भारत में मन्दिर निर्माण :
आन्ध्र की काकतीय कला और स्थापत्य
भारत में सामुदायिक धार्मिक स्थापत्य की परम्परा वैदिक काल (ईसा पूर्व 1500-700) से चली आ रही है. वैदिक धर्म में आस्था रखने वाले इतिहासकार मानते हैं कि ईश्वर की प्रार्थना-उपासना के लिए मन्दिर की इमारत का निर्माण यज्ञ-वेदी को केन्द्र में रखकर किया जाता था. यह एक सादा-चौकोर कक्ष होता था. इससे एक और मण्डप जुड़ा होता था. इसकी लक्कड़-फूस की छत साधारणत: क्रमश: शंक्वाकार और सपाट होती थी. गुप्त काल (चौथी से छठी ईस्वी) तक आते-आते इस सीधी-सादी कच्ची इमारत ने मन्दिर के अत्यन्त बुनियादी ढॉंचे का शाश्वत रूप ग्रहण कर लिया. इस पर कारीगरी की मज़बूती, बारीकियां, नज़ाकत, सजावट, स्थापत्य तथा आकृतिमूलक अलंकरण छाता चला गया.
इतिहासकारों का दूसरा वर्ग वैदिक काल में संरचनात्मक देव मन्दिरों (Structural Temples) के अस्तित्व से इनकार करता है. ऐसे सबसे प्रारम्भिक मन्दिर के अवशेष एक फ्रेंच पुरातत्वविद् ने सन् 1951 में सुर्ख़ कोतल, अफ़गानिस्तान में खोजे थे. यह मन्दिर ईश्वर को समर्पित नहीं है. यह राजा कनिष्क (127-151 ईस्वी) को समर्पित है.
इस्लाम की मान्यता के अनुसार बादशाह अल्लाह का साया (ज़िल्लेसुबहानी, ज़िल्लिल्लाह, ज़िल्लेइलाही) होता है तो हिन्दू मान्यता के अनुसार राजा, ईश्वर का प्रतिनिधि. बादशाह और राजा दोनों के ही विशिष्ट निवास होते हैं -- महल. फिर क़ायनात के शहंशाह और ब्रह्माण्ड के राजाधिराज का अनन्य निवास तो निरपवाद रूप से होना चाहिए. विशेष्ा रूप से तब, जब मनुष्य ने वैदिक काल के अन्तिम दौर में ईश्वर की कल्पना को संकल्पना में परिवर्तित करके ‘मूर्तिमान’ कर दिया. इतिहासकार के.ए.नीलकण्ठ शास्त्री कहते भी हैं, ‘तमिल भाषा में मन्दिर और महल दोनों के लिए एक ही संज्ञा है ‘कोयिल’ और इसी प्रकार संस्कृत में ‘प्रासाद’.
कृष्णा नदी की उपत्यका में 150 ईस्वी के आसपास बुद्ध प्रतिमा की रचना के बाद तो पूजा-स्थल के रूप में चैत्य-स्तूपों के निर्माण की शृंखला ही चल पड़ी. बौद्ध और जैन सम्प्रदायों ने आन्ध्र वासियों की सृजनात्मक प्रतिभा की जैसे भूख जगा दी. आन्ध्र वासियों ने रोचक परम्पराओं का सूत्रपात करके बौद्ध निर्माण-कला में बडा़ भारी योगदान दिया. आन्ध्र के कारीगरों ने इतने विशाल चैत्य खड़े कर दिए कि उन्हें ‘चैत्य शैल’ की संज्ञा दी गई. इनके बनाए भीमकाय स्तूप उत्कृष्ट अभियान्त्रिकी कौशल के महान स्मारक हैं. ये चैत्य वृत्तायतन और शालायतन (गजपृष्ठ) दोनों ही प्रकार के होते थे. माना जाता है कि परवर्ती पौराणिक (=ब्राह्मण=हिन्दू) मन्दिर इन्हीं चैत्य-स्तूपों के प्रतिदर्श (Model) पर विकसित हुए. श्री नीलकण्ठ शास्त्री कहते हैं, ‘अब यह तथ्य सर्वमान्य है कि मन्दिर-भक्ति मूल वैदिक धर्म का हिस्सा नहीं है’.
