देवनागरी की दक्खिनी सहोदर
तेलुगु-कन्नड़ लिपियां
भारतीय संस्कृति की अद्वितीय उपलब्धि के रूप में बार-बार दोहराई जाने वाली आप्तोक्ति ‘अनेकता में एकता’ वस्तुत: भारतीय वर्णमाला और लिपियों के मूलभूत एकत्व के सिवा कुछ नहीं है. भारतीय उप-महाद्वीप और वर्तमान भारत के विशाल भू-भाग की तो बात ही छोडि़ए, आन्ध्र प्रदेश के ही तीन भू-खण्डों -- तेलंगाणा, रायल सीमा और तटीय आन्ध्र -- की संस्कृति-सभ्यता में भी बला की भिन्नता है. बस, कहने भर को पूरे आन्ध्र प्रदेश की भाषा तेलुगु है. भारत की लगभग सभी भाषाओं ने जैसे ध्वनियों के लिए स्वानिकी संस्कृत की अपनाई है, वैसे ही उसकी लिखित प्रस्तुति के लिए लिपि-चिह्न ब्राह्मी के अपनाए हैं. इस प्रकार भारत की सांस्कृतिक एकता केवल और केवल यहॉं की भाषाओं में चरितार्थ हो पाई है.
भारत में मध्यवर्ती स्थान रखने वाली दो द्रविड़ भाषाएं -- तेलुगु और कन्नड़ -- राष्ट्र के यथा मान्य सांस्कृतिक एकत्व को पर्याप्तत: निरूपित करती हैं. इन भाषाओं की लेखन प्रणाली और लिपियां ब्राह्मी के प्रति विपुल कृतज्ञता व्यक्त करती हैं. आन्ध्र-कर्नाटक के एक से दूसरे सिरे के बीच मिलने वाले अशोक कालीन और दूसरे शिला अभिलेखों से ब्राह्मी के व्यापक व्यवहार का पता तो चलता ही है, क्षेत्रीय विभेद भी साफ़ तौर पर समझ आते हैं. सैकड़ों बरस के काल-प्रवाह में ब्राह्मी की दक्खिनी किस्म धीरे-धीरे आदि तेलुगु-कन्नड़ लिपि के रूप में विकसित हुई. ठौर-ठौर के छोटे-मोटे विभेदों के साथ इस लिपि का प्रयोग दक्खिन के सभी शासक राजवंश सदियों तक व्यापक रूप से करते रहे. फिर दक्खिन का अड़ोस-पड़ोस भी इस प्रचलन से अछूता नहीं रह गया था. पच्छिम में बाणवासी कदम्ब नरेशों और बादामी के शुरुआती चालुक्य नरेशों के शिला अभिलेखों में इसी लिपि का प्रयोग हुआ है. पूरब में शालंकायन शासकों और वेंगी के प्रारम्भिक चालुक्य क्षत्रपों को भी हम इसी लिपि का प्रयोग करते देखते हैं. क्या पूरब और क्या पच्छिम, ईसा की सातवीं शताब्दी तक का समय गुज़र जाने के बाद भी तेलुगु-कन्नड़ के आद्य रूप में मिलने वाले शिला अभिलेखों में कोई ज़्यादा क्षेत्रीय विभेद दिखाई नहीं देते. इस काल के ज्यादा पुराने शिला अभिलेख शालंकायन और कदम्ब काल के शिला अभिलेखों की तुलना में ‘गुफा ब्राह्मी वर्णों’ के अधिक निकट हैं. इस काल के परवर्ती शिला अभिलेखों में वर्णों के गोल-गोल रूप मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं.
सातवीं शताब्दी के लगभग मध्य में तेलुगु-कन्नड़ लिपि के इस आद्य रूप का विकास जैसे एक बिचले रूप में हुआ. यह बिचला रूप दक्खिन और उसके अगल-बगल में कोई तीन सौ बरस तक प्रयोग में रहा. इधर पच्छिम में इस बिचले रूप का व्यापक प्रयोग बादामी चालुक्यों, मान्यखेट के राष्ट्रकूटों, गंगवाड़ी के गंग शासकों, मैसूर और अन्य छोटी-मोटी रियासतों में देखने को मिलता है. उधर पूरब में वेंगी चालुक्य और उनके क्षत्रप इस लिपि का व्यापक प्रयोग करते थे. इस दौरान अलग-अलग शिला अभिलेखों में वर्णों का दाहिनी ओर झुकाव साफ नज़र आता है, जबकि पूरबी चालुक्यों के शिला अभिलेखों में वर्ण चौकोर और सीधे खड़े हैं. इसी बीच पाद-स्वरों की लेखन पद्धति में परिवर्तन की शुरुआत नज़र आने लगती है. यह परिवर्तन आगे चलकर एक ओर तेलुगु-कन्नड़ लिपि के तो दूसरी ओर ग्रन्थ लिपि के बीच प्रमुख भेद बन गया. फिर यही व्यंजनों की ध्वन्यात्मक लम्बाई और व्यंजनों के नीचे अंकित पादाक्षर-चिह्नों को व्यंजन के दाहिनी ओर लाने वाला चिह्न भी बन गया.
