Friday 26 October 2012


राक्षसों की राम कहानी (8)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)

वप्रप्राकारजघनां विपुलाम्बुवनाम्बराम्.
शतघ्नीशूलकेशान्तामट्टालकावतंसकाम्.
मनसेव कृतां लंकां निर्मितां विश्वकर्मणा. (सुन्दर. 2.21-22)
(विश्वकर्मा की संरचना लंका पुरी जैसे उनकी अपनी कल्पना-प्रसूत रमणी थी. चहारदीवारी और उसके भीतर की वेदी नगरी की जघन-स्थली, सागर की विपुल जलराशि और विशाल वन-प्रदेश उसके वस्त्र, शूल-शतघ्नी नामक अस्त्र उसके केश तथा बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं उसके कुण्डल प्रतीत होते थे.)

यह देखने के लिए कि राक्षसों का सामाजिक जीवन कैसा था, हमें रावण की लंका की नगर-योजना, गृह-निर्माण और ग्राम देवताओं का अध्ययन करना होगा, जिसके विवरण वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध हैं.
पहली बात तो यह कि सुरक्षित लंका ऊँची पहाड़ी पर योजनाबद्ध रूप से बसाई हुई जल-संसाधन सम्पन्न हरी-भरी नगरी बताई गई है. इसलिए हरी-हरी दूब और पुष्पित-पल्लवित वृक्षों से महमह वन-उपवनों की तरावट का अनुभव करते रास्ते के बीच से बढ़े जा रहे हनुमान को वह आकाश में तैरती-सी जान पड़ी:
शाद्वलानि च नीलानि गन्धवन्ति वनानि च.
गण्डवन्ति च मध्येन जगाम नगवन्ति च.. (सुन्दर. 2.6)
प्लवमानामिवाकाशे ददर्श हनुमान् कपिः. (सुन्दर. 2.19)
त्रिकूट पर्वत के शिखर पर चढ़कर हनुमान ने देखा कि चारों ओर खुदी हुई खाई (परिखाभिः) से घिरी थी लंका की स्वर्णिम फ़सील:
काञ्चनेनावृतां रम्यां प्राकारेण महापुरीम्. (सुन्दर. 2.16)
लता-बेल की पच्चीकारी से सुशोभित इस फ़सील में बने फाटक भी सोने के थे:
तोरणैः काञ्चनैर्दिव्यैर्लतापङ्क्तिविचित्रितैः. (सुन्दर. 2.17)
युद्धकाण्ड में पता चलता है कि लंका के परकोटे में चारों दिशाओं में ऐसा एक-एक फाटक बना था[i]:
पूर्वं प्रहस्तः सबलो द्वारमासाद्य तिष्ठति.
दक्षिणं च महावीर्यौ महापार्श्वमहोदरौ.
इन्द्रजित्पश्चिमद्वारं राक्षसैर्बहुभिर्वृतः. (28.10-11)
उत्तरं नगरद्वारं रावणः स्वयमास्थितः. (28.13)
इस प्रकार खाई-परकोटे के भीतर बसी हुई लंका नगरी में उन्हें अनेक कुंए, किस्म-किस्म की बत्तखों और कमल-कुमुद जैसे फूलों से सराबोर जलाशय तथा भाँति-भाँति के रमणीय स्थल नज़र आए:
हंसकारण्डवाकीर्णा वापीः पद्मोत्पलायुताः.
आक्रीडान्विविधान्रम्यान्विविधांश्च जलाशयान्.. (सुन्दर. 2.12)[ii]
इन जलाशयों के चारों ओर सभी ऋतुओं में फल-फूल देने वाले अनेक प्रकार के वृक्ष लगाए गए थे:
संततान्विविधैर्वृक्षैः सर्वर्तुफलपुष्पितैः. (सुन्दर. 2.13)
चौतरफ़ साफ-सुथरे मार्ग और ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित सैकड़ों अट्टालिकाएं:
पाण्डुराभिः प्रतोलिभिरुच्चाभिरभिसंवृताम्.
