हैदराबाद
का लोक पर्व
बोनालु
इधर कश्मीर से कन्याकुमारी और उधर अटक से
कटक तक भारत भूमि का हर अंचल लोक संस्कृति सम्पन्न है. आन्ध्र-तेलंगाणा के लोक
पर्व और लोक कलाएं भी यहाँ की अलग-अलग रंग की माटी तथा विविधवर्णी परम्पराओं की
अनन्य महक में सराबोर हैं. देवी-देवताओं, विशेषतः
ग्राम देवताओं की भक्ति में निमज्जित लोक पर्वों में यहाँ के लोग-बाग बड़े उत्साह
से सामूहिक रूप में भाग लेते हैं. तृण-मूल स्तर के ये प्रतिभागी
होटल-रेस्तरां-बंगला-फ्लैट-फास्ट फुड वाली गिटपिटाती आंग्लवाणी और सितारा मार्का
सूट-बूटधारी कुलीन-अभिजात सभ्यता से दूर-दूर तक अछूते हैं. इनके क़दमों और ज़मीन के
बीच वही सम्बन्ध है, जो लोहे और चुम्बक के बीच
होता है. विशुद्ध लोक कला की ही तरह लोक पर्वों से जुड़े रस्म-रिवाज,
सामूहिक
व्यवहार, आस्था-सरोकार और दुःख-दर्द हमारा
साक्षात्कार लाखों-लाख गँवई जनों की आडम्बर विमुख सृजनशील अभिव्यक्ति से कराते
हैं. ये धार्मिक-लोक पर्व ग्रामीणों के लिए न केवल देवी-देवताओं के प्रति साभार
श्रद्धा अर्पित करने के माध्यम हैं, बल्कि
बरास्ता गीत-संगीत-नृत्य-नाटक उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के बहाने भी हैं.
लोक पर्वों से जुड़ी लोक कथाओं और लोक कलाओं से आम आदमी के सरल जीवन मूल्यों और तरल
जीवन शैली का पता चलता है.
मुख्य रूप से नगरद्वय हैदराबाद-सिकन्दराबाद
और गौण रूप से तेलंगाणा के कुछ हिस्सों में आषाढ़ मास (जुलाई-अगस्त) में मनाया जाने
वाला लोक पर्व ‘बोनालु’
धार्मिक आस्था के साथ-साथ लोक कला से भी जुड़ा है. इसे स्थानीय तेलुगुभाषी हिन्दुओं
का अल्पशिक्षित निम्न और निम्न मध्यम वर्ग मनाता है. सच पूछें तो किसी भी लोक पर्व
से पाण्डित्यपूर्ण शास्त्रीय ब्राह्मणत्व की कोई नाते-रिश्तेदारी है भी नहीं. यह
त्योहार शक्तिरूपा महाकाली को समर्पित है. यह
अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति होने पर देवी को धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है.
इसमें ग्राम देवी गंगम्मा तल्ली (=मैया) की पूजा भी समाविष्ट है. महीने भर के तीस
दिनों, विशेष रूप से चार रविवारों में
फैले इस पर्व के पहले और अन्तिम दिन तेलंगाणा की ग्राम देवी एल्लम्मा की विशेष
पूजा की जाती है. इस पूजा का धर्मग्रन्थ विहित कोई विधि-विधान नहीं है और न हैं
संस्कृत के गूढ़ मन्त्र-श्लोक-स्तोत्र. गंगम्मा-एल्लम्मा की निश्चित रूप-आकार वाली कोई
मूर्ति तक नहीं होती है. किसी भी शिला को हल्दी-कुंकुम पोत दिया और उसे
गंगम्मा-एल्लम्मा देवी की संज्ञा से अभिहित कर दिया! इस स्थिति में निराकार और
अनिश्चिताकार ईश्वर में क्या अन्तर रह जाता है?
देवी को अर्पित किया जाने
वाला ‘बोनम्’ वस्तुतः
तेलुगु भाषा के ‘भोजनम्’
(भोजन) शब्द का लघु रूप है और ‘बोनालु’
बहुवचन
‘भोजनालु’ का.
त्योहार के समय पारम्परिक रेशमी साड़ियों में लिपटी और सोने के आभूषणों से सजी-धजी महिलाएं
नीम की छोटी-छोटी टहनियों, हल्दी,
कुंकुम
और सफेद खड़िया के लेप से सजे हुए ठेठ स्थानीय आकृति के पीतल या मिट्टी के घड़ों को
सिर पर एक के ऊपर एक धरे जुलूस के रूप में माता के मन्दिर की ओर चल पड़ती हैं.
