Friday 26 October 2012



हिन्दू पति-पत्नी का सम्बन्ध-विच्छेद
(DIVORCE AND DISSOLUTION OF HINDU MARRIAGE)

भारत में हिन्दू विवाह से सम्बन्धित कानून की किताबों में कहा गया है कि हिन्दू धर्म में पति-परित्याग, पत्नी-परित्याग (Divorce) और विवाह के विघटन (Dissolution of Marriage) का कोई विधान नहीं है.

यह सही है कि जहाँ हिन्दू विवाह के लिए निर्धारित सम्पूर्ण संस्कार है, वहीं पति या पत्नी के परित्याग के लिए किसी प्रकार का धार्मिक-सामाजिक विधि-विधान विद्यमान नहीं है. पुरुष प्रधान प्राचीन और किसी हद तक समकालीन हिन्दू समाज तक में कम से कम स्त्री के लिए ऐसे अधिकार की कल्पना करना महज़ दुस्साहस ही होगा. अधिकार हो भी तो कैसे, जहाँ पति-पत्नी का रिश्ता सात-सात जन्मों का बन्धन मान लिया गया हो! अलबत्ता, चाणक्य ने कुछ ख़ास परिस्थितियों में विवाह का बन्धन समाप्त हो जाने की ओर संकेत ज़रूर किया है.

देश, काल, परिस्थिति चाहे कुछ भी क्यों न हो, मनुष्य जीवन में ऐसे मोड़ आते ही रहते हैं जब किसी धर्म की दुहाई से जुड़े जोड़े को अपना रिश्ता स्थायी रूप से तोड़ना पड़ सकता है. रिश्ता तोड़ने की आवश्यकता कभी पति को पड़ सकती  है तो कभी पत्नी को. यह आवश्यकता कभी पति-पत्नी की साझी भी हो सकती है. इस प्रयोजन के लिए किसी न किसी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था की ज़रूरत लाज़िमी है.

भारत में इसलाम का प्रचलित रूप पुरुष को महज़ तीन बार तलाक़-तलाक़-तलाक़ भर सस्वर बोल देने से पत्नी से छुटकारा दे देता है. स्त्री को पुरुष से छुटकारा पाने के लिए भी क़ुला की व्यवस्था है. लेकिन, हिन्दू स्त्री-पुरुष को इसी फल की उपलब्धि के लिए आज जटिल और लम्बी कानूनी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है. इसके बावजूद, इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि अदालत से विवाह के विघटन का प्रमाण-पत्र मिल ही जाएगा.

इसके विपरीत, प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत में वैदिक धर्मावलम्बियों में विवाह टूटते भी थे. वह भी आसानी से. ऐसे प्रसंग वाल्मीकि रामायण में मिलते  हैं. आइए देखें:

राम वनवास के लिए प्रस्थान कर गए हैं. दशरथ, पूरा राजपरिवार, राजपुरोहित और आम-ख़ास प्रजाजन उन्हें विदा करके लौटने को हैं. महाराज कैकेयी पर क्रुद्ध हैं और दुःखी भी. वह अपनी इस प्रिय रानी से कहते हैं:
कैकेयि मा ममाङ्गानि स्प्राक्षीस्त्वं दुष्टचारिणी.
नहि त्वां द्रष्टुमिच्छामि न भार्या न च बान्धवी..
(दुष्ट कैकेयी, तू मुझे छूना भी मत. मैं तेरी सूरत तक नहीं देखना चाहता. तू न तो मेरी पत्नी है और न किसी प्रकार रिश्तेदार ही.)

ये च त्वामुपजीवन्ति नाहं तेषां न ते मम.
केवलार्थपरां हि त्वां त्यक्तधर्मां त्यजाम्यहम्..
(जो लोग तेरे सहारे ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, मैं उनका मालिक नहीं हूँ और न ही वे लोग मेरे परिजन हैं. तूने सिर्फ़ राजपाट के लालच में पड़कर अपने कर्तव्य से पल्ला झाड़ लिया है. इसलिए मैं तेरा परित्याग करता हूँ.)

