शहर हैदराबाद के बाज़ारों में सुबह से ही अजीब-सी
चहल-पहल है. गली-कूचों से निकलकर लोगों का सैलाब चारमीनार की तरफ जाने वाली राहों में
दाखिल हो रहा है. चारमीनार के चारों तरफ बनी सड़कें चार बड़ी-बड़ी नद्दियां लग रही
हैं, जिनमें पानी नहीं, इंसानों की धारा बह
रही है. घरों से निकलकर लोग इस सैलाब की ताकत बढ़ाते चले जा रहे हैं. यह इंसानी
सैलाब अपने निर्धारित केन्द्र की तरफ बढ़ रहा है. चारमीनार तक पहुँचकर यह दक्खिन-पच्छिम
के लम्बे-चौड़े मैदान में विलीन होता जा रहा है.
नौजवानों की टोलियां अपने रूप-रंग और चुस्त लिबास
में ज़िन्दगी और ज़िन्दादिली की मिसाल पेश कर रही हैं. बड़े-बूढ़े और धर्मभीरु लोग
अपने-अपने हथियार सम्हाले, सिरों पर किस्म-किस्म की
पगड़ियां बान्धे चले आ रहे हैं. कोई बादशाह की असाधारण तपस्या और दीन-धरम में ईमान का
दीवाना है तो कोई उनकी सधुक्कड़ ज़िन्दगी के किस्से सुना रहा है. किसीकी ज़बान पर
सल्तनत की हर-दिल-अज़ीज़ मलिका हयात बख़्श बेग़म के प्रजा-कल्याण के लिए किए गए कामों
और ख़ैर-ख़ैरात का ज़िक्र है तो कोई उनके अब्बा मुहम्मद क़ुली की दानी तबीयत और उस ज़माने की मौज-मस्ती से मौजूदा
ज़माने के हालात की तुलना कर रहा है. लेकिन, ज़्यादातर लोगों में
गुफ्तगू आज के उत्सव पर हो रही है, जिसमें हिस्सा लेने के
लिए हर शख़्स बड़ी लगन से चारमीनार की तरफ बढ़ रहा है.
कई दिन पहले शहर भर में और आस-पास हर गली-कूचे
में जहाँपनाह के हुक्म से मुनादी फेर दी गई है, “शहर के बीचोबीच
अज़ीमुश्शान मस्जिद तामीर की जानी है. इसका संग-ए-बुनियाद वही शख़्स रखेगा, जिसकी नमाज़ में बारह
साल की उम्र के बाद एक भी नागा न हुआ हो.”
एलान के बाद शहर का हर शख़्स मुकर्रर दिन का इन्तज़ार
कर रहा है. पुरानी तर्ज़ के बुज़ुर्ग महसूस कर रहे थे कि क़ुत्ब शाही सल्तनत की इस दिल
लूट लेने वाली राजधानी की आन-बान के अनुरूप शानदार मस्जिद मौजूद नहीं है. हैदराबाद
के महबूब बादशाह मुहम्मद क़ुली ने ख़्याल रखा था कि यह शहर दुनिया के किसी भी शहर की
आन-बान पर भारी पड़े. उन्होंने चारमीनार, दौलतख़ाना-ए-आली और
दार-उल-शफ़ा जैसी भव्य-बुलन्द इमारतें बनवाईं. सैकड़ों नफ़ीस-पाकीज़ा हमाम, मदरसे और मुसाफ़िरख़ाने
तामीर कराए. रह गई तो बस जामा मस्जिद. आकार और ऊँचाई के लिहाज़ से इसे उल्लेखनीय
इमारतों की श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता. सच तो यह है कि मुहम्मद क़ुली का
दिल ज़्यादातर साहित्य, शायरी और ललित कलाओं में लगता था. उन्हें मौजूदा सुल्तान
मुहम्मद क़ुत्ब शाह की तरह दीन-धरम और दर्शन शास्त्र में रुचि नहीं थी. मुहम्मद
क़ुली की ज़िन्दगी इश्क-मुहब्बत की बतासी बतकही में गुज़र गई. सच मानें तो हैदराबाद
शहर और इसकी तमाम शान इसी आशिक मिजाज़ जाँबाज़ की बेनज़ीर मुहब्बत और लगन की अमर
यादगार है.
चारमीनार के पहलू में जमा भीड़ के चलते तिल
धरने को जगह नहीं है. मैदान के बीच विशाल इमारत की बुनियाद तैयार है. बुनियाद के
बीचोबीच लम्बा-चौड़ा शामियाना खड़ा किया गया है. लक-दक लिबास में लिपटे अमीरों और
शाही ख़िदमतगारों की दो-पंक्ति कतारें खड़ी हैं. पूरे हुजूम की नज़रें रह-रहकर
दौलतख़ाना-ए-आली से चारमीनार की तरफ निकलने वाली सड़क पर जा टिकती हैं. इन तरुणों को
युवा बादशाह का इन्तज़ार है. गरदनों की दाएं-बाएं-ऊपर-नीचे हलचल के साथ रंग-बिरंगे
शमलों और रूमालों का लहराना समन्दर की बेचैन लहरों का समां बान्ध रहा है.
सुबह दस बजा चाहते हैं. शाही निशान का हाथी
चारमीनार के पहलू में पहुँच गया है. हाथी पर नज़र पड़ते ही मजमे में शोर-शराबा शान्त
हो गया है. हर कोई बादशाह के दीदार की कोशिश कर रहा है. इन्हें यक़ीन है कि बादशाह
सलामत का मुखड़ा नज़र आ जाए तो साल भर की मुसीबतें दूर हो जाएंगी.
