Saturday 14 April 2012

देवनागरी लिपि का ऐतिहासिक सर्वेक्षण



देवनागरी भारत की सबसे प्राचीन लिपि है. राजस्थान से लेकर बिहार और हिमालय के दामन में बसे ज़िलों से लेकर मध्य प्रदेश की निचली सीमा तक इसका प्रयोग किया जाता है. इस विशाल अंचल की साहित्यिक भाषा हिन्दी के साथ-साथ उसकी अनेक बोलियां भी देवनागरी में ही लिखी जाती हैं. बाळबोध के नाम से मराठी भाषा के लिए और गुजरात के काफ़ी बड़े इलाके में भी देवनागरी का प्रयोग किया जाता है. संस्कृत शास्त्रों की लिपि भी देवनागरी ही है.
यह सर्वमान्य तथ्य है कि देवनागरी प्राचीन ब्राह्मी की कोख से जन्मी है और ब्राह्मी लिपि ही भारत भर में व्याप्त भाषाओं के लिए निःसंकोच रूप से व्यवहृत राष्ट्रीय लिपि थी. ब्राह्मी के आविष्कर्ता वस्तुतः विद्वान ब्राह्मण थे. इनका दावा था कि ब्राह्मी का जन्म वाणी और साहित्य के आदि-स्रोत ब्रह्मा से हुआ है. हाँ, इसमें कोई सन्देह नहीं कि ब्राह्मी के सिरजनहारों ने इसे मूल रूप से संस्कृत लेखन के लिए रचा था और आगे चलकर यह प्राकृतों के लिए भी प्रयुक्त हुई. ब्राह्मी की पूर्ण विकसित लिपि-प्रणाली से मार्के की भाषा- वैज्ञानिक और स्वनिम-वैज्ञानिक परिशुद्धता परिलक्षित होती है. इसकी बदौलत पाणिनि और यास्क जैसे आचार्यों के काल से भी पहले, प्रारम्भिक भारतीय सभी प्राचीन भाषा-सभ्य जातियों को पीछे छोड़ चुके थे. दरअसल, दर्शन एवं गणित शास्त्र के शून्य और बिन्दु के अलावा भारतीय खोपड़ी की कोई और सच्ची अनुसन्धान उपलब्धि है तो वह है ब्राह्मी. स्वर-व्यंजनों के लिए सुविन्यस्त चिह्नों के माध्यम से ककहरा की सारी मूलभूत ध्वनियों के सुस्पष्ट विभाजन का कहना ही क्या है. इकहरे स्वरों से श्रीगणेश के बाद संयुक्त स्वर, फिर कण्ठ्य, तालव्य, मूर्धन्य और ओष्ठ्य –-ये सभी स्पर्श व्यंजनों के पाँच वर्गों में विभाजित हैं. भारत में इन्हें हम क्रमशः क-वर्ग, च-वर्ग, ट-वर्ग, त-वर्ग और प-वर्ग कहते हैं. इन पच्चीस व्यंजनों के अन्त में चार अर्ध-स्वर, तीन ऊष्म व्यंजनों का समूह और एक महाप्राण है. यदि इन व्यंजनों में हम स्वर-चिह्नों के हृस्व-दीर्घ पाठ और उनके स्वाभाविक तथा स्वनिम रूपों की कुल संख्या जोड़ दें तो हमें सारी की सारी भारतीय लिपियों में कोई अड़तालीस लिपि-चिह्न प्राप्त होते हैं. यही देवनागरी में भी विद्यमान हैं.
