भास्वर भारत के जनवरी-फरवरी 2013 अंक में महर्षि पाणिनि शीर्षक से प्रो. ज. प. डिमरी का लेख प्रकाशित हुआ है. इसमें विद्वान लेखक ने ‘अष्टाध्यायी’ पर ध्यान केन्द्रित किया है.
प्राचीन काल से लेकर मध्य काल तक सृजित अनेक भारतीय मनीषियों की कृतियां विमर्श-विश्लेषण के लिए किसी न किसी रूप में उपलब्ध हैं. इन पर देश-विदेश में किया गया पुस्तकाकार व्यापक अनुसन्धान प्रकाशित भी हुआ है. लेकिन, इन मनीषियों के जीवन, व्यक्तित्व, रचना प्रक्रिया और लेखन दृष्टि के विषय में कुछ विस्तार से प्रकाश डालना भी पाठकों के लिए समान रूप से लाभकर होगा. सच तो यह है कि पाश्चात्य साहित्य, दर्शन आदि में विद्यमान लेखकों की जीवनी-परम्परा के बरखिलाफ़, प्राचीन भारतीय मनीषी और रचनाकार अपने जीवन तथा व्यक्तित्व के बारे में अकारण अनपेक्षित रूप से ज़्यादातर मौन रहे हैं. इस रूढ़ि के कारण उनके जीवन का परिदृश्य कथा-मिथकों में आविष्ट है. हमें इसके बारे में अटकल लगाने तक के लिए उनकी रचनाओं में मिलने वाले अन्तःसाक्ष्यों और बहिःसाक्ष्यों का ही आश्रय लेना पड़ता है. चन्दबरदाई से लेकर सूर-तुलसी-कबीर-मीरा की तरह पाणिनि समेत संस्कृत के अनेक लेखक-विचारक-दार्शनिक भी इस लीला के अपवाद नहीं हैं. प्रस्तुत है पाणिनि के स्पृहणीय जीवन और कार्य को ऐतिहासिक आलोक में देखने का अकिंचन प्रयास:
व्याकरण के अद्भुत आचार्य
पाणिनि
कोई दो हज़ार सात सौ वर्ष पहले एक ऋषि थे वर्ष. उनके दो शिष्य थे -–कात्यायन और पाणिनि. कात्यायन बड़े बुद्धिमान थे, पाणिनि बुद्धू. अपने दुर्भाग्य से व्यथित होकर पाणिनि एक दिन गुरुकुल छोड़कर दूर हिमालय चल पड़े. भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने वहाँ तपस्या की. उनकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें बुद्धि का वरदान दिया. उनकी तपस्या से भगवान इतने प्रसन्न थे कि नृत्य करने लगे और अपने डमरू को चौदह बार बजाकर उन्होंने चौदह पवित्र सूत्र उत्पन्न किए.