आगे श्री एल.एम.जोशी कहते हैं, ‘इस समय तक यज्ञानुष्ठान के स्थान पर मन्दिर-अनुष्ठान लोकप्रिय हो गए थे.’ यहॉं अमरावती का उल्लेख प्रसंगोचित होगा. आनन्द कुमारस्वामी ने इसे 200 ईस्वी पूर्व निर्मित स्तूप माना है. अमरावती से ही प्राप्त एक पूजित मूर्ति बताती है कि स्तूपयुक्त मन्दिरों का निर्माण भक्ति-स्थल के रूप में किया जाता था.
श्री बी एस एल हनुमन्त राव बताते हैं कि एकदम प्रारम्भिक हिन्दू मन्दिरों के अवशेष आन्ध्र में नागार्जुनकोण्डा घाटी में पाए गए हैं -- ऐन बौद्ध क्षेत्र के बग़ल में. श्री एन रमेशन के अनुसार यह भगवान शिव को समर्पित ध्वजस्तम्भ युक्त पुष्पभद्रस्वामी मन्दिर है. भारत भर में यही प्राचीनतम मन्दिर होना चाहिए. मन्दिर स्थापत्य और मन्दिरगत मूर्तिशिल्प की परम्परा पल्लव सम्भवत: यहीं से महाबलिपुरम् तथा चालुक्य अपने साथ वातापी (बादामी) लेते गए थे.
नीरद सी.चौधरी के अनुसार सबसे पुराने सामुदायिक मन्दिर(Community Temple) चौथी-पॉंचवीं सदी के हैं. छठी से सोलहवीं सदी के बीच मन्दिर स्थापत्य का बीजभूत विकास हुआ. संरचनात्मक मन्दिर निर्माताओं ने सातवीं से ग्यारहवीं सदी के दौरान मन्दिर के रूप को शैलीगत सौन्दर्य के शिखर पर पहुँचा दिया. हिन्दू मन्दिरों के विकास का चरण विभिन्न राजवंशों के उत्थान-पतन से जुडा़ रहा -- विशेष्ा रूप से दक्षिण भारत में, देखें-
पश्चिमी चालुक्य 543-753 ईस्वी बादामी, पट्टदकल
राष्ट्रकूट 753-982 ईस्वी ऐहोळे, एलोरा, एलिफेंटा
पल्लव 600-900 ईस्वी महाबलिपुरम, कांचीपुरम्
पूर्वी चालुक्य सातवीं से ग्यारहवीं सदी
चोल नवीं से तेरहवीं सदी
पाण्ड्य सातवीं से सोलहवीं सदी
यहीं यह संकेत भी सूचनात्मक होगा कि मौर्य-काल से ही शैलभंजित (Rock-Cut) मन्दिरों की समान्तर परम्परा आठवीं सदी तक निर्विघ्न रूप से आगे बढ़ती रही. आन्ध्र में नेल्लूर के पास भैरवकोण्डा में कोण्डवीडु सामन्तों के बनवाए हुए और उण्डवल्ली के शैलभंजित मन्दिर भी सातवीं-आठवीं सदी के ही हैं.
उत्तर भारत में जिस समय संस्कृत-प्राकृत के विराट क्षितिज से हिन्दी भाषा का चन्द्रोदय हो रहा था, लगभग उसी समय दक्षिण भारत के ‘आन्ध्रदेश’ में काकतीय नामक राजशक्ति का सूर्योदय हो रहा था. ग्यारहवीं सदी के तीसरे दशक से पहले 150 वर्ष तक सामन्तों के रूप में और फिर अगले पौने दो सौ बरस तक सम्प्रभु नरेशों के रूप में --कुल 325वर्ष-- इस राजवंश ने मन्दिर निर्माण में स्थापत्य और मूर्तिशिल्प का अद्भुत शृंखलाबद्ध विकास किया.
मन्दिरों के इन दोनों पहलुओं में काकतीय स्थपति और शिल्पी दोनों ने ही बला की सौन्दर्य-चेतना का प्रदर्शन किया है.