हमें याद रखना चाहिए कि भारत की सबसे प्राचीन लिपि होने के नाते सम्राट अशोक के काल में (ईसा-पूर्व तीसरी सदी) ब्राह्मी ने सच्ची राष्ट्रीय लिपि की भूमिका निभाई. इसे पाटलीपुत्र की केन्द्रीय मन्त्रि-परिषद का अनुमोदन प्राप्त था. हिमालय स्थित कलसी से लेकर मैसूर के सिद्धपुर और सौराष्ट्र के गिरनार से लेकर ओडीशा के धौली तथा जउगढ़ तक शिलाओं और स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेखों में ब्राह्मी का ही उपयोग किया गया. भारतीय लिपियों के बारे में एक अन्य उल्लेखनीय तथ्य यह है कि
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न केवल देवनागरी, बल्कि देश के उत्तर से लेकर दक्षिण तक की भाषाएं और बोलियां जिन लिपियों में लिखी जाती हैं, वे सब की सब स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया में मातृ-लिपि ब्राह्मी से ही व्युत्पन्न हुई हैं. स्वाभाविक विकास की यही प्रक्रिया युगों-युगों से भारतीय संस्कृति की नियामक रही है. काश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक भारतीय संस्कृति कितनी एक है और कितनी अनेक --इस विषय पर बहस की बहुत गुंजाइश है, लेकिन भारतीय भाषाओं की सारभूत एकता उनकी लिपियों में पूरी तरह परिलक्षित होती है. हिन्दी, काश्मीरी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, उडिया, बंगला, बिहारी, मैथिली और असमिया के बारे में यह समान रूप से सच है. यहाँ तक कि चार अलग-अलग दक्षिण भारतीय भाषाएं तक ब्राह्मी से व्युत्पन्न लिपियों में ही साकार होती हैं. इनमें संस्कृत वर्णों के तत्व भरे पड़े हैं. हाँ, तमिल में संस्कृत तत्व अपेक्षाकृत कम ज़रूर हैं, लेकिन इसकी धार्मिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि संस्कृत परम्परा की जड़ों पर ही टिकी है.
ईसा-पूर्व दूसरी सदी में सम्राट अशोक के बाद ब्राह्मी लिपि शुंग ब्राह्मी के रूप में विकास के दौर से गुज़री तो प्रथम शताब्दी में कुषाण ब्राह्मी के रूप में और चौथी-पाँचवीं शताब्दियों में उत्तर भारत में गुप्त लिपि के रूप में. गुप्त साम्राज्य बंगाल से काश्मीर और नेपाल से दक्षिण भारत तक फैल गया था. इसलिए ब्राह्मी का विकसित रूप -–गुप्त लिपि— भी न केवल उत्तर भारत में, बल्कि दक्खिन तक मंजू-शीर्ष युक्त रूप में फैल गया. सुदूर दक्षिण में इसीने लम्बी-खड़ी पूँछ वाली पल्लव लिपि का रूप ग्रहण कर लिया. इस गुप्त लिपि में छठी-सातवीं सदी में और विकास हुआ. इसका विशेष कारण था गुप्त लिपि का प्रवाही रूप. इसे सिद्धमातृका कहा गया. धार्मिक ग्रन्थों के लेखन के लिए यह भारत से लेकर मध्य एशिया और जापान तक भी सार्वदेशिक लिपि बन गई. सिद्धमातृका में सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि जापान के होरिउज़ि मन्दिर में सुरक्षित है. यह छठी सदी में ताड़पत्र पर प्रवाही हस्तलेख में लिखी गई है. इस नख-शीर्ष युक्त लिपि को कुटिल लिपिभी कहा गया. लेकिन, अब यह नाम ख़ारिज कर दिया गया है. प्रतीत होता है, इसका सही नाम सिद्धम् लिपि ही था -–इस लिपि में वर्ण ओम् नमः सिद्धम् से जो प्रारम्भ होते थे. इसका लोकप्रिय उच्चारण बन गया ओना मासि धम्’. बोधगया में उत्कीर्ण महानामा (588 ईस्वी) और उसके तनिक बाद लखमण्डल की प्रशस्ति में शिरोरेखाएं, तिरछी घसीट और छोटे फणाकार कोण या न्यून कोण दिखाई देते हैं. इन्हें नख-शीर्ष भी कहते हैं. नागरी लिपि की यही अनूठी विशेषताएं थीं.