पाणिनि और उनके व्याकरण की यह कथा, कथा सरित्सागर में सोमदेव सुनाते हैं. थोड़े-बहुत हेर-फेर से यही कथा कुछ अन्य प्राचीन कथा-कृतियों में भी मिलती है. उदाहरण के लिए हरचरित चिन्तामणि के रचयिता जयरथ कथा के अन्त में कहते हैं कि इस प्रकार भगवान शिव ने उस समय प्रचलित ऐन्द्र व्याकरण प्रणाली को समाप्त कर दिया और तब से विश्व में पाणिनि का व्याकरण प्रसिद्ध हो गया. पाणिनि के जीवन के बारे में इस प्रकार के मिथकीय विवरणों के अलावा, प्राचीन चीनी यात्री ह्वेन त्सांग और इत्सिंग के सफ़रनामों में भी कुछ कथाएं मिलती हैं. उदाहरण के लिए ह्वेन त्सांग ने पाणिनि के बारे में अपने समय (सन् 602-644) के दौरान उत्तर-पश्चिमी भारत में प्रचलित कुछ कथाएं दर्ज की हैं. वह बताता है कि सो-लो-तु-लु नामक स्थान पर पहुँचने पर उसे पता चला कि यह वही स्थान है, जहाँ चिंगमिंगलन (व्याकरण) रचने वाले ऋषि पाणिनि का जन्म हुआ था. उसे बताया गया कि पाणिनि को बचपन से ही अपने आसपास के लोगों के भाषिक व्यवहार का ख़ासा ज्ञान था. वह उस समय प्रचलित अधूरे, अस्पष्ट और ग़लत-सलत व्याकरण में सुधार करना चाहते थे. इस विषय में मार्गदर्शन पाने के लिए वह दर-दर भटकते रहे. ऐसे ही एक पड़ाव पर उनकी भेंट ईश्वर देव नामक विद्वान से हुई. पाणिनि ने ईश्वर देव से प्रचलित व्याकरण में सुधार लाने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया. ईश्वर देव ने उन्हें उचित परमर्श और हर प्रकार की सहायता प्रदान करने का आश्वासन दिया. आश्वासन हासिल हो जाने के बाद पाणिनि घर लौट आए. अथक-अविराम परिश्रम के बाद पाणिनि ने एक हज़ार श्लोकों की एक कृति रच ही डाली. यह कृति संस्कृत भाषा का व्यवहार करने वालों से सूचना-संग्रह के बाद उनके कष्टसाध्य प्रयत्नों का फल थी. भाषा के बारे में हर प्रकार की सार्वकालिक जानकारी इस कृति में उपलब्ध थी. पाणिनि ने यह कृति अपने क्षेत्र के राजा के सामने रखी. राजा उससे बहुत-बहुत प्रभावित हुआ और उसने राजाज्ञा जारी की कि हर पाठशाला में पाणिनि के व्याकरण का पठन-पाठन होना चाहिए. राजा ने पाणिनि के व्याकरण का आद्योपान्त अध्ययन करने वालों को एक हजार स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार देने की घोषणा भी की. तभी से सुविज्ञ व्याकरणविद् पाणिनि के इस शास्त्र ‘अष्टाध्यायी’ को अपनी अगली पीढ़ियों को हस्तान्तरित करते आ रहे हैं. इन शताब्दियों में पाणिनि को बहुत ऊँचा सम्मान प्राप्त रहा और उनकी स्मृति में उनकी अनेक प्रतिमाएं खड़ी की गईं. ह्वेन त्सांग आगे बताता है कि भगवान बुद्ध के देहावसान के पाँच सौ वर्ष बाद किस तरह एक अर्हत (एक विद्वान बौद्ध भिक्षु) सो-लो-तु-लु आया और पाणिनीय व्याकरण शास्त्र के एक विद्वान को उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी.
ह्वेन त्सांग के यात्रा-विवरण से पाणिनि की व्यापक लोकप्रियता के बारे में मिलने वाली उपर्युक्त जानकारी के अतिरिक्त, उसकी अपनी आत्म-कथा से यह भी पता चलता है कि ह्वेन त्सांग ने संस्कृत कैसे सीखी. बताया जाता है कि ह्वेन त्सांग ने संस्कृत व्याकरण नालन्दा में सीखा. पाणिनि के व्याकरण के बारे में ह्वेन त्सांग को बताया गया कि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण शक्र से हासिल किया था और शक्र ने ब्रह्मा से. उसे यह भी बताया गया कि शक्र-व्याकरण के एक हज़ार श्लोकों का सम्पादन करके पाणिनि ने उनकी संख्या आठ सौ कर दी. ह्वेन त्सांग की आत्म-कथा में धातु रूप-रचना, सुबन्त, तिङ्न्त, आत्मनेपद आदि से युक्त पाणिनीय व्याकरण का विस्तृत विवरण भी दिया गया है.