काकतीय स्थापत्य और मूर्तिकला का दृश्य सौन्दर्य
पूर्वी दक्खिन के इस राजवंश ने अपने काल के प्रमुख कलात्मक घटनाक्रम को इस समय जोड़कर देख सकने के लिए हमारे सामने स्थापत्य, मूर्तिकला और चित्रकला तक का भारी खज़ाना छोड़ रखा है. बहुत ही उपयुक्त संख्या में आभूषणों से सजी पूरी ऊँचाई पर पहुँची हुई छरहरी मानव आकृतियां जैसे शातवाहन और ईक्ष्वाकु राजवंशों से होकर पल्लव, चोल और अन्य कलमों से गुज़रते हुए न केवल काकतीय कला की पहचान बन गई हैं, बल्कि वे दक्षिण भारत के पूर्वी तट की कलात्मक शैलियों को जोड़ने वाली कड़ी भी हैं. काकतीय कला को देखने पर यह बात अच्छी तरह उभरकर आती है कि इसने अपने आपको स्थानीय परम्परा की जड़ों से कभी कटने नहीं दिया. अलावा इसके, काकतीय शैली और दक्खिन की परवर्ती हिन्दू शैलियों में साम्य भी नज़र आता है. यह इस बात का संकेत है कि काकतीय अपनी कला में दक्षिण भारत के अन्य राजपरिवारों से राजनीतिक सम्बन्ध भी कला के माध्यम से प्रतिबिम्बित करना चाहते थे. इन राजपरिवारों में हम कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यों का नाम ले सकते हैं, जिनका प्रभुत्व आन्ध्र प्रदेश क्षेत्र तक पहुँच गया था. भारत की बहुतेरी अन्य कलाओं के विपरीत, सुखद आश्चर्य की बात है कि बहुसंख्यक काकतीय स्मारकों के निर्माण की सही-सही तारीखों के शिला अभिलेख उपलब्ध हैं. फिर इनमें से बहुत सारे स्मारक सघन अध्ययन के लिए अनुसन्धाताओं की बाट जोह रहे हैं. काकतीय स्मारक ग्यारहवीं-बारहवीं सदी की दक्खिनी इमारतों का भली प्रकार संजोया हुआ अभिलिखित अनुक्रम पेश करने में समर्थ हैं और यही सर्वोत्कृष्ट निर्माण-गतिविधियों का काल भी है, तो ये स्मारक आज के दिन ऐतिहासिक-वैज्ञानिक दृष्टि से अपने अध्ययन का तकाज़ा करने वाले प्रबल अभ्यर्थी हैं.
काकतीय मन्दिरों की योजना सामान्यत: इकहरे देवालय वाली है या फिर तीन देवालय वाली त्रिकूटाचल. प्रारम्भिक काकतीय राजधानी हनुमकोण्डा स्थित तथाकथित सहस्र स्तम्भ मन्दिर त्रिकूट प्ररूप दर्शाता है. काकतीय राजवंश के नरेश रुद्र प्रथम ने इसे सन् 1162 में तीन देवताओं को समर्पित किया था : रुद्रेश्वर (शिव), वासुदेव (विष्णु) और सूर्यदेव. एक शिलापट्ट पर इसका अभिलेख मन्दिर ही में मौजूद है. इमारत के दो प्रमुख हिस्से -- वियुक्त मण्डप और वास्तविक मन्दिर एक अपेक्षाकृत संकरे चबूतरे के ज़रिए जुड़े हैं. इस पर नन्दी की मूरत विराजमान है. ‘सहस्र स्तम्भ मन्दिर’ नाम गुमराह करने वाला नाम है, क्योंकि वास्तविक मन्दिर में इतने सारे स्तम्भ हैं ही नहीं. वियुक्त मण्डप में भी स्तम्भ तीन सौ से कम ही होंगे. अलबत्ता, रुद्रेश्वर देवालय अवश्य श्लिष्ट है -- रुद्र राजा भी और रुद्र शिव भी. वियुक्त मण्डप और वास्तविक मन्दिर की दीवारों पर गुम्फित गढ़तें नजा़कत से तराशी गई हैं तो पादांग (Plinth) और दीवारों दोनों पर ही प्रक्षिप्त चित्र. मन्दिर के मुख्य मोटिफ़ (Motif) आलंकारिक मूर्तिशिल्प विहीन नहीं