अट्टालकशताकीर्णा पताकाध्वजमालिनीम्.. (सुन्दर. 2.16)
इन सबके बीच हनुमान को दिखाई दिए शरद ऋतु के बादलों समान चूना पुते हुए दीयों से प्रकाशित अलग-अलग आकार-प्रकार के श्वेत मकान:
गृहैश्च गिरिसंकाशैः शारदाम्बुदसंनिभै. (सुन्दर. 2.16)
प्रजज्वाल तदा लंका रक्षोगणगृहैः शुभैः.
सिताभ्रसदृशैश्चित्रैः पद्मस्वस्तिकसंस्थितैः
वर्धमानगृहैश्चापि सर्वतः सुविभूषितैः. (सुन्दर. 3.22)[iii]
परस्पर सटे हुए सफेद-सफेद सतमंजिले-अठमंजिले महलों की पंक्तियां, उनमें सोने के स्तम्भ, सोने की जालियां और तोरण:
प्रासादमालाविततां स्तम्भैः काञ्चनराजतैः (सुन्दर. 2.48)
स पाण्डुरोद्विद्धविमानमालिनीं महार्हजाम्बूनदजालतोरणाम्. (सुन्दर. 2.53)
फ़र्श स्वर्णजटित स्फटिक मणि के:
तलैः स्फाटिकसंकीर्णैः कार्तस्वरविभूषितैः. (सुन्दर. 2.49)
विचरण तथा परिवहन के लिए अलग-अलग निर्मित चौड़े और विशाल राजमार्ग:
पुरीं रम्यां सुविभक्तमहापथाम्. (सुन्दर. 2.47)
हनुमान जब परकोटे से घिरी इस सुव्यवस्थित लंका नगरी के द्वार पर पहुँचे तो उन्हें राज्य की अधिष्ठात्री ग्राम देवी साक्षात लंका ने ललकारा:
न शक्यं मामवज्ञाय प्रवेष्टुं नगरीमिमाम्.
अद्य प्राणैः परित्यक्तः स्वप्स्यसे निहतो मया.
अहं हि नगरी लङ्का स्वयमेव प्लवङ्गम. (सुन्दर. 3.29-30)
(मेरी अवहेलना करके इस पुरी में प्रवेश कर पाना असम्भव है. आज मेरे हाथ प्राण खोकर तू धराशायी हो जाएगा. मैं स्वयं लंका नगरी हूँ.)[iv]
हनुमान उसे मार गिराते हैं तो मरते-मरते वह ब्रह्मा का वचन दोहराती है:

यदा त्वां वानरः कश्चिद् विक्रमाद् वशमानयेत्.
तदा त्वया हि विज्ञेयं रक्षसां भयमागतम्. (सुन्दर. 3.47)[v]
नगर के मुख्य द्वार पर ऐसी प्रहरी न तो अयोध्या में है और न ही किष्किन्धा में. यह राक्षस नगरी लंका की अनन्य विशेषता है.
मध्य भारत के वन-पर्वतों में बसने वाली कुइ (गोण्ड) ही ऐसी जनजाति है, जो अपने हर गाँव के प्रवेश-द्वार पर निशान पेन्नु नामक प्रहरी देवी की स्थापना करती है. किसी भी अन्य ग्राम देवता की तरह निशान पेन्नु भी छह से नौ इंच ऊँचा सुडौल गोलाकार पत्थर होता है. इसे गाँव के प्रवेश-द्वार के पास पेड़ के नीचे स्थापित किया जाता है. ग्रामवासी इसे अपनी जगह से नहीं हिलाते. इसे गुम्बदाकार रूप में पत्थरों से ढंककर रखा जाता है. वे मानते हैं, पेन्नु अपनी जगह से हिला नहीं कि गाँव पर विपत्ति आई नहीं. हर उत्सव के मौके पर गाँव वाले इस देवी को चढ़ावा चढ़ाते हैं, जिससे वह उनके पूरे के पूरे समुदाय की रक्षा करती रहे. वह गाँव की निशान’, गाँव की प्रतीक या वाल्मीकि के शब्दों में ग्रामःस्वयमेव होती है.
