Saturday 14 April 2012

एल्ल्म्मा की बेटियां




"हाँ, हाँ, आती हैं, खुशी की घड़ियां भी आती हैं," रानी बाई बोली. "सोहबत किसे भली नहीं लगती? खूबसूरत, जवान मर्द, फिर शरीफ़ भी ..."
बाहर झील पर आँखें पसारते, अपने आप मुस्कुराते हुए रानी बाई ने पल भर साँस ली. फिर उसके चेहरे पर स्याह घटा छा गई. "लेकिन ज़्यादातर अनुभव भयंकर होता है. यहाँ के किसान न, मुम्बई के छोरों की तरह नहीं हैं."
"फिर एक दिन में आठ-आठ," रानी की सहेली बोली, "कभी-कभी तो दस-दस. अनजान लोग. यह भी कोई ज़िन्दगी है?"
"एक गाना है," रानी बोली, "हमारे साथ सोता हर कोई है, लेकिन ब्याहता कोई नहीं. गले लगाने वाले बहुतेरे, लेकिन रखवारा कोई नहीं."
"मेरे बच्चे रोज पूछते हैं, ‘मेरा बाप कौन है,’ पेशा करने वाली माँ किसी बेटे को नहीं सुहाती."
 "एक बार मैंने अपने बेटे के साथ साझा बैंक खाता खोलने की कोशिश की," रानी ने बताया. "हम फारम भरवाने लगे तो बाबू ने पूछा, "पिता का नाम?" मेरा बेटा भड़क गया. बोला, "मुझे इस तरह पैदा करने की क्या ज़रूरत थी?"
"अफ़सोस हमें यह काम करना पड़ता है. लेकिन, और चारा भी क्या है?"
"हमें नौकरी कौन देगा? हम सब अनपढ़ हैं."
"और आने वाला वक्त," कावेरी बोली, "क्या उम्मीद करें?"
"जब खूबसूरती साथ छोड़ देगी और जिस्म बेढब हो जाएंगे तो हम सब वीराना हो जाएंगी."
"अगर हम बुढ़ापा देखने और बेढब दिखाई देने के लिए जीती रहीं तब न," कावेरी बोली, "बहुत सारी तो मर रही हैं."
"हमारी बिरादरी में एक पिछले हफ़्ते मरी. दो और पिछले महीने."
“मेरे गाँव में चार लड़कियों ने छुटपन में ही दम तोड़ दिया,” कावेरी बोली, “मेरे सगे भाई तक को बीमारी है. वह ट्रक ड्राइवर था. सो, सड़क किनारे की सारी लड़कियों को जानता था. अब, बस, पीता …2
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हुआ घर में पड़ा रहता है. कहता है, क्या फ़र्क पड़ता है? कैसे भी मरना ही है.”
वह घूमकर मुझसे रूबरू हो गई. “उसे जो भी मिल जाए पीता रहता है. अगर कोई कहे कि मूत में अल्कोहल है, तो वह मूत भी पी लेगा.”
”जीना मुश्किल है, भई.”
कावेरी ने रूखी हँसी हँसी. वह बोली, “अगर मैं किसी घने पेड़ के नीचे बैठकर आपको अपनी दु:खबिताई सुनाने लगूँ तो उस पेड़ की पत्तियां आँसुओं की तरह टप-टप झड़ने लगें. उसे बुखार और पेचिस लगी है.”
उसने पल भर साँस ली. “कैसा खूबसूरत आदमी था वह, सुन्दर चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें. अब वे आँखें सिमट गई हैं. चेहरा फोड़े-फुंसियों से ढँक गया है.”
“एल्लम्मा बिलकुल नहीं चाहती थी कि ऐसा हो,” रानी बाई बोली.
“देवी अम्मां खामोश है,” कावेरी बोली, “क्या मालूम उनके दिल में क्या है. वह हमारे बारे में क्या सोचती है, कोई नहीं जानता.”
“नहीं,” विश्वासपूर्वक सिर हिलाते हुए रानी बाई ने कहा, “देवी बराबर हमारा खयाल रखती है. जब हम मुसीबत में होते हैं, तो वह अपना हाथ बढ़ा देती है. कभी सपने में आती है, कभी अपने बच्चों के रूप में.”
“यह सब देवी नहीं कर रही.”
“यह सारा तमाशा तो दुनिया का है.”
“दुनिया और बीमारी.”
“ देवी हमारे आँसू सुखा देती है,” रानी बोली, “अगर आप पाक दिल से उसके पास जाओ तो वह आपका दु:ख-दर्द हर लेती है. वह इससे ज़्यादा क्या कर सकती है?”
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यह देवी एल्लम्मा ही थी, जिनके दर्शन के लिए मैं रानी  बाई और कावेरी के साथ सौदत्ती पहुँचा …3


