राक्षसों की राम कहानी (10)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)
अधिकांश आधुनिक लेखक
रामायण की लंका तथा किष्किन्धा दोनों को मध्य भारत में रखते हैं [i] -–बाबा कामिल बुल्के.
वाल्मीकी रामायण में
वर्णित रावण की लंका की भौगोलिक अवस्थिति के प्रश्न ने भाषा-साहित्य-इतिहास-पुरातत्व
की अनेक राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय हस्तियों को सदियों तक सही उत्तर के लिए उलझाए
रखा. सबसे पहले भारत के विख्यात खगोलविद भास्कराचार्य (चौदहवीं सदी) ने यह जानने
का प्रयत्न किया था कि आख़िर रावण की लंका किस जगह स्थित थी. लंका की भौगोलिक
स्थिति सम्बन्धी जिज्ञासा के महत्व को प्रतिपादित करने के लिए यही तथ्य पर्याप्त
है. बहरहाल, अचार्य ने लंका को ऐन समुद्र में भूमध्य-रेखा पर
स्थित बताया था. कुछ विद्वानों ने इसे सुमात्रा या जावा के पास एक द्वीप बताया.
कुछ और ने इसे अरब सागर के पश्चिमी तट के पास माना, लेकिन भारतीय जनमानस
में यह अक्षुण्ण धारणा पिछले दो हज़ार साल से पैठी हुई है कि रावण की लंका यदि कहीं
थी तो वह थी आज की श्रीलंका. इस बद्धमूल धारणा पर विश्वास करने वालों में मतैक्य
नहीं है तो केवल इस बात को लेकर कि राम ने लंका तक पहुँचने के लिए प्रायद्वीप के
बीचोबीच से गुज़रने वाला मार्ग चुना था या फिर पूर्वी घाट के किनारे-किनारे चलते
हुए वहाँ पहुँचे थे. इतना निश्चित है कि संस्कृत काव्य में सिंहल तथा लंका
भिन्न-भिन्न देश समझे जाते थे[ii].
प्रारम्भ में ही यह
स्पष्ट कर देना प्रसंगोचित होगा कि आज की श्रीलंका को यूनानवासी सबसे प्राचीन काल में ‘टप्रोवाने’ के नाम से जानते थे.
अशोक के शिलालेखों में इसे ‘तम्बपम्नि’ (ताम्रपर्णी) कहा गया
है. पुरातन साहित्य तथा सदियों पहले पहुँचे विदेशी यात्रियों के सफ़रनामों के
अनुसार श्रीलंका का ऐतिहासिक नाम सिंहल द्वीप था. जैकोबी के अनुसार, इस द्वीप का श्रीलंका
नाम तो दसवीं सदी के आस-पास लोकप्रिय हुआ. मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में ‘सिंहल द्वीप की सुन्दरी’ विद्यमान है. मालूम हो
कि आज भी श्रीलंका की भाषा का नाम ‘सिंहली’ है,
जो इस देश के नाम ‘सिंहल’
पर आधारित है. कालान्तर में यह सिंहल ही सीलोन में बदल गया. कोई चालीस बरस पहले तक
भी हम ‘रेडियो सीलोन’ सुनते थे, पाठकों को याद होगा.
पश्चिमी देश अपने इतिहास को लेकर समुचित रूप
से सजग-सावधान और संवेदनशील रहे हैं. इसी कारण बाइबिल की ऐतिहासिकता पर अनुसन्धान
करते हुए वहाँ न पैसे-परिश्रम की परवाह की गई और न दीन-ईमान की. फलस्वरूप, इस ग्रन्थ के पुराने
पोथे के पुरातात्विक पहलू अब जगजाहिर हैं. फिर भी, अनेक विद्वानों के
प्रयत्न से हमारे यहाँ यह स्थापना अब जाकर प्रायः स्वीकार ली गई है कि वाल्मीकी
रामायण में वर्णित रावण की लंका, मध्य भारत के अमरकण्टक
क्षेत्र (मध्य प्रदेश) में स्थित थी और वहाँ के वन-पर्वतीय गोण्ड बाशिन्दों को ही
राक्षस संज्ञा से अभिहित किया गया है.