एक अन्य चीनी यात्री इत्सिंग कौशेय मार्ग से स्वदेश भेजे गए अपनी बौद्धचर्या के अभिलेख में सन् 691-92 में पश्चिम (अर्थात् भारत) में ज्ञानार्जन के तरीके का वर्णन करता है. वह बताता है कि उस ज़माने में विद्यार्थी आठ वर्ष की अवस्था में पाणिनि के व्याकरण का अध्ययन शुरु कर देते थे और आठ महीने तक उसका अभ्यास करते थे.
चीनी यात्रियों के ऊपर बताए विवरण से पता चलता है कि पाणिनि का व्यक्तित्व दरअसल पौराणिक आख्यानों में दर्ज उनके व्यक्तित्व से बिलकुल उल्टा था. चीनी यात्रियों के अनुसार पाणिनि बुद्धू से मेधावी बने व्यक्ति नहीं थे. इसके विपरीत वह बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि थे. उनका रचा हुआ संस्कृत व्याकरण भगवान का दिया हुआ वरदान नहीं, बल्कि उनके श्रमसाध्य प्रयत्न का फल था. उन्होंने विशद शोध और भाषिक व्यवहार के सूक्ष्म अध्ययन से भाषायी सामग्री एकत्र की थी. पौराणिक आख्यान और चीनी यात्रियों के वर्णन से पता चलता है कि पाणिनि के इन्द्र (शक्र) से सम्बन्ध की कहानी में भी दम नहीं है. पौराणिक आख्यान के अनुसार, पाणिनि को व्याकरण का ज्ञान भगवान शिव से हासिल हुआ था और इस व्याकरण के प्रकाश में आने के बाद उस समय प्रचलित इन्द्र का व्याकरण अन्धकार के गर्त में खो गया. चीनी यात्रियों के विवरण के अनुसार, इन्द्र का रचा हुआ व्याकरण पाणिनि ने हस्तगत किया और उसे बड़ी हद तक सम्पादित कर दिया. शिव और इन्द्र दोनों ही पौराणिक चरित्र हैं. इसलिए हमें इन कथाओं पर ज़्यादा विचार करने की आवश्यकता नहीं है. फिर भी, इन कथाओं में आने वाले ऐतिहासिक तथ्यों को अनदेखा नहीं किया जा सकता. जैसे, पाणिनि वस्तुतः भाषा संशोधक थे, उन्होंने पूरी तरह नया व्याकरण नहीं रचा, बल्कि मुख्यतः संक्षेप और परिशुद्धता की दृष्टि से उन्होंने परम्परागत रूप से प्राप्त पुराने व्याकरण में ही संशोधन किया. इसे सिद्ध करने के लिए उनके व्याकरण पर सरसरी नज़र डालना ही काफ़ी है. इसी प्रकार, यदि पाणिनि के प्रति लोगों की देवतुल्य श्रद्धा थी और प्राचीन काल में उनकी स्मृति में उनकी अनेक प्रतिमाएं खड़ी की गईं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, क्योंकि संस्कृत साहित्य का साधारण पाठक भी इन सभी क्षेत्रों के सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य पर पाणिनि और उनके व्याकरण का प्रभाव स्पष्ट देख सकता है. यह पारम्परिक मान्यता सच ही है कि प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्य का पोषण करने वाली संस्कृत भाषा अपनी साधुता और निर्मलता के लिए पाणिनि के व्याकरण की चिर ऋणी है. यह सच्चाई कि पाणिनि का व्याकरण पारम्परिक पाठशालाओं में आज भी पाठ्यक्रम का ज़रूरी हिस्सा है, प्राचीन काल से लेकर आज तक उनके व्याकरण की ज़बर्दस्त लोकप्रियता और उसके भारी सम्मान का पर्याप्त साक्ष्य है.
