Friday 26 October 2012


राक्षसों की राम कहानी (9)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)

स्वर्ग की ओर प्रस्थान करते-करते राक्षस कबन्ध ने राम को सूचना दी:
स हि स्थानानि सर्वाणि कार्त्स्न्येन कपिकुञ्जरः.
नरमांसाशिनां लोके नैपुण्यादधिगच्छति.
न तस्याविदितं लोके किंचिदस्ति हि राघव.
यावत्सूर्यः प्रतपति सहस्रांशुररिन्दम. (अरण्य. 68.18-19)
(दुनिया भर में नर-भक्षी राक्षसों के जितने भी अड्डे हैं, वानर-श्रेष्ठ सुग्रीव को वे सब अच्छी तरह पता हैं. संसार में सूर्य देवता की असंख्य किरणें जहाँ-जहाँ पहुँचती हैं, वहाँ-वहाँ ऐसा कोई स्थान नहीं है जो सुग्रीव को ज्ञात न हो.)
सुग्रीव से मित्रता कर लेने के बाद राम ने उनसे सीता का अपहरण करने वाले राक्षस के बारे में पूछताछ की तो उत्तर मिला:
न जाने निलयं तस्य सर्वथा पापरक्षसः.
सामर्थ्यं विक्रमं वापि दौष्कुलेयस्य वा कुलम्.. (किष्किन्धा. 7.2)
(नीच कुल में उत्पन्न उस पापात्मा राक्षस का निवास स्थान कहाँ है, उसमें कितनी शक्ति है, वह कितना पराक्रमी है और वह किस कुल का है -–ये सारे ब्योरे मैं बिल्कुल नहीं जानता.)
समझना कठिन नहीं है कि सुग्रीव की ओर से आश्वस्त विरहाकुल राम की उत्सुकता-उत्कंठा पर विडम्बना का घड़ों पानी पड़ गया होगा.

तीन हज़ार पाँच सौ बरस पहले लंका पर रावण राज करता था. कहाँ थी यह लंका? क्या यह वही द्वीप है, जिसे आज हम श्रीलंका के रूप में जानते हैं? यदि रामायण पढ़ते हुए वाल्मीकी की बताई दिशा में चलते रहें तो इन प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है.  
वाल्मीकी रामायण में दिए गए विवरण अयोध्या और चित्रकूट की पहचान के लिए पर्याप्त हैं. स्थानों की पहचान की कठिनाई तो राम की चित्रकूट से आगे की यात्रा में होती है.
अयोध्या से रवाना होकर राम ने प्रयाग की पश्चिम दिशा में लगभग चालीस किलोमीटर दूर शृंगवेरपुर (सिंगौर या सिंगरोरा) की ओर से घोर दण्डक वन में प्रवेश किया. वहाँ एक दुर्गम स्थल में उन्होंने दुर्धर्ष तपिस्वियों का मुहल्ला देखा:
प्रविश्य तु महारण्यं दण्डकारण्यमात्मवान्.
ददर्श रामो दुर्धर्षस्तापसाश्रममण्डलम्..  (अरण्य. 1.1).
वह वन में आगे बढ़ गए और उन्हें राक्षस विराध का सामना करना पड़ा:
वनमध्ये तु काकुत्स्थस्तस्मिन्घोरमृगायुते.
ददर्श गिरिशृङ्गाभं पुरुषादं महास्वनम्.. (अरण्य. 2.4)
विराध ने जैसाकि मरते समय बताया था, राम ने शरभंग ऋषि का आश्रम देखा. यहाँ अद्भुत नज़ारा विद्यमान था:  
तस्य देवप्रभावस्य तपसा भावितात्मनः.
समीपे शरभङ्गस्य ददर्श महदद्भुतम्.. (अरण्य. 4.4)
उन्होंने ऋषिवर से अनुरोध किया कि उन्हें निवास योग्य स्थान बताएं:
आवासं त्वहमिच्छामि प्रदिष्टमिह कानने.. (अरण्य. 5.28)
शरभंग ऋषि स्वर्ग सिधारने वाले थे. सो, निवास सम्बन्धी मार्गदर्शन के लिए उन्होंने राम को पड़ोस में सुतीक्ष्ण नामक एक अन्य ऋषि के पास जाने को कहा:  
सुतीक्ष्णमभिगच्छ त्वं शुचौ देशे तपस्विनम्.
रमणीये वनोद्देशे स ते वासं विधास्यति.. (अरण्य. 4.30)
शरभंग ऋषि ने राम से यह भी कहा कि मन्दाकिनी की अलस धारा की विपरीत दिशा में किनारे-किनारे आगे बढ़ें, जो चित्रकूट से निकलकर जमुना में विलीन हो जाती है:  
इमां मन्दाकिनीं राम प्रतिस्रोतामनुव्रज. (अरण्य. 5.37)
इस जगह निवास करने वाले विभिन्न कोटि के ऋषि-समुदाय ने उनसे शिकायत की कि अनाथ-अरक्षित ब्राह्मण-तपस्वियों पर राक्षस किस प्रकार जानलेवा ज़ुल्म करते हैं:  
सोsयं ब्राह्मणभूयिष्ठो वानप्रस्थगणो महान्.