किसी भी सृजनशील रचनाकार की कृति
देश-काल-परिस्थिति से परे नहीं होती. हो भी नहीं सकती. वाल्मीकी की आदि-कृति ‘रामायण’ परवर्ती कवि-सम्पादकों
के हस्तक्षेप से तो बची रही, लेकिन उसमें
अतिशयोक्ति के साथ इतना कुछ घाल-मेल किया गया है कि महाकाव्य में मौजूद इतिहास अच्छे-अच्छों
के लिए भी पहचान से परे होकर रह जाता है. यदि राम की वन-यात्रा और लंका-यात्रा के
वाल्मीकी कृत वर्णन पर ग़ौर फ़रमाएं तो अहसास होने लगता है कि अरे, उनका गन्तव्य तो उतना
दूर है नहीं जितना मार्गस्थ स्थानों के नामों से आभास होता है. लंका की भौगोलिक स्थिति
तय करने में कतिपय आधुनिक स्थानों के नाम के कारण भी भ्रम उत्पन्न होता है. इनकी ग़लत
पहचान की गई है. इन स्थानों के मात्र नाम ही रामायणकालीन हैं.
दरअसल आज वे हैं कहीं और. मसलन, विदेह.
सीता के पिता जनक का राज्य. हम इसे आज बिहार से जोड़ देते हैं. वाल्मीकी रामायण के
अनुसार, अयोध्या से विदेह और विदेह से
अयोध्या नगरी रथ से चार दिन में तय की जाने वाली दूरी पर स्थित थीं:
गत्वा
चतुरहं मार्गं विदेहानभ्युपेयिवान्. (बाल. 69.7)
अयोध्या से बिहार की
मिथिला तो बहुत दूर है. रामायण में वर्णित सेना की बात छोड़िए,
घोड़े जुता अकेला रथ भी अपनी अधिकतम सम्भव गति से अयोध्या से बिहार तक की यात्रा
इतने कम समय में नहीं कर सकता.
हम मान सकते हैं कि सबसे
बड़ी चूक हुई है गोदावरी नदी और दण्डकारण्य की पहचान में. रामायण बार-बार स्पष्ट
रूप से कहती है कि गोदावरी और दण्डकारण्य समेत पंचवटी,
ऋष्यमूक, पम्पा,
किष्किन्धा तथा लंका सभी विन्ध्य पर्वत के वनों में स्थित थे -–चित्रकूट के दक्षिण
और नर्मदा के उत्तर में.
दण्डकारण्य की पहचान के
लिए मारीच की साखी पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है. शूर्पणखा से खर-दूषण-त्रिशिरा
सहित चौदह हज़ार राक्षसों के हनन का समाचार मिलते ही रावण मारीच की सहायता पाने के लिए
गधे जुते हुए सोने के रथ में रवाना हो गया. वह लंका से सटे सागर तट पर पहुँचा तो
वाल्मीकी वर्णित सम्पूर्ण दृश्य हमें मध्य भारत के सजल वन प्रदेश में ले चलता है.
और, रावण बात की बात में समुद्र के दूसरे तट पर भी
पहुँच गया. इस पूरे प्रकरण से हम सागर के ‘विस्तार’
का अनुमान लगा सकते हैं (देखें अरण्य. 35.6 से 37). ख़ैर, रावण
से सीता के अपहरण की योजना सुनकर मारीच ने उसे ऐसा प्रयत्न न करने की सलाह दी और
अपनी आपबीती बताई कि कैसे पन्द्रह बरस के किशोर राम ने दण्डकारण्य में उसे एक ही
बाण से उठाकर सागर में फेंक दिया था तथा होश आने पर वह लंका की तरफ़ भाग लिया था
(देखें अरण्य. 38.18 से 21).
यदि हम यहाँ पल भर रुककर
सोचें तो रावण के दृश्य में प्रकट होने और सीता को लंका ले जाने से पहले अनछुई
भौगोलिक परिस्थिति हमारे सामने विद्यमान है:
- विश्वामित्र
अयोध्या जाकर राक्षसों के विरुद्ध दशरथ से राम-लक्ष्मण की सहायता की याचना
करते हैं.
- अनमने
दशरथ चिन्तित होने के बावजूद विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण को भेजने के लिए
तैयार हो जाते हैं.