दूध-चीनी मिलाकर पकाया हुआ मीठा भात (और कभी-कभी प्याज भी) भरे इन घड़ों के ऊपर रखा
जाता है जलता हुआ दीया. जुलूस के आगे-आगे चलते हैं ‘डप्पू’
(डफवादक)
और नाचते हुए पुरुष. फिर महिलाएं भला पीछे क्यों रहें? अधिकतर
मध्य वय की महिलाएं और प्रौढाएं सिरों पर जमे घड़े सम्हालते हुए डफ-ताल पर मन ही मन
माता का गुणगान करती हुई बेख़ुदी में नृत्य करने लगती हैं. माना जाता है कि इन
झूमती-नाचती आत्म-विस्मृत महिलाओं पर उग्ररूपा देवी आविष्ट होती हैं. मन्दिर की ओर
बढ़ती हुई इन आवेशोन्मत्त महिलाओं के चरणों पर रास्ते में पड़ने वाले घरों से निकलकर
गृहणियां शीतल जल अर्पित करती हैं, ताकि
देवी माँ का उग्र रूप शान्त हो सके. यही भाव-समाधिस्थ महिलाएं बोनालु की अगली सुबह
भक्तों को बताती हैं कि उनका आने वाला साल कैसा रहेगा. इसे ‘रंगम्’
कहते
हैं.
यहाँ यह जान लेना
प्रासंगिक होगा कि बोनालु बहुत पुराना त्योहार नहीं है. यह सन् 1869 में हैदराबाद
में कथित रूप से देवी के प्रकोप के कारण फैली महामारी प्लेग को भगाने के उद्देश्य
से मनाया जाने लगा था. निज़ाम की हुकूमत के दौर में बोनालु की शोभा पराकाष्ठा पर
थी. कहते हैं, क्रुद्ध देवी को शान्त करने के
लिए धूम-धाम से किए जाने वाले आयोजन में बादशाह सलामत ख़ुद शामिल होते थे.
स्थानीय मान्यता के अनुसार,
आषाढ़ मास में देवी अपने मायके पधारती हैं. सो, उनके
प्रति प्रेम और स्नेह जताने के लिए लोग पक्वान्न के रूप में हर तरह का चढ़ावा लाते
हैं, ठीक वैसे ही जैसे बिटिया के ससुराल से मायके
आने पर विशेष व्यंजन पकाए जाते हैं. फिर देवी माता तो अपनी दिव्य दुहिता ठहरीं न.
देवी को समारोहपूर्वक घर
लिवा लाने के लिए विलक्षण वेश-भूषा में निकलता है उनका भाई पोतराजु (पोतुल राजु).
दैवी शक्ति का भाई विकट बल का प्रतिरूप होना ही चाहिए. इसलिए पोतराजु का रूप दिया
जाता है किसी गठीली देह वाले पुरुष को. अल्पवसन काया पर आपादमस्तक हल्दी का लेप,
ललाट
पर कुंकुम का टीका, गले में फूलों का हार,
कमर
में घुटनों तक कसी हुई चुस्त-चमकदार लाल-लाल धोती-फटका और टखनों में झनझनाते
घुंघरू. जी हाँ, बोनालु का समारम्भकर्ता अपना यही
पोतराजु ख़ुशी में दोनों हाथों से कोड़े फटकारता हुआ गली-गली में जुलूस की अगुआई
करता है. कमर के अतराफ़ नीम की सपत्र टहनियां बाँधी हुई माता रानी के आवेश में मस्त
महिलाएं पोतराजु के पीछे-पीछे चलती हैं. डफ की ताल और तुरही की लय में तन्मय
पोतराजु को गाँव, मोहल्ले और बिरादरी का
संरक्षक माना जाता है.
पोतराजु खेतिहर जातियों
में लोकप्रिय ग्राम देवता भी हैं. तेलंगाणा का किसान अपने खेत में हल्दी से तिलकित
चूना पुता पत्थर रखता है. यही हैं चोरों और फसल उजाड़ने वाले जानवरों से खेतों को
सुरक्षित रखने वाले देवता पोतराजु. इनका कोपभाजन कोई नहीं बनना चाहता. फसल कट जाने
पर कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए इनके आगे मुर्गे की बलि दी जाती है. पोतराजु
सम्भवतः मुर्गप्रिय देवता हैं. इसलिए बोनालु के दौरान पोतराजु का बाना धारण करने
वाला गबरू अपने दाँतों से मुर्गे की गर्दन एक ही वार में काट डालता है.