त्वन्नाथोsनाथवद्राम राक्षसैर्वध्यते भृशम्.. (अरण्य. 5.14)
ऋषियों ने उन्हें बताया कि आर्य-बस्तियां किस सीमा तक राक्षसों के आतंक-अत्याचार से पीड़ित हैं:
पम्पानदीनिवासानामनुमन्दाकिनीमपि.
चित्रकूटालयानां च क्रियते कदनं महत्.. (अरण्य. 5.16)
उपर्युक्त श्लोक के अनुसार, ये ऋषि पम्पा सरोवर, मन्दाकिनी नदी और चित्रकूट पर्वत के दामन में बसे थे[i]. राम यहाँ के बाशिन्दों समेत मन्दाकिनी को पार करके सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम पहुँचे तो उन्होंने राम का स्वागत किया:   
स्वागतं खलु ते वीर राम धर्मभृतां वर.
आश्रमोsयं  त्वयाक्रान्तः सनाथ इव साम्प्रतम्.. (अरण्य. 6.8)
राम-लक्ष्मण-सीता ने यहाँ रैन बसेरा किया:
अन्वास्य पश्चिमां सन्ध्यां तत्र वासमकल्पयत्.
रंस्यते तत्र वैदेही लक्ष्मणश्च त्वया सह.. (अरण्य. 6.21/10.40)
वह वन में अलग-अलग स्थानों पर विचरण करते रहे और दस बरस बाद इसी स्थान पर लौट आए:  
सुतीक्ष्णस्याश्रमं श्रीमान्पुनरेवाजगाम ह.. (अरण्य.10.26)
यहीं ऋषियों ने राम से प्रार्थना की कि राक्षसों से उनकी रक्षा करें और राम ने उन्हें इसका आश्वासन दिया:
तपस्विनां रणे शत्रून्हन्तुमिच्छामि राक्षसान्. (अरण्य. 5.20)
ऋषीणां दण्डकारण्ये संश्रुतं जनकात्मजे. (अरण्य. 10.16)
राम को महामुनि सुतीक्ष्ण से पता चला कि अगस्त्य ऋषि भी उसी वन में रहते हैं. सुतीक्ष्ण ने राम को बताया कि उनके आश्रम से दक्षिण दिशा में कोई पचपन किलोमीटर[ii] की दूरी पर अगस्त्य ऋषि के भाई का आश्रम है:
अहमाख्यामि ते वत्स यत्रागस्त्यो महामुनिः.
योजनान्याश्रमात्तात याहि चत्वारि वै ततः.
दक्षिणेन महाञ्श्रीमानगस्त्यभ्रातुराश्रमः.. (अरण्य. 10.35-36)
और, वहाँ से दक्षिण दिशा में ही और छब्बीस किलोमीटर की दूरी पर अगस्त्य ऋषि का आश्रम है. उन्हें परामर्श दिया गया कि वे उस रात अगस्त्य ऋषि के भाई के आश्रम में ठहर जाएं और अगली सुबह अगस्त्य ऋषि के आश्रम के लिए रवाना हो जाएं, जो वन के रमणीय प्रदेश में स्थित है:
तत्रैकां रजनीमुष्य प्रभाते राम गम्यताम्.
दक्षिणां दिशमास्थाय वनखण्डस्य पार्श्वतः.
तत्रागस्त्याश्रमपदं गत्वा योजनमन्तरम्.
रमणीये वनोद्देशे बहुपादपसंवृते.. (अरण्य. 10.39-40)
अगस्त्य ऋषि के पास पहुँचकर राम ने उनसे अनुरोध किया कि आश्रम बनाकर सुखपूर्वक रहने के लिए वह उन्हें अच्छी-सी जगह बताएं, जहाँ जल की सुविधा सहित विस्तृत वन प्रदेश हो:  
किं तु व्यादिश मे देशं सोदकं बहुकाननम्.
यत्राश्रमपदं कृत्वा वसेयं निरतः सुखम्.. (अरण्य. 12.11)
ऋषि ने सोच-विचारकर उन्हें चित्रकूट के दक्षिण में छब्बीस किलोमीटर के फ़ासले पर, गोदावरी के निकट पंचवटी नामक प्रसिद्ध स्थान बताया. यह जगह उनके अनुसार ज़्यादा दूर नहीं थी:
इतो द्वियोजने तात बहुमूलफलोदकः.
देशो बहुमृगः श्रीमान्पञ्चवट्यभिविश्रुतः..  (अरण्य.12.13)
स देशः श्लाघनीयश्च नातिदूरे च राघव.