- विश्वामित्र
राह में राम-लक्ष्मण को कौशाम्बी,
वैशाली, मिथिला और अन्य
महत्वपूर्ण नगर दिखाते चलते हैं.
- वे
अयोध्या के दक्षिण में गंगा नदी को पार करके वन में पहुँचते हैं. यही वन
दण्डकारण्य है.
- मारीच
और दूसरे राक्षस इस वन में ऋषियों को तंग किया करते थे. इनमें से कुछ राक्षस मारे
गए और कुछ खदेड़े जाने पर भागकर लंका पहुँच गए.
हम समझ सकते हैं कि यह
लंका समुद्र पार सिंहल द्वीप नहीं, बल्कि
उसी वन –दण्डकारण्य- का भीतरी प्रदेश ही हो सकता है. गोण्ड इस इलाक़े को आज भी लंका
ही कहते हैं, जैसाकि रामायण में स्थान-स्थान
पर बताया गया है न कि ‘श्रीलंका’.
इस लेखमाला की पिछली कड़ी में वाल्मीकी रामायण
में दिए विवरण के आधार पर हम अयोध्या और चित्रकूट समेत राम-लक्ष्मण–जानकी के वनवास
के विभिन्न पड़ावों की यात्रा करते हुए अमरकण्टक तक पहुँच चुके हैं. अमरकण्टक और
रावण की लंका अभिन्न हैं -–आइए, इस स्थापना पर यहाँ कुछ
और विचार-विश्लेषण करें.
रामायण के निर्देश अनुसार अमरकण्टक
में एक ऐसी जगह है, जिस पर रहस्य का परदा पड़ा है. बिलासपुर-कटनी
रेलमार्ग पर पेण्ड्रा रोड स्टेशन से सोलह किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी है. कहते
हैं, यहाँ एक किला था. इसे स्थानीय लोक कथाओं की रानी
बकावली से जोड़ा जाता है. यह जगह नर्मदा के उद्गम-स्थल से तीन किलोमीटर की दूरी पर
स्थित भृगु आश्रम से दिखाई पड़ती है. कहते हैं, उन्नीसवीं
सदी के छठे दशक में मध्य प्रान्त के मुख्य आयुक्त सर रिचर्ड टेम्पल ने यहाँ फैली
दलदल को पार करके किले तक पहुँचने की कोशिश की थी,
लेकिन उनका हाथी दलदल में फंस जाने से यह कोशिश अधूरी रह गई. दलदल के इस तरफ़ से
देखने पर लगता है, जैसे यह किला कोहरे में घिरा हो.
इससे ऐसा आभास होता है कि किला बड़ी दूर है. दरअसल यह पहाड़ की चोटी है,
ठीक वैसे ही जैसे रामायण में वर्णित है. आज जो भूमि दलदल है,
इस पर पानी कभी न कभी स्थायी रूप से जमा रहा ही होगा. स्थानीय निवासी सदियों से
मानते आ रहे हैं कि इस किले में खज़ाना छिपा है. यही रावण की लंका हो सकती है. गोण्ड
प्रत्येक महत्वपूर्ण स्थान को ‘लक्का’
कहते हैं. गोण्डों की बोली में लंका का अर्थ राजा का निवास भी होता है और इस जगह
को कहते भी ‘इन्द्राणा’
हैं.
सुतीक्ष्ण ऋषि का आश्रम है
सुतना (सतना). इसी नाम से यहाँ रेलवे स्टेशन
भी है. यह एक सरिता के पास है और इसके किनारे हरे-भरे वृक्ष आज भी देखे जा सकते
हैं. राम ने चित्रकूट से चलकर वनवास के दस वर्ष यहीं व्यतीत किए थे.