तेलुगु और कन्नड़ भाषाएं पहली बार इस काल में शिला अभिलेखों में अवतरित हुईं. इस समय तक शिला अभिलेखों की लिपि भले ही तेलुगु-कन्नड़ होती थी, लेकिन भाषा या तो प्राकृत होती थी या फिर संस्कृत. हॉं, इन अभिलेखों में अपने-अपने इलाके के तेलुगु और कन्नड़ के शब्द ज़रूर मिल जाते थे, ख़ास तौर से व्यक्तियों और गॉंवों के नाम के मामले में. सबसे पुराने कन्नड़ शिलालेखों में से एक बादामी में वैष्णव गुफा के बाहर चालुक्य मंगलेश (598-610ई) का है. एक और ऐसा अभिलेख है काकुस्थवर्मन का हलमिडि शिला अभिलेख . पुलकेशिन द्वितीय के 634 ई. के ऐहोळे शिला अभिलेख के अन्त में कन्नड़ में पृष्ठांकन है, जबकि पूरा अभिलेख संस्कृत में है. हो सकता है, पृष्ठांकन तनिक बाद में जोड़ा गया हो. दूसरी ओर बादामी चालुक्यों के ज़्यादातर ताम्र-पत्र संस्कृत में हैं, लेकिन अधिकतर शिला अभिलेख कन्नड़ में अब तक ज्ञात सबसे पुराने तेलुगु शिला अभिलेख रेनाडु के तेलुगु चोल शासकों के हैं. ये पाषाण अभिलेख हैं और आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर तथा कड़पा जिलों में मिलते हैं. इन्हें छठी से आठवीं सदी के बीच का माना जाता है. कुल मिलाकर ऐसे आठ अभिलेख हैं और सब के सब तेलुगु भाषा में हैं. इस काल में भी तेलुगु और कन्नड़ साफ़ तौर पर दो अलग-अलग भाषाओं के रूप में मिलती हैं, लिपि हालांकि दोनों की एक ही है. कालमल्ल के तेलुगु चोल शिला अभिलेख में कतिपय वर्ण तमिल ग्रन्थ वर्णों से मिलते-जुलते हैं, मिसाल के तौर पर लृ लिपि-चिह्न. इसी काल के इरागुडिपाडु शिला अभिलेखों को ही लें. एक तेलुगु शिला अभिलेख में द्रविड़ ध्वनि लृ मिलती है. तमिळ-मळयालम भाषाओं में आज भी शेष यह ध्वनि, तेलुगु-कन्नड़ में नि:शेष हो गई है. यह ध्वनि एक प्रकार का मूर्धन्य-संघर्षी व्यंजन है, जिसे नवीं सदी के लगभग मध्य में तेलुगु ने तज दिया और कुछ समय बाद कन्नड़ ने भी बाहर कर दिया.
तेलुगु-कन्नड़ लिपि के विकास का अगला चरण संक्रमण चरण कहलाता है. इस चरण में प्रयुक्त रूप आधुनिक तेलुगु-कन्नड़ लिपि से बहुत भिन्न नहीं है. पूरब में यह रूप पहले-पहल लगभग ग्यारहवीं सदी के पूर्वी चालुक्यों के शिला अभिलेखों में दिखाई देता है. पश्चिम में अलबत्ता यह तनिक पहले के गंग शिला अभिलेखों में दिखाई देता है. धीरे-धारे करके यह चरण इन लिपियों को लगभग तेरहवीं सदी में अगले चरण में पहुँचा देता है और इसमें अन्तर धीमे ही सही, लेकिन दोनों लिपियों को निश्चित रूप से अलग कर देता है. दरअसल, इस काल में एक तेलुगु कवि मंचन्ना तेलुगु के लिए ख़ास तौर से ‘आन्ध्रलिपि’ शब्द का प्रयोग करते हैं.
