Friday 26 October 2012


राक्षसों की राम कहानी (8)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)

वप्रप्राकारजघनां विपुलाम्बुवनाम्बराम्.
शतघ्नीशूलकेशान्तामट्टालकावतंसकाम्.
मनसेव कृतां लंकां निर्मितां विश्वकर्मणा. (सुन्दर. 2.21-22)
(विश्वकर्मा की संरचना लंका पुरी जैसे उनकी अपनी कल्पना-प्रसूत रमणी थी. चहारदीवारी और उसके भीतर की वेदी नगरी की जघन-स्थली, सागर की विपुल जलराशि और विशाल वन-प्रदेश उसके वस्त्र, शूल-शतघ्नी नामक अस्त्र उसके केश तथा बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं उसके कुण्डल प्रतीत होते थे.)

यह देखने के लिए कि राक्षसों का सामाजिक जीवन कैसा था, हमें रावण की लंका की नगर-योजना, गृह-निर्माण और ग्राम देवताओं का अध्ययन करना होगा, जिसके विवरण वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध हैं.
पहली बात तो यह कि सुरक्षित लंका ऊँची पहाड़ी पर योजनाबद्ध रूप से बसाई हुई जल-संसाधन सम्पन्न हरी-भरी नगरी बताई गई है. इसलिए हरी-हरी दूब और पुष्पित-पल्लवित वृक्षों से महमह वन-उपवनों की तरावट का अनुभव करते रास्ते के बीच से बढ़े जा रहे हनुमान को वह आकाश में तैरती-सी जान पड़ी:
शाद्वलानि च नीलानि गन्धवन्ति वनानि च.
गण्डवन्ति च मध्येन जगाम नगवन्ति च.. (सुन्दर. 2.6)
प्लवमानामिवाकाशे ददर्श हनुमान् कपिः. (सुन्दर. 2.19)
त्रिकूट पर्वत के शिखर पर चढ़कर हनुमान ने देखा कि चारों ओर खुदी हुई खाई (परिखाभिः) से घिरी थी लंका की स्वर्णिम फ़सील:
काञ्चनेनावृतां रम्यां प्राकारेण महापुरीम्. (सुन्दर. 2.16)
लता-बेल की पच्चीकारी से सुशोभित इस फ़सील में बने फाटक भी सोने के थे:
तोरणैः काञ्चनैर्दिव्यैर्लतापङ्क्तिविचित्रितैः. (सुन्दर. 2.17)
युद्धकाण्ड में पता चलता है कि लंका के परकोटे में चारों दिशाओं में ऐसा एक-एक फाटक बना था[i]:
पूर्वं प्रहस्तः सबलो द्वारमासाद्य तिष्ठति.
दक्षिणं च महावीर्यौ महापार्श्वमहोदरौ.
इन्द्रजित्पश्चिमद्वारं राक्षसैर्बहुभिर्वृतः. (28.10-11)
उत्तरं नगरद्वारं रावणः स्वयमास्थितः. (28.13)
इस प्रकार खाई-परकोटे के भीतर बसी हुई लंका नगरी में उन्हें अनेक कुंए, किस्म-किस्म की बत्तखों और कमल-कुमुद जैसे फूलों से सराबोर जलाशय तथा भाँति-भाँति के रमणीय स्थल नज़र आए:
हंसकारण्डवाकीर्णा वापीः पद्मोत्पलायुताः.
आक्रीडान्विविधान्रम्यान्विविधांश्च जलाशयान्.. (सुन्दर. 2.12)[ii]
इन जलाशयों के चारों ओर सभी ऋतुओं में फल-फूल देने वाले अनेक प्रकार के वृक्ष लगाए गए थे:
संततान्विविधैर्वृक्षैः सर्वर्तुफलपुष्पितैः. (सुन्दर. 2.13)
चौतरफ़ साफ-सुथरे मार्ग और ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित सैकड़ों अट्टालिकाएं:
पाण्डुराभिः प्रतोलिभिरुच्चाभिरभिसंवृताम्.
अट्टालकशताकीर्णा पताकाध्वजमालिनीम्.. (सुन्दर. 2.16)
इन सबके बीच हनुमान को दिखाई दिए शरद ऋतु के बादलों समान चूना पुते हुए दीयों से प्रकाशित अलग-अलग आकार-प्रकार के श्वेत मकान:
गृहैश्च गिरिसंकाशैः शारदाम्बुदसंनिभै. (सुन्दर. 2.16)
प्रजज्वाल तदा लंका रक्षोगणगृहैः शुभैः.
सिताभ्रसदृशैश्चित्रैः पद्मस्वस्तिकसंस्थितैः
वर्धमानगृहैश्चापि सर्वतः सुविभूषितैः. (सुन्दर. 3.22)[iii]
परस्पर सटे हुए सफेद-सफेद सतमंजिले-अठमंजिले महलों की पंक्तियां, उनमें सोने के स्तम्भ, सोने की जालियां और तोरण:
प्रासादमालाविततां स्तम्भैः काञ्चनराजतैः (सुन्दर. 2.48)
स पाण्डुरोद्विद्धविमानमालिनीं महार्हजाम्बूनदजालतोरणाम्. (सुन्दर. 2.53)
फ़र्श स्वर्णजटित स्फटिक मणि के:
तलैः स्फाटिकसंकीर्णैः कार्तस्वरविभूषितैः. (सुन्दर. 2.49)
विचरण तथा परिवहन के लिए अलग-अलग निर्मित चौड़े और विशाल राजमार्ग:
पुरीं रम्यां सुविभक्तमहापथाम्. (सुन्दर. 2.47)
हनुमान जब परकोटे से घिरी इस सुव्यवस्थित लंका नगरी के द्वार पर पहुँचे तो उन्हें राज्य की अधिष्ठात्री ग्राम देवी साक्षात लंका ने ललकारा:
न शक्यं मामवज्ञाय प्रवेष्टुं नगरीमिमाम्.
अद्य प्राणैः परित्यक्तः स्वप्स्यसे निहतो मया.
अहं हि नगरी लङ्का स्वयमेव प्लवङ्गम. (सुन्दर. 3.29-30)
(मेरी अवहेलना करके इस पुरी में प्रवेश कर पाना असम्भव है. आज मेरे हाथ प्राण खोकर तू धराशायी हो जाएगा. मैं स्वयं लंका नगरी हूँ.)[iv]
हनुमान उसे मार गिराते हैं तो मरते-मरते वह ब्रह्मा का वचन दोहराती है:

यदा त्वां वानरः कश्चिद् विक्रमाद् वशमानयेत्.
तदा त्वया हि विज्ञेयं रक्षसां भयमागतम्. (सुन्दर. 3.47)[v]
नगर के मुख्य द्वार पर ऐसी प्रहरी न तो अयोध्या में है और न ही किष्किन्धा में. यह राक्षस नगरी लंका की अनन्य विशेषता है.
मध्य भारत के वन-पर्वतों में बसने वाली कुइ (गोण्ड) ही ऐसी जनजाति है, जो अपने हर गाँव के प्रवेश-द्वार पर निशान पेन्नु नामक प्रहरी देवी की स्थापना करती है. किसी भी अन्य ग्राम देवता की तरह निशान पेन्नु भी छह से नौ इंच ऊँचा सुडौल गोलाकार पत्थर होता है. इसे गाँव के प्रवेश-द्वार के पास पेड़ के नीचे स्थापित किया जाता है. ग्रामवासी इसे अपनी जगह से नहीं हिलाते. इसे गुम्बदाकार रूप में पत्थरों से ढंककर रखा जाता है. वे मानते हैं, पेन्नु अपनी जगह से हिला नहीं कि गाँव पर विपत्ति आई नहीं. हर उत्सव के मौके पर गाँव वाले इस देवी को चढ़ावा चढ़ाते हैं, जिससे वह उनके पूरे के पूरे समुदाय की रक्षा करती रहे. वह गाँव की निशान’, गाँव की प्रतीक या वाल्मीकि के शब्दों में ग्रामःस्वयमेव होती है.
इसके पार गाँव में पहुँचें तो बाएं-दाएं घरों का सिलसिला और बीच में मार्ग. गाँव के किसी भी मार्ग की बनिस्बत चौड़े मुख्य-मार्ग के सिरे पर मुखिया का घर. घर के अतराफ़ चहारदीवारी या बाड़. इसके बीचोबीच ऐन सड़क पर खुलने वाला फाटक. इस चहारदीवारी के भीतर परिवार की ज़रूरतें पूरी करने के लिए कमरे --रसोई-घर, भण्डार-घर, सोने का कमरा, ढोर-घर वगैरह. रिहायश के पीछे बग़ीचा भी और परिसर के भीतर ही सुरक्षित खुली जगह, जो जश्न के मौकों पर जमा गाँव वालों के पीने-पिलाने के काम आती है.
कुछ ऐसा होता है कुइ गाँव का आम जीवन. त्योहारों के दिन और ज़्यादा गहमागहमी और धूमधाम रहती है. हनुमान ने लंका में कुछ ऐसा ही नज़ारा देखा. रात का समय. पूर्ण  चन्द्रोदय अभी-अभी हुआ था. रजनीश अपने मार्ग के पहले चरण में थे और इधर राक्षस-पुरी के मार्गों पर घूम रहे राम-दूत हनुमान ने देखा:
विभाति चन्द्रः परिपूर्णशृङ्गः. (सुन्दर. 4.5)
सारी नगरी में ही सरगर्मियां थीं:

परस्परं चाधिकमाक्षिपन्ति भुजांश्च पीनानधिविक्षिपन्ति.
मत्तप्रलापानधिविक्षिपन्ति मत्तानि चान्योन्यमधिक्षिपन्ति.. (सुन्दर. 4.9)
(राक्षस आपस में चुहल कर रहे थे. वे अपने ताक़तवर हाथ हिला-हिलाकर मतवालों जैसी बहकी-बहकी बातें करते और नशे में धुत होकर तकरार भी करते थे.)[vi]  
हम समझ सकते हैं कि आगामी पूर्णिमा के अवसर पर किसी उत्सव की तैयारियां चल रही होंगी.
हनुमान पहले मुख्य मार्ग से गुज़रे तो उन्होंने अलग-अलग रूप-आकृतियों के घर देखे --चार कमरे-चार दरवाज़े वाले सर्वतोभद्र’, तीन अलग-अलग दिशाओं में दरवाज़ों वाले नन्द्यावर्त’, वर्धमान और स्वस्तिक भी:  
विविधाकृतिरूपाणि भवनानि ततस्ततः. (सुन्दर. 4.10)
इस राह से गुज़रते हुए ही उन्होंने बाजे-गाजे की धुन पर गाए जा रहे गीत सुने और महिलाओं के नाचने की आवाज़ें भी:
शुश्राव मधुरं गीतं त्रिस्थानस्वरभूषितम्.
शुश्राव काञ्चीनिनदं नूपुराणां च निःस्वनम्. (सुन्दर. 3. 24-25)
ओझा स्तोत्र-पाठ कर रहे थे, जो आर्य पुरोहितों के वैदिक ऋचा-पाठ जैसे लगते थे:  
शुश्राव जपतां तत्र मन्त्रान् रक्षोगृहेषु वै.
स्वाध्यायनिरतांश्चैव यातुधानान्ददर्श सः.. (सुन्दर. 3.26)
इस रास्ते से चलते हुए हनुमान अन्तिम छोर तक आन पहुँचे और उन्हें रावण के महल के अतराफ़ चहारदीवारी में मुख्य द्वार दिखाई दिया. भीतर जाकर उन्होंने देखा:
शिबिका विविधाकाराः स कपिर्मारुतात्मजः.
लतागृहाणि चित्राणि चित्रशालागृहाणि च.
क्रीडागृहाणि चान्यानि दारुपर्वतकानपि.
कामस्य गृहकं रम्यं दिवागृहकमेव च. (सुन्दर. 5.33-35)[vii]
यहाँ शिबिका का अर्थ है मकान. छोटे-बड़े सारे मकान पंक्तिबद्ध. नयनाभिराम घरेलू उद्यान, चित्रांकित दीवारें. रमणीय शयन-कक्ष और दीवानख़ाने.  यहाँ दारुपर्वत सम्बद्ध हैं क्रीड़ागृह (भोज-आपानशाला) से. किन्तु, इस सामासिक शब्द का अर्थ है काठ के पहाड़’. काठ के बर्तनों के लिए प्रयुक्ति है दारुपात्राणि’. दरअसल, दारु अर्थात जलाने की लकड़ी. इन गाँवों में चूल्हे में जलाने की लकड़ी के ऊँचे-ऊँचे ढेर जमाए जाते हैं, जो लकड़ी के पर्वतों जैसे नज़र आते हैं. इस इलाक़े में यह बिलकुल आम नज़ारा है. इन इलाक़ों में भरपूर वर्षा होती है. अतः बारिश के दिनों के लिए ईन्धन संग्रह करके रखना ज़रूरी होता है, जब सूखी लकड़ी का टुकड़ा भी ढूण्ढे से नहीं मिल पाता. हम जानते हैं कि सुग्रीव ने सीता के लिए खोज-दल वर्षा ऋतु के बाद पठाने का निर्णय किया था. तदनुसार, हनुमान वर्षा ऋतु के बाद ही लंका पहुँचे भी थे. तो, उन्हें ऐसे काठ के पहाड़ नज़र आना सहज-स्वाभाविक है. यह ईन्धन के ढेर की वाल्मीकीय काव्य-अभिव्यक्ति है[viii].
सीता की आस में हनुमान रावण के महल में कमरा दर कमरा ख़ाक छानते रहे[ix]. पहले उन्होंने मुख्य हॉल में प्रवेश किया. सीता उन्हें वहाँ नहीं दिखाई दी. फिर वह शयन-कक्षों में घुसे. रावण पी-पिलाकर वहाँ गहरी नीन्द में चित पड़ा था[x]. उसकी पटरानी की दशा भी कुछ अलग न थी. रावण की अन्य मदालस पत्नियां भी अलग-अलग रुख़ ओ मुद्रा में नींद में निमग्न थीं. बानगी देखिए:
शशिप्रकाशवदना वरकुण्डलभूषिताः.
अम्लानमाल्याभरणा ददर्श हरियूथपः.. (सुन्दर. 8.29)
(चाँदनी के समान उजले मुख, कानों में सुन्दर बालियां, गले में कभी न मुरझाने वाले फूलों के हार.)
नृत्तवादित्रकुशला राक्षसेन्द्रभुजाङ्कगाः.
वराभरणधारिण्यो निषण्णा ददृशे कपिः.. (सुन्दर. 8.30)
(सुन्दर आभूषण धारण किए राक्षसराज की बाँहों और अंक में स्थान पाने वाली वे पत्नियां नाचने और बाजे बजाने में कुशल थीं.)
मदव्यायामखिन्नास्ताः राक्षसेन्द्रस्य योषितः.
तेषु तेष्ववकाशेषु प्रसुप्तास्तनुमध्यमाः.. (सुन्दर. 8.33)
(नशे में चूर पतली कमर वाली राक्षसराज की वे स्त्रियां रति-क्रीड़ा से थककर जहाँ-जिस हाल में थीं, वहीं-वैसे ही सो गई थीं.)
भुजपार्श्वान्तरस्थेन कक्षगेन कृशोदरी.
पणवेन सहानिंद्या सुप्ता मदकृतश्रमा.. (सुन्दर. 8.39)
(नशे से हारकर समतल पेट वाली कोई अनिन्द्य सुन्दरी अपनी ढोलक को बाँहों में दबाए सो गई थी.)
काचिदाडम्बरं नारी भुजसम्भोगपीडितम्.
कृत्वा कमलपत्राक्षी प्रसुप्ता मदमोहिता.. (सुन्दर. 8.41)
(मदिरा के मद में धुत कोई कमलनयनी अपना ताशा बाँहों में दबाए गहरी नीन्द में डूबी हुई थी.)
इन कमरों में सीता को न पाकर हनुमान (आ)पानभूमि में पहुँच गए, जहाँ उन्होंने देखा:
क्रीडितेनापराः क्लान्ता गीतेन च तथा पराः.
नृत्तेन चापराः क्लान्ताः पानविप्रहतास्तथा.. (सुन्दर. 9.4)
(वहाँ कुछ स्त्रियां खेलकर तो कुछ स्त्रियां नाच-गाकर थकी हुई थीं. बहुतेरी बहुत ज़्यादा पीकर होश खो रही थीं.)
गोण्ड महिलाएं गले में किस्म-किस्म के आभूषण पहनती हैं. ये मनकों और कौड़ियों से बने या फिर बाज़ारू होते हैं. चूड़ियां और कड़े कलाई से कुहनी तक पहने जाते हैं. टखनों में घुंघरु जड़ी पायल, अंगूठों में ख़ूबसूरत छल्ले और उंगलियों में बिछुआ.          
राक्षसों और कुइ जनजाति की नगर-योजना, खान-पान, रहन-सहन और सामाजिक जीवन बिलकुल एक जैसे हैं. आभूषण पहने हुए नींद में डूबी रावण की पत्नियों और पीकर नशे में धुत पड़ी हुई कुइ औरतों की स्थिति भी सर्वथा एक समान.     