गोदावर्याः समीपे च मैथिली तत्र रंस्यते.. (अरण्य. 12.18)
अगस्त्य ऋषि ने राम को पंचवटी का पता समझाया. इससे हमें उनके आश्रम से पंचवटी के फ़ासले का अनुमान लगाने में कठिनाई नहीं होती --यह महुआ का विशाल वन दिखाई दे रहा है न, इसके उत्तर से होकर जाइए. रास्ते में आपको बरगद का वृक्ष दिखाई देगा. उससे आगे कुछ दूर तक ऊँचा मैदान है. उसे पार कर लेने पर पहाड़ी दिखाई देगी. पहाड़ी से थोड़ी ही दूरी पर है सदाबहार पंचवटी:
एतदालक्ष्यते वीर मधूकानां महद्वनम्.
उत्तरेणास्य गन्तव्यं न्यग्रोधमभिगच्छता..
ततः स्थलमुपारुह्य पर्वतस्याविदूरतः.
ख्यातः पञ्चवटीत्येव नित्यपुष्पितकाननः.. (अरण्य. 12.21-22)
अगस्त्य के निर्देश अनुसार राम ने पंचवटी को पहचान लिया. उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “मुनिवर ने हमें जिस स्थान का परिचय दिया था, उस पंचवटी में हम आन पहुँचे हैं”:
आगताः स्म यथोद्दिष्टममुं  देशं महर्षिणा.
अयं पंचवटीदेशः सौम्य पुष्पितकाननः.. (अरण्य. 14.2)
फिर गोदावरी नदी की पहचान और उससे पंचवटी का फ़ासला -–न बहुत दूर न बहुत निकट:
इयं गोदावरी रम्या पुष्पितैस्तरुभिर्वृता. (अरण्य. 14.12)
नातिदूरे न चासन्ने मृगयूथनिपीडिता. (अरण्य. 14.13)
और पहाड़ी से निकटता -–ऐन आँखों के सामने:
दृश्यन्ते गिरयः सौम्य फुल्लैस्तरुभिरावृताः. (अरण्य. 14.14)
इसी स्थल को जनस्थान भी कहते थे:
तस्य भार्यां जनस्थानात्सीतां सुरसुतोपमाम्.
आनयिष्यामि विक्रम्य सहायस्तत्र मे भव.. (अरण्य. 34.13)
(रावण ने मारीच से कहा, “मैं राम की पत्नी सीता को जनस्थान से बलपूर्वक हर लाऊँगा...”)
सीता की खोज के लिए परामर्श माँगने पर लक्ष्मण ने राम से कहा कि सीता को इस जनस्थान में ही खोजना चाहिए:
इदमेव जनस्थानं त्वमन्वेषितुमर्हसि. (अरण्य. 63.4)
हनुमान ने तपस्विनी स्वयंप्रभा को बताया कि रावण ने जनस्थान से सीता का बलात हरण किया था:
तस्य भार्या जनस्थानाद् रावणेन हृता बलात्. (किष्किन्धा. 51.5)
गृध्रराज सम्पाती ने समुद्र-तट पर असमंजस में पड़े वानर दल को बताया कि उनका भाई जटायु जनस्थान में रहता था:
भ्रातुर्जटायुषस्तस्य जनस्थाननिवासिनः. (किष्किन्धा. 55.23)
यह जनस्थान थी रावण की सीमान्त चौकी. रावण की आज्ञा से यहाँ चौदह हजार राक्षसों की सेना सहित उसका भाई खर, बहन शूर्पणखा, सेनापति दूषण, नर-भक्षी बाहुबली त्रिशिरा तथा अन्य शूरवीर निशानेबाज़ राक्षस भी रहते थे:  
जानीषे त्वं जनस्थानं भ्राता यत्र खरो मम.
दूषणश्च महाबाहुः स्वसा शूर्पणखा च मे.
त्रिशिराश्च महातेजा राक्षसः पिशिताशनः.
अन्ये च बहवः शूरा लब्धलक्षा निशाचराः.
वसन्ति मन्नियोगेन अधिवासं च राक्षसाः.
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम्. (अरण्य. 34.2-5)
राक्षस-शून्य हो चुकी सामरिक महत्व की चौकी जनस्थान से सीता को हर लाने के बाद रावण ने वहाँ अपने सशस्त्र गारद पुनः तैनात किए:
नानाप्रहरणाः क्षिप्रमितो गच्छत सत्वराः.
जनस्थानं हतस्थानं भूतं पूर्वं खरालयम्.
तत्रोष्यतां जनस्थाने शून्ये निहतराक्षसे. (अरण्य. 52.19-20)
ऋषियों को दिया वचन पूरा करने के लिए राम वहीं बस गए:
 तस्मिन्देशे बहुफले न्यवसत्स सुखं वशी. (अरण्य. 14.28)
राम पंचवटी-जनस्थान में लगभग दो बरस रहे, जहाँ से रावण ने सीता का अपहरण किया था: 
अन्वास्यमानो न्यवसत्स्वर्गलोके यथामरः. (अरण्य. 14.29)
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सुतीक्ष्ण ऋषि का आश्रम चित्रकूट से ज़्यादा दूर नहीं था और सुतीक्ष्ण-आश्रम से पंचवटी अस्सी किलोमीटर दूर थी.
