Wednesday 29 May 2013

शिवताण्डव स्तोत्र :रचना, रचनाकार और रचना-काल
(SHIVATANDAVASTOTRAM OF RAVAN)

आदि-रामायण के कविर्मनीषी वाल्मीकि ने अपनी कृति के नायक राम के समकक्ष प्रतिनायक रावण के व्यक्तित्व का चित्रण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उन्होंने युद्धकाण्ड में उसके शरीर को गिरिराज हिमालय और विन्ध्याचल के समान बताया है. वह स्थान-स्थान पर उसे घनघोर वर्षा कराने वाले जल से लबालब नील मेघ के समान विशाल देह का स्वामी कहते हैं. रावण को सुन्दरकाण्ड (8.22) में उन्होंने मुखान्महान् और महाभुजशिरोधरः (20.24) अर्थात् बड़े मुँह’, बड़ी भुजाओं तथा बड़ी गरदन वाला भी कहा है. यदि ऐसे विकट व्यक्तित्व के धनी भक्त का आराध्य और उसकी आराधना के शब्द विलक्षण हों तो अचरज कैसा?  
रावण का शिवताण्डव स्तोत्र भक्ति-भाव से भरपूर और ऊर्जस्वी शैली में निबद्ध उत्कृष्ट गेय रचना है. इसके सामासिक अनुनादी स्वरों की जादुई कुव्वत श्रोता को मन्त्रमुग्ध करके ही छोड़ती है. इसे संगीतबद्ध रूप में सुनते हैं तो लगता है जैसे स्वयं महाप्राण निराला राम की शक्ति-पूजा का पाठ कर रहे हों. यहाँ हम इस संस्कृत काव्य-रचना के मूर्तिमय मूल भावों (Motifs) का विश्लेषण करते हुए इसके रचना-काल पर विचार करेंगे.
मान्यता है कि महादेव शिव के अनन्य भक्त महाबली रावण ने अपनी कठिन तपस्या के समापन चरण के रूप में भगवान शिव की स्तुति में शिवताण्डव स्तोत्र के यही स्वरचित बारह श्लोक गाए थे:
पूजाsवसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शम्भुपूजनमिदं पठति प्रदोषे.
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः .
इनमें से पहला श्लोक भगवान शिव की गंगाधरमूर्ति का शब्द-चित्र प्रस्तुत करता है:   
जटाकटाह सम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि.
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम .1.
यही श्लोक भगवान के ललाट पर सुशोभित अदम्य अग्नि-ज्वाला से दैदीप्यमान तृतीय नेत्र का गुणगान करता है. शिव त्रिनेत्र-त्र्यम्बक देवता हैं. उनके तीन नेत्र हैं सूर्य-चन्द्र-अग्नि. इन त्रिदेव के भीतर सम्पूर्ण त्रिक सिद्धान्त समाहित है.
यह श्लोक भगवान शिव की चन्द्रशेखर संज्ञा में उनके ललाट पर खिले हुए नव-चन्द्र का भी उल्लेख करता है. कौन है यह चन्द्र? अग्निर्वै रुद्रः. यह इसकी वैदिक परिभाषा है. रुद्र है प्रचण्ड अग्नि. अपने भोज्य को लील जाने को बेताब. इस अग्नि की भूख मिटती है सोम से. इसी सोम को चन्द्र और अमृत भी कहते हैं. फिर, चन्द्र है ब्रह्माण्ड-मनस का प्रतिनिधि भी –-चन्द्रमा मनसो जातः (ऋग्वेद)— और मानस-सिद्धान्त ही है शिव रूप का सर्वोपरि पहलू -–उनके भाल-शीर्ष पर दीप्तिमान.
दूसरा श्लोक शिव के उमा-महेश्वर रूप पर केन्द्रित है. पर्वत-पुत्री अपने स्वामी के साथ शाश्वत परम आनन्द में लीन रहती हैं:
धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्तति प्रमोदमानमानसे.
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिच्चिदम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि .2.  
लिंगपुराण स्पष्ट करता है कि यह प्रकृति का पुरुष के साथ, सोम का अग्नि के साथ एकायन है:
अहमग्निर्महातेजाः सोमश्चैषा महाम्बिका. अहमग्निश्च सोमश्च प्रकृत्या पुरुषः स्वयम्. (34.7)
शिव की स्तुति यहाँ चिदम्बर अर्थात् चिदाकाश के रूप में की गई है. यह चितितत्व का स्रोत है. चेतना का सिद्धान्त. इसीको प्रज्ञात्मक प्राण भी कहा गया है. वेदान्तिक शैव दर्शन का यह सर्वोच्च सिद्धान्त है, जिसमें अद्वैत हैं शिव और आत्मभाव.
तीसरे श्लोक में दो मूल भाव समाहित हैं: शिव के जटाजूट में कुण्डलित भुजंग तथा महादेव को ताण्डव नृत्य के लिए उद्धत जताने के उद्देश्य से कन्धे से कटि प्रदेश तक उत्तरीय की नाईं तिरछे धारण किया हुआ गज-चर्म:
जटभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे.
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभुर्त भूतभर्तरि .3.
यहाँ गजराज के रूप में है अहम् या व्यष्टीयन का सिद्धान्त, ठीक वैसे ही जैसे एक बिन्दु विशेष पर महत् का अवतरण. गज-चर्म का खोल है अहम् का धारक, अहम् को अनुशासित-मर्यादित करने वाली दृढ़-स्थूल बाड़. यही है विश्व-सृजन के नृत्य का समारम्भ और समाहार की उत्प्रेरक.    
चौथे श्लोक में सहस्रलोचन इन्द्र की अगुआई में महादेव शिव के चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए अनेक देवता उपस्थित हैं:  
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखरप्रसूनधूलिधोरणीविधूसराङ्घ्रिपीठभूः.
भुजङ्गराजमालया निबद्धजटाजूटकः श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः .4.
वेद में सहस्रों किरणों के स्वामी सूर्य के रूप में इन्द्र और रुद्र दो अलग-अलग देवता नहीं, एक ही हैं.
पाँचवाँ श्लोक शिव के तृतीय नेत्र से प्रस्फुटित अग्नि का चित्रण करता है:  
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुल्लिङ्गभानिपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्.
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः .5.
यह पंचशरधारी कामदेव की इहलीला समाप्त कर देने वाली अग्नि है और है शिव की कामान्तक मूर्ति. पाँचों प्रकार के ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा का परिपूर्ण दमन शिव की तपःसमाधि से हो जाता है.
छठा श्लोक शिव की कामान्तक मूर्ति को और अधिक कलात्मक रूप में प्रस्तुत करता है:
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनञ्जयाधरीकृतप्रचण्डपञ्चसायके.
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम .6.
यह तृतीय नेत्र प्रज्ञा ही है, जो इन्द्रियों और विषय-वासनाओं के पीछे भागने वाले चित्त पर पूर्ण नियन्त्रण पा लेती है.
सातवाँ श्लोक नीलकण्ठ के रूप में शिव के गंगाधर, गजान्तक और चन्द्रशेखर रूपों का स्मरण करता है:


नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबन्धुकन्धरः.
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः .7.
शब्द गुण युक्त आकाश का प्रतीक है कण्ठ. यही आकाश वैदिक पारिभाषिक शब्दावली में पंचभूत या वाक् का समकक्ष है. कण्ठस्थ गरल पंचभूत की तामसिक प्रकृति का प्रतीक है. इन पंचभूतों की सृष्टि सत्, रज और तमोगुण से होती है: तमोगुण रूप से शक्ति, रजोगुण रूप से प्राण और सतोगुण रूप से मनस्तत्व. इसी प्रकार त्रैगुण्य के मूर्त रूप हैं मनः-प्राण-वाक्.
आठवाँ श्लोक फिर एक बार नीलोत्पल की भाँति कान्तिमान घने-गहरे नीलांजन कण्ठ जन्य सुरमई प्रभावों का वर्णन करता है. इस श्लोक का उत्तरार्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण है. यह शिवलीला के मूल भावों की लड़ी जो प्रस्तुत करता है:
 प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमच्छटाविडम्बिकण्ठकन्धरारुचिप्रबन्धकन्धरम्.
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदाsन्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे .8.   
स्तोत्र साहित्य के कण्ठ में इस शब्दमाला का बारम्बार सिर चढ़कर बोलने वाला घनगरज जादू सचमुच बेजोड़ है. शिवलीला के प्रतिफल का चित्रण इससे ज़्यादा कसे हुए रूप में शायद सम्भव ही नहीं है. यही सब परिवर्तित शब्दावली में नवें श्लोक में दोहराया गया है:
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरीरसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम्.
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकाsन्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे .9.
स्मरच्छिद रूप स्मरान्तक या कामान्तक मूर्ति ही है, जिसके मदनदहन प्रतिपाद्य का वर्णन कालिदास ने तो किया ही है, कतिपय पुराणों में भी मिलता है.
पुरच्छिद या पुरान्तक रूप का सम्बन्ध त्रिपुरासुर पराभव से है. त्रिपुर अर्थात् स्वर्ण, रजत और ताम्र नगरी. कौन-सी नगरी है यह? यह है हमारी अपनी देह, हम स्वयं. जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति के मूर्त रूप. अहम् की तीन दशाओं, तीन गुणों का फल. मन है स्वर्ण-पुरी, प्राण रजत-पुरी और भूतग्राम ताम्र या लोह-पुरी. शिव हैं इन तीनों दशाओं के सर्वोच्च नियन्ता. इसलिए इस पैशाची प्रवृत्ति --निम्नस्थ अहम्-- के समर्पण के लिए इन महादेव के पावन चरणों के अलावा और ठौर कौन हो सकता है?
भविच्छद या भवान्तक रूप संसार के संहार से सम्बद्ध है. अर्थात्, भव-चक्र का, माया का, काल-चक्र का अवसान.
मखच्छिद या मखान्तक रूप हमें दक्ष-यज्ञ के विध्वंस की याद दिलाता है. पुराण हमें यह कथा बताते हैं कि दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया. यज्ञ में न तो शिव को आमन्त्रित किया गया और न ही उनकी शक्ति सती को. इस यज्ञ की परिणति हुई विनाश में. इस लीला का महत्व क्या है? यह ब्राह्मण ग्रन्थों के छिन्नशीर्ष मख से अभिन्न है. यज्ञ के दो पहलू होते हैं: एक अधिदैवत और दूसरा अध्यात्म. अध्यात्म जुड़ा होना चाहिए अधिदैवत से. मर्त्य मनुष्य अपनी ऊर्जा शाश्वत दिव्य सत्ता के अजस्र स्रोत से ही प्राप्त करता है. यदि अहंकार के नशे में धुत दक्ष इस स्रोत से नाता तोड़ लेता है तो उसका अध्यात्म (वैयक्तिक यज्ञ) ध्वस्त हो जाता है. फलदायिनी एकमात्र सती या महाशक्ति को छोड़कर दक्ष अपनी सभी पुत्रियों को आमन्त्रित करता है, लेकिन ये सब की सब तो सती की अनुपस्थिति में लाचार हैं न.