आइए, एक जातीय साक्ष्य भी देखते चलें. राम की अगुवाई में वानर सेना ने लंका-पुरी को घेर लिया तो रावण ने तजुर्बेकार बड़े-बूढ़ों की मन्त्रणा परिषद का आह्वान किया था:  
राक्षसेन्द्रस्तु तैः सार्धं मन्त्रिभिर्भीमविक्रमैः.
समर्थयामास तदा रामकार्यविनिश्चयम्.. (युद्ध. 23.39)
यह बैठक कुइ गाँवों में ऐसे अवसरों पर होने वाली पंचायतों का आदि-रूप है. घर-गृहस्थी के झगड़े, अग़वा किए जाने सम्बन्धी मामले, व्यभिचार-बलात्कार, बिन बाप के बच्चों के पालन-पोषण सम्बन्धी मामले आदि कुछ ऐसे मसले हैं, जिन्हें इस तरह की बैठक बुलाकर गाँव के बीचोबीच किसी छतनार पेड़ के साए में बिछी सपाट शिलाओं पर बैठे गोण्ड बुज़ुर्ग तय करते हैं. इस बैठक की खबर सभीको पेशगी दी जाती है. गाँव वाले बैठक की जगह, पंचायत के शिला-तख़्त और उस पेड़ को पवित्र मानते हैं. लंका के नगर-प्राकार और उसके भीतर चबूतरे (वेदी) का उल्लेख हम प्रारम्भ में ही कर आए हैं.
अन्त में, एक पते की बात. विश्वकर्मा की संरचना लंका-पुरी उनकी कल्पना-प्रसूत रमणी है -–वाल्मीकि का यह सूत्र-वाक्य लंका को समझने की कुंजी है. पहले तो विश्वकर्मा स्वयं ही एक काल्पनिक-पौराणिक चरित्र है. फिर लंका के रूप में उनकी कल्पना-प्रसूत नगरी! वाल्मीकि यहाँ स्पष्ट संकेत छोड़ गए हैं कि लंका वस्तुतः एक वन-पर्वतीय गोण्ड गाँव है, जिसे उन्होंने उनकी अपनी कल्पना-प्रसूत रम्य नगरी के रूप में प्रस्तुत किया है. इसी महाकाव्य में अयोध्या की बनिस्बत लंका का वर्णन ज़ाहिर करता है कि यह स्थल वाल्मीकि के लिए अनजान परदेस रहा है. इसलिए उन्होंने लंका तथा लंकावासियों का चित्रण एक परदेसी के रूप में कल्पना के सहारे, सुनी-सुनाई के आधार पर और हनुमान-अभियान के माध्यम से किया है. हम अनुमान लगा सकते हैं कि महाकाव्य की रचना के दौरान किसी घुमक्कड़ लंकावासी ने उन्हें वहाँ के कुछ ब्योरे उपलब्ध कराए हों या फिर किसी आश्रमवासी पर्यटक ने. बहरहाल, वाल्मीकि के लिए लंका आँखिन देखी हरगिज़ नहीं है. रामायण के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक अध्ययन से सरलता से स्पष्ट हो जाता है कि लगभग 3500 वर्ष पहले देश-काल-परिस्थिति की दृष्टि से मध्य भारत में ऐसे किसी नगर की सम्भावना बनती ही नहीं, जहाँ व्योमविहारी अद्भुत पुष्पक विमान समेत सारी की सारी इमारतें (वह भी बहुमंजिली) सोने, चाँदी, मणि-रत्नों, ना-ना प्रकार की बहुमूल्य कला-कारीगरी और दुर्लभ सुख-सुविधाओं से अटी पड़ी हों. भारतवासियों को विपुल परिमाण में स्वर्ण के दर्शन रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार परवान चढ़ने पर ही मुद्रा के रूप में हो पाए थे, जो रामायण काल से बहुत-बहुत बाद की बात है. हनुमान की साखी दे-देकर वाल्मीकि हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि लंका का काव्य-सत्य ईंट-गारे-धातु-रत्नों से निर्मित ठोस सत्य है. वह काल्पनिक लंका का जितना ज़्यादा प्रयत्नपूर्वक वर्णन करते जाते हैं, सजग पाठक का सन्देह उतना ही ज़्यादा गहराता चला जाता है. ठीक वैसे ही, जैसे अनेकानेक पात्रों की दोहराई जाती साखी के बावजूद यह सत्य उजागर हुए बिना नहीं रहता कि वे राक्षसों को हद दर्जे तक बदनाम करने की नीयत से ही विकृत-विकराल नर-भक्षी बताते चले जा रहे हैं. किसी भी संस्कृति में मनुष्य का माँस खाना सबसे जघन्य असभ्यता जो माना जाता है, ध्यान रहे. राम को विष्णु का अवतार सिद्ध करने के लिए गुसाईं जी ने भी रामचरितमानस में दोहराव की इसी बारम्बारिता के सिद्धान्त को अपनाया है.                       --बृहस्पति शर्मा                                        
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[i] गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी. कहि न जाइ अति दुर्ग विसेषी.
अति उतुंग जलनिधि चहु पासा. कनक कोट कर परम प्रकासा. (सुन्दर. 2.5-6)
[ii] बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं. (सुन्दर. छं.2)
[iii] कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना.
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना. (सुन्दर. छं.1)
[iv] नाम लंकिनी एक निसिचरी. सो कह चलेसि मोहि निंदरी. (सुन्दर. 3.1) 
[v] मुठिका एक महा कपि हनी. रुधिर बमत धरनीं ढनमनी.
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा. चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा. (सुन्दर. 3.2-3)
[vi] कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं.
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं. (सुन्दर. छं.2)
[vii] गयउ दसानन मंदिर माहीं. अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं. (सुन्दर. 4.3)
[viii] गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में इस श्लोक का अर्थ है:
पवनपुत्र हनुमान जी ने राक्षसराज रावण के उस भवन में अनेक प्रकार की पालकियां, विचित्र लता-गृह, चित्रशालाएं, क्रीड़ाभवन, काष्ठमय क्रीड़ापर्वत, रमणीय विलासगृह और दिन में उपयोग में आनेवाले विलासभवन भी देखे.
[ix] मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा. (सुन्दर. 4.3)          x. सयन किएँ देखा कपि तेही. मंदिर महुँ न दीखी बैदेही. (सुन्दर. 4.4)