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था. हम मोटरकार में बेलगाँव से सुबह-सुबह निकल पड़े थे. हम उत्तरी कर्नाटक के दक्षिणी पठार की ऊँचाई पर श्वेत कपास के हरे-भरे खेतों के बीच से गुज़र रहे थे. बचपन में ही देवी के नाम पर तजी हुई ये महिलाएं आम तौर पर माँ के मन्दिर के लिए धीमे चलने वाली बसों से चलती हैं. उन्हें यात्रा के लिए टैक्सी कार की सुख-सुविधा का मौका हाथ लग गया तो वे खुशी-खुशी हमारे साथ हो लीं.  
बरखा बिगत बहुत समय नहीं बीता था. मौसम नम-गरम था, आकाश उजला और निर्घन. सड़क दाढ़ीदार बरगद की पंक्तियों के बीच बिछी थी. दोनों ओर के वृक्षों की माँसल शाखाएं मिलकर जहाँ-तहाँ कमान-सी बनातीं. प्रतीत होता कि हम किसी काठ की सुरंग से होकर गुज़र रहे हैं. लेकिन, जब हम सौदत्ती के निकट पहुँचे तो यह वनस्पत सुरंग समाप्त हो गई. सड़क के दोनों ओर खेतों के पीछे से खुश्क, धूल धूसरित, ग़रीब गाँव झाँक रहे थे. पेड़ों और कपास के खेतों के बीच बाँस-बल्लियों की जगह सूरजमुखी की सूखी क्यारियों ने ले ली थी. भेड़ माटी सने ठूँठों के बीच बची हुई पत्तियां चर रहे थे. मोटा-ढाटा पहनी औरतें सड़क के किनारे चटाई पर प्याज की ढेरियां जमाए बेच रही थीं. जीवन का हाशिया यहाँ ज़्यादा संकरा तो ज़्यादा दृढ निश्चयी भी नज़र आता था.
कुछ समय बाद उमस के धुन्धलके को चीरकर पत्थर की लम्बी लोहित श्रेणी प्रकट हुई. यह पार्थिव श्रेणी सौदत्ती के विशाल शूकर पृष्ठ में विलीन हो गई और आस-पास की ऊँची-ऊँची चट्टानों के बीच से उठता हुआ एल्लम्मा मन्दिर का छाया-चित्र दृष्टिगोचर होने लगा. नीचे एक ओर को पारलौकिक-सी नीलिमा में लिपटी झील पसरी हुई थी. किंवदन्तियों के अनुसार कथा की प्रस्थान-स्थली यही है.
एल्लम्मा तप:शक्ति-पुंज ऋषि जमदग्नि की धर्मपत्नी थी. जमदग्नि स्वयं महादेव शिव के अवतार थे. वह अपने पिता काश्मीर नरेश के महायज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुए थे. अपने चार पुत्रों के साथ ये दम्पती  झील के किनारे कुटीर में निवास करते थे. ऋषि ने यहीं कष्टसाध्य तपस्या की थी. चौथे पुत्र के जन्म के बाद ऋषिवर ने पूर्ण संयम का व्रत धारण कर लिया.
एल्लम्मा अपने पति की अहर्निश सेवा करती. वह उनके पूजा-पाठ के लिए नदी से जल लाती. जल के लिए वह प्रतिदिन नदी की बालुका से घट गढ़ती. वह घट को एक जीवित सर्प की कुण्डली पर टिकाकर घर पहुँचती. एक दिन एल्लम्मा जल-घट लेकर चली तो उसकी दृष्टि एक गन्धर्व युगल पर अटक गई. गन्धर्व युगल नदी तीर पर रति क्रीड़ा में मगन था. एल्लम्मा को रति-सुख भोगे एक अरसा बीत चुका था. अत: इस दृश्य ने उसे बान्ध लिया. चट्टान के पीछे छिपकर झाँकते हुए एल्लम्मा ने रमणरत प्रेमियों के मस्ती में डूबे हुए कण्ठ-स्वर सुने. उसके मन में कामना जागी कि गन्धर्व की प्रेमिका के स्थान पर उसे होना चाहिए.
कामना के आकस्मिक ज्वार में उसने संयम खो डाला. वह प्रतिदिन की तरह अपने पति के लिए जल …4
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लेने बढ़ी तो यह देखकर काँप गई कि वह बालुका से घट नहीं गढ़ पा रही है. उसकी ध्यान-साध्य योग-शक्ति विलुप्त हो चुकी थी. वह जल लिए बिना कुटीर में लौटी तो जमदग्नि को माजरे का अन्दाज़ा लगाते देर न लगी. क्रोध में उन्होंने अपनी पत्नी को शाप दे डाला. बात की बात में एल्लम्मा के शरीर पर मवाद चूते फोड़े-फुड़िया छा गए. रोगग्रस्त एल्लम्मा भद्दी दिखाई देने लगी. उसे घर से निकाल दिया गया. वह दक्षिणापथ में भीख माँगती भटकने के लिए अभिशप्त थी. अब उसे जमदग्नि की सुन्दर जीवनसंगिनी के रूप में कोई नहीं पहचान सकता था.
कुछ समय बाद घर लौटकर एल्लम्मा ने क्षमा माँगी तो जम्दग्नि का क्रोध और भड़क उठा. उनके यज्ञ में विघ्न जो पड़ गया था. उन्होंने अपने पुत्रों को आदेश दिया कि परित्यक्त एल्लम्मा का सिर काट दें. पहले तीन पुत्रों ने उनका आदेश मानने से इनकार कर दिया, लेकिन चौथे और सबसे शक्तिशाली पुत्र परशुराम अन्तत: राज़ी हो गए. उन्होंने एक ही वार में अपनी माँ का सिर धड़ से अलग कर दिया. आज्ञाकारिता से प्रसन्न जमदग्नि ने परशुराम से वर माँगने को कहा.    
परशुराम आज्ञाकारी पुत्र ही नहीं, चहेते-लाड़ले भी थे. उन्होंने जमदग्नि से नि:स्संकोच कहा कि एल्लम्मा को पुनर्जीवित कर दें. ऋषि को अपने वचन का पालन करना ही था. उन्होंने एल्लम्मा को जीवन-दान तो दे दिया, लेकिन उनकी नाराज़गी अभी भी दूर नहीं हुई थी. उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह एल्लम्मा का मुँह कभी नहीं  देखेंगे. वह हिमालय की कन्दरा में तपस्या करने चल दिए. बाद में परशुराम भी वहीं पहुँच गए. इनकी कथा हमें महाभारत में मिलती है, जहाँ वह बहिष्कृत- परित्यक्त कर्ण को रहस्यमय मन्त्रों और अमोघ अस्त्रों का विद्या-दान करते गुरु के रूप में मिलते हैं.
यह कथा कड़वी और हिंसा से भरी है. जमदग्नि उस क्रोधी वर्ग के पुण्यात्मा हैं, जिनके आग्नेय और अक्षमाशील क्रोध से संस्कृत साहित्य भरा पड़ा है. इसके विपरीत, सीता की तरह एल्लम्मा सतीत्व पर ग़लत सन्देह की शिकार है. वह एक भली गृहिणी थी, फिर भी पति ने उसे घर से निकाल दिया, उसका सौन्दर्य छीन लिया, जीने के लिए भीख माँगने को अभिशप्त कर दिया और सभी ने उसे अस्वीकार कर दिया.
रानी बाई की नाईं किसी देवी-देवता को तजर्पित या उनसे विवाहित देवदासियां दु:ख और अन्याय में यह कथा सुनाती हैं डूबी. उन्हें विश्वास है, यह कथा बताती है कि उनकी देवी कितने आनन्द भाव से उनके भाग्य के प्रति सहानुभूति रखती है. आख़िर उनके जीवन और देवी के जीवन की कथा में फ़र्कही क्या है? वह भी तो विवाह के बन्धनों से परे प्रेम-अपराध के लिए अभिशप्त हैं. सन्तान से अस्वीकृत. एल्लम्मा की तरह सड़कों की ख़ाक छानने को तिरस्कृत. उपकार पाने को भीख माँगती दु:ख से विरूपित. पति के सहारे के लिए लाचार.                                               