पोतराजु के संग चलता है
देवी का प्रतीक ‘घटम्’ धारक
पुजारी. चार डफवादक मोहल्ले में देवी माँ के शुभागमन की घोषणा करते हैं. पुजारी हर
घर के दरवाजे पर रुककर माता के लिए महिलाओं से चढ़ावा स्वीकार करता है. गृहणियां
पुजारी का पद प्रक्षालन करके जैसे माता को नमन करती हैं. स्वयं पुजारी भी कभी-कभी
नाच उठता है. इस प्रकार बोनालु पुरुषों के सामूहिक उल्लास-नृत्य का पर्व बन जाता
है. हैदराबाद में बोनालु पर्व का शुभारम्भ बालाहिसार, गोलकोण्डा
स्थित महाकाली मन्दिर में पूजा से होता है. माता के सम्मान में यहाँ से निकलने
वाली शोभा-यात्रा सिकन्दराबाद के उज्जैनी महाकाली मन्दिर पहुँचती है. फिर यह
महोत्सव नगर भर के विभिन्न देवी मन्दिरों में मनाया जाता है. कहते हैं,
निज़ाम
के दौर में महामारी के समय देवी की प्रतिमा उज्जैन से लाकर यहाँ प्रतिष्ठित की गई
थी.
बीते ज़माने में देवी को
भैंसे की बलि चढ़ाई जाती थी. रोग-बीमारी और भूत-प्रेत से बचाव के लिए अब मुर्गों की
बलि चढ़ाई जाती है. इसके अतिरिक्त, भक्तों
की हर एक टोली माता को ‘तोट्टेला’
(झूला)
अर्पित करती है. तोट्टेला बाँस की खपच्चियों के सहारे खड़ा किया गया रंगीन
पर्नी-कागज से बना ढाँचा होता है.
देवी माँ की पूजा वाले
बोनालु के दिन परिवार का चढ़ाया हुआ प्रसाद रिश्तेदारों और मेहमानों में वितरित कर दिया
जाता है. त्योहार के अन्तिम चरण में भक्त परिवार सामूहिक रूप से माँस-मच्छी के भोज
का आनन्द लेते हैं.
बोनालु की अन्तिम रस्म है ‘घटम्’
अर्थात्
घड़ों का विसर्जन. अक्कन्ना-मादन्ना (अन्तिम क़ुत्ब शाह अबुल हसन तानाशाह के
मन्त्री) मन्दिर, हरी बावली का घटम् जुलूस
के आगे-आगे चलता है. हाथी पर सवार. अगल-बगल घुड़सवार और अक्कन्ना-मादन्ना की
झलकियां. पुराने शहर के घटम् जुलूस में शामिल लाल दरवाजा, उप्पुगुड़ा,
मीर
आलम मण्डी, कसार हट्टा,
सुल्तान
शाही जगदम्बा मन्दिर, बंगारु मैसम्मा मन्दिर,
शाह अली बण्डा, अली जाह कोटला,
गवलीपुरा,
दरबार
मैसम्मा, अलियाबाद और मुत्यालम्मा मन्दिर,
चन्दूलाल बेला के घट अन्त में अफ़ज़ल गंज स्थित नया पुल पर मूसा नदी में सिरा दिए
जाते हैं.
बोनालु पर्व की शुरुआत
चाहे जिस सिलसिले में हुई हो, हैदराबाद
के तेलुगुभाषी देवी-भक्तों के लिए अब यह सप्ताह भर चलने वाला खाने-पीने और जश्न
मनाने का उत्सव बन गया है. तभी तो देवी मन्दिरों से जुड़े मोहल्लों में बोनालु के
अवसर पर खूब सारे भोंपू बजते और रास्ते भर नीम के बन्दनवार लगाए जाते हैं. जी हाँ,
आन्ध्र-तेलंगाणा
में भेषज गुण युक्त नीम को शुभ और पवित्र जो माना जाता है.