स्रोत:
  1. VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. रामचरितमानस




हिन्दू पति-पत्नी का सम्बन्ध-विच्छेद
(DIVORCE AND DISSOLUTION OF HINDU MARRIAGE)

भारत में हिन्दू विवाह से सम्बन्धित कानून की किताबों में कहा गया है कि हिन्दू धर्म में पति-परित्याग, पत्नी-परित्याग (Divorce) और विवाह के विघटन (Dissolution of Marriage) का कोई विधान नहीं है.

यह सही है कि जहाँ हिन्दू विवाह के लिए निर्धारित सम्पूर्ण संस्कार है, वहीं पति या पत्नी के परित्याग के लिए किसी प्रकार का धार्मिक-सामाजिक विधि-विधान विद्यमान नहीं है. पुरुष प्रधान प्राचीन और किसी हद तक समकालीन हिन्दू समाज तक में कम से कम स्त्री के लिए ऐसे अधिकार की कल्पना करना महज़ दुस्साहस ही होगा. अधिकार हो भी तो कैसे, जहाँ पति-पत्नी का रिश्ता सात-सात जन्मों का बन्धन मान लिया गया हो! अलबत्ता, चाणक्य ने कुछ ख़ास परिस्थितियों में विवाह का बन्धन समाप्त हो जाने की ओर संकेत ज़रूर किया है.

देश, काल, परिस्थिति चाहे कुछ भी क्यों न हो, मनुष्य जीवन में ऐसे मोड़ आते ही रहते हैं जब किसी धर्म की दुहाई से जुड़े जोड़े को अपना रिश्ता स्थायी रूप से तोड़ना पड़ सकता है. रिश्ता तोड़ने की आवश्यकता कभी पति को पड़ सकती  है तो कभी पत्नी को. यह आवश्यकता कभी पति-पत्नी की साझी भी हो सकती है. इस प्रयोजन के लिए किसी न किसी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था की ज़रूरत लाज़िमी है.

भारत में इसलाम का प्रचलित रूप पुरुष को महज़ तीन बार तलाक़-तलाक़-तलाक़ भर सस्वर बोल देने से पत्नी से छुटकारा दे देता है. स्त्री को पुरुष से छुटकारा पाने के लिए भी क़ुला की व्यवस्था है. लेकिन, हिन्दू स्त्री-पुरुष को इसी फल की उपलब्धि के लिए आज जटिल और लम्बी कानूनी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है. इसके बावजूद, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि अदालत से विवाह के विघटन का प्रमाण-पत्र मिल ही जाएगा.

इसके विपरीत, प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत में वैदिक धर्मावलम्बियों में विवाह टूटते भी थे. वह भी आसानी से. ऐसे प्रसंग वाल्मीकि रामायण में मिलते  हैं. आइए देखें:

राम वनवास के लिए प्रस्थान कर गए हैं. दशरथ, पूरा राजपरिवार, राजपुरोहित और आम-ख़ास प्रजाजन उन्हें विदा करके लौटने को हैं. महाराज कैकेयी पर क्रुद्ध हैं और दुःखी भी. वह अपनी इस प्रिय रानी से कहते हैं:
कैकेयि मा ममाङ्गानि स्प्राक्षीस्त्वं दुष्टचारिणी.
नहि त्वां द्रष्टुमिच्छामि न भार्या न च बान्धवी..
(दुष्ट कैकेयी, तू मुझे छूना भी मत. मैं तेरी सूरत तक नहीं देखना चाहता. तू न तो मेरी पत्नी है और न किसी प्रकार रिश्तेदार ही.)

ये च त्वामुपजीवन्ति नाहं तेषां न ते मम.
केवलार्थपरां हि त्वां त्यक्तधर्मां त्यजाम्यहम्..
(जो लोग तेरे सहारे ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, मैं उनका मालिक नहीं हूँ और न ही वे लोग मेरे परिजन हैं. तूने सिर्फ़ राजपाट के लालच में पड़कर अपने कर्तव्य से पल्ला झाड़ लिया है. इसलिए मैं तेरा परित्याग करता हूँ.)