हैं. इनमें लघुकाय मन्दिर शिल्पों समेत स्थापत्य रूपों का समावेश किया गया है. ये बहुत सारी अन्य दक्खिनी शैलियों की याद दिलाते हैं. दुर्भाग्यवश, तीनों ही देवालयों का ऊपरी ढॉंचा नदारद है. इसलिए इनकी मूल बाह्याकृति अज्ञात ही बनी रहेगी. अलबत्ता, भीतर की ओर उत्कीर्ण शिल्प लबालब समृद्ध है. बहुत ही नाजु़क और परिनिष्ठित प्रतिमाएं सिरजने के लिए जैसे एक-एक पत्थर की सतह को चिकना-चमकाकर तराशा गया है. द्वारमण्डप की ओर से तीनों देवालयों से जुड़े केन्द्रीय मण्डप पर नज़र डालें तो तक्षण शिल्प की भरपूर सज्जा के दर्शन हाते हैं. विशेषत: ठेठ दक्खिन की अनेक उप-शैलियों का निर्वहण करते स्तम्भ-अभिकल्प (Design) इस कारीगरी के महत्वपूर्ण तत्व हैं. उत्तर भारतीय विविध शैलियों के बहुतेरे मन्दिरों की तरह, दक्षिण में प्रारम्भिक पश्चिमी चालुक्य परम्परा का निर्वाह करते मन्दिरों की तर्ज़ पर अन्तश्छद (Ceiling) भी विस्तार से तराशी गई है -- मुख्य रूप से ज्यामितीय और बेल-बूटे के प्रतिमान (Patterns). तराश का सबसे सुन्दर काम तीनों देवालयों के प्रवेश-मार्ग में दिखाई देता है, जिनके अपने बाहरी भित्तिस्तम्भ (Pilaster) युक्त द्वारमण्डप हैं. ये हमें मुखशाला (Antechamber) होते हुए देवालय के द्वार पर पहुँचा देते हैं. तीनों देवालयों के बीच सन्धि-स्थलों पर निर्मित मुखमण्डप (Porch) से होकर मन्दिर के केन्द्रीय मण्डप में यथेष्ट रोशनी दाखि़ल होती है.
हनुमकोण्डा से 60 कि.मी. उत्तर-पूर्व में छोटा-सा गॉंव भर रह गया है पालम्पेट. काकतीय काल में इसका जीवनावश्यक महत्व था. सन् 1213 के एक शिला अभिलेख से पता चलता है कि इसे काकतीय नरेश गणपति के सेनापति रेचेर्ल रुद्र ने बसाया था. इसी अभिलेख से पता चलता है कि पालम्पेट का चर्चित-प्रसिद्ध रामप्पा मन्दिर सेनानायक रुद्र ने अपने नरेश गणपति देव को उपहार में दिया था. इसे रुद्र के नाम पर श्लिष्ट रूप में रुद्रेश्वर भी कहते हैं -- शिव के रुद्र रूप को समर्पित. प्राय: कहा जाता है कि रामप्पा मन्दिर उत्कृष्ट दक्खिनी स्थापत्य का प्रतिनिधि है, जबकि यह पूरी तरह से ठेठ काकतीय इमारत नहीं है. दीवार से घिरे लम्बे-चौड़े अहाते के भीतर रामप्पा एकल-देवालय वाला मन्दिर है. अहाते में बहुत सारी छोटी इमारतें भी हैं. इस पूर्वाभिमुख मन्दिर में स्तम्भों पर आधारित मण्डप हैं और हैं तीन ओर निकले हुए बड़े-बड़े मुखमण्डप, मुखशाला ओर वास्तविक मन्दिर. ये सभी एक विशाल स्वस्तिकाकार पादांग पर टिके हैं. बाहर की ओर से मुखमण्डप और केन्द्रीय मण्डप अपने प्रक्षेपण और सपाट छत के साथ तीखे कोणाकार नज़र आते हैं और पश्चिम में ईंटों से निर्मित वितान से विपर्यास (contrast) उत्पन्न करते हैं. दक्षिण भारत के अन्य उदाहरणों की तरह शिखर उत्तर और दक्षिण भारतीय रूपों का संगम प्रस्तुत करता है -- इसमें दक्षिण भारतीय शिखरों के सोपानित क्रम के साथ उत्तर भारतीय शिखरों की जटिलता, बारीकियां और समग्र आकृति का समन्वय जो किया गया है.