इस संक्रमण काल में ही वर्णों की अपनी नोक-पलक का विकास हुआ, जिसे अब हम तेलुगु-कन्नड़ लिपियों में देखते हैं. कन्न्ड़ में दीर्घ मध्यम स्वरों का अंकन व्यंजन के दाएं उसी पंक्ति में लिपि-चिह्न रखकर प्रारम्भ हुआ. यही वह समय था, जब महाप्राण वर्णों को उनके ध्वनि उच्चारण चिह्न प्राप्त हुए और बिन्दु रूप अनुस्वार भी वर्ण-शीर्ष से लुढ़़कता-लुढ़कता अन्तत: ‘सुन्ना’ या शून्य रूप में दो व्यंजन वर्णों के बीच जगह बना बैठा. कन्नड़ में रेफ़युक्त व्यंजन रूप की विशेषता सुरक्षित रही. यह कन्नड़ में अब तक प्रचलित है, जबकि तेलुगु ने इसे पिछली सदी में बाहर कर दिया. महाप्राण-अनुस्वार की यह अत्यन्त प्राचीन पद्धति चौथी सदी के शालंकायन शिला अभिलेखों, छठी सदी के विष्णुकुण्डिन अभिलेखों और सातवीं-आठवीं सदी के पल्लव शिला अभिलेखों में ग्रन्थ लिपि और तेलुगु-कन्नड़ लिपियों दोनों ही में पाई जाती है. यह संक्रमण काल कुछ समय के लिए तब तक चलता रहा, जब तक कि लगभग विजयनगर शासकों के काल में ये दोनों लिपि रूप अन्तत: जुदा नहीं हो गए.
उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में छपाई की शुरुआत के साथ ही इन दोनों ही लिपियों ने अभूतपूर्व मानकीकृत रूप और एकरूपता हासिल की. इसके साथ ही दोनों लिपियों की जुदाई सम्पन्न हो गई. परन्तु, आज भी दोनों में से कोई एक लिपि जानने वाले व्यक्ति के लिए दूसरी लिपि पढ़ पाना बहुत कठिन नहीं है. इससे दोनों लिपियों की सदियों पुरानी सोहबत और सहोदर रिश्ते का पता चलता है.
अब नन्दीनागरी लिपि. विजयनगर शासकों ने संस्कृत भाषा में लिखित अपने ताम्रपत्र अनुदानों और यथा अवसर शिला आभिलेखों के लिए भी व्यापक रूप से उत्तर भारत की देवनागरी के जिस दक्खिनी रूप का प्रयोग किया, उसे नन्दीनागरी कहते हैं. चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के नगर (=महानगर) पाटलिपुत्र का दक्खिनी प्रतिरूप था पहले वाकाटक साम्राज्य और बाद को राष्ट्रकूटों का प्रसिद्ध स्थल नन्दीनगर (नान्देड़). इसी स्थल से मूलत: सम्बद्ध नन्दीनागरी में बीती सदियों में ताड़पत्रों पर संस्कृत पोथियां लिखी जाती रहीं. दक्षिण भारत के प्राच्य विद्या पुस्तकालयों में इस प्रकार की पाण्डुलिपियां भरी पड़ी हैं.