गजच्छिद या गजान्तक या गजासुरसंहारमूर्ति का उल्लेख ऊपर हो चुका है.
अन्धकच्छिद या अन्धकान्तक मूर्ति का सम्बन्ध भगवान शिव के हाथों अन्धकासुर की पराजय और वध से है. मन से विच्युत ज्योतिहीन प्राणिक ऊर्जा असुर अन्धक के समान है, जिसका समर्पण महादेव की महाशक्ति के आगे कर देने से अधिक श्रेयस्कर कुछ नहीं.
अन्तकच्छिद या अन्तकान्तक मूर्ति का सम्बन्ध कालजयी शिव के रौद्र रूप से है. शिव हैं महाकाल, कालारि. उन्होंने मृत्यु के देवता यम पर विजय पा ली है. मृत्यु का प्रतीक गरल उन्होंने अपने कण्ठ में क़ैद कर रखा है.
यही श्लोक शिव को रसप्रवाहमाधुरी या आनन्दलहरी के स्वामी के रूप में प्रस्तुत करता है. यह रस, यह आनन्द ही उनकी सच्ची प्रकृति है. यह श्लोक आठवें श्लोक में दिए गए मूर्तिपरक रूपों को भी दोहराता है.
दसवाँ श्लोक तृतीय नेत्र से उत्पन्न होने वाली अग्नि के मूल भाव को दोहराने के अलावा, डमरू-मृदंग की ताल पर किए जाने वाले ताण्डव नृत्य का अर्थगर्भित मूल भाव भी जोड़ता है:
 जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्करालभालहव्यवाट्.
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन् मृदङ्गतुङ्गमङ्गलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः .10.
ग्यारहवें और बारहवें श्लोक भगवान शिव की सनातन संतुलित-समरस प्रकृति बखानते हैं:
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः.
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन् मनः कदा सदाशिवं भजे .11.
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्विमुक्तदुमंतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्.
विमुक्तलोललोचनाललालभाललग्नकः शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् .12.
भगवान शिव हैं कि उनके लिए खुरदुरी शिला की चुभन हो कि फूलों की सुखद सेज, विषैले भुजंग हों या शीतल मोती की माला, अमूल्य रत्न हो या निर्मूल्य माटी का ढेला, प्राणप्रिय मित्र हो या घातक शत्रु, जंगली घास हो या पुष्पराज कमल, सम्पन्न राजा हो या विपन्न हलवाहा -–सब बराबर हैं. धराधाम पर ऐसे समदृष्टि महादेव का निर्लिप्त भक्त इसके अतिरिक्त क्या प्रार्थना कर सकता है कि उसके अन्तिम दिन गंगा मैया के तट पर देवाधिदेव की आनन्दमयी सरस सलिला में निमग्न होकर मधुर शिव नाम जपते हुए शान्त-एकान्त बसेरे में गुज़र जाएं. संसार में इससे बढ़कर सुख और क्या हो सकता है? 
मात्र बारह श्लोकों वाला यह शिवताण्डव स्तोत्र मूल भावों का निर्दोष अभिलेख तो है ही, उच्च कोटि की साहित्यिक कला का संदर्श भी है. इस स्तोत्र के चषक में से इधर श्रद्धा-भक्तिपूर्ण प्रेरणा छलकी जा रही है और उधर भक्त के मन का पैमाना परम सत्ता के अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति से.