अगृह्णां यच्च ते पाणिमग्निं पर्यणयं च यत्.
अनुजानामि तत्सर्वमस्मिंल्लोके परत्र च..
(तेरा पाणिग्रहण करके तेरे साथ अग्नि की परिक्रमा से बना सारा सम्बन्ध मैं इस लोक के साथ-साथ परलोक के लिए भी त्याग देता हूँ.)

भरतेश्चत्प्रतीतः स्याद्राज्यं प्राप्येदमव्ययम्.
यन्मे स दद्यात्पित्रर्थं मा मा तद्दत्तमागमत्.. (अयोध्या. 37.6-9)
(यदि तेरा पुत्र भरत इस निर्विघ्न-निर्बाध राज्य को पाकर प्रसन्न हो तो उसकी ओर से दी जाने वाली जलांजलि और श्राद्ध में किया जाने वाला पिण्डदान आदि मुझे प्राप्त न हो.)


देखा आपने, कितना मज़बूत परित्याग है! जितना मज़बूत विवाह का बन्धन, उससे तनिक भी कम नहीं. और, कौसल्या के संग दशरथ अपने राजमहल चले गए. कौसल्या-सुमित्रा की मौजूदगी में वहीं उन्होंने अन्तिम साँस ली और मरते दम तक कैकेयी की सूरत दुबारा कभी नहीं देखी.

राम ने भी सीता का परित्याग एक नहीं, दो-दो बार किया था. एक बार चरित्र पर असह्य सन्देह के चलते तो दूसरी बार बदनामी के डर से:

प्राप्तचारित्रसन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता. (युद्ध. 103.17)
पहली बार का प्रसंग यों है. रावण-वध के बाद राम की आज्ञा पाकर विभीषण सीता को अशोक वाटिका से लिवा लाए. वह राम के बगल में लजाती-सकुचाती खड़ी हैं. राम उनसे दृढतापूर्वक कहते हैं:
तद्गच्छ ह्यभ्यनुज्ञाता यथेष्टं जनकात्मजे.
एता दश दिशो भद्रे कार्यमस्ति न मे त्वया.. (युद्ध. 103.18)
(जानकी, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ. मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ. देवी, ये दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली पड़ी हैं. तुमसे मेरा अब कोई सरोकार नहीं रह गया है.)

यदर्थं निर्जिता मे त्वं यशः प्रत्याहृतं मया.
नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामितः. (युद्ध. 103.21)
(जिस कीर्ति के लिए मैंने तुम्हारा उद्धार किया था, वह मुझे प्राप्त हो गई. मुझे तुमसे कोई लगाव नहीं रहा. तुम अब जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो.)

इति प्रव्याहृतं भद्रे मयैतत् कृतबुद्धिना. 
लक्ष्मणे भरते वा त्वं कुरु बुद्धिं यथासुखम्.
सुग्रीवे वानरेन्द्रे वा राक्षसेन्द्रे विभीषणे.
निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मना.. (युद्ध. 115.22-23)
(देवी, मैंने तुमसे यह बात सोच-विचारकर कही है. तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के साथ रह सकती हो. तुम्हारा मन करे तो सुग्रीव या फिर विभीषण के साथ भी रह सकती हो. जहाँ तुम्हें सुख मिलने की आशा हो, वहीं मन से रम जाओ.)[i]

राम कुछ ताक़तों के आगे समझौता करके सीता को घर तो लौटा लाए, लेकिन उनके मन की किसी गहरी-अन्धेरी गुफ़ा में सन्देह की गाँठ घर कर गई तो फिर कभी खुल नहीं पाई. दूसरी बार, बदनामी और जगहँसाई के भय से ज़िम्मेदारी की बन्दूक पूरी तरह लक्ष्मण के कन्धे पर रखकर वह सीता का परित्याग करते हैं. वह भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की अन्तरंग बैठक बुलाकर अपने निर्णय का एलान करते हैं:
अप्यहं जीवितं जह्यां युष्मान्वा पुरुषर्षभाः.
अपवादभयाद्भीतः किं पुनर्जनकात्मजाम्.. (उत्तर. 44.13)
(भाइयो, मैं लोक-निन्दा के डर से अपने प्राण और तुम सबको भी त्याग सकता हूँ. फिर सीता को त्यागना कौन बड़ी बात है?)
वह लक्ष्मण को अटल आज्ञा देते हैं:  
आरुह्य सीतामारोप्य विषयान्ते समुत्सृज. (उत्तर. 44.15)
(सीता को रथ में बिठाकर राज्य की सीमा के बाहर छोड़ आओ.)

तत्रैनां विजने कक्षे विसृज्य रघुनन्दन. (उत्तर. 44.17)
(लक्ष्मण, सीता को निर्जन वन में छोड़कर तुम शीघ्र लौट आओ.)

लक्ष्मण ने सीता को सूचित किया:
सा त्वं त्यक्ता नृपतिना निर्दोषा मम संनिधौ. (उत्तर. 46.13)
(आप मेरे सामने निर्दोष सिद्ध हो चुकी हैं. फिर भी, महाराज ने आपका परित्याग कर दिया है.)

सीता भी अपने परित्याग की पुष्टि करती हैं:
किं नु पापं कृतं पूर्वं को वा दारैर्वियोजितः.
याहं शुद्धसमाचारा त्यक्ता नृपतिना सती.. (उत्तर. 47.4)
(मैंने पूर्वजन्म में ऐसा कौन पाप किया था या किसे अपनी स्त्री से बिछड़ाया था कि मेरा आचरण शुद्ध होने के बावजूद महाराज ने मेरा परित्याग कर दिया है.)