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सौदत्ती पहुँचकर मुझे देवदासियों के जीवन में व्याप्त तनाव की छोटी-सी झलक देखने को मिली. मेरे कहने पर हम सब झील के पास एक चाय की दुकान पर पहुँच गए. यहीं ग़लती हो गई. सौदत्ती में देवदासियां ही देवदासियां हैं. देवी की महीना भर चलने वाली जात्रा के दौरान एल्लम्मा के पवित्र दिनों -–मंगल और शुक्रवार-– को वे बाज़ारों में प्राय: भीख माँगती हैं. उनके सिरों पर होती हैं देवी की छोटी-छोटी मूर्तियां. लेकिन, बीच बाज़ार में चाय की दुकान पर जाने का साहस वे अक्सर नहीं करतीं. और, यदि वे रानी बाई की नाईं चित्ताकर्षक हुईं तो हरगिज़ ही नहीं. गरमागरम मीठी-मीठी चाय के गिलास हम तक पहुँचने के काफ़ी पहले ही दूसरी मेज़ों पर बैठे किसानों ने रानी बाई को निशाना बनाकर गपशप शुरू कर दी थी.
वे सभी किसान कपास बेचने के लिए गाँवों से बाज़ार आए हुए थे. अच्छे दाम पाकर वे अब मज़े लेने के मूड में थे. कावेरी और रानी बाई दोनों ही के माथे पर सुहाग का लाल बिन्दा चस्पां था. फिर भी, रानी बाई का मुट्टू (लाल-सफ़ेद मनकों वाला देवदासी कण्ठहार), उसके आभूषण, पुता हुआ चेहरा और भरी-पूरी रेशमी साड़ी उसकी असलियत बता रहे थे. कावेरी अब बूढ़ी नहीं तो भी बूढ़ी जैसी तो दिखाई ही देती थी. दरअसल, वह उम्र में मुझसे चन्द बरस ही बड़ी होगी –-पचास के करीब. यह ज़रूर दिखाई देता था कि वह कभी सुन्दर रही होगी, लेकिन ज़िन्दगी की रुखाई और ढेर सारे दु:खों ने उसे वक़्त से पहले ही महतारी में तब्दील कर दिया था. उस पर अब किसीका ध्यान नहीं जाता था.
रानी बाई की बात अलग थी. उम्र में वह कावेरी से कम से कम दस साल छोटी लगती थी -–चालीस को छूती हुई. अभी वह निर्विवाद रूप से लम्बी, छरहरी और खूबसूरत थी. पुता हुआ भारी चेहरा, भरी हुई गेहुँआ देह और अपनी ओर खींचने वाले पतुरियाई लटके-झटके. गँवई हिन्दू औरतों से उम्मीद की जाती है कि वे नज़र नीची रखें, जबकि रानी बाई नज़र उठाकर ऊँची आवाज़ में बोल रही थी. वह किसी भी चीज़ की तरफ़ इशारा करती तो हाथ नचा-नचाकर और उसके कँगन खनक-खनक जाते. लाल मिश्रित नीले रंग की उजली साड़ी उसने पहन रखी थी. पैर की हर उँगली और दोनों कानों के ऊपरी अँकुड़े में चमचमाते छल्ले. हम सब इधर चाय की चुस्कियां ले रहे थे और उधर सूती धोतियां लपेटे, ललचती नज़रों से घूरते लम्बी-झूलती मूँछों वाले किसान निगाहों-निगाहों में उसके कपड़े उतारे जा रहे थे.
बहुत देर से वे लोग खुल्लमखुल्ला मुझ फ़िरंगी से रानी बाई के रिश्ते, उसकी कीमत, वह क्या करेगी-क्या नहीं, उसकी देहयष्टि की ख़ूबियों-ख़ामियों पर अटकलें लगाते हुए अचरज में थे कि वह कहाँ काम करती होगी और क्या कम दाम पर चलती होगी. रानी बाई मुझे कार में देवदासी होने के फ़ायदे बता रही थी -–लोग कैसे उसकी इज़्ज़त करते हैं, कैसे उसे शुभ मानकर ऊँची जात की शादियों तक में आशीर्वाद देने को न्योता जाता है. इसलिए यह घटना और उसके प्रति खुल्लमखुल्ला अनादर ने उसे ख़ास तौर से बेचैन कर दिया था.                                                     …6
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और हम आख़िरकार चाय की दुकान से उठे तो किसानों की सामूहिक हँसी और छिछोरी फ़ब्तियों ने उसकी मनोदशा बदल दी. वह अब मौज-मस्ती के उछाह से बाहर, शहर के कोने में, झील के किनारे बरगद के नीचे जा बैठी तो विषादग्रस्त हो चली थी. बस, तभी मुझे उसने बताया कि वह इस ज़िन्दगी में कैसे दाख़िल हुई.
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“मैं सिर्फ़ छह बरस की थी, जब माँ-बाप ने मुझे देवी माँ के नाम पर छोड़ दिया. उस वक़्त तो कुछ समझ में नहीं आया, बस अचरज हुआ था : उन्होंने ऐसा क्यों किया? हम बहुत ग़रीब थे. हम पर कर्ज़ बहुत सारे थे. बापू बेज़ार थे. उन्हें पैसा चाहिए था. वह पीते थे. उन्होंने जो भी कमाया, जुए में गँवा दिया था. फिर भी कहते थे, ‘यह जुआ ही हमें मालदार बनाएगा. इसीसे हम खाते-पीते जी सकेंगे. 
“उस उम्र में देवी अम्मां के लिए मेरे मन में भक्तिभाव नहीं था. मैं बस खूब सारे पैसे का, सीमेण्ट की दीवारों और खपरैल की छत वाले घर में सुख से जीने का सपना देखती थी. यही सोच-सोचकर मैं खुश हो लेती. मुझे तब भी नहीं समझ आता था कि पैसा आख़िर आएगा कहाँ से या पैसा हासिल करने के लिए मुझे करना क्या पड़ेगा.
“पहली बार माहवारी होने के कुछ ही दिन बाद बापू ने मुझे पड़ोसी गाँव के एक चरवाहे को रु.500/-, एक रेशमी साड़ी और बोरा भर बाजरे के बदले बेच दिया. तब तक मुझे कुछ-कुछ समझ आने लगा था कि आगे क्या हो सकता है, क्योंकि मैंने अपने दूसरे पड़ोसियों को अपनी बेटियों के साथ यही सब करते देख लिया था. उनके घर लोगों का आना-जाना लगा रहता. मैंने अपने माँ-बाप से ये सारे सवाल पूछे थे. बार-बार कहती रही कि मुझे जिस्म नहीं बेचना है. वे हाँ में सिर हिलाते, मैं समझती कि वे मान गए हैं.
“लेकिन, एक दिन, मेरी बहन के पैदा हुए बच्चे को दिखाने के बहाने वे मुझे दूसरे गाँव ले गए. वहाँ मुझे एक चरवाहे को ज़बर्दस्ती सौंप दिया गया. मैं सिर्फ़ चौदह बरस की थी.
“ऐसा हुआ कि जिस रात हम मेरी बहन के यहाँ पहुँचे, मुर्गा काटा गया और हमने रोटी-भात के साथ खूब दावत उड़ाई -–ऐसी कि जिसका सपना पैसेवाले भी देखना चाहें. फिर मेरी माँ अपने गाँव लौट गई और मैं अपनी चाची के साथ सो रही. नौ बजे होंगे. वह आदमी आया तो मैं नीन्द में थी. सब पहले से सोचा-समझा था.                                                …7
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“मैं समझ गई कि कुछ न कुछ होने वाला है और रोने लगी. लेकिन मेरी चाची, देवदासी थी वह भी, बोली, ‘रोना नहीं. यही तुम्हारा धरम, तुम्हारा करम, तुम्हारा पेशा है. रोना अशुभ होता है. कोई बाईस बरस का रहा होगा वह आदमी, हट्टा-कट्टा. मेरी चाची बाहर निकल गई. मैंने उस मुसटण्डे को नोच लिया, लात मारने की भी कोशिश की, लेकिन उसने मुझे जबरन काबू में कर लिया. इसके बाद उसने मुझे धोखा दे दिया. बापू से वादा किए हुए पूरे पाँच सौ रुपये उसने मुझे कभी नहीं दिए. मैंने उसे अपना जिस्म दे दिया था, उसने मेरा इस्तेमाल किया और धोखा दे दिया.