आप यह जानकर चौंक जाइएगा कि इस उत्कृष्ट स्तोत्र-काव्य रचना को किसी भी पुराण ने अपना हिस्सा होने का गौरव प्रदान करना उपयुक्त नहीं समझा है. फिर भी, इसमें विद्यमान मूल भावों का स्मरण-पुनर्स्मरण इस स्तोत्र के रचना-काल की ओर साफ़ इशारा करता है.
भारतीय कला में ताण्डव-नृत्य के चित्रण का प्रारम्भ गुप्त काल में हुआ. लेकिन, त्रिपुरान्तक के साथ-साथ यमान्तक शिव-रूपों का चित्रण भारतीय मूर्ति-कला में सबसे पहले राष्ट्रकूट काल में एलोरा की दशावतार गुफा और वहीं कैलाश मन्दिर में मिलता है. दशावतार गुफा का निर्माण-कार्य दन्तिदुर्ग के काल (735-57 ई.) और कैलाश मन्दिर का निर्माण कृष्णराज के काल (757-772 ई.) में सम्पन्न हुआ. यह बिरल संजोग है कि वास्तु-शिल्प और मूर्ति-कला दोनों ही में अपने समय की सबसे अद्भुत-आश्चर्यजनक ये उपलब्धियां एक साथ अन्धकासुरसंहारमूर्ति, दक्षयज्ञविध्वंसमूर्ति, गजासुरसंहारमूर्ति, उमामहेश्वरमूर्ति, अर्धनारीश्वर और ताण्डव मूर्ति के सत्संग से भी अलंकृत हैं.
समवेत रूप में ये सारे मूर्तिपरक और साहित्यिक मूल भाव हमें राष्ट्रकूट काल की तरफ ले चलते हैं -–आठवीं सदी के मध्य. शिव के कालारि या यमान्तक रूप का सम्बन्ध मार्कण्डेय संकट-मोचन के चित्रण से है. इसमें मार्कण्डेय को यम के पाश से मुक्ति के लिए शिव की प्रार्थना करते दरशाया गया है, जबकि शिव यम को लात मारकर मार्कण्डेय को मृत्यु से मुक्त कर रहे हैं. श्री गोपीनाथ राव कृत Elements of Hindu Iconography के अनुसार, यह प्रतिपाद्य केवल एलोरा की दशावतार गुफा और कैलाश मन्दिर में ही मिला है. गोपीनाथ यह भी बताते हैं कि ठीक इसी प्रकार त्रिपुरान्तक का चित्रण भी प्रारम्भिक मूर्ति-कला में विरल है और अन्य चित्रणों के साथ इसे केवल इन्हीं दो स्थानों पर देखा गया है. इससे पता चलता है कि ये 735-770 ई. की रचनाएं हैं. इसीसे शिवताण्डव स्तोत्र के काल-निर्धारण के लिए भी तर्कसंगत आधार मिल जाता है कि हम इसे आठवीं सदी ईस्वी के मध्य की रचना मान सकें. यहीं यह कहते हुए गौरव की अनुभूति होती है कि शिवताण्डव स्तोत्र का उत्स दक्खिन की सरज़मीं है. साथ ही, यह कहते हुए अफ़सोस भी होता है कि अन्तर्कथा सन्दर्भों से मालामाल यह सघोष-महाप्राण स्तोत्र राष्ट्रकूट काल के किसी ऐसे अतीव प्रतिभासम्पन्न कवि की तेजस्वी कृति है जिसका अपना नाम तो हमेशा के लिए रहस्य के गर्भ में रह जाएगा, लेकिन श्रेय रावण को मिलता रहेगा.
शिवताण्डव स्तोत्र की रचना का आधार, रावण की शिव-आराधना का दृश्य एलोरा के भव्य शिलाचित्र कैलासोत्तोलनमूर्ति में उत्कीर्ण है, जो रावणानुग्रह मूर्ति से जुड़ा है. श्री गोपीनाथ के अनुसार, एलोरा की दशावतार गुफा इस मामले में भी कैलाश मन्दिर के सदृश ही है. हाँ, यह ज़रूर ध्यान रखना चाहिए कि एलिफेंटा गुफा-मन्दिर में भी रावणानुग्रह मूर्ति चित्रित है, लेकिन वहाँ शिव के त्रिपुरसंहार और यमान्तक या मार्कण्डेयानुग्रह रूप नहीं मिलते. ये सब के सब इकट्ठे तो एलोरा की दशावतार गुफा और कैलास मन्दिर की ही धरोहर हैं.
--बृहस्पति शर्मा