अगृह्णां यच्च ते पाणिमग्निं पर्यणयं च यत्.
अनुजानामि तत्सर्वमस्मिंल्लोके परत्र च..
(तेरा पाणिग्रहण करके तेरे साथ अग्नि की परिक्रमा से बना सारा सम्बन्ध मैं इस लोक के साथ-साथ परलोक के लिए भी त्याग देता हूँ.)

भरतेश्चत्प्रतीतः स्याद्राज्यं प्राप्येदमव्ययम्.
यन्मे स दद्यात्पित्रर्थं मा मा तद्दत्तमागमत्.. (अयोध्या. 37.6-9)
(यदि तेरा पुत्र भरत इस निर्विघ्न-निर्बाध राज्य को पाकर प्रसन्न हो तो उसकी ओर से दी जाने वाली जलांजलि और श्राद्ध में किया जाने वाला पिण्डदान आदि मुझे प्राप्त न हो.)


देखा आपने, कितना मज़बूत परित्याग है! जितना मज़बूत विवाह का बन्धन, उससे तनिक भी कम नहीं. और, कौसल्या के संग दशरथ अपने राजमहल चले गए. कौसल्या-सुमित्रा की मौजूदगी में वहीं उन्होंने अन्तिम साँस ली और मरते दम तक कैकेयी की सूरत दुबारा कभी नहीं देखी.

राम ने भी सीता का परित्याग एक नहीं, दो-दो बार किया था. एक बार चरित्र पर असह्य सन्देह के चलते तो दूसरी बार बदनामी के डर से:

प्राप्तचारित्रसन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता. (युद्ध. 103.17)
पहली बार का प्रसंग यों है. रावण-वध के बाद राम की आज्ञा पाकर विभीषण सीता को अशोक वाटिका से लिवा लाए. वह राम के बगल में लजाती-सकुचाती खड़ी हैं. राम उनसे दृढतापूर्वक कहते हैं:
तद्गच्छ ह्यभ्यनुज्ञाता यथेष्टं जनकात्मजे.
एता दश दिशो भद्रे कार्यमस्ति न मे त्वया.. (युद्ध. 103.18)
(जानकी, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ. मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ. देवी, ये दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली पड़ी हैं. तुमसे मेरा अब कोई सरोकार नहीं रह गया है.)

यदर्थं निर्जिता मे त्वं यशः प्रत्याहृतं मया.
नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामितः. (युद्ध. 103.21)
(जिस कीर्ति के लिए मैंने तुम्हारा उद्धार किया था, वह मुझे प्राप्त हो गई. मुझे तुमसे कोई लगाव नहीं रहा. तुम अब जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो.)

इति प्रव्याहृतं भद्रे मयैतत् कृतबुद्धिना. 
लक्ष्मणे भरते वा त्वं कुरु बुद्धिं यथासुखम्.
सुग्रीवे वानरेन्द्रे वा राक्षसेन्द्रे विभीषणे.
निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मना.. (युद्ध. 115.22-23)
(देवी, मैंने तुमसे यह बात सोच-विचारकर कही है. तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के साथ रह सकती हो. तुम्हारा मन करे तो सुग्रीव या फिर विभीषण के साथ भी रह सकती हो. जहाँ तुम्हें सुख मिलने की आशा हो, वहीं मन से रम जाओ.)[i]

राम कुछ ताक़तों के आगे समझौता करके सीता को घर तो लौटा लाए, लेकिन उनके मन की किसी गहरी-अन्धेरी गुफ़ा में सन्देह की गाँठ घर कर गई तो फिर कभी खुल नहीं पाई. दूसरी बार, बदनामी और जगहँसाई के भय से ज़िम्मेदारी की बन्दूक पूरी तरह लक्ष्मण के कन्धे पर रखकर वह सीता का परित्याग करते हैं. वह भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की अन्तरंग बैठक बुलाकर अपने निर्णय का एलान करते हैं:
अप्यहं जीवितं जह्यां युष्मान्वा पुरुषर्षभाः.
अपवादभयाद्भीतः किं पुनर्जनकात्मजाम्.. (उत्तर. 44.13)
(भाइयो, मैं लोक-निन्दा के डर से अपने प्राण और तुम सबको भी त्याग सकता हूँ. फिर सीता को त्यागना कौन बड़ी बात है?)
वह लक्ष्मण को अटल आज्ञा देते हैं:  
आरुह्य सीतामारोप्य विषयान्ते समुत्सृज. (उत्तर. 44.15)
(सीता को रथ में बिठाकर राज्य की सीमा के बाहर छोड़ आओ.)