“अगली सुबह मैं अपनी चाची पर चिल्लाई, ‘तुम रण्डी हो, तुमने मुझे भी रण्डी बना दिया. वह सिर्फ़ हँस दी. अक्सर, मैं अपनी माँ को कोसती हूँ. उसी औरत की वजह से मेरी ज़िन्दगी का सत्यानाश हो गया. मैं दो साल तक बहुत बेचैन रही. उससे बोली नहीं. उस बीच मैंने पेशा करने से भी इनकार कर दिया. इसके बदले मैं यहाँ काँदे के खेतों में मजूरी करती रही. मुझे रोज पचास पैसे मिलते थे.
“आखिरकार, मैं अपनी देवदासी चाची के साथ बम्बई पहुँच गई. उसने मुझे शहर घुमाने का वादा किया था. हम रेलगाड़ी से चले थे. पहली यात्रा होने से दिल मचल रहा था. मैं क्या जानती थी कि मुझे फिर झाँसा दिया जा रहा है. हम पहुँचे तो रिक्शा में वह मुझे सीधे एक चकले में ले गई. वहाँ उसने मुझे घरवाली के हाथ सौंप दिया. घरवाली, चाची की दोस्त थी.
“घरवाली बड़ी मक्कार थी. उसने मेरे साथ ज़बरदस्ती नहीं की. वह मुझ से भला बरताव करती थी. बहुत सारी मिठाइयां देती, चॉकलेट देती और दूसरी छोरियों से मिलवाती. वे सभी सुन्दर-सुन्दर साड़ियां पहने होतीं. उनकी कलाई पर ज़बर्दस्त गहने होते. इतना सारा सोना, इतना सारा रेशम! मैंने कभी नहीं देखा था. असल में, बेलगाँव में मैंने किसी औरत पर ऐसा कपड़ा-सोना नहीं देखा था. मैंने सोचा, यह ज़िन्दगी तो अच्छी है. घरवाली ने मेरे बदले दो हज़ार रुपए चाची को दिए, मैं बहुत अच्छी जो दिखाई देती थी. लेकिन, पहले-पहल उसने मुझे धन्धा करने को नहीं कहा. मुझे सोचने का वक्त दिया. उस पहले महीने मुझे बस रसोई में मदद करनी पड़ती थी और करनी पड़ती थी घर की साफ़-सफ़ाई. मैं खुश थी. बम्बई मुझे पसन्द आने लगी थी. मैं सागर होटल की मज़ेदार बिरयानी खाती. एक बार, मैं सड़क से निकल रही थी तो अमिताभ बच्चन को कार में गुज़रते देखा.
“बहुत वक्त नहीं गुज़रने पाया था. एक पैसेवाले ने मुझे घर की सफ़ाई करते देख लिया. उसने दूसरी सभी लड़कियों को मना कर दिया और बोला मैं ही होना. वह ऊँचा पूरा और बहुत मोटा था, …8
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मैं डरी हुई. तुमसे तो बहुत ज़्यादा मोटा. घरवाली ठहरी बड़ी होशियार. उसने क्या किया कि मुझे पहले नौजवान लड़कों से भिड़ाया. छरहरे, नाक-नक्श के अच्छे. मेरे लिए भले जोड़. आखिरकार, मैं उनमें से एक के साथ सोने को राज़ी हो गई. वे मेरे साथ शराफ़त से पेश आते थे, यहाँ के मरदों की तरह नहीं. वे निरोध नहीं लगाते थे. उन दिनों निरोध के बारे में मुझे पता ही नहीं था.
“आखिर में, मैं उस बैल के साथ सोने को राज़ी हो गई. उसने मेरे लिए पाँच हज़ार रुपए चुकाए और घरवाली ने आधे मुझे दे दिए -–ढाई हज़ार! अपने गाँव में काँदे बीनती रहती तो ढाई हज़ार कमाने में मुझे बीस साल लग जाते. फिर मैं कोई क्वांरी भी नहीं थी न. दूसरे मेरे साथ पहले ही सो चुके थे. बस, मैं वहाँ रह गई. उस पहले ही बरस मुझे कुछ बीमारियां लग गईं. तो भी मैं उस घर में चार साल रही.
“उस वक्त तक मेरे पहले दो बच्चे हो गए थे -–एक बेटी, एक बेटा. मेरे गाँव लौटने के पीछे कुछ तो वे भी हैं. मैं अपनी माँ के साथ रह गई. पिछले अठारह साल मैं अपने गाँव वाले घर में ही धन्धा करती रही. कुछ वक्त बाद मुझे एक चाहनेवाला मिल गया -–वहीं का एक बड़ा आदमी. उसका कुनबा था -–बीवी, दो बेटे, दो बेटियां. वह मुझे पैसा दिया करता था. उससे मुझे दूसरी बेटी हुई. वह मुझसे और बच्चे चाहता था, लेकिन मैंने नहीं जने. बस, इसीलिए हम अलग हो गए, हालाँकि साथ खुश-खुश गुज़र रहा था.
“मैं अब भी खूबसूरत दिखाई देती हूँ. इसलिए मेरा भाग्य अच्छा है, मैंने खूब पैसा बना लिया है. मैं एक ही गाहक से अब भी दो-तीन सौ रुपए कमा सकती हूँ. सही है, कभी-कभी लगता है कि इस धन्धे की भी कोई इज़्ज़त है! बहुत मुसीबतें हैं इसमें. लेकिन, मैंने अपनी बहन को पाल-पोसकर उसकी शादी करा दी. मैं अपनी माँ और बेटे दोनों का पेट भरती हूँ. मेरे पास आज अपनी कमाई से खरीदी हुई आठ एकड़ ज़मीन है. इस पर चार भैंसें हैं और चार बैल. देवी अम्मां की दया पाने को सिर नवाकर एक दिन इस धन्धे को नमस्कार कर दूँगी. बस, थोड़ा पैसा और जमा हो जाए. इन ढोरों का दूध-दही बेचकर गुज़ारा कर लूँगी.”
जब रानी बाई की बेटियों के बारे में मैंने कुरेदकर पूछा तो ही उसने बताया कि उनके साथ क्या हुआ.
“एक गाती थी. चौदह साल की हुई तो किसीके साथ भाग गई. एक साल बाद लौट भी आई,
 लेकिन उससे शादी कौन करता. सो, वह भी देवदासी बन गई.”   
“और दूसरी?”                                                                 …9
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“दूसरी को चमड़ी का रोग था. उसकी जाँघों पर सफ़ेद दाग थे. कई डाक्टरों को दिखाया, लेकिन इलाज न हुआ. अपनी बहन की ही तरह उसे लगा, शादी होनी तो मुश्किल है. सो, मैंने उसे भी देवी के नाम पर छोड़ दिया.”
“देवी के नाम पर छोड़ देने की वजह से तुम खुद अपनी माँ से इतनी खफ़ा हो. तुमने अभी-अभी कहा कि यह बे-आबरू धन्धा है. फिर तुमने अपनी बेटी के साथ ऐसा कैसे किया?” 
“मेरी बेटियों ने थू-थू की,” रानी बाई बोली, “ठीक वैसे ही जैसे जैसे मैं अपनी माँ के लिए करती हूँ.”
“तुम्हें लगा नहीं कि तुम गुनाह कर रही हो?”
“मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन क्या करती?”
अब कहाँ हैं वे दोनों, यहाँ? या बम्बई में?”
जवाब में रानीबाई ने लम्बी चुप्पी साधी. फिर बोली, “बस, मैंने उन्हें खो दिया, बस.”
“क्या मतलब?”
“मर गईं दोनों. किया होगा पिछले जनम में कुछ पाप  कि देवी अम्मां ने मुझे ऐसी सज़ा दी. एक का वज़न कम होता गया, पेट के रोग से मरी. दूसरी बुखार से.”
रानी बाई ने उस वक़्त तो साफ़-साफ़ नहीं बताया, लेकिन मुझे बाद में पता चला कि उसकी दोनों बेटियां एड्स की बली चढ़ गईं. एक को गुज़रे साल भर से भी कम बीता होगा. पन्द्रह की थी वह. छह महीने बाद दूसरी भी उठ गई. वह सत्रह की थी.
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देवदासी प्रथा भारत में सबसे प्राचीन व्यवसायों की सीधी शृंखला की कड़ी है. मनुष्य जिस देवी-देवता को समर्पित है, उसके लिए मन में दास-भाव आ जाए –-भक्त की इससे बढ़कर दीनता और क्या होगी? देवदासी संस्था के केन्द्र में भी कुछ ऐसा ही विचार रहा होगा कि स्त्री जीवन भर के लिए देवी-देवता की सेवा में समर्पित हो जाए. उस सेवा की प्रकृति और उसे दी जाने वाली संज्ञा में व्यापक क्षेत्रीय विभेद हैं. ये विभेद काल-प्रवाह में बदलते भी रहे हैं. ज़्यादातर देवदासियों ने जिस्मफ़रोशी को अनन्य रूप से हाल ही में अपनाया है.                             