शाही निशान के हाथी के बाद दूसरे बहुत सारे
हाथी नज़र आए. रौबदार लिबास, कमर में तलवारें, पीठ पर ढालें और हाथ
में तीर-कमान से लैस तातारी घोड़ों पर सवार कोई डेढ़ सौ सिपाही कतार दर कतार
चारमीनार के नीचे दो-दो की पंक्ति बान्धकर खड़े हो गए. फिर एक और दस्ता तुरही फूँकते
और शहनाई बजाते हुए मैदान में दाखिल हो रहा है. इस दस्ते के पहुँचने के साथ ही
मजमा दो फाँकों में बँटकर ख़ासा चौड़ा रास्ता खुल जाता है. चमत्कार भरा यह नज़ारा
देखने वालों ने महसूस किया, जैसे हज़रत मूसा ने
भयंकर आँधी-तूफ़ान में इस्माईल को नील नदी पार कराने के लिए रास्ता बना दिया हो.
अगल-बगल पचास-साठ प्यादों से घिरे घोड़े पर सवार बादशाह सलामत आगे बढ़ रहे हैं. नक़ीब[i] ‘बचो-बचो, नज़रें
नीची करो’ चिल्ला रहे हैं. चोबदार सोना मढ़ी
हुई लाठी लिए हुए मजमे से रास्ता खाली करा रहे हैं. संगी-सवारों के पास बरछे हैं.
कुछ के पास मोरछल. वे बादशाह सलामत पर दोनों ओर से मोरछल झल रहे हैं. धूप से बचाने
के लिए बादशाह के सिर पर
छत्र की छाया.
जहाँपनाह अमीरों और
ख़िदमतगारों से भरे शामियाने में दाखिल हो रहे हैं. शाही नक़ीब बुलन्द आवाज़ में एलान
कर रहा है -–आला हज़रत, ज़िल्लेसुभानी जाँनशीन सरीर-ए-सल्तनत-ओ-कामरानी
मुआदलत पनाह सुल्तान मुहम्मद शाह हुक्म फ़रमाते हैं,
“यहाँ जमा शहर के शरीफ़ और कुलीन लोगों में बारह साल की उम्र से अब तक जिसकी एक भी
नमाज़ वक़्त से न टली हो, वह शख़्स
आगे बढ़े और अपने हाथ से ख़ुदा के घर का संग-ए-बुनियाद रक्खे.”
सन्नाटा छा गया है. लगता
है, इंसान पत्थर की मूर्तियां बन गए हैं. साँस लेने
तक की आवाज़ सुनाई नहीं देती. चन्द लम्हों बाद नक़ीब ने इस हुक्म को दोहराया. हर
शख़्स दूसरे की तरफ देखने लगता है. मजमे का मजमा इन्तज़ार कर रहा है कि यह गौरव किस बड़भागी
को हासिल होगा. कोई हलचल नहीं. एक मुहल्ले के बाशिन्दे दूसरे मुहल्ले के बाशिन्दों
को तो एक टोली दूसरी टोली के लोगों को देख रही है. लगता है,
सब के सब किसी जंजीर से बन्धे हैं. किसीको भी हलचल करने तक की इजाज़त नहीं है.
थोड़ी देर बाद शाही नक़ीब
तीसरी बार ज़रा और विस्तार से रुक-रुककर मजमे को शाही हुक्म समझा रहा है. यह क्या!
सन्नाटा तोड़कर भीड़ को चीरते हुए दो शख़्स आगे बढ़ते नज़र आ रहे हैं. इनमें से एक
इस्लामी कानून के मुताबिक कसम खाने के बाद अर्ज़ करता है:
“बारह बरस की उम्र से अब
तक कोई नमाज़ वक्त से नहीं टली. अलबत्ता, एक रोज़
सुबह की नमाज़ में दूसरी रक़्अत[ii]
पढ़ रहा था कि सूरज निकल आया.”
दूसरे शख़्स ने भी कसम खाकर
कहा, “एक बार सुबह की नमाज़ पढ़ी थी,
लेकिन सूरज ऊगने का वक्त हो गया था. शक होने पर नमाज़ दुबारा पढ़ी थी. सिवा इसके हर
नमाज़ वक्त पर अदा की है.”
दोनों बयानों से मजमे में
हलचल मचने लगी थी. सुल्तान मुहम्मद खुद आगे बढ़े. पवित्र क़ुरआन की कसम खाई और
बा-आवाज़ बुलन्द कहने लगे, “जिसके घर
की बुनियाद डालनी है, उस एक-अकेले परमपिता की क़ुव्वत
और दबदबे की कसम, बारह साल की उम्र से आज तक,
आधी रात के बाद की नमाज़ समेत, पाँचों
वक्त की नमाज़ हर रोज़ वक्त पर पूरी हुई है.” खुद सुल्तान ने मस्जिद की बुनियाद का
पत्थर सिर पर उठाया और उसे नींव में रखकर मस्जिद की तामीर की शुरुआत की. नमाज़ के
पाबन्द दोनों भाग्यशाली नौजवानों को बादशाह ने भर थाल सोना और जवाहरात इनाम में
दिए.
(सन्
1613)
-मूल:सैयद
मुहीउद्दीन क़ादरी
-पुनर्सृजन:
बृहस्पति शर्मा
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