सीता के अपहरण के समय राम शिकार के लिए गए हुए थे[iii] और जनस्थान निवासी जटायु ने अपने वादे के मुताबिक सीता की रक्षा की कोशिश भी की थी. राम जब वापस लौटे तो उन्होंने जटायु को मरणासन्न पाया. जटायु ने उन्हें सीता के अपहर्ता रावण और उनके अपहरण-मार्ग की सूचना दी:
सा हृता राक्षसेन्द्रेण रावणेन विहायसा.
मायामास्थाय विपुलां वातदुर्दिनसंकुलाम्.. (अरण्य. 64.9)
पुत्रो विश्रवसः साक्षाद्भ्राता वैश्रवणस्य च. (अरण्य. 64.16)
सीतामादाय वैदेहीं प्रयातो दक्षिणामुखः.. (अरण्य. 64.10)
पंचवटी जाते हुए राम की भेंट वट-वृक्ष पर बैठे विशालकाय गीधराज जटायु से हो चुकी थी, जो वहीं के मूल निवासी रहे होंगे:
अथ पञ्चवटीं गच्छन्नन्तरा रघुनन्दनः.
आससाद महाकायं गृध्रं भीमपराक्रमम्.. (अरण्य. 13.1)
सीता की खोज में राम पश्चिम की ओर मुड़े और दक्षिण-पश्चिम दिशा में बढ़ते रहे:
अवेक्षन्तौ वने सीतां पश्चिमां जग्मतुर्दिशम्. (अरण्य. 65.1)
अविप्रहतमैक्ष्वाकौ पन्थानं प्रतिपेदतुः.. (अरण्य. 65.2)
अब एक दुर्गम वन-मार्ग को लाँघकर दक्षिण दिशा में बढ़ते हुए वह जनस्थान-पंचवटी से दस किलोमीटर आगे जाकर गहन क्रौंच वन में दाख़िल हो गए:  
व्यतिक्रम्य तु वेगेन गृहीत्वा दक्षिणां दिशम्. (अरण्य. 65.4)
ततः परं जनस्थानात्त्रिक्रोशं गम्य राघवौ.
क्रौञ्चारण्यं विविशतुर्गहनं तौ महौजसौ.. (अरण्य.65.5)
यहाँ से पूर्व दिशा में और दस किलोमीटर आगे जाकर वह एक वन-उपत्यका में प्रविष्ट हुए. यह क्रौंच वन और मतंग मुनि के आश्रम के बीच स्थित थी:  
ततः पूर्वेण तौ गत्वा त्रिकोशं भ्रातरौ तदा.
क्रौञ्चारण्यमतिक्रम्य मतङ्गाश्रममन्तरे.. (अरण्य. 69.8)
राक्षस कबन्ध से निर्दिष्ट सुगम राह में पर्वत-शिखर पर राम एक रात रुककर आगे चलते हुए मतंग आश्रम के क्षेत्र में पहुँच गए. यह क्षेत्र मतंग मुनि के नाम पर मातंग-वन नाम से प्रसिद्ध था:
मतङ्गवनमित्येव विश्रुतं रघुनन्दन. (अरण्य. 70.17)
यह आश्रम और वन-क्षेत्र पम्पा सरोवर के पश्चिमी तट पर स्थित था:
ततस्तद्राम पम्पायास्तीरमाश्रित्य पश्चिमम्. (अरण्य. 69.21)
मतंग मुनि और उनके शिष्य तो रह नहीं गए थे. अब यहीं रहती थीं शबरी, जिनसे राम ने भेंट की:
तौ तमाश्रममासाद्य द्रुमैर्बहुभिरावृतम्.
सुरम्यमभिवीक्षन्तौ शबरीमभ्युपेयतुः.. (अरण्य. 70.5)
ध्यान रहे कि राम इस समय पम्पा सर के पश्चिमी तट पर थे और पम्पा के ही पूर्वी तट पर था ऋष्यमूक पर्वत, जहाँ वीरवर सुग्रीव रहते थे:
ऋष्यमूकस्तु पम्पायाः पुरस्तात्पुष्पितद्रुमः. (अरण्य. 69.24)
ऋष्यमूको गिरिर्यत्र नातिदूरे प्रकाशते.
यस्मिन्वसति धर्मात्मा सुग्रीवोंsशुमतः सुतः.. (अरण्य. 71.7)
 हरिर्ऋक्षरजोनाम्नः पुत्रस्तस्य महात्मनः.