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कुछ विशेषज्ञ इस संस्था की शुरुआत नवीं सदी में देखते हैं. कुछ कहते हैं, यह उससे बहुत पहले से चली आ रही है. ईसा से 2500 वर्ष पूर्व के मोहन-जो-दाड़ो से प्राप्त नग्न नर्तकी की प्रसिद्ध प्रतिमा को कुछ पुरातत्वविद प्राचीन देवदासी मानते हैं. ईसा से 300 वर्ष पूर्व सम्राट अशोक के काल में, मध्य भारत में विन्ध्याचल की एक गुफ़ा में बना भित्ति-चित्र देवदिन्ना नामक चित्रकार के सुतानुका नामक देवदासी पर मर मिटने की कथा याद दिलाता है. मन्दिर नृत्य करने वाली कन्याओं की प्रतिमाएं बड़ी संख्या में ईसा की पहली सदी से ही मिलने लगती हैं. छठी सदी से तो विस्तृत शिला अभिलेख और साहित्य में वर्णन भी मिलने लग जाते हैं. उदाहरण के लिए नवीं सदी के काव्य में शैव सन्त मणिक्कवाचकर को ही लें. वह शुभ नयनों’, ‘कंगनपंक्तियों’, मुक्ता सज्जित उन्नत उरोजोंऔर भस्म भास्वर स्कन्धों की स्वामिनी मन्दिर कन्याओं का वर्णन करते हैं, जो मन्दिर में उत्सव की तैयारी कर रही हैं.
इन प्रारम्भिक शिला अभिलेखों में से अनेक सौदत्ती से सटे इलाकों में मौजूद हैं: सन् 1113 का एक अभिलेख एल्लम्मा मन्दिर से कुछ ही मील की दूरी पर अलानाहळ्ळी का है. यह बिलकुल प्रारम्भिक अभिलेखों में से एक है, जिसमें देवदासी शब्द का प्रयोग हुआ है. एक और बीजापुर के निकट विरूपाक्ष में दर्ज करता है कि किसी देवदासी ने अपने इस मन्दिर को एक घोड़ा, एक हाथी और एक रथ दान किया था. अलबत्ता, शिला अभिलेखों का सबसे बड़ा खज़ाना तंजाऊर, तमिलनाड़ु के निकट चोल मन्दिरों में विद्यमान है. इनमें ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बड़े-बड़े चोल राजे अपने संस्थापित किए मन्दिरों को हज़ारों देवदासियों (तेवरातियर) का उपहार प्रदान करने का कृत्य साभिमान दर्ज करते हैं. इन राजसी मन्दिरों की संकल्पना देवताओं के महलों के रूप में की गई थी -–ठीक वैसे ही जैसे किसी भी चोल नरेश की सेवा में दस हज़ार नर्तकियां मुस्तैद रहती थीं. चीनी यात्री चाउ-जु-कुआ के अनुसार ये बारी-बारी से परिचर्या करती थीं, जिससे किसी भी वक़्त तीन हज़ार नृत्य बालाएं उनकी सेवा में तैनात रहती थीं. फिर देवताओं को समर्पित परिचारिकाओं का देय भाग क्यों हासिल न हो? इन सुन्दरियों  के हुजूम शासकों की हैसियत की शोभा बढ़ाते थे, फिर वे शासक स्वर्गिक हों या लौकिक. विश्वास किया जाता है कि ये शासक शुभ-ज्योतिर्मय कन्या राशि से घिरे रहते थे.
जैसाकि कभी-कभी समझा जाता है, इन शिला अभिलेखों में निर्दिष्ट सारी की सारी मन्दिर नारियां ज़रूरी नहीं कि नर्तकियां, गणिकाएं या सहवासिनियां ही हों : इनमें से कुछ साध्वी हो सकती हैं, जो भक्ति-कर्म और मन्दिर की सेवा-टहल में लगी रहती होंगी. प्रतीत होता है कि अन्य मन्दिर के ब्राह्मण वर्ग की महरियां और निजी सेविकाएं रही होंगी. थोड़ी-बहुत को सम्मान के साथ मन्दिर के कर्मकाण्ड में हाथ बँटाने की महत्वपूर्ण भूमिका मिलती होगी, जैसे देव- …11 …11
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प्रतिमाओं पर चँवर ढुलाना, उनके लिए पँखा झलना, उन्हें चन्दन लेप लगाकर फूल के हार पहनाना, पूजा-पाठ के दौरान जल- कलश धारण करना, देव-विग्रह की प्रार्थना करके भोग लगाना, रंगमण्डप में गायन-वादन और मन्दिर-दीपों में तेल-बाती.
लगभग सोलहवीं सदी से तो मन्दिर-नारियों के पूर्णतर और कहीं अधिक स्पष्ट इन्द्रियग्राह्य वर्णन मिलने लगते हैं, जब पुर्तगाली व्यापारियों ने गोआ से दक्षिण भारत में विजयनगर की महान् हिन्दू राजधानी जाना-आना प्रारम्भ किया :
वे देव-प्रतिमा को प्रतिदिन भोग लगाती हैं, क्योंकि, कहते हैं, वह भोजन ग्रहण करती हैं और प्रतिमा जब भोजन ग्रहण करती है तो मन्दिर की नारियां उसके सम्मुख नृत्य करती हैं. ये नारियां मन्दिर की सम्पत्ति होती हैं. वह देवता को आहार के साथ-साथ वह सब समर्पित करती  हैं, जो आवश्यक है. इनसे जन्मी सारी कन्याएं मन्दिर की सम्पत्ति होती हैं.
यदि शुरुआती पुर्तगाली स्रोत आँशिक तौर पर यौन-व्यापार में उतारी गई मन्दिर-नारियों का वर्णन करते हैं तो वह सब अत्यन्त प्रचुर संख्या में उपलब्ध मन्दिरों की नृत्य-कन्याओं की प्रतिमाओं में स्पष्टतः दिखाई भी देता है. दक्षिण भारत के बहुतेरे मन्दिर-स्तम्भों की सतह पर ये छवियां आच्छादित हैं. अकेले तिरुवन्नमलै में ही ये छवियां सैकड़ों की संख्या में विद्यमान हैं. अत्यन्त व्यंजक ये छवियां यह संकेत करती प्रतीत होती हैं कि देवताओं तथा उनकी परिचर्या करने वाले पण्डा-पुजारियों का दिल बहलाने के लिए नियुक्त तरुणियों की टुकड़ियों के ख़याल पर आधुनिक सम्भ्रम और शर्मिन्दगी उन राजों और व्यापारियों के लिए कोई चीज़ न थी, जो मध्य काल में इन बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण करवाते या फिर उन्हें प्रश्रय देते थे.
इसके अलावा, सोलहवीं सदी का दक्षिण भारत का भरा-पूरा यौन-काव्य मौजूद है. इसमें देव-मूर्ति के प्रति भक्त के प्रेम को, मन्दिर की नृत्य-कला के अपने गाहक के प्रति प्रेम का समरूपी बताया गया है. इनमें से सबसे प्रसिद्ध कुछ कविताएं तेलुगु भाषा के प्रारम्भिक रूप में ताम्र-पत्रों पर उत्कीर्ण पाई गई हैं.  ये ताम्र-पत्र तिरुपति मन्दिर के एक तालाबन्द कमरे में रखे हैं. ये ताम्र-पत्र यद्यपि सन् 1920 के प्रारम्भ में विद्वानों के ध्यान में लाए गए, लेकिन इनका अंग्रेज़ी अनुवाद बीसवीं सदी के अन्त तक सामने नहीं आ पाया. अन्ततः कवि ए. के. रामानुजम् (सन् 1929-1993) ने यह कार्य सम्पन्न किया. ज़्यादातर, देवता (प्रायः कृष्ण) का दबदबा है : वह सुन्दर और काम्य, किन्तु पूरी तरह अविश्वसनीय प्रेमी हैं. उनकी लीला भक्तों को विरह-ग्रस्त कर देती है. कुछ मामलों में तो गणिका को साफ़ तौर पर यह भी पता नहीं होता कि उसका गाहक है कौन:
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स्वरूपवान हो तुम, हो न,
आदिवराह,
तिस पर चतुर भी अत्यन्त.