इसके पार गाँव में पहुँचें तो बाएं-दाएं घरों का सिलसिला और बीच में मार्ग. गाँव के किसी भी मार्ग की बनिस्बत चौड़े मुख्य-मार्ग के सिरे पर मुखिया का घर. घर के अतराफ़ चहारदीवारी या बाड़. इसके बीचोबीच ऐन सड़क पर खुलने वाला फाटक. इस चहारदीवारी के भीतर परिवार की ज़रूरतें पूरी करने के लिए कमरे --रसोई-घर, भण्डार-घर, सोने का कमरा, ढोर-घर वगैरह. रिहायश के पीछे बग़ीचा भी और परिसर के भीतर ही सुरक्षित खुली जगह, जो जश्न के मौकों पर जमा गाँव वालों के पीने-पिलाने के काम आती है.
कुछ ऐसा होता है कुइ गाँव का आम जीवन. त्योहारों के दिन और ज़्यादा गहमागहमी और धूमधाम रहती है. हनुमान ने लंका में कुछ ऐसा ही नज़ारा देखा. रात का समय. पूर्ण  चन्द्रोदय अभी-अभी हुआ था. रजनीश अपने मार्ग के पहले चरण में थे और इधर राक्षस-पुरी के मार्गों पर घूम रहे राम-दूत हनुमान ने देखा:
विभाति चन्द्रः परिपूर्णशृङ्गः. (सुन्दर. 4.5)
सारी नगरी में ही सरगर्मियां थीं:

परस्परं चाधिकमाक्षिपन्ति भुजांश्च पीनानधिविक्षिपन्ति.
मत्तप्रलापानधिविक्षिपन्ति मत्तानि चान्योन्यमधिक्षिपन्ति.. (सुन्दर. 4.9)
(राक्षस आपस में चुहल कर रहे थे. वे अपने ताक़तवर हाथ हिला-हिलाकर मतवालों जैसी बहकी-बहकी बातें करते और नशे में धुत होकर तकरार भी करते थे.)[vi]  
हम समझ सकते हैं कि आगामी पूर्णिमा के अवसर पर किसी उत्सव की तैयारियां चल रही होंगी.
हनुमान पहले मुख्य मार्ग से गुज़रे तो उन्होंने अलग-अलग रूप-आकृतियों के घर देखे --चार कमरे-चार दरवाज़े वाले सर्वतोभद्र’, तीन अलग-अलग दिशाओं में दरवाज़ों वाले नन्द्यावर्त’, वर्धमान और स्वस्तिक भी:  
विविधाकृतिरूपाणि भवनानि ततस्ततः. (सुन्दर. 4.10)
इस राह से गुज़रते हुए ही उन्होंने बाजे-गाजे की धुन पर गाए जा रहे गीत सुने और महिलाओं के नाचने की आवाज़ें भी:
शुश्राव मधुरं गीतं त्रिस्थानस्वरभूषितम्.
शुश्राव काञ्चीनिनदं नूपुराणां च निःस्वनम्. (सुन्दर. 3. 24-25)
ओझा स्तोत्र-पाठ कर रहे थे, जो आर्य पुरोहितों के वैदिक ऋचा-पाठ जैसे लगते थे:  
शुश्राव जपतां तत्र मन्त्रान् रक्षोगृहेषु वै.
स्वाध्यायनिरतांश्चैव यातुधानान्ददर्श सः.. (सुन्दर. 3.26)
इस रास्ते से चलते हुए हनुमान अन्तिम छोर तक आन पहुँचे और उन्हें रावण के महल के अतराफ़ चहारदीवारी में मुख्य द्वार दिखाई दिया. भीतर जाकर उन्होंने देखा:
शिबिका विविधाकाराः स कपिर्मारुतात्मजः.
लतागृहाणि चित्राणि चित्रशालागृहाणि च.
क्रीडागृहाणि चान्यानि दारुपर्वतकानपि.