अध्यास्ते तं महावीर्यः सुग्रीव इति विश्रुतः. (अरण्य. 71.24)
अब राम की मुलाक़ात ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव से हुई:
दर्शनीयतमो भूत्वा प्रीत्त्या प्रोवाच राघवम्. (किष्किन्धा. 5.9)
राम और सुग्रीव ने प्रज्वलित अग्नि की परिक्रमा करके सुदृढ मैत्री कर ली:
ततोsग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम्.
सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ.. (किष्किन्धा. 5.16)
सुग्रीव ने उन्हें वे वस्त्र-आभूषण दिए, जो अपहृत सीता ने उस मार्ग से गुज़रते हुए वहाँ छोड़ दिए थे:  
उत्तरीयं गृहीत्वा तु शुभान्याभरणानि च.
इदं पश्येति रामाय दर्शयामास वानरः.. (किष्किन्धा. 6.13)
अपने बड़े भाई बाली के हाथों निष्कासित होकर सुग्रीव इस ऋषि-रक्षित क्षेत्र में डेरा डालने के लिए विवश हो गए थे:
सोsहं त्रस्तो भये मग्नो वसाम्युद्भ्रान्तचेतनः.
वालिना निकृतो भ्रात्रा कृतवैरश्च राघव.. (किष्किन्धा. 8.17)
घाटी में स्थित उनकी गृह-पुरी किष्किन्धा, मतंग आश्रम से ज़्यादा दूर न थी. इतनी पास कि वाली ने अपने बलवान शत्रु दुन्दुभि राक्षस को मारकर किष्किन्धा से फेंका तो उसका शव यहाँ आ गिरा था:
तं तोलयित्वा बाहुभ्यां गतसत्त्वमचेतनम्.
चिक्षेप वेगवान्वाली वेगेनैकेन योजनम्.. (किष्किन्धा. 11.40)
हम देख आए हैं कि सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम से पंचवटी केवल अस्सी किलोमीटर दूर थी और वह आश्रम ख़ुद चित्रकूट से ज़्यादा दूर न था. पंचवटी-जनस्थान से निकलकर राम दक्षिण-पश्चिम दिशा में दस किलोमीटर की दूरी पर क्रौंच वन में पहुँचते हैं. दस किलोमीटर और आगे जाने पर वह घाटी में पहुँचकर कबन्ध का वध करते हैं. वह राक्षस भी राम से कहता है कि सुग्रीव से मिल लें. वही राम को सुग्रीव तक पहुँचने का रास्ता भी बारीकी से समझाता है -–वट-वृक्ष से होकर गुज़रने वाले रास्ते से पहाड़ी, वहाँ से पम्पा और ऋष्यमूक. इन्हींके बीच स्थित किष्किन्धा. सुग्रीव का ठिकाना किष्किन्धा से ज़्यादा दूर नहीं था, यही कोई दस किलोमीटर और समझ लीजे. सो, जनस्थान-पंचवटी से किष्किन्धा पड़ती है कमोबेश तीस किलोमीटर और सुतीक्ष्ण के आश्रम से नब्बे किलोमीटर या चित्रकूट से एक सौ पचास किलोमीटर, जैसाकि हम आगे देखेंगे.
किष्किन्धा के दक्षिण में आसन्न थी विन्ध्य पर्वतमाला:
दिशस्तस्यास्ततो भूयः प्रस्थितो दक्षिणां दिशं.
विन्ध्यपादपसंकीर्णां चन्दनद्रुमशोभिताम्.. (किष्किन्धा. 46.17)
सुग्रीव ने अंगद की सरपरस्ती में वानरों का एक दल दक्षिण दिशा में भेजा:
ताराङ्गदादिसहितः प्लवगः पवनात्मजः.
अगस्त्याचरितामाशां दक्षिणां हरियूथपः.. (किष्किन्धा. 44.5)
यह वही दिशा थी, जिधर सीता को ले जाते हुए रावण को सुग्रीव आदि वानरों ने देखा था:
दिशं तु यामेव गता तु सीता तामास्थितो वायुसुतो हनूमान्. (अरण्य. 46.14).
इस दल ने विन्ध्य पहाड़ी की गहन गुफ़ाओं में सीता की तलाश शुरु की:  
स तु दूरमुपागम्य सर्वैस्तैः कपिसत्तमैः.
विचिनोति स्म विन्ध्यस्य गुहाश्च गहनानि च.
पर्वताग्रान्नदीदुर्गान्सरांसि विपुलान्द्रुमान्.
वृक्षषण्डांश्च विविधान्पर्वतान्घनपादपान्.
अंवेषमाणास्ते सर्वे वानराः सर्वतो दिशम्.
न सीतां ददृशुर्वीरा मैथिलीं जनकात्मजाम्.  (अरण्य. 47.2-4).
हनुमान आदि प्रमुख वानर सीता की खोज के लिए तैयार होकर विन्ध्य[iv] पर्वत के चारों ओर घूमने लगे:
हनुमत्प्रमुखास्ते तु प्रस्थिताः प्लवगर्षभाः.