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Friday 26 April 2013


भास्वर भारत के जनवरी-फरवरी 2013 अंक में महर्षि पाणिनि शीर्षक से प्रो. ज. प. डिमरी का लेख प्रकाशित हुआ है. इसमें विद्वान लेखक ने अष्टाध्यायी पर ध्यान केन्द्रित किया है.
प्राचीन काल से लेकर मध्य काल तक सृजित अनेक भारतीय मनीषियों की कृतियां विमर्श-विश्लेषण के लिए किसी न किसी रूप में उपलब्ध हैंइन पर देश-विदेश में किया गया पुस्तकाकार व्यापक अनुसन्धान प्रकाशित भी हुआ हैलेकिन, इन मनीषियों के जीवनव्यक्तित्वरचना प्रक्रिया और लेखन दृष्टि के विषय में कुछ विस्तार से प्रकाश डालना भी पाठकों के लिए समान रूप से लाभकर होगा. सच तो यह है कि पाश्चात्य साहित्यदर्शन आदि में विद्यमान लेखकों की जीवनी-परम्परा के बरखिलाफ़, प्राचीन भारतीय मनीषी और रचनाकार अपने जीवन तथा व्यक्तित्व के बारे में अकारण अनपेक्षित रूप से ज़्यादातर मौन रहे हैं. इस रूढ़ि के कारण उनके जीवन का परिदृश्य कथा-मिथकों में आविष्ट है. हमें इसके बारे में अटकल लगाने तक के लिए उनकी रचनाओं में मिलने वाले अन्तःसाक्ष्यों और बहिःसाक्ष्यों का ही आश्रय लेना पड़ता है. चन्दबरदाई से लेकर सूर-तुलसी-कबीर-मीरा की तरह पाणिनि समेत संस्कृत के अनेक लेखक-विचारक-दार्शनिक भी इस लीला के अपवाद नहीं हैं. प्रस्तुत है पाणिनि के स्पृहणीय जीवन और कार्य को ऐतिहासिक आलोक में देखने का अकिंचन प्रयास:

व्याकरण के अद्भुत आचार्य
पाणिनि

कोई दो हज़ार सात सौ वर्ष पहले एक ऋषि थे वर्ष. उनके दो शिष्य थे -–कात्यायन और पाणिनि. कात्यायन बड़े बुद्धिमान थे, पाणिनि बुद्धू. अपने दुर्भाग्य से व्यथित होकर पाणिनि एक दिन गुरुकुल छोड़कर दूर हिमालय चल पड़े. भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने वहाँ तपस्या की. उनकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें बुद्धि का वरदान दिया. उनकी तपस्या से भगवान इतने प्रसन्न थे कि नृत्य करने लगे और अपने डमरू को चौदह बार बजाकर उन्होंने चौदह पवित्र सूत्र उत्पन्न किए. 