विख्यात पुरातत्ववेत्ता
राय बहादुर हीरालाल ने बड़ी ज़िम्मेदारी से कहा है कि जिस नदी के पास राम दो बरस तक
रहे और जहाँ से सीता का अपहरण हुआ, उस नदी
सहित सभी नदियों को देश के इस भू-भाग में सामान्यतः ‘गोदा’
(गाय देने वाली) कहा जाता है. इन
पंक्तियों के लेखक ने चित्रकूट यात्रा के समय देखा कि लुप्तप्राय होने के बावजूद
इस छोटी नदी के अवशेष विद्यमान हैं. यह अब कहीं प्रकट तो कहीं अप्रकट है. इसलिए स्थानीय
लोग इसे ‘गुप्त गोदावरी’
कहते हैं. यहाँ ऐसी विशाल गुफ़ाएं भी देखी जा सकती हैं,
जिनमें कभी मनुष्य रहते होंगे. यहाँ यह विश्वास भी व्याप्त है कि राम ने अपने वनवास
का कुछ अरसा यहीं बिताया था. इसलिए पश्चिमी घाट से नासिक में उद्भूत,
बंगाल
की खाड़ी में विलीन हो जाने वाली तथा दक्षिण की गंगा के रूप में प्रख्यात गोदावरी
नदी के आसपास जनस्थान-पंचवटी की खोज बेमानी है. यहीं यह भी बताना होगा कि अंगद की
सरपरस्ती में वानरों ने विन्ध्याचल को छान डाला. इस दौरान उन्होंने जो-जो देखा,
उसका
पाई-पाई वर्णन वाल्मीकी रामायण में दिया है (देखें किष्किन्धा. 48.4 से 58). लेकिन,
विन्ध्य
के आसन्न दक्षिण में प्रवहमान नर्मदा का कोई उल्लेख नहीं है. यदि वानर दल ने
नर्मदा पार की होती तो यहाँ उसका उल्लेख अवश्य हुआ होता. इसी प्रकार किष्किन्धा से
ससैन्य लंका जाते हुए (देखें युद्ध. 4.23 से 4.100) या फिर पुष्पक विमान में सीता
के साथ लंका से अयोध्या लौटते हुए (देखें युद्ध. सर्ग 123) भी नर्मदा का कोई
उल्लेख नहीं है, क्योंकि विन्ध्याचल और नर्मदा को
पार करके राम दक्षिण भारत में दाख़िल हुए ही नहीं. ठीक इसी प्रकार सीता-हरण के प्रयोजन
से रावण मारीच को मनाने लंका से चला (देखें अरण्य. 35.1 से 35.38) और सीता को हरकर
जनस्थान से लंका पहुँच गया. इन दोनों ही अवसरों पर रावण के नर्मदा पार करने का कोई
उल्लेख वाल्मीकी ने नहीं किया है (देखें अरण्य. 52.13 से 54.12).
सच यह है कि वाल्मीकी को
दक्षिण भारत का पता ही नहीं था. यहाँ तक कि पाणिनि को भी नहीं,
जो उनसे कम से कम सात-आठ सौ बरस बाद हुए. उत्तर भारत के रहने वालों को विन्ध्य-नर्मदा
पार दक्षिण भारत के बारे में कुछ-कुछ पता चलने के संकेत पहले-पहल कौटिल्य
अर्थशास्त्र (ईस्वी पूर्व चौथी सदी) में जाकर मिलते हैं.
जनस्थान से निकलकर राम
क्रौंच वन में दाख़िल हुए. यहीं विन्ध्य की उप-शाखा है ‘केंजुवा’.
यही क्रौंच है. शबर बोली में ‘जैतान’
का
अर्थ है पहाड़ों का तलहटी हिस्सा. ठीक वैसे ही जैसे मुण्डा भाषा में लंका का अर्थ
है ऊँची पहाड़ी. दक्षिण भारत की भाषाओं में यह शब्द आज भी पानी से घिरी पहाड़ी या
टीले का अर्थ देता है. आन्ध्र के तटीय इलाकों में ऐसे अनेक स्थल मौजूद हैं,
जिन्हें आज लंका ही कहा जाता है. लंका सहित अनेक शब्द इसी पुरातन भाषा से आधुनिक
भारतीय भाषाओं में आए हैं. यह समझना कठिन नहीं है कि वीरान जैतान वन में स्थित था,
जिसका संस्कृत में गृहीत रूप ‘जनस्थान’
आबाद जगह का भ्रम उत्पन्न करता है. हम पीछे देख आए हैं कि यह रावण की सेना की सरहदी
चौकी थी. रामायण के गहन अध्येता रामदास अय्यर मानते हैं कि शबर बोली में दण्डक (दण्=जल+डक=जल)
का अर्थ है जल से सराबोर जगह.