इस मन्दिर की सबसे उल्लेखनीय विशेषता है इमारत के भीतर और बाहर उत्कीर्ण कला की गुणवत्ता, विशेष रूप से द्वारमण्डप पर और छत के नीचे. अन्तत: प्रारम्भिक पश्चिमी चालुक्य पद्धति को जारी रखते हुए पालम्पेट रामप्पा में नजा़कत से तराशी हुई, महीनता से प्रसंस्कृत और शीशे की तरह चमकाई हुई नारी आकृतियां अपनी मिसाल आप हैं. इन लगभग आदमकद मूर्तियों को मदनिका (Bracket Figures) कहते हैं. ये सभी विभिन्न नृत्य मुद्राओं और भंगिमाओं में लीन हैं. यौवन इनसे फूटा पड़ रहा है. देह का अनुपात किसी भी आधुनिक विश्व सुन्दरी को लजा दे. इस समय तक सुन्दर स्त्री का मोटिफ़ ‘अलसा कन्या’ के रूप में शास्त्रबद्ध हो गया था. सम्भवत: इस समय तक रची जा चुकी स्थापत्य संहिता ‘शिल्प प्रकाश’ ऐसी महत्वपूर्ण षोड़श कन्याओं का निरूपण करती है. इस ग्रन्थ के अनुसार अलसा तो स्थापत्य की प्राण है. यह मान्यता दृढ़ रूप ले चुकी थी कि स्त्री के बिना मन्दिर निष्फल होता है. यहॉं एक-एक मदनिका जैसे एक-एक दिशा से मन्दिर में जीवन का संचार कर रही है. सभी असाधारण रूप से छरहरी (आन्ध्र प्रान्त का शैलीगत अधिमान) कमनीय, रमणीय, अत्यन्त सुचिक्कण त्वचा, जिसे आभूषणों और परिधान की बारीकी से अलग दृश्यमान रूप दिया गया है. बहुत सारी मूर्तियों की मुद्राएं इतनी ज़्यादा अनुशासित रखी गई हैं कि इनसे कलाकारों को पूरे दक्षिण एशिया में प्रचलित समकालीन अन्य स्तरीय शैलियों के ज्ञान का पता भी चल जाता है. इन मूर्तियों के साथ सामान्यत: बहुत बारीकी से तराशे हुए लता-कुंज या लताएं जुड़ी हैं. इससे ठेठ काकतीय संगतराश की बारीकियों की अभिव्यक्ति में रुचि ज़ाहिर होती है.
मन्दिर के भीतर स्तम्भित मण्डप की परिधि पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लघु देवालयों से युक्त बेंचें इसकी आकर्षक विशेषता है. एक लघु देवालय में गणेश की मूर्ति है तो दूसरे में दुर्गा का महिषासुर मर्दिनी रूप. शैली में ये आकृतियां मदनिकाओं से मिलती-जुलती ज़रूर हैं, लेकिन इनके रूप में वह लोच नहीं है. दुर्गा की अनेक पूर्ववर्ती मूर्तियों के विपरीत इस झाँकी में भैंसा बहुत दबा-दबा है और विजयिनी दुर्गा का वर्चस्व पूरी रचना पर छाया हुआ है. भवानी के सिर के पीछे नुकीले कोण वाला चाप अनेक काकतीय शिल्प कृतियों में दिखाई देता है. हॉं, वह प्राय: अलंकृत होता है, सादा नहीं. मन्दिर की अन्तश्छद को भी सघन रूप से तराशा गया है.
थोड़े में बहुत कहना हो तो रामप्पा मन्दिर की खूबसूरती को बयान करने की कोशिश शब्दों की असमर्थता बयान करने जैसी है. भारत का यह एकमात्र मन्दिर है, जो अपने निर्माता नरेश-नायक के नाम से नहीं, बल्कि अपने स्थपति के नाम से जाना जाता है.
अभी यह लेख लिखा ही जा रहा था कि 28 जुलाई 2011 को Times of India ने मुख-पृष्ठ पर एक दु:खद खबर छापी. गोदावरी नदी पर निर्माणाधीन देवदुला सिंचाई परियोजना के लिए रामप्पा मन्दिर से महज़ आठ सौ मीटर की दूरी पर गुज़रती सुरंग की खुदाई के कारण मन्दिर जगह-जगह इस क़दर दरक गया है कि इसे गिरने से शायद भगवान भी न बचा सकें. गॉंववालों का कहना है कि सुरंग के लिए डायनामाइट के इस्तेमाल से मन्दिर की दीवारें, छत, स्तम्भ, शहतीर सभी तड़क गए हैं और बालुकाधारित तकनीक(Sandbox Technique) से बनी नींव बुरी तरह हिल गई है. इक्कीस किलोमीटर लम्बी इस सुरंग के अलावा, रामप्पा से धर्मसागर के बीच 58 किलोमीटर लम्बी एक और सुरंग पर भी कार्य चल रहा है. केन्द्रीय जल आयोग से सुरंग खोदने की अनुमति न मिलने के बावजूद राज्य सरकार ने लागत घटाने के लिए यह रास्ता अख्ति़यार किया. Times of India की रपट के बाद सुरंग का काम रोक ज़रूर दिया गया, लेकिन इसे जो अपूरणीय क्षति पहुँचनी थी, पहुँच चुकी है.