--बृहस्पति
शर्मा
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BOX-1
एक देवी
दो नाम : रेणुका
अवतार एल्लम्मा
मुख्यतः नगरद्वय हैदराबाद-सिकन्दराबद
और गौणतः तेलंगाणा में मनाया जाने वाला आषाढ़ी पर्व ‘बोनालु’
पूरी
तरह से ग्राम देवी एल्लम्मा की पूजा-अर्चना पर केन्द्रित है. कर्णाटक,
तमिलनाडु,
तेलंगाणा,
आन्ध्र
प्रदेश और महाराष्ट्र सहित अधिकतर दक्षिण भारत में पूज्य हैं एल्लम्मा. अलबत्ता,
अलग-अलग
स्थान पर इनके नाम भी अलग-अलग हैं. कहीं महाकाली, कहीं
जोगम्मा, कहीं सोमलम्मा,
कहीं
गुण्डम्मा, कहीं पोचम्मा,
कहीं
मैसम्मा, कहीं जगदम्बिका,
कहीं
होलिअम्मा, कहीं रेणुका माता तो कहीं रेणुका
देवी. इनमें से कम से कम चार नाम (महाकाली,
मैसम्मा,
जगदम्बिका
और रेणुका) एल्लम्मा को अखिल भारतीय रूप में पूज्य पौराणिक दुर्गा भवानी की छवियों
में विलीन कर देते हैं. यहाँ तक कि स्थानीय भक्तों को मान्य एल्लम्मा देवी की कथा
वस्तुतः ऋषि जमदग्नि की सहधर्मिणी रेणुका की ही कथा है. रेणुका देवी से सम्बन्धित
किंवदन्तियां महाभारत, हरिवंश और भागवत पुराण में
मिलती हैं:
एल्लम्मा देवी (श्री
रेणुका देवी) रेणुका राज को यज्ञ से प्राप्त पुत्री थी. राजा के कुलगुरु अगस्त्य
ऋषि के परामर्श से रेणुका देवी का विवाह जमदग्नि से कर दिया गया था. तब रेणुका देवी
की अवस्था मात्र आठ वर्ष की थी. रुचिक मुनि और सत्यवती के पुत्र जमदग्नि ने कठिन
तपस्या की थी. उन्होंने क्रोधाग्नि से वरदान प्राप्त किया था. वह महादेव शिव के
अवतार माने जाते हैं. रेणुका देवी और जमदग्नि रामशृंग पर्वत (वर्तमान सौदत्ती,
बेलगाँव
जिला, कर्णाटक) पर रहते थे. रेणुका ने अहर्निश
सेवा-टहल से जमदग्नि का दिल जीत लिया था. उधर पाँचवें पुत्र के जन्म के बाद ऋषिवर
ने पूर्ण संयम का व्रत धारण कर लिया था.
रेणुका तड़के उठ जाती. पवित्र
मलप्रभा नदी में स्नान करती. नदी तीर पर जमा बालुका से नित नवीन घट तैयार करती.
वहाँ रहने वाले एक सर्प को कुण्डलित करके सिर पर धर लेती. उसी पर सद्यःनिर्मित
जलघट टिकाकर पूजा-पाठ के लिए जमदग्नि के पास ले जाती. प्रसंगवश,
संस्कृत
में रेणुका का अर्थ है महीन बालू.
रेणुका के पाँच पुत्र हुए:
वसु, विश्ववसु, बृहद्ध्यानु,
भृत्वकण्व
और रामभद्र. माता-पिता का सर्वाधिक स्नेह प्राप्त रामभद्र भगवान शिव-पार्वती का भी
कृपा-पात्र था. दैव युगल ने उसे अम्बिकास्त्र प्रदान किया था. इसलिए उसे परशुराम
भी कहते थे. इन्हीं परशुराम ने ऋषि-मुनियों को तंग करने वाले दुष्ट क्षत्रियों का
संहार कर दिया था. इन्हींको विष्णु का छठा अवतार माना जाता है.
एक दिन
की बात है. रेणुका देवी अपनी दिनचर्या के अनुसार प्रभात वेला में नदी तट पर
पहुँची. वहाँ उसने देखा कि गन्धर्व युगल मुक्त-भाव से जल-विहार कर रहा है. इस
दृश्य ने उसे बाँध लिया. पल भर के लिए उसका ध्यान भंग हो गया. उसे रति-सुख भोगे एक
अरसा बीत चुका था. वह चट्टान के पीछे जा छिपी. उसने रति की मस्ती में डूबे गद्गद्
प्रेमियों के कण्ठ-स्वर सुने. वह संयम खो बैठी. उसके मन में वासना जाग उठी,
“गन्धर्व
की प्रेमिका के स्थान पर तो मुझे होना चाहिए.” मुहूर्त भर के लिए उसे लगा,
जैसे
वह स्वयं अपने पति जमदग्नि के साथ जल-विहार कर रही है. कुछ देर बाद उसे होश आया.