पिछली कड़ी में हमने पढ़ा है
कि स्वयं लंका भी त्रिकूट नामक पर्वत पर स्थित थी. वायु पुराण के अनुसार यह पर्वत मलय
द्वीप में था. वायु पुराण यह भी बताता है कि महानदी,
वैनगंगा और गोदावरी से घिरा इलाका ही मलयद्वीप कहलाता है. (द्वीप शब्द भ्रामक है.
यहाँ द्वीप का अर्थ है भू-भाग और उपद्वीप है छोटा इलाका.) स्कन्द पुराण के रेवा-खण्ड
में नर्मदा को ‘त्रिकूटी’
कहा गया है, क्योंकि यह तीन चोटी वाले सबसे
ऊँचे मलय पर्वत से निकलती है. मत्स्य पुराण भी कहता है कि नर्मदा अमरकण्टक से
निकलती है. तथ्य यह है कि यहाँ अमरकण्टक ही
सबसे ऊँची पहाड़ी है -–3493 फ़ुट. इस तरह मलय और अमरकण्टक अभिन्न हैं. राय बहादुर
हीरालाल बताते हैं कि अमरकण्टक में एक चोटी का नाम है ‘आम्रकूट’.
मेघदूत
में कालिदास ने भी इसे आम्रकूट ही कहा है. यह पूरी पहाड़ी अमराई से जो आच्छादित थी.
यहाँ ‘कूट’ और
‘द्वीप’ समानार्थी
हैं. भारत भर में यही एकमात्र स्थान है, जिसका
नाम आम से जुड़ा है. अब इसकी दो और चोटियों ‘शालकूट’
और ‘मधूकूट’
की पहचान कठिन नहीं रह जाती. शालकूट है शाल (साल) वृक्षों से भरी पहाड़ी और मधूकूट
महुआ के वृक्षों से भरपूर पहाड़ी. मधूक अर्थात् महुआ. दरअसल,
ये
शाल-महुआ ही हमें वास्तविक दण्डकारण्य और लंका तक पहुँचाने वाले जीते-जागते
मार्गदर्शक हैं. वाल्मीकि रामायण में इन दोनों ही
वृक्षों का उल्लेख बारम्बार आया है. ग़ौर फ़रमाएं:
- एक
ही बाण से सात साल वृक्षों को भेदकर राम बाली-वध के लिए अपनी सामर्थ्य सिद्ध करते
हैं (देखें किष्किन्धा. 12.1 से 5).
- लड़ाई
वानरों और वानरों के बीच हो या फिर वानरों और राक्षसों के बीच,
हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए वानर हमेशा ही कोई शाल-वृक्ष उखाड़
लेते हैं (देखें किष्किन्धा. तथा युद्ध. के विभिन्न प्रसंग).
- लंका
में उत्पात मचाने पर इन्द्रजित ने ब्रह्मास्त्र से हनुमान को कब्ज़े में ले
लिया तो दूसरे राक्षस उन्हें सन,
चीड़ और अन्य पेड़-पौधों के रेशों से बने रस्सों से बान्धने लगे (देखें सुन्दर.
48.46,48,53).
पूरे के पूरे छोटा नागपुर
इलाके में साल (Shorea Robusta) इस बहुतायत से पाया जाता है कि रामायण के
रचनाकार के लिए इसकी अनदेखी करना असम्भव था.
इनके साथ ही साथ उगने वाले
कुछ और भी वृक्ष हैं, जो केवल और केवल मध्य भारत के इसी
भू-भाग में मिलते हैं, जैसे रस्सी बटने लायक उपर्युक्त
रेशेदार पेड़-पौधे. लब्ध-प्रतिष्ठ पुरातत्ववेत्ता हसमुखलाल धीरजलाल संकालिया कहते
हैं कि इनमें से एक भी वृक्ष ऐसा नहीं है,
जो श्रीलंका में या फिर इस द्वीप से लगने वाले समुद्र के भारतीय भू-भाग
(रामेश्वरम्) में पाया जाता हो. बल्कि, इस
पूर्णतः वृक्षहीन इलाके में इस लायक ठोस पत्थर का टुकड़ा तक नहीं मिलता,
जिसका इस्तेमाल छोटी-मोटी पुलिया बनाने के लिए भी किया जा सके[iv].