विन्ध्यमेवादितस्तावद्विचेरुस्ते समन्ततः.. (अरण्य. 48.22)
यहाँ पहुँचकर वानरों का खोजी दल एक घाटी में घुस गया. घाटी हरे-भरे वृक्षों और पशु-पक्षियों से भरी पड़ी थी. इसके बीच से जल-धारा बह रही थी और इस मनोहर-रमणीय स्थान में उजाला फैला था:  
नूनं सलिलवानत्र कूपो वा यदि वा ह्रदः.
तथा चेमे बिलद्वारे स्निग्धास्तिष्ठन्ति पादपाः.. (किष्किन्धा. 49.14)
आलोकं ददृशुर्वीरा निराशा जीविते तदा. (किष्किन्धा. 49.18)
वानर-दल भटक गया. यहाँ रहने वाली एक साध्वी की सहायता से वे घाटी से बाहर निकल सके. वह लघु-मार्ग से उन्हें सागर के किनारे ले आई, जो विन्ध्य के चरण पखार रहा था:
एष विन्ध्यो गिरिः श्रीमान्नानाद्रुमलतायुतः.
एष प्रस्रवणः शैलः सागरोsयं महोदधिः. (किष्किन्धा. 52.12).
यहाँ पहुँचकर वानर-दल भारी असमंजस में पड़ गया. उन्हें कुछ न सूझा तो वे आत्महत्या की सोचने लगे. इतने में जटायु का भाई सम्पाती आकर उनसे मिला:  
उपविष्टास्तु ते सर्वे यस्मिन्प्रायं गिरिस्थले.
हरयो गृध्रराजश्च तं देशमुपचक्रमे.
सम्पातिर्नाम नाम्ना तु चिरजीवी विहंगमः.
भ्राता जटायुषः श्रीमान्प्रख्यातबलपौरुषः.. (किष्किन्धा. 55.1-2).
उसने वानरों को बताया कि वह विन्ध्य पर्वत पर लम्बे समय से रह रहा है:
अष्टौ वर्षसहस्राणि तेनास्मिन्नृषिणा गिरौ. (किष्किन्धा. 59.9)
उसने सीता और राम के आभूषण देकर वानरों से कहा कि सीता और रावण दोनों ही सागर के दक्षिणी तट पर एक ख़ास दूरी पर हैं. विन्ध्य पर्वत से सटा हुआ यह वही सागर है, जिसके किनारे वानर बैठे थे:
दक्षिणस्योदधेस्तीरे विन्ध्योsयमिति निश्चितः. (किष्किन्धा. 59.7).
बूढ़े सम्पाती ने इच्छा व्यक्त की कि वह अपने भाई को जलांजलि देना चाहता है और वानर उसे सागर के किनारे ले चलें:
समुद्रं नेतुमिच्छामि भवद्भिर्वरुणालयम्.
प्रदास्याम्युदकं भ्रातुः स्वर्गतस्य महात्मनः. (अरण्य. 58.35)
ततो नीत्वा तु तं देशं तीरे नदनदीपतेः.
निर्दग्धपक्षं सम्पातिं वानराः सुमहौजसः.
तं पुनः प्रापयित्वा चतं देशं पतगेश्वरम्. (अरण्य. 58.36-37)
(महापराक्रमी वानर पंखहीन सम्पाती को उठाकर सागर किनारे ले आए और जलांजलि के बाद उन्हें अपने निवास-स्थान पर लौटा भी लाए.)
हमें यहाँ वानरों के उपस्थिति-स्थल और इस घटनापूर्ण भेंट से पर्वत-सागर की निकटता तथा उस स्थान की दूरी का संकेत मिलता है, जहाँ रावण-सीता मौजूद हैं. सम्पाती उन्हें यहाँ से देख जो सकता है:  
इहस्थोsहं प्रपश्यामि रावणं जानकीं तथा.
अस्माकमपि सौवर्णं दिव्यं चक्षुर्बलं तथा. (किष्किन्धा. 57.28-29).
उपर्युक्त श्लोक में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि वह जो वर्णन कर रहा है, उसे देख भी पा रहा है. इसी सूचना के बूते पर यूथपति हनुमान उस दूरी को लांघने का मन बना लेते हैं. हनुमान ने यह फ़ासला तैरकर पार कर डाला, हालांकि आदिकवि ने इस तैराकी को उड़ान में रंगने की हर चन्द कोशिश की है. स्पष्ट है कि विन्ध्य की उत्तरी ढलान पर स्थित थी किष्किन्धा, जबकि सागर में पर्वत के दक्षिणी छोर पर स्थित थी लंका. किष्किन्धा के पास पम्पा नामक पुष्करिणी के पश्चिमी किनारे रहने वाली शबरी के वर्णन से पता चलता है कि यह स्थल अमरकण्टक से केवल दस किलोमीटर दूर था, जैसाकि हम आगे देखेंगे:
तौ पुष्करिण्याः पम्पायास्तीरमासाद्य पश्चिमम्.