बन्द करो यह ठिठोली
समझते हो, सिवा तुम्हारे
     नहीं कोई दूजा इधर?
माँगते हो मुझे उधार
आदिवराह?
तब भी तुमसे कहा था मैंने
नहीं पतियाती मैं तुम्हारी झूठी बातें.

स्वरूपवान, हो न तुम?
युवराज रसिकों के, होगे तुम,

लेकिन क्या उचित कहना
द्रव्य भूल जाऊँ अपना?
मेरा अर्जित वह, अन्ततः,
करके व्यतीत समय संग तुम्हारे.
धर दो स्वर्ण तुम मुझे देय
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कर सकते हो फिर बात,
आदिवराह.

स्वरूपवान, हो न तुम?
तरुण :
कर रहे जतन क्यों बड़बोली का,
अस जैसे हो तुम नृत्यगोपाल?
हो रति-समर्थ जस और न कोई,
लेकिन न दो बस वे वचन
जिनका निर्वाह न तुम कर पाओ.
लाओ, निकालो मेरा धन
है बुरा तोड़ना अपना वचन.

स्वरूपवान, हो न तुम?
अलबत्ता, बाद की कविताओं में कभी-कभी देवदासी की प्रभुता परिलक्षित होती है :

नहीं मैं नाईं दूजों की.
पधार सकें आप घर मेरे भी,
लेकिन हो पास द्रव्य आपके तो ही.

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यदि नहीं पास उतना जितनी मेरी माँग
तनिक कम से भी चल जाएगा काम.
लेकिन, नहीं स्वीकारूंगी अल्पतर
भगवान कोंकणेश्वर.

पार करने को देहरी
द्वार मेरे मुख्य की
लगेगा शत स्वर्ण.

द्विशत में सकेंगे देख आप
मेरा शयनागार
सेज कौशेय मेरी
और सकेंगे उस पर चढ़ भी.

जो हो पास द्रव्य आपके तो ही.

बैठने के हित सटकर
और डालने को हाथ अपना
चीर में मेरी निःसंकोच
   लगेगा सहस्र दस.
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   और देकर सहस्र सत्तर
परस सकेंगे आप मेरे
पूर्ण वलित उरोज

जो हो पास द्रव्य आपके तो ही.

तीन कोटि लाने को मुख
अपना निकट मुख,
छूने-चूमने को अधर मेरे.
भींचने को कसकर मुझे,
छुलने को मेरी भोग-स्थली,
और हो जाने को पूर्णतः एक-मेक.

सुनियो भली प्रकार,
नहलाना ही होगा मुझे
तले स्वर्ण-फुहार.