परवर्ती दक्षिण भारतीय संस्कृतियों पर काकतीय कला का प्रभाव
काकतीय राजवंश के पतन (सन् 1323) और विजयनगर साम्राज्य के उदय (सन् 1336) में केवल तेरह वर्ष का अन्तराल है. समझा जाता है कि विजयनगर सम्राज्य के संस्थापक हरिहर-बुक्का बन्धु अन्तिम काकतीय नरेश प्रतापरुद्र के राजकर्मी थे. काकतीय वंश के पतन के बाद वे भागकर काम्पिली चले गए थे. उनके पलायन से लेकर विजयनगर साम्राज्य की नींव डालने तक के रोमांचक विवरण इतिहास में मिल जाते हैं. अस्तु.
काकतीय और विजयनगर साम्राज्य में भौगोलिक, भाषिक और सांस्कृतिक साम्य है. विजयनगर का उत्तर-पूर्वी इलाका तो ख़ास तौर से तेलुगु और कन्नड़ भाषा-भाषियों का मिला-जुला इलाका रहा है. यहॉं के नागरिकों की बहुत सारी सांस्कृतिक-धार्मिक परम्पराएं साझी हैं. यह कहना अनुचित न होगा कि विजयनगर साम्राज्य, काकतीय सांस्कृतिक परम्परा का विस्तार ही है. साहित्य, कला और स्थापत्य में ऐसे अनेक तत्व हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि ये तो काकतीय प्रान्त से चलकर विजयनगर के सॉंचे में ढल गए हैं. क्या मन्दिर-निर्माण, क्या स्थापत्य-शैली और क्या स्थापत्य-अलंकरण --विजयनगर ने सभी कुछ बहुत दूर-दूर तक काकतीय कला-स्थापत्य से ग्रहण किया है. काकतीय स्थापत्य परम्परा में अनेक स्तम्भों वाले जिन मन्दिरों को ‘सहस्र स्तम्भ’ कहा जाता है, वैसे ही मन्दिरों को हम्पी में ‘हजारराम’ मन्दिर कहा जाता है. अनेक स्तम्भ वाले मण्डपों की अवधारणा का उद्भव काकतीय स्थापत्य परम्परा की धरोहर है. निष्कर्षत: कह सकते हैं कि विजयनगर, काकतीय सौन्दर्य-परम्परा का औरस वारिस है.
-- बृहस्पति शर्मा
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आदरणीय वाचस्पति जी, आन्ध्र की काकतीय कला और स्थापत्य पर लिखा हुआ यह निबन्ध काफी शोधपरक है, अतएव ज्ञामवर्द्धक भी। साधुवाद। ब्लॉग जगत में अपनी उपस्थिति और पहिचान बनाने के लिए अन्य ब्लॉगरों के घर पधारना आवश्यक है। यहाँ देखा है कि रचना की गुणवत्ता से अधिक उनके घर आपकी उपस्थिति अधिक आवश्यक है।
ReplyDeleteआपके ब्लॉग का पता देने के लिए श्री होमनिधि जी को हार्दिक आभार।
नमस्कार सर.
ReplyDeleteआपके ब्लॉग का नाम अच्छा है.
बहुत बढ़िया जानकारी देता है यह लेख. इस क्षेत्र में कार्यरत शोधार्थियों के लिए हिंदी में ऐसी प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद.
ऐसे लेख लिखने के लिए मेरी समझ से बड़ी ही गहन अध्ययन और सूक्ष्म शोध दृष्टि की आवश्यकता होती है.
और, मैं यहाँ आपकी शोधपरक दृष्टि व धैर्य की पुनः प्रशंसा करना चाहूंगा.
पूरे आदर के साथ, मेरी बात को अन्यथा न लें.
यह केवल मेरा सुझाव मात्र है आप चाहे तो अपनाएं या अस्वीकार करें.
ब्लॉग पर इतने बड़े लेख प्रेषित न करके इन्हें छोटे-छोटे धारावाहिकी के रूप में प्रेषित करने से पाठक की उत्सुकता बनी रहेगी और पढ़ने में भी आसानी होगी. यदि मुझसे कोई भूल हो गई हो तो क्षमा......