और भी:

किं च वक्ष्यामि मुनिषु किं मयापकृतं नृपे.
कस्मिन्वा कारणे त्यक्ता राघवेण महात्मना.. (उत्तर. 47.7)
(महाराज, यदि मुनिजन मुझसे पूछें कि महात्मा राम ने किस अपराध के कारण तुम्हारा परित्याग कर दिया है तो मैं उन्हें क्या बताऊँगी.)[ii]

उपर्युक्त प्रसंगों के आलोक में ग़ौरतलब मालूम होता है कि प्राचीन राज्य व्यवस्था में वैदिक धर्म में जीवन-साथी के अभित्याग (Desertion) में आज का परित्याग (Divorce) अभिन्नतः अन्तर्निहित था. इसके विपरीत, भारत में प्रचलित इसलामी रिवाज में परित्याग में अभित्याग अन्तर्निहित है. इससे यह भी मालूम पड़ता है कि अभित्याग-परित्याग का अधिकार सशक्त  पुरुष की मुट्ठी में एकतरफा बन्द था और निःशक्त स्त्री बहुत करके उसके आगे बेबस थी.

परित्याग पर चर्चा करने के लिए यह समझना आवश्यक है कि शास्त्रोक्त हिन्दू विवाह क्या है? विवाह अग्नि-देव और अतिथि-देव की साक्षी में एक जोड़ा स्त्री-पुरुष के बीच पारस्परिक आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं और शर्तों की बुनियाद पर स्वेच्छा से खुशी-खुशी बनने वाला आपसी सम्बन्ध है. इसमें वर-वधू पक्ष के अभिभावकों तथा निकट सम्बन्धियों की सहमति सम्मिलित हो सकती है और नहीं भी:   
समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ. सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ..
(ऋ. मं. 10, सू. 85, मं. 47; पार. 1.4.14)
(गृहस्थी में साथ-साथ रहने के लिए हम एक-दूसरे को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं. हमारे हृदय अलग-अलग जल के समान आपस में मिलकर शान्त और एकरस रहेंगे. जिस प्रकार की प्रीति मनुष्य और प्राणवायु के बीच होती है, वैसी ही हम दोनों के बीच भी बनी रहेगी...)
तावेव विवहावहै. (पार. गृ. कां. 1. कं. 6. 3)
(आओ, हम दोनों विवाह करें.)

इन आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं और शर्तों की बानगी देखिए:
जरां गच्छ परिधत्स्व... रयिं च पुत्राननुसंव्ययस्व.  (पार. गृह्य. 1.4.12)
(मेरे साथ वृद्धावस्था तक बनी रहना...तू धन तथा पुत्रों को मर्यादा में रखना.)

रायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये. (पार. कां. 2. कं. 6. 20)
(मैं धन और पोषण को मर्यादा में रखूंगा.)
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधि.....वीरसूर्देवृकामा स्योना शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे. (ऋ.10.85.44)

(पति का विरोध न करने वाली हे प्रियदृष्टि, आवश्यकता पड़ने पर नियोग के लिए तू अपने देवर की सेज पर जाने तक को तैयार होकर वीरों को जन्म देने वाली बन...)[iii]

गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः.
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः.. (ऋ. मं. 10, सू. 85. मं. 6)
(मैं सौभाग्य की वृद्धि के लिए तेरा हाथ थामता हूँ. तू मुझ पति के साथ दीर्घायु हो... मैं सौभाग्य की बढ़ोतरी के लिए आपका हाथ थामती हूँ. देवगण और विवाह-स्थल पर मौजूद विद्वान गृहस्थाश्रम के निर्वाह के लिए तुम्हें मुझे सौंपते हैं.)

पत्नी त्वमसि धर्मणाहं गृहपतिस्तव. (अथर्व. कां. 14, सू. 1. मं. 52)
(पत्नी-धर्म के निर्वाह से तू मेरी पत्नी है और मैं पति-धर्म के निर्वाह से तेरा गृहपति हूँ.)
न स्तेयमद्मि मनसोदमुच्ये. (अथर्व. कां. 14. सू. 1. मं. 57)
(मैं तेरे लिए चोरी को मन से तज देता हूँ.)

स नो अर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा पतेः. (अथर्व. कां. 14. सू. 1. मं. 51)
(ईश्वर मुझे अपने पिता के कुल से छुड़ाए, पति के कुल से नहीं.)

आगे, विवाह की सबसे प्रमुख विधि सप्तपदी की सातों प्रतिज्ञाओं के साथ वर अपनी वधू से कहता है:
सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः.(आश्व. 1.7.19)
(तेरा मन मेरे मन के अनुकूल हो. विष्णु देवता तुझे मेरे अनुकूल बनाएं.)

विवाह का सबसे महत्वपूर्ण अंश है अग्नि की साक्षी में वधू के पाणिग्रहण के बाद सप्तपदी का सातवां मन्त्र: सखे सप्तपदी भव. अर्थात्, इस सातवें कदम के साथ तू मेरी मित्र बन जा[iv].