जो हो पास द्रव्य आपके तो ही.
योग-वियोग की इन कविताओं को कभी-कभार  आत्मा की परमात्मा को पाने की लालसा तो कभी भक्त की भगवान को पाने की ललक का रूपक भी मान लिया जाता है. तो भी, वे साफ़-साफ़ रतिज उल्लास की निःसंकोच अभिव्यक्ति हैं. वे पूर्ण उपनिवेश-कालीन भारत की जटिल  
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सांस्कृतिक परम्परा का हिस्सा हैं. तब भक्ति, अध्यात्म और काम को किसी भी प्रकार परस्पर विरोधी नहीं, एक-दूजे के सन्निकट और जननक्षमता के कारण मन्दिर-नारियों को शुभ माना जाता था.
देवदासियां कर्नाटक में आज भी बराबर शुभ मानी जाती हैं -–वह भी ठीक उसी कारण से : उन्हें प्रजनन का प्रतीक माना जाता है. मातृ-शक्ति. लेकिन, लेकिन प्राचीन कविताओं और शिला अभिलेखों की देवदासी तथा आज रानी बाई का जीवन जीने वाली औरत को एक अकल्पनीय खाई अलग करती है. मध्य काल में देवदासियां राज्य के सबसे उच्च परिवारों से ग्रहण की जाती थीं. इनमें चोल राजपरिवार की राजकुमारियां होती थीं तो युद्धबन्दी दासियां भी. बहुतेरी साक्षर होती थीं और कुछ तो उच्च कोटि की कवयित्रियां. दरअसल, उस काल में क्षेत्र की साक्षर स्त्रियां बहुत करके केवल यही रही होंगी. उनका आत्मविश्वास और आत्मनिष्ठता अधिकतर काव्य में स्पष्ट है तो उनकी सम्पदा के दर्शन शिला अभिलेखों में होते हैं, जिनमें अपने मन्दिरों को प्रदत्त उदार-हृदय उपहार अंकित हैं.
आज हाल यह है कि देवदासियां केवल और केवल निम्नतम जातियों से ही आती हैं –-प्रायः दलित मादार जाति से-– और लगभग सब की सब निरक्षर हैं. इनमें एक चौथाई तो उन परिवारों से हैं, जिनकी कोई न कोई आसन्न सम्बन्धी पहले से ही देवदासी है और इनमें से कुछ परिवारों में प्रत्येक पीढ़ी से एक कन्या को देवी को समर्पित करने की परम्परा चली आ रही है.
मध्य काल की अनेक मन्दिर नारियों को मन्दिर के पदाधिकारियों के बीच सम्मानित हैसियत हासिल थी, जबकि अधिकाधिक आधुनिक देवदासियां सीधे-सीधे वेश्यावृत्ति में लिप्त हैं. जिन देवदासियों से मैंने बातचीत की, उनका अनुमान है कि देवी के नाम छोड़ी हुई लड़कियों में से बमुश्किल पाँच प्रतिशत ही ऐसी होंगी, जो बच-बचाकर दूसरी तरह के कामकाज में जा सकें. ऐसा सिर्फ़ इसलिए नहीं कि लगभग सारी की सारी रजोदर्शन के तुरन्त बाद धन्धा शुरू कर देती हैं, बल्कि इसलिए भी कि अन्य रोज़गार हासिल करने के लिए ज़रूरी न्यूनतम अर्हता अर्जित करने के पहले ही वे स्कूली पढ़ाई छोड़ देने के लिए बाध्य होती हैं. वे आम तौर पर धन्धा घर पर करती हैं न कि वेश्यालयों में या फिर सड़कों पर. फिर धन्धा भी वे कमसिनी में ही शुरू कर देना चाहती हैं, ताकि पेशेवर वेश्याओं के मुकाबले ज़्यादा ग्राहक पा सकें. आंशिक रूप से शायद यही कारण है कि दूसरी वेश्याओं की तुलना में देवदासियों में रोग संक्रमण की दर तनिक ज़्यादा है.
देह व्यापार में उतरी हुई अन्य महिलाओं की तुलना में एल्लम्मा की बेटियों के कामकाजी जीवन         की मुख्य रूपरेखा वस्तुतः तनिक भिन्न है. इस भिन्नता के चलते देवदासियां न केवल अपने                                                                                                                                                                    .                                                                         ...17   
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पावन पेशे पर भारी गर्व करती हैं, बल्कि अपनी पेशेवर बहनों के धन्धे को अलग बताते हुए उसे नीची नज़र से देखकर आनन्दित भी होती हैं.
आंशिक ही सही, सामाजिक सुधार को श्रेय देना होगा कि देवदासियों की हैसियत में गिरावट आई. उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेज़ पादरियों के कटाक्ष की प्रतिक्रिया-स्वरूप हिन्दू सुधारकों ने भी मन्दिर-नर्तकी संस्था और पावन वेश्या-वृत्ति पर आक्रमण प्रारम्भ कर दिए. अंग्रेज़ों के ज़माने में और उसके बाद बनते रहे कानून की लहरों ने देवदासियों और मन्दिरों के बीच चले आ रहे प्राचीन जोड़ को धीरे-धीरे तोड़ डाला. इन्हीं कानूनों ने उन्हें मन्दिरों के अहाते से निकाल बाहर करके उनकी सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक हैसियत मिटा डाली. तीन दशक से भी कम गुज़रे हैं कि सन् 1982 में बनाए गए कर्नाटक देवदासी (त्यजन निषेध) अधिनियम ने इस प्रथा को पूरी तरह भूमिगत करके अल्पवयस्क कन्याओं का त्यजन ग़ैर-कानूनी ही करार नहीं दे दिया, बल्कि इससे सम्बन्धित धार्मिक क्रिया-कलाप में सहायक पण्डा-पुजारियों को बरसों की कड़ी कैद का भी प्रावधान कर दिया है. झील के चारों तरफ़ और मन्दिर जाने वाली सड़क पर जगह-जगह सरकार ने बोर्डों पर चेतावनी पुता रखी है :
   अपनी बिटिया को न तजें. भक्ति जताने के और भी तरीके हैं.
     और
   बेटी को तजना असभ्य व्यवहार है.
तमाम कोशिशों के बावजूद सुधारक देवदासी संस्था को निर्मूल करने में सफल नहीं हुए. वे उसे केवल बदनाम करके अपराध घोषित करा पाए हैं. अनुमान है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्यों में मिलाकर अब भी कोई पच्चीस हज़ार देवदासियां होंगी. इनमें से आधी बेलगाँव के अतराफ़ रहती हैं. इस संख्या में हर साल कई हज़ार देवदासियां जुड़ जाती हैं -–अनुमानतः वार्षिक एक से दस हज़ार कन्याओं का त्यजन--  और वे कर्नाटक की कुल वेश्याओं की चौथाई संख्या बराबर कर देती हैं. बहुत ग़रीब जन के लिए देवदासी प्रथा यहाँ बहुत पावन है और है देवताओं का आशीर्वाद पाने के साथ-साथ गरीबी के जाल से बाहर निकलने का रास्ता. ग़रीब देवताओं का आशीष और ग़रीबी   से छुटकारा वैसे ही चाहता है, जैसे अन्धा दो आँखें.
यही कारण है कि छह से नौ साल उम्र की कई हज़ार कन्याएं हर वर्ष देवी के नाम पर तजी जाती हैं. तजने की यह रस्म आजकल रात के अन्धेरे में, गाँवों के मन्दिरों में और कभी-कभी ब्राह्मणों की अनुपस्थिति में की जाने लगी हैं. ब्राह्मण इस रस्म में शरीक होने को राज़ी हो भी                                                                                                                                                                                                                                                            .                                                                          ...18
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जाते हैं तो इस कुकर्म में जोखिम को देखते हुए लड़की के माँ-बाप से पाँच हज़ार रुपए वसूलते हैं. दावत दी जाती है, पूजा-पाठ किया जाता है और किशोर देवदासी को उसका मुट्टू पेश किया जाता है, जो उसके पवित्र वेश्या होने का तमग़ा होता है. उसे उसके कर्तव्य और विशेषाधिकार समझाए जाते हैं. यदि कन्याएं बहुत ही बालपन में तजी जाती हैं, और होता भी आम तौर पर यही है, तो उन्हें उनका सामान्य बचपन वापस मिल जाता है.  रजोदर्शन होने पर ही उन्हें अब तक के जीवन से हटाकर पहली रात को कौमार्य-भंग के लिए गाँव के सबसे ज़्यादा बोली लगाने वाले शख़्स को परोस   दिया जाता है. यह रकम प्रायः पचास हज़ार से एक लाख रुपए के बीच होती है.               
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उस दिन, बाद में रानी बाई और कावेरी के साथ मैं एल्लम्मा मन्दिर गया. नवीं शताब्दी की यह सुन्दर इमारत राज्य भर से आए दर्शनार्थियों से अटी पड़ी थी. देवी के दर्शन के लिए हमें कतार में कुछ देर इन्तज़ार करना पड़ा. हमारे आगे बीजापुर से आए हिजड़ों का जोशीला जत्था कतार में लगा था. रानी बाई और कावेरी ने अपना आपा पा लिया था. अब वे इन्तज़ार करते हुए हिजड़ों से बतियाने लगी थीं. अपनी राखनहार की निवास-स्थली पहुँचकर वे स्पष्टतः प्रसन्न थीं.
“यहाँ जब भी आती हूँ, मेरे भीतर बड़ी भक्ति जाग उठती है,” रानी बाई ने कहा.
“इनके मन्दिर में इनका होना ज़ोरदार ढंग से महसूस होता है,” कावेरी बोली.
“वह बहुत पास हैं,” रानी ने कहा.
“कैसे मालूम?” मैंने पूछा.
“बिजली के बहाव की तरह”, उसने उत्तर दिया. “आप उसे देख तो नहीं सकते, लेकिन जानते हैं कि वह है और उसके असर देख सकते हैं”.
हम प्रतिमा के सम्मुख पहुँचे तो पुजारी ने कर्पूर-ज्योतित आरती हमारे आगे कर दी और कावेरी ने बताया कि देवी की मूर्ति पहाड़ी में से प्रकट हुई है. इसे किसीने गढ़ा नहीं, वह मेरे कान में फुसफुसाई.
प्रतिमा के आगे सिर नवाकर और चढ़ावा चढ़ाकर मैंने एक ब्राह्मण से पूछा कि क्या वे अब भी देवदासी बनाने की रस्म पूरी करते हैं. वह पुजारी धूर्त लगता था.                      ...19
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अपने साथी पण्डितों से समर्थन की अपेक्षा करते हुए उसने कहा, “हमें इन औरतों के बारे में क्या मालूम?”
“हम इनके कण्ठहार पर मन्त्र फूँक दिया करते थे”, उनमें से एक किंचित बूढ़े पुजारी ने कहा. “फिर उसे उन्हींको लौटा देते थे. लेकिन, अब यह ग़ैर-कानूनी है.”
“हम इतना ही करते थे.”
“वे जो करती हैं, वही जानें,” पहला बोला. “उससे हमारा कोई वास्ता नहीं.”
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उस शाम कावेरी को बेलगाँव छोड़ देने के बाद मैं रानी बाई को कार में बिठाकर उसके घर ले गया, जहाँ रहते वह पड़ोस के शहर में काम करती थी. वह जगह मुधोल में थी. शहर की पिछली गली. यहाँ अनेक देवदासियां बस गई थीं. बेंगलूरु जाने वाले  मुख्य राजमार्ग से हटकर गलियों वाली गन्दी बस्ती में कोई सौ से ज़्यादा देवदासियां काम करती थीं.
एकमात्र सरकारी मद्धिम बत्ती के जलते गली में अन्धेरा था. खुली नालियों के बाज़ू कुत्ते बैठे थे तो पड़ोस की गलियों में अधनंगे बच्चे खेल रहे थे. यह कदाचित अड़ोस-पड़ोस का हताश करने वाला माहोल ही था, जो रानी बाई से अपने व्यवसाय के सकारात्मक पक्ष की बात करवाता था. सदा आशावादी, सदा जीवन्त.