अपश्यतां ततस्तत्र शबर्या रम्यमाश्रमम्..  (अरण्य. 74.4).
त्वरमाणस्ततो गत्वा जनस्थानादकम्पनः.
प्रविश्य लङ्कां वेगेन रावणं वाक्यमब्रवीत्. (अरण्य. 31.1)
(अकम्पन नामक राक्षस जनस्थान से तेज़ी से चलकर शीघ्र ही लंका पहुँच गया.)
स दूरे चाश्रमं गत्वा ताटकेयमुपागमत्. (अरण्य. 31.36)
{(लंका से रथ में रवाना होकर रावण) कुछ दूर पर स्थित एक आश्रम में ताडका-पुत्र मारीच से मिला.}
यह आश्रम समुद्र पार एकान्त में स्थित था:
तं तु गत्वा परं पारं समुद्रस्य नदीपतेः. (अरण्य. 33.36)    
इस बात की पुष्टि महाभारत से भी होती है कि किष्किन्धा, विन्ध्य पर्वत के उत्तर में स्थित थी. अब एक ही कठिनाई रह जाती है --विन्ध्य के दक्षिण में सागर कहाँ था? हमें यह मानना पड़ेगा कि सन्दर्भाधीन सागरखारे पानी का प्राकृतिक समुद्र नहीं, बल्कि खुदवाया हुआ मीठे पानी का सरोवर था:
खानितः सगरेणायमप्रमेयो महोदधिः. (युद्ध. 13.14)
(यह अपार महासागर राजा सगर ने खुदवाया था.)
अयं हि सागरो भीमः सेतुकर्मदिदृक्षया. (युद्ध. 19.50)
(इस विशाल सागर का विस्तार सगर के पुत्रों ने किया है.)
पिबन्ति सलिलं मम. (युद्ध. 22.33)
(मेरा जल पिया जाता है.)
संस्कृत के सभी कोश बताते हैं कि सागरशब्द में सर, सरोवर, पुष्करिणी, जलाशय, झील, ताल-तलैया और तालाब से लेकर महासागर तक सभीका समावेश हो जाता है. इस तथ्य को हम अपने-अपने रिहायशी इलाके में ख़ुद भी देखते हैं –-अपने इलाके के तालाब, जलाशय आदि के नामों पर नज़र डालिएगा. प्रसिद्ध पुरातत्वविद हीरालाल बताते हैं कि इस इलाके में बहुतेरी झीलें हैं, जिन्हें सागर कहा जाता है. कहते हैं, कुछ में तो मोती भी मिलते हैं -–ठीक वैसे ही जैसे समुद्र में!
यही नहीं, इस सागर का तट उत्तम वन-वृक्षावली, पुष्करिणियों, आश्रमों और वेदिकाओं से सम्पन्न था:
सशैलं सागरानूपं वीर्यवानवलोकयन्.
नानापुष्पफलैर्वृक्षैरनुकीर्णं सहस्रशः.
शीतमङ्गलतोयाभिः पद्मिनीभिः समन्ततः.
विशालैराश्रमपदैर्वेदिमद्भिः समावृतम्.
कदल्याढकिसम्बाधं नारिकेरोपशोभितम्.
सालैस्तालैस्तमालैश्च तरुभिश्च सुपुष्पितैः. (अरण्य. 33.11-13)
वेलावनमुत्तमम्. (युद्ध. 4.66)
तीरे सागरस्य द्रुमायते. (युद्ध. 4.73)
वृक्षावली भी कौन-सी? अंकोल, अर्जुन, अश्वकर्ण, अशोक, साल, ताल, तमाल, तिनिश, तिमि, तिलक, धव, नारियल, महुआ, मुचुलिन्द, करंज, करवीर, करीर, कदम्ब, कुन्द, कनेर, कटहल, कुटज, कुरव, केला, केवड़ा, सिन्दुवार, सौवीरक, पाकड़, पाडर, नीप, चन्दन, चिरिबिल्व, जामुन, बकुल, बिल्व, शिंशवा, सरल, छितवन, बहेड़ा आदि. इनमें नब्बे प्रतिशत वृक्ष ऐसे हैं, जो केवल मध्य भारत में ही मिलते हैं. साल और महुआ तो भारत भर में और कहीं पाया ही नहीं जाता. इसी प्रकार, रामायण में उल्लेख अनुसार बाघ मध्य भारत के वनों में आज भी पाए जाते हैं, लेकिन श्रीलंका में कभी नहीं रहे.   