स्पष्ट है कि हिन्दू विवाह पति-पत्नी के सम्बन्ध निभाने के लिए स्त्री-पुरुष के बीच आजन्म  मित्रता का कर्तव्यपूर्ण रिश्ता है. यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या आश्वासनों और प्रतिज्ञाओं पर आधारित दो व्यक्तियों का यह मैत्री सम्बन्ध किसी भी एक की ओर से इन आश्वासनों और प्रतिज्ञाओं के सुविचारित-सुचिन्तित रूप से, साभिप्राय तोड़े जाने पर नहीं टूट सकता? क्यों नहीं! यह दुनिया के किसी भी प्रगतिशील समाज में जायज़ है, ज़रूरी है और सम्भव भी. सो, यह टूटता भी रहा है. फिर इसके लिए धार्मिक-सामाजिक कायदा-कानून चाहे अलग से बनाया गया हो या न बनाया गया हो.    

बृहदारण्यक उपनिषद के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक और शुक्ल यजुर्वेद के सर्वश्रेष्ठ ऋषि याज्ञवल्क्य (ईसा-पूर्व 1200 वर्ष) के निम्न लिखित श्लोक से पता चलता है कि भारतीय समाज में पति/पत्नी का धर्मसम्मत परित्याग प्रचलित था ही, पुनर्विवाह को भी मान्यता प्राप्त थी:
अक्षता च क्षता चैव पुनर्भूस्संस्कृता पुनः.
स्वैरिणी वा पतिं हित्वा सवर्ण कामतः श्रयेत्.. (याज्ञवल्क्य स्मृति 1.53)
(जिस स्त्री का विवाह संस्कार दूसरी बार किया जाए, वह पुनर्भू कहलाती है, फिर किसी अन्य पुरुष से उसका शारीरिक सम्बन्ध पहले हुआ हो चाहे न हुआ हो. स्वैरिणी वह है, जो स्वेच्छापूर्वक अपने पति को त्यागकर अन्य सवर्ण पुरुष का आश्रय ले लेती है.)

यह कैसी विडम्बना है कि हिन्दू विवाह का परिणामी सम्बन्ध --पति-पत्नी का रिश्ता— तो नश्वर-भंगुर है, लेकिन इस नाज़ुक रिश्ते के फल-स्वरूप उत्पन्न अटूट-अनश्वर रक्त-सम्बन्ध वाले सभी सुदृढ नाते इसीकी कोख से जन्म लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं!
--बृहस्पति शर्मा
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स्रोत:
  1. VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् –-परमहंस जगदीश्वरानन्द सरस्वती  
  4. रामचरितमानस
  5. संस्कार विधि -–स्वामी दयानन्द सरस्वती
  6. हिन्दू संस्कार –-डॉ. राजबली पाण्डेय
  7. विश्व के प्रमुख दार्शनिक -–वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली


[i] तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद. (लंका. दो.108)
[ii] गुसाईं जी ने यह प्रसंग नहीं रखा है.
[iii] डॉ. गंगासहाय शर्मा ने संस्कृत साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित सायणाचार्य के ऋग्वेद-भाष्य के आधार पर निम्नलिखित अर्थ दिया है:
“तुम क्रोधरहित आँखों वाली होकर बढ़ो तथा पति का घात न करने वाली बनो. तुम पशुओं के लिए कल्याणकारिणी, शोभन मन युक्त एवं तेजपूर्ण बनो. तुम वीरजननी, देवों की भक्त एवं सुखकारिणी बनो तथा हमारे मानवों और पशुओं का कल्याण करो.”
[iv] मालूम पड़ता है, दो अनजान व्यक्तियों के बीच प्रगाढ़ मैत्री की स्थापना के लिए भी अग्नि की साक्षी में पाणिग्रहण (हाथ में हाथ लेना या आज की रीत हाथ मिलाना) और अग्नि की परिक्रमा (भांवर) का रिवाज रहा है. वाल्मीकी रामायण में राम-सुग्रीव का मैत्री-प्रसंग दृष्टव्य है:
रोचते यदि वा सख्यं बाहुरेष प्रसारितः. गृह्यतां पाणिना पाणिर्मर्यादा बध्यतां ध्रुवा..
(यदि आपको मेरी मित्रता पसन्द हो तो मेरा यह हाथ फैला हुआ है. इसे आप अपने हाथ में लेकर मित्रता को अटूट बनाए रखने के लिए मर्यादा बान्ध दें.)
एतत्तु वचनं श्रुत्वा सुग्रीवस्य सुभाषितम्. सम्प्रहृष्टमना हस्तं पीडयामास पाणिना.
(सुग्रीव का यह सुन्दर प्रस्ताव सुनकर राम का मन प्रसन्न हो गया. उन्होंने सुग्रीव का हाथ प्रेमपूर्वक अपने हाथ में ले लिया.)


काष्ठयोः स्वेन रूपेण जनयामास पावकम्. दीप्यमानं ततो वह्निं पुष्पैरभ्यर्च्य सत्कृतम्..
(हनुमान ने लकड़ी के टुकड़ों को रगड़कर आग उत्पन्न की. फिर उसे प्रज्वलित करके साक्षी रूप में राम और सुग्रीव के बीच स्थापित कर दिया.)
ततोsग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम्. सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ.. (किष्किन्धा. 5.12 से 15)
(सुग्रीव और राम ने उस प्रज्वलित अग्नि की प्रदक्षिणा की और एक-दूसरे के मित्र बन गए.)
त्वं हि पाणिप्रदानेन वयस्यो मेsग्निसाक्षिकः. (किष्किन्धा. 8.26)
(मैंने अग्निदेव के सामने अपना हाथ आपके हाथ में देकर आपको मित्र बनाया है.)   
बहुत सम्भव है कि वैवाहिक मैत्री के लिए भी आगे चलकर इसी विधि ने साधारण अग्नि के स्थान पर यज्ञाग्नि के समक्ष सप्तपदी और पाणिग्रहण संस्कार का रूप ग्रहण कर लिया हो.