वह ख़ुद को कोसने लगी. उसने जल्दी-जल्दी स्नान किया. लेकिन,
यह क्या? वह यह देखकर काँप गई कि प्रतिदिन
की भाँति बालुका से घड़ा बनाए न बनता था. फिर वह सर्प भी हाथ न आया. वह अदृश्य हो
गया था. उसकी ध्यान-साध्य योग-शक्ति विलुप्त हो चुकी थी. बेचारी रेणुका देवी
निराश-उदास हो गई. वह आश्रम को खाली हाथ लौट आई. यह देखकर जमदग्नि क्रुद्ध हो गए. योगबल
से घटनाक्रम समझने में उन्हें क्षण भर लगा. उन्होंने रेणुका देवी को शाप दे दिया.
रेणुका देवी की देह पर देखते-देखते मवाद भरे फोड़े-फुड़िया छा गए. रोगग्रस्त रेणुका घिनौनी
दिखाई देने लगी. उसे घर से निकाल दिया गया. वह दक्षिणापथ में भीख माँगते-माँगते
भटकने को अभिशप्त थी. उसे जमदग्नि की सुन्दर-सलोनी जीवनसंगिनी के रूप में अब कोई
नहीं पहचान सकता था.
अभिशप्त रेणुका देवी अन्ततः
वन की ओर चल पड़ी. वह तपस्या में लीन हो गई. उसे स्वप्न में सन्त एकनाथ और जोगीनाथ
ने दर्शन दिए. रेणुका देवी ने सन्तों से अपने पतिदेव का प्रेम पुनः हासिल करने का
उपाय पूछा. सन्तों ने उन्हें एक शिवलिंग दिया. बोले, “जा,
पास
की झील में स्नान करके तीन दिन तक इस शिवलिंग का पूजन कर. फिर नगर में भिक्षा
माँग-माँगकर चावल जमा कर. जमा किए गए चावल में से आधा हमें दे दे. आधा भाग गुड़
मिलाकर पका ले. उसे भक्तिभाव से स्वयं ग्रहण कर. चौथे दिन अपने पति जमदग्नि के पास
चली जा.”
सन्तों ने रेणुका देवी को चेतावनी
दी, “जमदग्नि तुझे पूरी तरह क्षमा नहीं करेंगे. तुझे
कुछ पलों का बिरह सहन करना ही होगा. तब तू अमरता और पति का संग दोनों प्राप्त कर
लेगी. इसके बाद भक्तजन तुझे पूजा करेंगे.” यह कहकर सन्तजन अन्तर्धान हो गए. कर्णाटक
में एक मास विशेष में भिक्षा में चावल जमा करने का यह उपक्रम आज भी जारी है.
सन्तों से विनिर्दिष्ट
उपाय का अनुपालन करके रेणुका देवी चौथे दिन आश्रम जा पहुँची. उन्हें देखते ही
जमदग्नि फिर क्रुद्ध हो उठे. उन्होंने अपने पुत्रों को आदेश दिया कि वे अपनी माँ
को दण्ड दें. लेकिन, पहले चारों ने किसी न किसी
बहाने इनकार कर दिया. जमदग्नि ने उन्हें शाप दे दिया कि वे नपुंसक हो जाएं.
जमदग्नि ने अब अपने
पाँचवें पुत्र परशुराम को आज्ञा दी. वह आज्ञाकारी ही नहीं, पिता
के चहेते-लाड़ले भी थे. उन्होंने अपनी माँ का सिर एक ही वार में धड़ से अलग कर दिया.
यह देखकर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि देवी के सिर हजारों की संख्या में
बढ़कर दिशा-दिशा में फैल गए हैं. इस चमत्कार से उनके चारों पुत्र और तमाशबीन देवी
के भक्त हो गए. वह उनका कटा सिर पूजने लगे.