“आज भी बहुत सारे खास हक हैं हमारे पास,” उसने कहा तो हम पैदल चलते हुए उसके घर के पास पहुँच गए थे. इन संकरी गलियों में कार नहीं घुस सकती थी. “यदि कोई भैंस जने तो बछड़ा देने के बाद पहला दूध देवी का आभार प्रकट करने के लिए देवदासियों के यहाँ लाया जाता है. एल्लम्मा की जात्रा के दौरान लोग हमें उपहार में पाँच नई साड़ियां देते हैं. हर अमावस को ब्राह्मण हमें अपने घर न्योता देकर खाना खिलाते हैं. वे हमारे पैर छूकर हमसे प्रार्थना करते हैं, क्योंकि हम देवी की अवतार हैं.”
“ऐसा अब भी होता है?” मन्दिर में ब्राह्मणों का रवैया याद करते हुए मैंने पूछा.
“अब भी,” रानी ने कहा. “हमें जब इस तरह पूजा के लिए बुलाया जाता है तो बड़ा गर्व होता है.”
“ऐसी बहुत-सी बातें हैं,” वह कहती गई. “जब बच्चा पैदा होता है तो माँ हमारी पुरानी साड़ी के                                                                                        .                                                                          ...20         
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कपड़े से उसके लिए टोपी सी लेती है. इससे उन्हें उम्मीद बन्धी रहती है कि बच्चे पर एल्लम्मा का स्नेह बना रहेगा. किसी लड़की की शादी होती है तो हम देवदासियों से मूँगे का मनका लेकर उसके मंगल-सूत्र में पिरो दिया जाता है. ऐसा करके विश्वास बन्ध जाता है कि वधू जुग-जुग जिएगी और हमेशा सुहागिन रहेगी.”
“देखो जी,” उसने आगे कहा, “हमें अपने बापू की ज़मीन-जायदाद विरासत में मिल सकती है. यह हक दूसरी औरतों को नहीं मिला है. हमें कोसने की हिम्मत किसीमें नहीं है. और, जब हम मरती हैं तो ब्राह्मण चिता पर हमारे लिए खास रस्म अदा करते हैं.”
चलते-चलते हमारा पैर एक कुत्ते पर पड़ गया था. वह एक खुली नाली में आधा भीतर, आधा बाहर सोया पड़ा था.
“खयाल रखिए, हम मामूली रण्डियों की तरह नहीं हैं,” रानी बाई ने कहा. हम अब उसके घर पहुँच गए थे. “हमारी कुछ इज़्ज़त है. हम सड़क से गुज़रते मरदों को नहीं पकड़ लेते. हम झाड़ियों-पहाड़ियों के पीछे नहीं चले जाते. हम अपने गाहकों के साथ वक्त बिताते हैं, उनसे बातचीत करते हैं. हम हमेशा भरे-पूरे कपड़े पहनते हैं. हमेशा रेशमी साड़ी. बम्बई की औरतों की तरह टी-शर्ट—मिनी स्कर्ट नहीं.”   
हम अब उसके दरवाज़े पर खड़े थे. घर की बाहरी दीवार पर पान-सिगरेट बेचने के लिए एक ख़ानेदार छोटा स्टाल टंगा था. रानी बाई की छोटी बहन पालथी मारकर बैठी हुई आने-जाने वालों को सिगरेट-बीड़ी बेच रही थी. दोनों बहनों ने एक-दूसरे का अभिवादन किया और रानी बाई ने मेरा रस्मी परिचय कराया. रानी बाई आगे बढ़कर घर में दाखिल होते हुए कहती चली गई :
“देखो जी, हम सब एक बिरादरी की तरह मिल-जुलकर रहते हैं. इससे हमारी थोड़ी हिफ़ाज़त हो जाती है. अगर कोई गाहक हमें सिगरेट से दागने की कोशिश करता है या निरोध चढ़ाए बिना ही घुसाने की कोशिश करता है तो हम शोर मचा सकती हैं. दूसरी सब दौड़ी चली आएंगी.”
गली की गन्दगी के विपरीत घर के भीतर बेदाग़ सफ़ाई थी. छत को लगभग छूती हुई लम्बी-चौड़ी अलमारी के सहारे भीतरी जगह दो हिस्सों में बँटी थी. कमरे में सामने वाली आधी जगह एक चौड़े पलंग ने घेर रखी थी. रानी बाई अपना धन्धा इसी पर चलाती थी. एक कोने में शेल्फ़ के ऊपर देवी की तस्वीर वाले बहुत सारे कैलेंडर टंगे थे. कमरे के पिछवाड़े दूसरा पलंग रखा था. रानी बाई इसी पर सोती थी. साफ़ मंजे-धुले लोटे-थालियां यहाँ रैक में सजे थे. फ़र्श पर मिट्टी के तेल का स्टोव रखा था. इन सबके ऊपर, एक अलमारी पर बड़ा-सा आइना और                                                                                         .                                                                                                                                                                    ...21
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रानीबाई के परिवार-फ़ोटो टंगे थे : उसके बेटे और पुराने प्रेमी की तस्वीरें –-बम्बइया फिल्म स्टार जैसी मूँछों और काले चश्मे में खूबसूरत मर्द. उनके बाज़ू थीं उसकी दो गुज़री हुई बेटियों की पासपोर्ट आकार की तस्वीरें. दोनों छोकरियां सुन्दर. जवानी और उम्मीद से भरपूर, बारह-तेरह बरस की उम्र में मुस्कुराते हुए खिंचवाई गई तस्वीरें.
रानी बाई ने तसवीरें मेरे हाथ से लेकर अलमारी पर वापस रख दीं. फिर वह मुझे कमरे के सामने वाले हिस्से में ले गई और पलंग पर बैठ जाने का इशारा किया. शायद उसके संग ने ही मुझे उकसाया होगा तो मैं पूछ बैठा कि क्या अपनी हवस बुझाने के लिए यहाँ आने वाले गाहकों को उसकी पाकीज़ा हैसियत से कुछ फ़र्क पड़ता है.
“न, जी,,” उसने कहा. “हमबिस्तर होते हुए काहे की भगति! चोदना तो चोदना है. चुदाते हुए मैं निरी औरत भर रह जाती हूँ. किसी भी और रण्डी की तरह.”
“और लगता है क्या कि बीमारी से महफ़ूज़ हो?” मैंने पूछा. “क्या तुम्हें भरोसा है कि निरोध तुम्हारी हिफ़ाज़त कर सकता है?”
“नहीं”, उसने उत्तर दिया. “डर हमेशा लगा रहता है. हमें मालूम है कि गाहक को निरोध चढ़ा लेने के लिए राज़ी कर लेने के बावजूद, उसमें एक छोटा-सा छेद भी बीमारी फैला सकता है. और एक बार बीमारी लग गई तो लाइलाज होती है. वैसे, हमें मरना ही है. आज नहीं तो कल.”
वह साँस लेने को रुकी. “देखो जी, मुझे मालूम है मौत कैसी होती है. मैंने अपनी दोनो बेटियों को मरते देखा है. अपनी छह दोस्तों को भी मरते देखा है. इनमें से बहुतों की तीमारदारी की है मैंने. कुछ के बाल झड़ गए. कुछ को चमड़ी की बीमारी लग गई. कुछ तो बस बहुत-बहुत दुबली होकर टपक गईं. एक-दो बहुत खूबसूरत लड़कियां इतनी घिनावनी हो गई थीं कि उन्हें छूने को भी जी नहीं करता था.”
वह काँप रही थी, लगभग अगोचर रूप में. “बिलकुल लगता है, बहुत डर लगता है,” उसने बताया. “लेकिन पेट पालना है तो हमें यह धन्धा करना ही पड़ेगा. हमें बहुत तकलीफ़ उठानी पड़ती है. लेकिन, यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है. यही हमारा कर्म है. हम अपने गाहकों को खींचने-दिखाने के लिए मुस्कान लपेटे रहते हैं और कोई अच्छा कामकाज करने के लिए कोशिशें भी करते रह्ते हैं.”
“सो, आगे के लिए कोई उम्मीद है तुम्हें?”                                                   “मैं बचत कर रही हूँ,” उसने कहा. मैंने बताया था न कि थोड़ी-सी ज़मीन खरीद रखी है. उम्मीद है,
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किसी दिन कुछ और भैंसें और भेड़ जोड़ लूँगी. शायद तब जाकर इतना बचा लूँगी कि यह धन्धा छोड़कर दूध-दही बेचती गुज़ारा कर सकूँ. एल्लम्मा मेरी रक्षा करेगी.”
“तुम्हें यकीन है?”
“पूरा, पूरा यकीन है. ऐसा न होता तो मेरी जैसी अँगूठा छाप औरत एक ही दिन में दो-दो हज़ार कमा सकती थी क्या? एल्लम्मा बड़ी दुनियादार देवी है. लगता है, वह बहुत पास है. हर अच्छे-बुरे में वह हमारे साथ होती है.”
इसके बाद मैं उसके घर से चल दिया. कार में वापस बेलगाँव पहुँचा. बाद में मैंने देवदासियों के साथ काम कर रही एक ग़ैर-सरकारी संस्था की परियोजना प्रबन्धक से एड्स के बारे में पूछताछ की कि बीमारी लग जाने पर इनके परिवारों की क्या प्रतिक्रिया होती है.
“दारुण”, उन्होंने बताया. इनसे घर चलता है तो परिवार खुश रहते हैं, उनकी कमाई का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन, जैसे ही वे रोग की चपेट में आ जाती हैं या फिर तबीयत बिगड़ जाने पर बिस्तर पकड़ लेती हैं तो ठिकाने लगा देते हैं. कभी-कभी तो सचमुच किसी खाई-खड्ड में फेंक आते हैं. खालिस परित्याग. क्रिसमस से पहले एक लड़की का मामला आया था. जब उसने तेज़ सिर दर्द की शिकायत की तो परिवार वाले उसे बीजापुर के एक निजी अस्पताल में ले आए. अस्पताल में परीक्षणों के बाद पता चला कि उसे एड्स तो हो ही गया है, दिमाग में रसौली भी है. इलाज शुरू तो हुआ, लेकिन खर्च देखकर परिवार वाले उसे घर लौटा लाए. हमने उसे खोजने की कोशिश की तो परिवार वालों ने अलग-अलग सूचनाएं दीं –-परिवार के अलग-अलग सदस्यों ने उसके अलग-अलग अस्पताल में होने की बात कही. सच तो यह है कि उसे घर लाकर भूखों मरने के लिए एक कोने में फेंक दिया गया था. वह हमें नीम-बेहोशी की हालत में मिली. उसी परिवार में उसका कोई पुरसाने-हाल नहीं था, जिसे वह बरसों पैसा कमा-कमाकर देती रही. हम खुद उसे वापस अस्पताल ले गए, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी. दो सप्ताह बाद उसने दम तोड़ दिया.”
“फिर तो यह अच्छा कामकाज होगा. रानी बाई जल्द ही धन्धा छोड़ रही है,” मैंने कहा.
“क्या उसने आपसे ऐसा कहा है?”
“उसने कहा है, वह थोड़ी ज़मीन और कुछ भैंसें खरीदकर गुज़ारा करने की कोशिश करेगी.”
“रानी बाई?”                                                                    ...23

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“जी हाँ.”
“मुझे असल में सच्चाई आपको बतानी नहीं चाहिए,” वह बोलीं. “लेकिन, रानी बाई को बीमारी लग चुकी है. डेढ़ साल हुआ उसे एड्स लगे. मैंने उसकी रिपोर्ट देखी है.”
“उसे मालूम है?”
“बिलकुल,” उन्होंने बताया. “एड्स पूरा फैला नहीं है, कम से कम अभी तो नहीं. दवाओं से रोग फैलना टल सकता है, लेकिन उसका इलाज नहीं है.”
उन्होंने कन्धे झटके. “चाहे जो हो, यह सम्भावना बहुत कम है कि रानी बाई अपना धन्धा छोड़कर ढोर पाल सकेगी,” उन्होंने आशंका जताई. उसकी गति भी वही होने वाली, जो उसकी बेटियों की हुई है. इतनी देर हो चुकी है कि अब उसे बचा पाना मुमकिन नहीं है.
(William Dalrymple की पुस्तक Nine Lives में प्रकाशित The Daughters Of Ellamma  का पुनर्सृजन)                                                               --बृहस्पति शर्मा
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