पाणिनि और उनके व्याकरण की यह कथा, कथा सरित्सागर में सोमदेव सुनाते हैं. थोड़े-बहुत हेर-फेर से यही कथा कुछ अन्य प्राचीन कथा-कृतियों में भी मिलती है. उदाहरण के लिए हरचरित चिन्तामणि के रचयिता जयरथ कथा के अन्त में कहते हैं कि इस प्रकार भगवान शिव ने उस समय प्रचलित ऐन्द्र व्याकरण प्रणाली को समाप्त कर दिया और तब से विश्व में पाणिनि का व्याकरण प्रसिद्ध हो गया. पाणिनि के जीवन के बारे में इस प्रकार के मिथकीय विवरणों के अलावा, प्राचीन चीनी यात्री ह्वेन त्सांग और इत्सिंग के सफ़रनामों में भी कुछ कथाएं मिलती हैं. उदाहरण के लिए ह्वेन त्सांग ने पाणिनि के बारे में अपने समय (सन् 602-644) के दौरान उत्तर-पश्चिमी भारत में प्रचलित कुछ कथाएं दर्ज की हैं. वह बताता है कि सो-लो-तु-लु नामक स्थान पर पहुँचने पर उसे पता चला कि यह वही स्थान है, जहाँ चिंगमिंगलन (व्याकरण) रचने वाले ऋषि पाणिनि का जन्म हुआ था. उसे बताया गया कि पाणिनि को बचपन से ही अपने आसपास के लोगों के भाषिक व्यवहार का ख़ासा ज्ञान था. वह उस समय प्रचलित अधूरेअस्पष्ट और ग़लत-सलत व्याकरण में सुधार करना चाहते थे. इस विषय में मार्गदर्शन पाने के लिए वह दर-दर भटकते रहे. ऐसे ही एक पड़ाव पर उनकी भेंट ईश्वर देव नामक विद्वान से हुई. पाणिनि ने ईश्वर देव से प्रचलित व्याकरण में सुधार लाने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया. ईश्वर देव ने उन्हें उचित परमर्श और हर प्रकार की सहायता प्रदान करने का आश्वासन दिया. आश्वासन हासिल हो जाने के बाद पाणिनि घर लौट आए. अथक-अविराम परिश्रम के बाद पाणिनि ने एक हज़ार श्लोकों की एक कृति रच ही डाली. यह कृति संस्कृत भाषा का व्यवहार करने वालों से सूचना-संग्रह के बाद उनके कष्टसाध्य प्रयत्नों का फल थी. भाषा के बारे में हर प्रकार की सार्वकालिक जानकारी इस कृति में उपलब्ध थी. पाणिनि ने यह कृति अपने क्षेत्र के राजा के सामने रखी. राजा उससे बहुत-बहुत प्रभावित हुआ और उसने राजाज्ञा जारी की कि हर पाठशाला में पाणिनि के व्याकरण का पठन-पाठन होना चाहिए. राजा ने पाणिनि के व्याकरण का आद्योपान्त अध्ययन करने वालों को एक हजार स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार देने की घोषणा भी की. तभी से सुविज्ञ व्याकरणविद् पाणिनि के इस शास्त्र अष्टाध्यायी को अपनी अगली पीढ़ियों को हस्तान्तरित करते आ रहे हैं. इन शताब्दियों में पाणिनि को बहुत ऊँचा सम्मान प्राप्त रहा और उनकी स्मृति में उनकी अनेक प्रतिमाएं खड़ी की गईं. ह्वेन त्सांग आगे बताता है कि भगवान बुद्ध के देहावसान के पाँच सौ वर्ष बाद किस तरह एक अर्हत (एक विद्वान बौद्ध भिक्षु) सो-लो-तु-लु आया और पाणिनीय व्याकरण शास्त्र के एक विद्वान को उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी.
  