सातवीं सदी में नागरी का सबसे प्रारम्भिक रूप स्पष्टतः उभर आया था और आठवीं सदी में तो यह पूर्ण रूप से विकसित हो गई थी. हस्तलिखित राजादेशों के लिए इसका प्रयोग प्रारम्भ हो गया था. गुजरात नरेश जयभट्ट का लेख स्वहस्तो मम् जयभट्टस्य इसका प्रमाण है. इसमें स्वहस्तो का अर्थ ही हस्ताक्षर है. प्रायः उद्धृत किया जाने वाला सामांगड शिला अभिलेख प्रथम राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग (754 ईस्वी) के काल का है.  राष्ट्रकूट मूलतः कर्णाटक वासी थे और  इनकी  मातृभाषा थी  कन्नड़.
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परन्तु, बस ये खानदेश-विदर्भ में गए थे. इसके बाद आते हैं गोविन्दराज द्वितीय (780 ईस्वी) का धुलिया शिला अभिलेख और अन्य राष्ट्रकूट राजाओं के शिला अभिलेख. उदाहरण के लिए गोविन्द तृतीय (794 ईस्वी) का पैठण शिला अभिलेख और ध्रुवराज (835 ईस्वी) का बड़ौदा शिला अभिलेख. इन्हींके रजवाड़े, कोंकण के शिलाहार शासकों ने भी कान्हेरी के शिला अभिलेखों में नागरी वर्णों का ही प्रयोग किया. ये सभी 843 से 851 ईस्वी के हैं.
अब जाकर सामान्यतः यह स्वीकार कर लिया गया है कि आठवीं से दसवीं सदी के बीच नागरी परिपक्व लिपि बन चुकी थी और गुजरात, राजस्थान तथा उत्तरी दक्खिन में तो ग्यारहवीं सदी के प्रारम्भ तक इस लिपि में अनेक शिला अभिलेख और ताड़पत्र पोथियां लिखी जा चुकी थीं. हैहय, परमार, चन्देल, गहड़वाल, चाहमान और कच्छपघट जैसे मुख्य और उनके अधीनस्थ शासकों ने बहुतेरे शिला अभिलेखों के लिए देवनागरी को अपना लिया था. एक और महत्वपूर्ण मुद्दा -–यह लिपि पहले-पहल आठवीं सदी में दक्खिन में विकसित हुई और उत्तर भारत में कोई दो सौ बरस बाद दसवीं सदी में. पश्चिमी चालुक्यों, यादवों और विजयनगर के तीन राजवंशों के शिला अभिलेखों में इसका व्यापक प्रयोग हुआ है तथा दक्षिण भारत में संस्कृत पाण्डुलिपियां तैयार करने के लिए इसका प्रयोग आज भी किया जाता है. इस लिपि के उत्तर भारतीय रूप के लिए देवनागरी नाम प्रचलित है तो दक्खिन में इसे नन्दीनागरी के रूप में जाना जाता है.
महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि इस लिपि को देवनागरी नाम मिला कैसे? कभी कहा जाता था कि यह देवताओं की नागरी है या ब्राह्मणों की या फिर राजनागरी. अब कुछ नए साक्ष्य सामने आ चुके हैं, जिनकी सहायता से इन दोनों नामों -–उत्तर की देवनागरी और दक्षिण की नन्दीनागरी— को समझा जा सकता है. कुछ वर्ष पहले शोध से सामने आए पादताड़ितकम् नामक नाटक में बताया गया है कि पाटलिपुत्र (पटना) नगरअर्थात् महानगर के रूप में प्रसिद्ध हो गया था. गुप्त काल के शिला अभिलेखों से पता चलता है कि देव वास्तव में चन्द्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य का असली नाम था. उत्तर भारत में इस नगर से जुड़ी कोई भी शैली नागर या नागरी के रूप में प्रचलित थी, जैसे मन्दिर स्थापत्य की नागर शैली, नागर रेखा या शिखर की वक्र रेखाएं. बस, इसी प्रकार नागरी लिपि या उत्तर देशीय लिपि. पाटलीपुत्र का प्रतिरूप था नन्दीनगर -–दक्षिण की जानी-मानी नगरी (आधुनिक नान्देड़). पहले यह वाकाटक साम्राज्य का हिस्सा रहा और बाद में राष्ट्रकूटों का. इस प्रकार ये दोनों नाम स्पष्टतः उस समय प्रचलित लिपि के उत्तरी और दक्षिणी रूप के द्योतक हैं.