पाणिनि के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में हमें इससे ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती. उनके दाक्षीपुत्र, शालातुरीय और पाणिनि जैसे नामों के बारे में इधर-उधर मिलने वाले कुछ हवालों के आधार पर कह सकते हैं कि उनकी माता का नाम दाक्षी और पिता का नाम पणि या पणिन था, वह शालातुर नामक स्थान के रहने वाले थे, जिसे आधुनिक लेखक पाकिस्तान स्थित एक गाँव लाहुर मानते हैं. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, पाणिनि काबुल (अफ़ग़ानिस्तान) के रहने वाले थे. पाकिस्तान के पुरातत्ववेत्ता प्रो. ए. एच. दानी का पाकिस्तान में मौजूद पाणिनि की एक प्रतिमा के बारे में कहना है:
“स्वाबी शहर से पाँच किलोमीटर दक्षिण में वर्तमान लाहुर गाँव पाणिनि का जन्म-स्थल है. वर्तमान लाहुर गाँव जहाँगीरा से स्वाबी जाने वाली सड़क पर हट गया है. पुराना गाँव मुख्य सड़क से तीन किलोमीटर पश्चिम की ओर था, जहाँ पहले कभी टीला हुआ करता था. दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में टीले को ज़मींदोज़ कर दिया गया. चाहे जो हो, पास ही एक गाँव है जिसे अब भी पनई कहते हैं... पाणिनि का नाम इस इलाक़े में मशहूर है और स्थानीय लोग इस महान् विद्वान पर गर्व करते हैं. पाकिस्तान सरकार ने पुराने तक्षशिला विश्वविद्यालय को फिर से स्थापित करने का मनसूबा बनाया है. हम उम्मीद करते हैं कि उस विश्वविद्यालय में भाषा और भाषा-शास्त्र संस्थान स्थापित किया जाएगा, जिसका नाम ‘पाणिनि संस्थान’ होगा.”
ठोस बाह्य साक्ष्यों के अभाव में यह निश्चित कर पाना कठिन है कि पाणिनि का ठीक-ठीक जीवन-काल क्या था. उनकी भाषा वैदिक संस्कृत के निकट है. उनके व्याकरण में वैदिक साहित्य के सन्दर्भों और उनकी भाषा की प्रकृति के आधार पर मोटे तौर पर बहुत सारे विद्वान मानते हैं कि पाणिनि ईसा पूर्व चौथी-पाँचवीं शताब्दी में हुए होंगे.
पाणिनि के जीवन और परिवार के बारे में हमें परम्परागत स्रोतों से कुछ ज़्यादा जानकारी हासिल नहीं होती. फिर भी, एक कथा से उनकी दुःखद मृत्यु का संकेत मिलता है. कहते हैं, वह अपने व्याकरण शास्त्र के अन्तिम सूत्र पर मनन कर रहे थे कि एक शेर ने उन पर हमला कर दिया -–सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरहरत् प्राणान् मुनेः पाणिनेः. इससे इतना तो पता चलता ही है कि वह महान् व्याकरणकार अपने आसपास की हलचल से बेख़बर भाषा और व्याकरण के चिन्तन में पूरी तरह डूबा रहता था.
ऐतिहासिक भाषा-शास्त्र के रूप में पाणिनि के व्याकरण का महत्व भले घट गया हो, लेकिन प्राचीन भारत के इतिहास के निर्विवाद साक्ष्य के रूप में यह भारतविदों में आज भी मान्य है. पाणिनि की अष्टाध्यायी भारतविदों के लिए प्राचीन भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर जानकारी का अकूत खज़ाना है. भारतीय संस्कृति के उद्भट विद्वान वासुदेवशरण अग्रवाल कृत ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ के अध्ययन से पता चलता है कि पाणिनि की एकत्र की हुई भाषिक-व्याकरणिक सामग्री प्राचीन भारत के भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, साहित्यिक और धार्मिक पक्षों पर भी समान रूप से प्रामाणिक सूत्रात्मक प्रकाश डालती है. इतिहासकारों ने बताया है कि पाणिनि के व्याकरण से प्रतिबिम्बित होने वाला भारत का चित्र ईसा से चार सौ वर्ष पूर्व रचित कौटिल्य अर्थशास्त्र से मेल खाता है.
--बृहस्पति शर्मा
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