कामस्य गृहकं रम्यं दिवागृहकमेव च. (सुन्दर. 5.33-35)[vii]
यहाँ शिबिका का अर्थ है मकान. छोटे-बड़े सारे मकान पंक्तिबद्ध. नयनाभिराम घरेलू उद्यान, चित्रांकित दीवारें. रमणीय शयन-कक्ष और दीवानख़ाने.  यहाँ दारुपर्वत सम्बद्ध हैं क्रीड़ागृह (भोज-आपानशाला) से. किन्तु, इस सामासिक शब्द का अर्थ है काठ के पहाड़’. काठ के बर्तनों के लिए प्रयुक्ति है दारुपात्राणि’. दरअसल, दारु अर्थात जलाने की लकड़ी. इन गाँवों में चूल्हे में जलाने की लकड़ी के ऊँचे-ऊँचे ढेर जमाए जाते हैं, जो लकड़ी के पर्वतों जैसे नज़र आते हैं. इस इलाक़े में यह बिलकुल आम नज़ारा है. इन इलाक़ों में भरपूर वर्षा होती है. अतः बारिश के दिनों के लिए ईन्धन संग्रह करके रखना ज़रूरी होता है, जब सूखी लकड़ी का टुकड़ा भी ढूण्ढे से नहीं मिल पाता. हम जानते हैं कि सुग्रीव ने सीता के लिए खोज-दल वर्षा ऋतु के बाद पठाने का निर्णय किया था. तदनुसार, हनुमान वर्षा ऋतु के बाद ही लंका पहुँचे भी थे. तो, उन्हें ऐसे काठ के पहाड़ नज़र आना सहज-स्वाभाविक है. यह ईन्धन के ढेर की वाल्मीकीय काव्य-अभिव्यक्ति है[viii].
सीता की आस में हनुमान रावण के महल में कमरा दर कमरा ख़ाक छानते रहे[ix]. पहले उन्होंने मुख्य हॉल में प्रवेश किया. सीता उन्हें वहाँ नहीं दिखाई दी. फिर वह शयन-कक्षों में घुसे. रावण पी-पिलाकर वहाँ गहरी नीन्द में चित पड़ा था[x]. उसकी पटरानी की दशा भी कुछ अलग न थी. रावण की अन्य मदालस पत्नियां भी अलग-अलग रुख़ ओ मुद्रा में नींद में निमग्न थीं. बानगी देखिए:
शशिप्रकाशवदना वरकुण्डलभूषिताः.
अम्लानमाल्याभरणा ददर्श हरियूथपः.. (सुन्दर. 8.29)
(चाँदनी के समान उजले मुख, कानों में सुन्दर बालियां, गले में कभी न मुरझाने वाले फूलों के हार.)
नृत्तवादित्रकुशला राक्षसेन्द्रभुजाङ्कगाः.
वराभरणधारिण्यो निषण्णा ददृशे कपिः.. (सुन्दर. 8.30)
(सुन्दर आभूषण धारण किए राक्षसराज की बाँहों और अंक में स्थान पाने वाली वे पत्नियां नाचने और बाजे बजाने में कुशल थीं.)
मदव्यायामखिन्नास्ताः राक्षसेन्द्रस्य योषितः.
तेषु तेष्ववकाशेषु प्रसुप्तास्तनुमध्यमाः.. (सुन्दर. 8.33)
(नशे में चूर पतली कमर वाली राक्षसराज की वे स्त्रियां रति-क्रीड़ा से थककर जहाँ-जिस हाल में थीं, वहीं-वैसे ही सो गई थीं.)
भुजपार्श्वान्तरस्थेन कक्षगेन कृशोदरी.
पणवेन सहानिंद्या सुप्ता मदकृतश्रमा.. (सुन्दर. 8.39)
(नशे से हारकर समतल पेट वाली कोई अनिन्द्य सुन्दरी अपनी ढोलक को बाँहों में दबाए सो गई थी.)
काचिदाडम्बरं नारी भुजसम्भोगपीडितम्.