गुप्त लिपि के दो रूप विकसित हुए -–पूरबी और पच्छिमी. एक से पूरब में बंगला लिपि और पच्छिम में पंजाब-काश्मीर में शारदा लिपि का उदय हुआ. दक्षिण में तेलुगु, कन्नड़, तमिल, मळयाळम और ग्रन्थ लिपियां निश्चित रूप से विकास की उसी प्रक्रिया पर आधारित हैं, जिससे देवनागरी का उद्भव हुआ. कोंकण प्रदेश के शिलाहार नरेश, मान्यखेट (मलखेड़) के राष्ट्रकूट, देवगिरि के यादव और विजय
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नगर के शासक नन्दीनागरी लिपि का प्रयोग विन्ध्य के दक्षिण में कर रहे थे. पाण्ड्य प्रदेश के राजा वरगुण के पलियम ताम्रपत्र के एक ओर तमिल और दूसरी ओर नागरी में संस्कृत लेख उत्कीर्ण हैं. श्रीलंका के पराक्रमबाहु और विजयबाहु (बारह्वीं सदी) के सिक्कों के साथ-साथ  केरल के शासकों के सिक्कों पर वीरकेरलस्य और ग्यारहवीं सदी के प्रतापी चोल राजाओं राजराज तथा राजेन्द्र के सिक्कों पर नागरी लिपि में शब्द अंकित हैं. उधर मेवाड़ के गुहिल शासकों, साम्भर-अजमेर के चौहान शासकों, कन्नौज के गहड़वाल शासकों, काठियावाड़-गुजरात के सोलंकी, आबू के परमार, जेजकभुक्ति के चन्देल और त्रिपुरी के कलचुरी शासकों ने उत्तर की देवनागरी को सार्वदेशिक रूप से अपना लिया.
अरबी-संस्कृत के बहुविद् अलबेरुनी कहते हैं कि काश्मीर और वाराणसी में सिद्धमातृका का ककहरा चलता था, जिसे मालवा में नागरी कहते थे. अर्थात्, अपने दो रूपों -–शारदा और नागरी— में यह देवनागरी ही थी, जिसका सामान्य नाम सिद्धमातृका था. महमूद गज़नी के सिक्कों पर अरबी कलमा का संस्कृत अनुवाद अव्यक्तमेकम् मुहम्मद अवतार नृपति महमूद स्पष्ट देवनागरी वर्णों में अंकित है. देवनागरी का विकसित रूप मुहम्मद गोरी, अलाउद्दीन और शेरशाह जैसे मुसलमान बादशाहों के सिक्कों पर भी जारी रहा. फिर अकबर ने तुलसीदास कालीन अपने रामसीय सिक्कों पर रामसीय नाम स्पष्ट देवनागरी में ही अंकित करवाए. ब्राह्मी का निश्चित राष्ट्रीय चरित्र देवनागरी में अवतरित हुआ, जो हिमालय और नर्मदा के पूरे मध्य देश में विविध भारतीय भाषाओं और बोलियों के लेखन की मुख्य साधन है और है भारतीय सभ्यता के इस केन्द्र और पवित्र भू-भाग में सुधी तथा सामान्य जनों के लिए सम्प्रेषण का माध्यम. इस प्रकार दुनिया भर की लिपियों की सिरमौर, सर्वश्रेष्ठ लिपि देवनागरी का इतिहास ब्राह्मी-संस्कृत से जुड़ा है, जो भारतीय वाङ्मय के विरासत की मेरुदण्ड है.
                                                                     --बृहस्पति शर्मा
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1 comment:

  1. Sir, Devanagari me likhi gayi sarvapratham pushtak kaun di this air yas kinke dwara likhi gayi thi

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