वाल्मीकी के उपर्युक्त विवरण की पड़ताल से राम की वनवास-अवधि सहित यह सच उभर आता है कि राम वनवास के लिए अयोध्या से प्रस्थान करके अन्त में अमरकण्टक तक पहुँचे थे. इस इलाक़े के गोण्ड अपने आपको रावण-वंशी मानते ही हैं, भारत भर में रावण-तीर्थ और इन्द्रजित-तीर्थ भी केवल यहीं हैं. इससे पता चलता है कि यही अमरकण्टक रावण की लंका थी. फिर इस सच्चाई की पुष्टि के लिए इससे बढ़कर साक्ष्य क्या होगा कि स्थान-नाम अमरकण्टक रावण की उपाधि देवकण्टक का ही पर्याय है[v]!  दूसरे शब्दों में, रामायण का भौगोलिक क्षेत्र-विस्तार अयोध्या से लेकर अमरकण्टक के बीच कमोबेश 600 किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है, इससे आगे नहीं[vi]. वनवास के दौरान राम जिन-जिन ऋषियों से मिले, उनके आश्रमों सहित चित्रकूट, दण्डकारण्य, क्रौंच वन, मातंग वन, पंचवटी-जनस्थान, पम्पा सर, किष्किन्धा नगरी, ऋष्यमूक पर्वत, सुवेल पर्वत, त्रिकूट पर्वत, गोदावरी नदी, मन्दाकिनी नदी आदि सभी इसी दायरे में समाए हुए हैं.  
--बृहस्पति शर्मा  


[i] गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में इस श्लोक का अर्थ है, “पम्पा सरोवर और उसके निकट बहने वाली तुङ्गभद्रा नदी के तट पर जिनका निवास है, जो मन्दाकिनी के किनारे रहते हैं तथा जिन्होंने चित्रकूट पर्वत के किनारे अपना निवास-स्थान बना लिया है, उन सभी ऋषि-महर्षियों का राक्षसों द्वारा महान् संहार किया जा रहा है.” श्लोक में कर्णाटक में बहने वाली तुङ्गभद्रा का उल्लेख है ही नहीं. पाठक इसी प्रकार के अवांछित-असंगत हस्तक्षेप से भटकता है. प्रश्न उठता है कि आदिकवि ने पम्पा के साथ नदी शब्द क्यों रखा, जबकि वह है सरोवर. इसे राम-लक्ष्मण से पूछताछ करते हुए हनुमान आगे स्पष्ट करते हैं: पम्पातीररुहान् वृक्षान् वीक्षमाणौ समन्ततः. इमां नदीं शुभजलां शोभयन्तौ तरस्विनौ. (किष्किन्धा.3.7) अर्थात्, पम्पा के तीर पर वृक्षों को निहारते और इस निर्मल जल वाली नदी सरीखी पम्पा पुष्करिणी को सुशोभित करने वाले आप दोनों वीर हैं कौन?   
[ii] एक योजन=चार कोस. एक कोस=दो मील. एक मील=1.609 किलोमीटर.
[iii] ततः सुवेषं मृगयागतं पतिं प्रतीक्षमाणा सहलक्ष्मणं तदा. (अरण्य. 44.36)
[iv] विन्ध्य पर गोविन्दराज की टीका इस प्रकार है:
विन्ध्यपादप इत्यनेन किष्किन्धाया दक्षिणतोसsपि विन्ध्यपर्वतशेषो स्थिति गम्येत.
[v] सपुत्रबान्धवामात्यः सबलः सहवाहनः. यथा च निहतः संख्ये रावणो देवकण्टकः. (युद्ध. 112.13)  
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, युद्धकाण्ड, 111.10 और 111.15 में रावण को देवशत्रु भी कहा गया है.   
[vi] राम के वनवास से सम्बद्ध प्रमुख स्थानों के फासलों पर विहंगम दृष्टि:
1.     अयोध्या से सिंगौर --167 किलोमीटर
2.     सिंगौर से चित्रकूट --137कि.मी.
3.     अयोध्या से प्रयाग -–सड़क मार्ग से 167कि.मी.; प्रयाग से सिंगौर –-40कि.मी.   
4.     अयोध्या से चित्रकूट --सीधी दूरी 230कि.मी., सड़क मार्ग से 270कि.मी.
5.     चित्रकूट से अमरकण्टक -–सीधी दूरी 295 कि.मी. सड़क मार्ग से --350कि.मी.
6.     सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम से अगस्त्य ऋषि के भाई का आश्रम -–55 कि.मी.
7.     अगस्त्य ऋषि के भाई के आश्रम से अगस्त्य ऋषि का आश्रम –-26 कि.मी.
8.     चित्रकूट के दक्षिण में पंचवटी-जनस्थान –-26 कि.मी.
9.     सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम से पंचवटी –-80 कि.मी.
10.  पंचवटी से क्रौंच वन –-10 कि.मी.
11.  क्रौंच वन से मतंग आश्रम के बीच की घाटी –-10 कि.मी.
12.  पंचवटी से किष्किन्धा –-30 कि.मी.
13.  सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम से किष्किन्धा –-90 कि.मी.
14.  चित्रकूट से किष्किन्धा –-150 कि.मी.
15.  पम्पा सरोवर से अमरकण्टक –-10 कि.मी.
स्रोत:    
1.VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.                               2.श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर

No comments:

Post a Comment