कृत्वा कमलपत्राक्षी प्रसुप्ता मदमोहिता.. (सुन्दर. 8.41)
(मदिरा के मद में धुत कोई कमलनयनी अपना ताशा बाँहों में दबाए गहरी नीन्द में डूबी हुई थी.)
इन कमरों में सीता को न पाकर हनुमान (आ)पानभूमि में पहुँच गए, जहाँ उन्होंने देखा:
क्रीडितेनापराः क्लान्ता गीतेन च तथा पराः.
नृत्तेन चापराः क्लान्ताः पानविप्रहतास्तथा.. (सुन्दर. 9.4)
(वहाँ कुछ स्त्रियां खेलकर तो कुछ स्त्रियां नाच-गाकर थकी हुई थीं. बहुतेरी बहुत ज़्यादा पीकर होश खो रही थीं.)
गोण्ड महिलाएं गले में किस्म-किस्म के आभूषण पहनती हैं. ये मनकों और कौड़ियों से बने या फिर बाज़ारू होते हैं. चूड़ियां और कड़े कलाई से कुहनी तक पहने जाते हैं. टखनों में घुंघरु जड़ी पायल, अंगूठों में ख़ूबसूरत छल्ले और उंगलियों में बिछुआ.          
राक्षसों और कुइ जनजाति की नगर-योजना, खान-पान, रहन-सहन और सामाजिक जीवन बिलकुल एक जैसे हैं. आभूषण पहने हुए नींद में डूबी रावण की पत्नियों और पीकर नशे में धुत पड़ी हुई कुइ औरतों की स्थिति भी सर्वथा एक समान.     
आइए, एक जातीय साक्ष्य भी देखते चलें. राम की अगुवाई में वानर सेना ने लंका-पुरी को घेर लिया तो रावण ने तजुर्बेकार बड़े-बूढ़ों की मन्त्रणा परिषद का आह्वान किया था:  
राक्षसेन्द्रस्तु तैः सार्धं मन्त्रिभिर्भीमविक्रमैः.
समर्थयामास तदा रामकार्यविनिश्चयम्.. (युद्ध. 23.39)
यह बैठक कुइ गाँवों में ऐसे अवसरों पर होने वाली पंचायतों का आदि-रूप है. घर-गृहस्थी के झगड़े, अग़वा किए जाने सम्बन्धी मामले, व्यभिचार-बलात्कार, बिन बाप के बच्चों के पालन-पोषण सम्बन्धी मामले आदि कुछ ऐसे मसले हैं, जिन्हें इस तरह की बैठक बुलाकर गाँव के बीचोबीच किसी छतनार पेड़ के साए में बिछी सपाट शिलाओं पर बैठे गोण्ड बुज़ुर्ग तय करते हैं. इस बैठक की खबर सभीको पेशगी दी जाती है. गाँव वाले बैठक की जगह, पंचायत के शिला-तख़्त और उस पेड़ को पवित्र मानते हैं. लंका के नगर-प्राकार और उसके भीतर चबूतरे (वेदी) का उल्लेख हम प्रारम्भ में ही कर आए हैं.