ह्वेन त्सांग के यात्रा-विवरण से पाणिनि की व्यापक लोकप्रियता के बारे में मिलने वाली उपर्युक्त जानकारी के अतिरिक्त, उसकी अपनी आत्म-कथा से यह भी पता चलता है कि ह्वेन त्सांग ने संस्कृत कैसे सीखी. बताया जाता है कि ह्वेन त्सांग ने संस्कृत व्याकरण नालन्दा में सीखा. पाणिनि के व्याकरण के बारे में ह्वेन त्सांग को बताया गया कि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण शक्र से हासिल किया था और शक्र ने ब्रह्मा से. उसे यह भी बताया गया कि शक्र-व्याकरण के एक हज़ार श्लोकों का सम्पादन करके पाणिनि ने उनकी संख्या आठ सौ कर दी. ह्वेन त्सांग की आत्म-कथा में धातु रूप-रचना, सुबन्त, तिङ्न्तआत्मनेपद आदि से युक्त पाणिनीय व्याकरण का विस्तृत विवरण भी दिया गया है.

एक अन्य चीनी यात्री इत्सिंग कौशेय मार्ग से स्वदेश भेजे गए अपनी बौद्धचर्या के अभिलेख में सन् 691-92 में पश्चिम (अर्थात् भारत) में ज्ञानार्जन के तरीके का वर्णन करता है. वह बताता है कि उस ज़माने में विद्यार्थी आठ वर्ष की अवस्था में पाणिनि के व्याकरण का अध्ययन शुरु कर देते थे और आठ महीने तक उसका अभ्यास करते थे.

चीनी यात्रियों के ऊपर बताए विवरण से पता चलता है कि पाणिनि का व्यक्तित्व दरअसल पौराणिक आख्यानों में दर्ज उनके व्यक्तित्व से बिलकुल उल्टा था. चीनी यात्रियों के अनुसार पाणिनि बुद्धू से मेधावी बने व्यक्ति नहीं थे. इसके विपरीत वह बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि थे. उनका रचा हुआ संस्कृत व्याकरण भगवान का दिया हुआ वरदान नहींबल्कि उनके श्रमसाध्य प्रयत्न का फल था. उन्होंने विशद शोध और भाषिक व्यवहार के सूक्ष्म अध्ययन से भाषायी सामग्री एकत्र की थी. पौराणिक आख्यान और चीनी यात्रियों के वर्णन से पता चलता है कि पाणिनि के इन्द्र (शक्र) से सम्बन्ध की कहानी में भी दम नहीं है. पौराणिक आख्यान के अनुसार, पाणिनि को व्याकरण का ज्ञान भगवान शिव से हासिल हुआ था और इस व्याकरण के प्रकाश में आने के बाद उस समय प्रचलित इन्द्र का व्याकरण अन्धकार के गर्त में खो गया. चीनी यात्रियों के विवरण के अनुसार, इन्द्र का रचा हुआ व्याकरण पाणिनि ने हस्तगत किया और उसे बड़ी हद तक सम्पादित कर दिया. शिव और इन्द्र दोनों ही पौराणिक चरित्र हैं. इसलिए हमें इन कथाओं पर ज़्यादा विचार करने की आवश्यकता नहीं है. फिर भी, इन कथाओं में आने वाले ऐतिहासिक तथ्यों को अनदेखा नहीं किया जा सकता. जैसे, पाणिनि वस्तुतः भाषा संशोधक थे, उन्होंने पूरी तरह नया व्याकरण नहीं रचा, बल्कि मुख्यतः संक्षेप और परिशुद्धता की दृष्टि से उन्होंने परम्परागत रूप से प्राप्त पुराने व्याकरण में ही संशोधन किया. इसे सिद्ध करने के लिए उनके व्याकरण पर सरसरी नज़र डालना ही काफ़ी है. इसी प्रकार, यदि पाणिनि के प्रति लोगों की देवतुल्य श्रद्धा थी और प्राचीन काल में उनकी स्मृति में उनकी अनेक प्रतिमाएं खड़ी की गईं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, क्योंकि संस्कृत साहित्य का साधारण पाठक भी इन सभी क्षेत्रों के सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य पर पाणिनि और उनके व्याकरण का प्रभाव स्पष्ट देख सकता है. यह पारम्परिक मान्यता सच ही है कि प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्य का पोषण करने वाली संस्कृत भाषा अपनी साधुता और निर्मलता के लिए पाणिनि के व्याकरण की चिर ऋणी है. यह सच्चाई कि पाणिनि का व्याकरण पारम्परिक पाठशालाओं में आज भी पाठ्यक्रम का ज़रूरी हिस्सा है, प्राचीन काल से लेकर आज तक उनके व्याकरण की ज़बर्दस्त लोकप्रियता और उसके भारी सम्मान का पर्याप्त साक्ष्य है.