नन्दीनागरी लिपि का उद्भव भारत के मध्य प्रान्त में प्रचलित नागरी के एक रूप से हुआ है. दक्खिनी नागरी के इस रूप को स्पष्टत: दर्शाने वाला सम्भवत: सबसे पुराना शिला अभिलेख राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग (754 ई.) का सामांगड़ अनुदान है. दक्खिन में पाए जाने वाले ग्यारहवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों, बल्कि उससे तनिक पहले के शिला अभिलेखों में भी नागरी का यह दक्षिण भारतीय रूप पूर्णत: विकसित दिखाई देता है. वर्ण-विन्यास की सामान्य समरूपता के कारण सरसरी तौर पर नन्दीनागरी और देवनागरी लिपियां मिलती-जुलती दिखाई देती हैं. लेकिन, बारीकी से देखें तो इनके बीच अन्तर बड़े स्पष्ट हो जाते हैं, विशेष्ा रूप से कुछ ख़ास वर्णों में, जैसे मन्द उच्चरित ओष्ठ्य ‘ब’ और ‘भ’, तालव्य ऊष्म ‘श’. अन्तिम मकार और वर्ग अनुनासिकों तक के लिए वैकल्पिक अनुस्वार का प्रयोग इस लिपि की ठेठ खा़सियत है. तेलुगु-कन्नड़ लिपियों में यह अनुस्वार दो व्यंजनों के बीच उसी पंक्ति में अंकित किया जाता है. नन्दी- नागरी की यह विशेषता देवनागरी के प्रभाव स्वरूप है. यही नहीं, तेलुगु-कन्नड़ लिपियों में अर्धाक्षर के प्रयोग की पद्धति देवनागरी पद्धति से उल्टी है. ह्रस्व-दीर्घ ‘ए’, ह्रस्व-दीर्घ ‘ओ’ रेफ़युक्त ‘र’ के लिए स्वतन्त्र-एकल लिपिचिह्न और ‘ळ’ तेलुगु-कन्नड़ की अतिरिक्त उपलब्धियां हैं, जबकि इनके ककहरा में देवनागरी की तरह संयुक्त व्यंजन ‘ज्ञ’ स्वतन्त्र वर्ण के रूप में सम्मिलित नहीं है.
नन्दीनागरी की चर्चा का समापन करते हुए इस ठेठ लिपि के दो-दो शिला अभिलेखों के विवरण देना चाहेंगे. पहले दो, दक्षिण भारत के बाहर से. ये दिलचस्प अभिलेख बताते हैं कि विजयनगर शासकों के अलावा भी इन्हें चाहने वाले पहले से रहे हैं.
पहले दोनों शिला अभिलेख प्रसिद्ध तीर्थ गया में मिले हैं. यहॉं गौरी नामक महिला ने अपने मृत पति मल्लिकार्जुन का श्राद्ध कराया. मल्लिकार्जुन वरंगल के काकतीय प्रतापरुद्र का समकालीन था. यह शिला अभिलेख गौरी ने लिखवाया था. बारहवीं सदी के इस लेख में कुछ वर्णों का झुकाव स्पष्टत: नन्दीनागरी की ओर है.
दूसरा अभिलेख होयसला नरसिंह तृतीय (तेरहवीं सदी) के काल का है. कन्नड़-भाषी क्षेत्र के एक भक्त ने गया में ही एक मठ का निर्माण कराया. लेख में इसीके विवरण हैं. इस अभिलेख का सबसे दिलचस्प आकर्षण इसकी भाषा है -- कन्नड़ और लिपि है नन्दीनागरी ! बिरला संजोग. गद्य में लिखित पच्चीस पंक्तियों के इस कन्नड़ अभिलेख का समुपयुक्त समापन कन्नड़ लिपि में देवरस नामांकित पंक्ति से होता है.
दो अन्य नन्दीनागरी अभिलेख दक्षिण भारत में प्राप्त ताम्र-पत्र अनुदान हैं. इनमें से एक 18 अप्रैल 1524 ईस्वी दिनांकित श्री कृष्णराय का पेय्यलबण्डा अनुदान है. संस्कृत छन्द और ठेठ देवनागरी लिपि में यह विजयनगर शासकों के समय का है. लेकिन, इसकी 88 से लेकर 98 तक ग्यारह पंक्तियां नन्दीनागरी में लिखित कन्नड़ गद्य है. तेलुगु-कन्नड़ लिपि में लिखित ‘श्री विरूपाक्ष’ से यह अभिलेख समाप्त होता है.
दूसरा ताम्र-पत्र 21 अप्रैल 1613 ईस्वी दिनांकित वेंकटपति देव प्रथम का कन्दुकुरु अनुदान है. इसमें तेलुगु अंकों का प्रयोग किया गया है. अभिलेख तेलुगु वर्णों में लिखित ‘श्री वेंकटेश’ पर समाप्त होता है. इसमें तिरुपति के भगवान वेंकटेश्वर को भूमि और खेतों का अनुदान निर्दिष्ट है.
इस प्रकार दक्षिण भारत की लिपियां ही हैं, जो भारतीय संस्कृति के कथित एकत्व को उजागर और सम्पुष्ट करती हैं. शायद इसीसे कुछ लोग यह विचारणीय उद्गार व्यक्त करते हैं कि भारतीय संस्कृति राष्ट्र के एक कोने से दूसरे कोने तक एक है, लेकिन विभिन्न प्रान्तों में उसकी अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से हुई है.
-- बृहस्पति शर्मा
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