अन्त में, एक पते की बात. विश्वकर्मा की संरचना लंका-पुरी उनकी कल्पना-प्रसूत रमणी है -–वाल्मीकि का यह सूत्र-वाक्य लंका को समझने की कुंजी है. पहले तो विश्वकर्मा स्वयं ही एक काल्पनिक-पौराणिक चरित्र है. फिर लंका के रूप में उनकी कल्पना-प्रसूत नगरी! वाल्मीकि यहाँ स्पष्ट संकेत छोड़ गए हैं कि लंका वस्तुतः एक वन-पर्वतीय गोण्ड गाँव है, जिसे उन्होंने उनकी अपनी कल्पना-प्रसूत रम्य नगरी के रूप में प्रस्तुत किया है. इसी महाकाव्य में अयोध्या की बनिस्बत लंका का वर्णन ज़ाहिर करता है कि यह स्थल वाल्मीकि के लिए अनजान परदेस रहा है. इसलिए उन्होंने लंका तथा लंकावासियों का चित्रण एक परदेसी के रूप में कल्पना के सहारे, सुनी-सुनाई के आधार पर और हनुमान-अभियान के माध्यम से किया है. हम अनुमान लगा सकते हैं कि महाकाव्य की रचना के दौरान किसी घुमक्कड़ लंकावासी ने उन्हें वहाँ के कुछ ब्योरे उपलब्ध कराए हों या फिर किसी आश्रमवासी पर्यटक ने. बहरहाल, वाल्मीकि के लिए लंका आँखिन देखी हरगिज़ नहीं है. रामायण के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक अध्ययन से सरलता से स्पष्ट हो जाता है कि लगभग 3500 वर्ष पहले देश-काल-परिस्थिति की दृष्टि से मध्य भारत में ऐसे किसी नगर की सम्भावना बनती ही नहीं, जहाँ व्योमविहारी अद्भुत पुष्पक विमान समेत सारी की सारी इमारतें (वह भी बहुमंजिली) सोने, चाँदी, मणि-रत्नों, ना-ना प्रकार की बहुमूल्य कला-कारीगरी और दुर्लभ सुख-सुविधाओं से अटी पड़ी हों. भारतवासियों को विपुल परिमाण में स्वर्ण के दर्शन रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार परवान चढ़ने पर ही मुद्रा के रूप में हो पाए थे, जो रामायण काल से बहुत-बहुत बाद की बात है. हनुमान की साखी दे-देकर वाल्मीकि हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि लंका का काव्य-सत्य ईंट-गारे-धातु-रत्नों से निर्मित ठोस सत्य है. वह काल्पनिक लंका का जितना ज़्यादा प्रयत्नपूर्वक वर्णन करते जाते हैं, सजग पाठक का सन्देह उतना ही ज़्यादा गहराता चला जाता है. ठीक वैसे ही, जैसे अनेकानेक पात्रों की दोहराई जाती साखी के बावजूद यह सत्य उजागर हुए बिना नहीं रहता कि वे राक्षसों को हद दर्जे तक बदनाम करने की नीयत से ही विकृत-विकराल नर-भक्षी बताते चले जा रहे हैं. किसी भी संस्कृति में मनुष्य का माँस खाना सबसे जघन्य असभ्यता जो माना जाता है, ध्यान रहे. राम को विष्णु का अवतार सिद्ध करने के लिए गुसाईं जी ने भी रामचरितमानस में दोहराव की इसी बारम्बारिता के सिद्धान्त को अपनाया है.                       --बृहस्पति शर्मा                                        
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[i] गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी. कहि न जाइ अति दुर्ग विसेषी.
अति उतुंग जलनिधि चहु पासा. कनक कोट कर परम प्रकासा. (सुन्दर. 2.5-6)
[ii] बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं. (सुन्दर. छं.2)
[iii] कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना.
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना. (सुन्दर. छं.1)
[iv] नाम लंकिनी एक निसिचरी. सो कह चलेसि मोहि निंदरी. (सुन्दर. 3.1) 
[v] मुठिका एक महा कपि हनी. रुधिर बमत धरनीं ढनमनी.
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा. चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा. (सुन्दर. 3.2-3)
[vi] कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं.
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं. (सुन्दर. छं.2)
[vii] गयउ दसानन मंदिर माहीं. अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं. (सुन्दर. 4.3)
[viii] गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में इस श्लोक का अर्थ है:
पवनपुत्र हनुमान जी ने राक्षसराज रावण के उस भवन में अनेक प्रकार की पालकियां, विचित्र लता-गृह, चित्रशालाएं, क्रीड़ाभवन, काष्ठमय क्रीड़ापर्वत, रमणीय विलासगृह और दिन में उपयोग में आनेवाले विलासभवन भी देखे.
[ix] मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा. (सुन्दर. 4.3)          x. सयन किएँ देखा कपि तेही. मंदिर महुँ न दीखी बैदेही. (सुन्दर. 4.4)

स्रोत:
  1. VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. रामचरितमानस


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