दूसरी ओर
जमदग्नि परशुराम की आज्ञाकारिता से प्रसन्न हो उठे. उन्होंने पुत्र से वर माँगने
को कहा. परशुराम ने जमदग्नि से
नि:स्संकोच वर माँगा कि वह रेणुका देवी को पुनर्जीवित कर दें. ऋषि अपने वचन से
मुकर नहीं सकते थे. उन्होंने रेणुका देवी को जीवन-दान दे तो दिया,
लेकिन उनकी नाराज़गी दूर नहीं हुई थी. उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह रेणुका देवी का
मुँह कभी नहीं देखेंगे. वह हिमालय की कन्दरा में तपस्या करने चल दिए. जमदग्नि उस
क्रोधी धड़े के पुण्यात्मा हैं, जिनके अक्षमाशील
आग्नेय क्रोध से संस्कृत साहित्य भरा पड़ा है.
बाद में परशुराम भी पिता के पास पहुँच गए. इनकी कथा महाभारत में
मिलती है, जहाँ वह बहिष्कृत-परित्यक्त कर्ण
को रहस्यमय मन्त्रों और अमोघ अस्त्रों का विद्या-दान करते गुरु के रूप में मिलते
हैं.
दलित जन रेणुका देवी की
पूजा दिव्य शक्ति के रूप में करते हैं. वह बहुतेरे दलितों, अनुसूचित
जातियों-जनजातियों और पिछड़े वर्गों की संरक्षक हैं. भक्त उन्हें विश्वमातृ ‘जगदम्बा’
के
रूप में पूजते हैं. जनश्रुतियों के अनुसार, कालिका
अवतार एल्लम्मा एक ओर अहंकार के काल की प्रतीक हैं तो दूसरी ओर हैं अपनी सन्तान के
प्रति करुणावतार माता.
रेणुका बनाम एल्लम्मा: मौखिक
परम्परा
अनेक पारम्परिक लोक कथाओं
के अनुसार, रेणुका और एल्लम्मा एक ही देवी के
दो अलग-अलग नाम हैं. दूसरी ओर, एक मौखिक
परम्परा दोनों को एक-दूसरे से अलग बताती है. उसके अनुसार, परशुराम
से जान बचाने के लिए रेणुका देवी भागते-भागते किसी टाँडे में पहुँच गई. एल्लम्मा
नामक वृद्धा ने उसे अपनी कुटिया में शरण दी, लेकिन
परशुराम ने उसे ढूँढ निकाला. एल्लम्मा ने उसे बचाने का प्रयत्न किया तो परशुराम ने
उसका सिर भी धड़ से अलग कर दिया. बाद में परशुराम ने उसे पुनर्जीवित तो कर दिया,
लेकिन
उनसे चूक हो गई. उन्होंने एल्लम्मा का सिर रेणुका के धड़ से जोड़ दिया. जमदग्नि ने
इसी काया को अपनी धर्मपत्नी स्वीकार किया. रेणुका का सिर जुड़ी वृद्धा एल्लम्मा की
काया को दलित जन तबसे मातृशक्ति के रूप में पूजते रहे हैं.
BOX-2 रेणुका झील
हिमाचल प्रदेश में रेणुका
देवी के नाम पर रेणुका अभयारण्य है. जनश्रुति के अनुसार, राजा
सहस्रार्जुन (कार्तवीर्य अर्जुन) रेणुका से प्रेम करता था. एक बार की बात है.
परशुराम आश्रम में नहीं थे. तभी उसने ऋषि जमदग्नि और उनके चारों पुत्रों की हत्या
कर दी. सहस्रार्जुन के पंजे से बचने के लिए रेणुका ने झील में छलाँग लगा दी. वह अदृश्य
हो गई. देवताओं ने उसे जीवन-दान दिया और सुषुप्त नारी के रूप में पसरी झील ने
रेणुका को अमर कर दिया. उत्तर भारत के गाज़ीपुर स्थित जमनिया में भी रेणुका मन्दिर
है.
कर्णाटक के चन्द्रगुत्ती
नामक स्थान पर (सोराबा तालुका, शिमोगा)
में भी पहाड़ी पर रेणुकाम्बे (एल्लम्मा) मन्दिर है. कदम्ब कालीन यह मन्दिर प्राचीन
स्थापत्य कला की मिसाल है. रेणुका देवी का एक अन्य मन्दिर माहूर,
महाराष्ट्र
में है. इसे देवी का जन्म-स्थान भी माना जाता है. इसका उल्लेख देवी भागवत के अन्तिम
अध्याय देवी गीता में मिलता है. *