तत्रैनां विजने कक्षे विसृज्य रघुनन्दन. (उत्तर. 44.17)
(लक्ष्मण, सीता को निर्जन वन में छोड़कर तुम शीघ्र लौट आओ.)

लक्ष्मण ने सीता को सूचित किया:
सा त्वं त्यक्ता नृपतिना निर्दोषा मम संनिधौ. (उत्तर. 46.13)
(आप मेरे सामने निर्दोष सिद्ध हो चुकी हैं. फिर भी, महाराज ने आपका परित्याग कर दिया है.)

सीता भी अपने परित्याग की पुष्टि करती हैं:
किं नु पापं कृतं पूर्वं को वा दारैर्वियोजितः.
याहं शुद्धसमाचारा त्यक्ता नृपतिना सती.. (उत्तर. 47.4)
(मैंने पूर्वजन्म में ऐसा कौन पाप किया था या किसे अपनी स्त्री से बिछड़ाया था कि मेरा आचरण शुद्ध होने के बावजूद महाराज ने मेरा परित्याग कर दिया है.)

और भी:

किं च वक्ष्यामि मुनिषु किं मयापकृतं नृपे.
कस्मिन्वा कारणे त्यक्ता राघवेण महात्मना.. (उत्तर. 47.7)
(महाराज, यदि मुनिजन मुझसे पूछें कि महात्मा राम ने किस अपराध के कारण तुम्हारा परित्याग कर दिया है तो मैं उन्हें क्या बताऊँगी.)[ii]

उपर्युक्त प्रसंगों के आलोक में ग़ौरतलब मालूम होता है कि प्राचीन राज्य व्यवस्था में वैदिक धर्म में जीवन-साथी के अभित्याग (Desertion) में आज का परित्याग (Divorce) अभिन्नतः अन्तर्निहित था. इसके विपरीत, भारत में प्रचलित इसलामी रिवाज में परित्याग में अभित्याग अन्तर्निहित है. इससे यह भी मालूम पड़ता है कि अभित्याग-परित्याग का अधिकार सशक्त  पुरुष की मुट्ठी में एकतरफा बन्द था और निःशक्त स्त्री बहुत करके उसके आगे बेबस थी.

परित्याग पर चर्चा करने के लिए यह समझना आवश्यक है कि शास्त्रोक्त हिन्दू विवाह क्या है? विवाह अग्नि-देव और अतिथि-देव की साक्षी में एक जोड़ा स्त्री-पुरुष के बीच पारस्परिक आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं और शर्तों की बुनियाद पर स्वेच्छा से खुशी-खुशी बनने वाला आपसी सम्बन्ध है. इसमें वर-वधू पक्ष के अभिभावकों तथा निकट सम्बन्धियों की सहमति सम्मिलित हो सकती है और नहीं भी:   
समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ. सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ..
(ऋ. मं. 10, सू. 85, मं. 47; पार. 1.4.14)
(गृहस्थी में साथ-साथ रहने के लिए हम एक-दूसरे को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं. हमारे हृदय अलग-अलग जल के समान आपस में मिलकर शान्त और एकरस रहेंगे. जिस प्रकार की प्रीति मनुष्य और प्राणवायु के बीच होती है, वैसी ही हम दोनों के बीच भी बनी रहेगी...)
तावेव विवहावहै. (पार. गृ. कां. 1. कं. 6. 3)
(आओ, हम दोनों विवाह करें.)

इन आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं और शर्तों की बानगी देखिए:
जरां गच्छ परिधत्स्व... रयिं च पुत्राननुसंव्ययस्व.  (पार. गृह्य. 1.4.12)
(मेरे साथ वृद्धावस्था तक बनी रहना...तू धन तथा पुत्रों को मर्यादा में रखना.)

रायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये. (पार. कां. 2. कं. 6. 20)
(मैं धन और पोषण को मर्यादा में रखूंगा.)
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधि.....वीरसूर्देवृकामा स्योना शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे. (ऋ.10.85.44)

(पति का विरोध न करने वाली हे प्रियदृष्टि, आवश्यकता पड़ने पर नियोग के लिए तू अपने देवर की सेज पर जाने तक को तैयार होकर वीरों को जन्म देने वाली बन...)[iii]

गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः.
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः.. (ऋ. मं. 10, सू. 85. मं. 6)
(मैं सौभाग्य की वृद्धि के लिए तेरा हाथ थामता हूँ. तू मुझ पति के साथ दीर्घायु हो... मैं सौभाग्य की बढ़ोतरी के लिए आपका हाथ थामती हूँ. देवगण और विवाह-स्थल पर मौजूद विद्वान गृहस्थाश्रम के निर्वाह के लिए तुम्हें मुझे सौंपते हैं.)

पत्नी त्वमसि धर्मणाहं गृहपतिस्तव. (अथर्व. कां. 14, सू. 1. मं. 52)
(पत्नी-धर्म के निर्वाह से तू मेरी पत्नी है और मैं पति-धर्म के निर्वाह से तेरा गृहपति हूँ.)
न स्तेयमद्मि मनसोदमुच्ये. (अथर्व. कां. 14. सू. 1. मं. 57)
(मैं तेरे लिए चोरी को मन से तज देता हूँ.)

स नो अर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा पतेः. (अथर्व. कां. 14. सू. 1. मं. 51)
(ईश्वर मुझे अपने पिता के कुल से छुड़ाए, पति के कुल से नहीं.)

आगे, विवाह की सबसे प्रमुख विधि सप्तपदी की सातों प्रतिज्ञाओं के साथ वर अपनी वधू से कहता है:
सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूँस्ते सन्तु जरदष्टयः.(आश्व. 1.7.19)
(तेरा मन मेरे मन के अनुकूल हो. विष्णु देवता तुझे मेरे अनुकूल बनाएं.)

विवाह का सबसे महत्वपूर्ण अंश है अग्नि की साक्षी में वधू के पाणिग्रहण के बाद सप्तपदी का सातवां मन्त्र: सखे सप्तपदी भव. अर्थात्, इस सातवें कदम के साथ तू मेरी मित्र बन जा[iv].

स्पष्ट है कि हिन्दू विवाह पति-पत्नी के सम्बन्ध निभाने के लिए स्त्री-पुरुष के बीच आजन्म  मित्रता का कर्तव्यपूर्ण रिश्ता है. यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या आश्वासनों और प्रतिज्ञाओं पर आधारित दो व्यक्तियों का यह मैत्री सम्बन्ध किसी भी एक की ओर से इन आश्वासनों और प्रतिज्ञाओं के सुविचारित-सुचिन्तित रूप से, साभिप्राय तोड़े जाने पर नहीं टूट सकता? क्यों नहीं! यह दुनिया के किसी भी प्रगतिशील समाज में जायज़ है, ज़रूरी है और सम्भव भी. सो, यह टूटता भी रहा है. फिर इसके लिए धार्मिक-सामाजिक कायदा-कानून चाहे अलग से बनाया गया हो या न बनाया गया हो.    

बृहदारण्यक उपनिषद के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक और शुक्ल यजुर्वेद के सर्वश्रेष्ठ ऋषि याज्ञवल्क्य (ईसा-पूर्व 1200 वर्ष) के निम्न लिखित श्लोक से पता चलता है कि भारतीय समाज में पति/पत्नी का धर्मसम्मत परित्याग प्रचलित था ही, पुनर्विवाह को भी मान्यता प्राप्त थी:
अक्षता च क्षता चैव पुनर्भूस्संस्कृता पुनः.
स्वैरिणी वा पतिं हित्वा सवर्ण कामतः श्रयेत्.. (याज्ञवल्क्य स्मृति 1.53)
(जिस स्त्री का विवाह संस्कार दूसरी बार किया जाए, वह पुनर्भू कहलाती है, फिर किसी अन्य पुरुष से उसका शारीरिक सम्बन्ध पहले हुआ हो चाहे न हुआ हो. स्वैरिणी वह है, जो स्वेच्छापूर्वक अपने पति को त्यागकर अन्य सवर्ण पुरुष का आश्रय ले लेती है.)