पाणिनि के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में हमें इससे ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती. उनके दाक्षीपुत्रशालातुरीय और पाणिनि जैसे नामों के बारे में इधर-उधर मिलने वाले कुछ हवालों के आधार पर कह सकते हैं कि उनकी माता का नाम दाक्षी और पिता का नाम पणि या पणिन था, वह शालातुर नामक स्थान के रहने वाले थेजिसे आधुनिक लेखक पाकिस्तान स्थित एक गाँव लाहुर मानते हैं. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, पाणिनि काबुल (अफ़ग़ानिस्तान) के रहने वाले थे. पाकिस्तान के पुरातत्ववेत्ता प्रो. ए. एच. दानी का पाकिस्तान में मौजूद पाणिनि की एक प्रतिमा के बारे में कहना है:

“स्वाबी शहर से पाँच किलोमीटर दक्षिण में वर्तमान लाहुर गाँव पाणिनि का जन्म-स्थल है. वर्तमान लाहुर गाँव जहाँगीरा से स्वाबी जाने वाली सड़क पर हट गया है. पुराना गाँव मुख्य सड़क से तीन किलोमीटर पश्चिम की ओर था, जहाँ पहले कभी टीला हुआ करता था. दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में टीले को ज़मींदोज़ कर दिया गया. चाहे जो हो, पास ही एक गाँव है जिसे अब भी पनई कहते हैं... पाणिनि का नाम इस इलाक़े में मशहूर है और स्थानीय लोग इस महान् विद्वान पर गर्व करते हैं. पाकिस्तान सरकार ने पुराने तक्षशिला विश्वविद्यालय को फिर से स्थापित करने का मनसूबा बनाया है. हम उम्मीद करते हैं कि उस विश्वविद्यालय में भाषा और भाषा-शास्त्र संस्थान स्थापित किया जाएगा, जिसका नाम पाणिनि संस्थान होगा.”

ठोस बाह्य साक्ष्यों के अभाव में यह निश्चित कर पाना कठिन है कि पाणिनि का ठीक-ठीक जीवन-काल क्या था. उनकी भाषा वैदिक संस्कृत के निकट है. उनके व्याकरण में वैदिक साहित्य के सन्दर्भों और उनकी भाषा की प्रकृति के आधार पर मोटे तौर पर बहुत सारे विद्वान मानते हैं कि पाणिनि ईसा पूर्व चौथी-पाँचवीं शताब्दी में हुए होंगे.

पाणिनि के जीवन और परिवार के बारे में हमें परम्परागत स्रोतों से कुछ ज़्यादा जानकारी हासिल नहीं होती. फिर भीएक कथा से उनकी दुःखद मृत्यु का संकेत मिलता है. कहते हैं, वह अपने व्याकरण शास्त्र के अन्तिम सूत्र पर मनन कर रहे थे कि एक शेर ने उन पर हमला कर दिया -–सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरहरत् प्राणान् मुनेः पाणिनेः. इससे इतना तो पता चलता ही है कि वह महान् व्याकरणकार अपने आसपास की हलचल से बेख़बर भाषा और व्याकरण के चिन्तन में पूरी तरह डूबा रहता था.

ऐतिहासिक भाषा-शास्त्र के रूप में पाणिनि के व्याकरण का महत्व भले घट गया हो, लेकिन प्राचीन भारत के इतिहास के निर्विवाद साक्ष्य के रूप में यह भारतविदों में आज भी मान्य है. पाणिनि की अष्टाध्यायी भारतविदों के लिए प्राचीन भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर जानकारी का अकूत खज़ाना है. भारतीय संस्कृति के उद्भट विद्वान वासुदेवशरण अग्रवाल कृत पाणिनिकालीन भारतवर्ष के अध्ययन से पता चलता है कि पाणिनि की एकत्र की हुई भाषिक-व्याकरणिक सामग्री प्राचीन भारत के भौगोलिकराजनीतिकआर्थिकसामाजिक, साहित्यिक और धार्मिक पक्षों पर भी समान रूप से प्रामाणिक सूत्रात्मक प्रकाश डालती है. इतिहासकारों ने बताया है कि पाणिनि के व्याकरण से प्रतिबिम्बित होने वाला भारत का चित्र ईसा से चार सौ वर्ष पूर्व रचित कौटिल्य अर्थशास्त्र से मेल खाता है.
--बृहस्पति शर्मा