिति), सुमित्रा, कैकेयी, सीता, वैदेही, मैथिली, जानकी, मिथिलेश, विदेह, जनक और शबरी ही क्यों, शूर्पणखा, विभीषण (धर्मरुचि), कुम्भकर्ण (अरिमर्दन) तथा रावण (प्रतापभानु) की ही तरह दशरथ (कश्यप) भी मात-पिता का दिया नाम नहीं हो सकता. यह भी गुणवाचक, मुँहबोला, लोकप्रिय नाम है.
रामायण बताती है कि दशरथ का जीवन दुःख में डूबा रहा. जिनसे वह प्राणों से अधिक प्रेम करते थे, उन्हीं राम के बिछोह में उन्हें प्राण गँवाने पड़े. प्राणान्त से ठीक पहले वह अपने हाथों अनजाने में श्रवण कुमार की हत्या और उसके नेत्रहीन पिता से मिले शाप की कथा सुनाते हैं. वह शाप की पीड़ा (दश) से आर्त हैं. अतः उनका गुणवाचक नाम दशार्त होना चाहिए, जो काल-प्रवाह में दशरत से होते-होते दशरथ में बदल गया प्रतीत होता है. 
इसी तरह का शब्द है त्रि-दश. माना जाता है कि देवता चिर स्थायी यौवन के स्वामी होते हैं. इसलिए उन्हें त्रि-दश कहा जाता है. लेकिन, यह व्याख्या रावण के एक और नाम त्रि-दशारि को समझने के लिए उपयुक्त नहीं लगती. त्रि-दश वास्तव में वे प्राणी हैं, जो दुःख-व्याधि से मुक्त हैं. हम यह भी जानते हैं कि त्रि असल में तिर का ही रूप है, जिसका अर्थ है ऊपर’. सो, त्रि-दश का अर्थ होगा -–जो दुःख-व्याधि से ऊपर (मुक्त) हैं. वे हैं बुद्धिमान प्राणी (देवः). बुद्धि ही सारे दुःख विच्छिन्न करती है.
स्पष्ट है कि रामायण में मिलने वाले बहुत सारे नाम संस्कृत शब्द होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं. वस्तुतः वे नाम मध्य भारत के वन-पर्वतों की आदिम जनजातीय भाषाओं से गृहीत हैं और उन पर संस्कृत की गहन छाया आरोपित कर दी गई है, इतनी गहरी कि उन्हें अपने मूल रूप में देखने के लिए केवल आँख और चश्मा नहीं, एक्स-रे की ज़रूरत पड़े.
--बृहस्पति शर्मा




स्रोत:
1.  वाल्मीकि रामायण (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.       
2.  रामचरितमानस       

2 comments:

  1. नामों और पर्यायों के अर्थ खोनने की यह कोशिश प्रशंसनीय है.
    बधाई, बंधु.

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  2. बढ़िया शोध पत्र। रावण के बहाने रामायण की कथाओं पर संक्षेप में पुनर्विचार है। आभार।

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