यह कैसी विडम्बना है कि हिन्दू विवाह का परिणामी सम्बन्ध --पति-पत्नी का रिश्ता— तो नश्वर-भंगुर है, लेकिन इस नाज़ुक रिश्ते के फल-स्वरूप उत्पन्न अटूट-अनश्वर रक्त-सम्बन्ध वाले सभी सुदृढ नाते इसीकी कोख से जन्म लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं!
--बृहस्पति शर्मा
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स्रोत:
  1. VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् –-परमहंस जगदीश्वरानन्द सरस्वती  
  4. रामचरितमानस
  5. संस्कार विधि -–स्वामी दयानन्द सरस्वती
  6. हिन्दू संस्कार –-डॉ. राजबली पाण्डेय
  7. विश्व के प्रमुख दार्शनिक -–वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली


[i] तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद. (लंका. दो.108)
[ii] गुसाईं जी ने यह प्रसंग नहीं रखा है.
[iii] डॉ. गंगासहाय शर्मा ने संस्कृत साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित सायणाचार्य के ऋग्वेद-भाष्य के आधार पर निम्नलिखित अर्थ दिया है:
“तुम क्रोधरहित आँखों वाली होकर बढ़ो तथा पति का घात न करने वाली बनो. तुम पशुओं के लिए कल्याणकारिणी, शोभन मन युक्त एवं तेजपूर्ण बनो. तुम वीरजननी, देवों की भक्त एवं सुखकारिणी बनो तथा हमारे मानवों और पशुओं का कल्याण करो.”
[iv] मालूम पड़ता है, दो अनजान व्यक्तियों के बीच प्रगाढ़ मैत्री की स्थापना के लिए भी अग्नि की साक्षी में पाणिग्रहण (हाथ में हाथ लेना या आज की रीत हाथ मिलाना) और अग्नि की परिक्रमा (भांवर) का रिवाज रहा है. वाल्मीकी रामायण में राम-सुग्रीव का मैत्री-प्रसंग दृष्टव्य है:
रोचते यदि वा सख्यं बाहुरेष प्रसारितः. गृह्यतां पाणिना पाणिर्मर्यादा बध्यतां ध्रुवा..
(यदि आपको मेरी मित्रता पसन्द हो तो मेरा यह हाथ फैला हुआ है. इसे आप अपने हाथ में लेकर मित्रता को अटूट बनाए रखने के लिए मर्यादा बान्ध दें.)
एतत्तु वचनं श्रुत्वा सुग्रीवस्य सुभाषितम्. सम्प्रहृष्टमना हस्तं पीडयामास पाणिना.
(सुग्रीव का यह सुन्दर प्रस्ताव सुनकर राम का मन प्रसन्न हो गया. उन्होंने सुग्रीव का हाथ प्रेमपूर्वक अपने हाथ में ले लिया.)


काष्ठयोः स्वेन रूपेण जनयामास पावकम्. दीप्यमानं ततो वह्निं पुष्पैरभ्यर्च्य सत्कृतम्..
(हनुमान ने लकड़ी के टुकड़ों को रगड़कर आग उत्पन्न की. फिर उसे प्रज्वलित करके साक्षी रूप में राम और सुग्रीव के बीच स्थापित कर दिया.)
ततोsग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम्. सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ.. (किष्किन्धा. 5.12 से 15)
(सुग्रीव और राम ने उस प्रज्वलित अग्नि की प्रदक्षिणा की और एक-दूसरे के मित्र बन गए.)
त्वं हि पाणिप्रदानेन वयस्यो मेsग्निसाक्षिकः. (किष्किन्धा. 8.26)
(मैंने अग्निदेव के सामने अपना हाथ आपके हाथ में देकर आपको मित्र बनाया है.)   
बहुत सम्भव है कि वैवाहिक मैत्री के लिए भी आगे चलकर इसी विधि ने साधारण अग्नि के स्थान पर यज्ञाग्नि के समक्ष सप्तपदी और पाणिग्रहण संस्कार का रूप ग्रहण कर लिया हो.    

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