अमरकण्टक से ग्यारह
किलोमीटर के दायरे में है शिवरीनारायण. इस स्थान का नाम रामायण में उल्लिखित इसी
नाम की तापसी शबरी पर अधारित है, जिनसे
पम्पा-किष्किन्धा के मार्ग में राम की भेंट हुई थी (अरण्य. 4.75).
हम रावण के पारिवारिक नाम ‘शालकटण्कट’,
प्राचीन
स्थान-नाम ‘अमरकण्टक’ और
रावण की उपाधि ‘देवकण्टक’
पर पीछे विचार कर ही चुके हैं. इम्पीरियल गज़ेटियर,
खण्ड 12, पृष्ठ 323 के अनुसार यहाँ के
निवासी अपने आप को ‘रावण-वंशी’
मानते हैं. वे हनुमान के कारनामों को बखानने वाला एक गीत भी गाते हैं. कैमूर नामक विन्ध्य
पर्वतमाला के इसी हिस्से में मनुष्यों की बड़ी पुरानी बसावट के चिह्न नज़र आते हैं.
उपर्युक्त गज़ेटियर का खण्ड 16, पृष्ठ
275 बताता है कि यहाँ गुफ़ाओं में अत्यन्त प्राचीन शिलाचित्र बने हैं. इसलिए प्रतीत
होता है कि यह प्रदेश आदिवासियों का ठिकाना रहा है और लंका का परिवेश-परम्परा
उनमें ढूँढना बिल्कुल सही है.
निष्कर्षतः,
हम कह सकते हैं कि आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण में पाए जाने वाले स्थान और उनके नाम मनगढ़न्त
नहीं हैं. अलबत्ता, रामायण में इन स्थानों के बीच
बताई दूरी में मामूली कमोबेशी की गुंजाइश ज़रूर है[v].
आज विद्यमान स्थानों, उनके नामों,
वहाँ
की संस्कृति-सभ्यता, इतिहास-भूगोल,
वनस्पति[vi],
जीव-जन्तु[vii]
आदि के माध्यम से उन स्थानों की शिनाख़्त की जा सकती है. महर्षि वाल्मीकीकृत अपने
आदि-काव्य रामायण की ही तरह महर्षि वेदव्यासकृत अपने आदि-इतिहास महाभारत के मामले
भी यही और इतना ही सच है.
--बृहस्पति
शर्मा
< >
< > < > < > < >
[iii] सुलभ सन्दर्भ के लिए सभी हवाले
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता
प्रेस, गोरखपुर से. इन्हें Oriental Institute, M.S. University of Baroda, Vadodara से प्रकाशित ‘समीक्षितपाठात्मकम्
वाल्मीकिरामायणम्’ में भी देखा जा सकता
है.
[iv] Ramayana: Myth or Reality? by HD Sankalia, Page No.49.
[v] यमुना नदी के दक्षिण में स्थित स्थानों से
वाल्मीकी भली-भाँति परिचित नहीं थे. इसलिए इन स्थानों के बीच दूरी का उन्हें
मोटा-मोटा अनुमान भर था. यही कारण है कि राम दक्षिण दिशा में जैसे-जैसे आगे बढ़ते
जाते हैं, वाल्मीकी बताने लगते
हैं कि यह दूरी उन्होंने कितने दिनों में पूरी की. वह शरभंग आश्रम और सुतीक्ष्ण
आश्रम के बीच दूरी न बताकर कहते हैं कि राम कई उफ़नती हुई नदियां पार करके लम्बी
दूरी तय करने के बाद सुतीक्ष्ण के यहाँ पहुँचे. राम से अगस्त्य कहते हैं कि पंचवटी
उनके आश्रम से बहुत दूर नहीं है (नातिदूरे). राम दक्षिण दिशा में और आगे निकल जाते
हैं तो वाल्मीकी दूरियां दस योजन और सौ योजन जैसे पूर्णांकों में देने लगते हैं, जो निश्चय ही छोटी या लम्बी दूरियों के सूचक मात्र
हैं.
[vii] क्रौंच(बगुला), सारस, हंस, रुरु(एक प्रकार का
हरिण), मृग, गोधाम, वराह, चक्रवाक(चकवा), तरक्षु(लकड़बग्घा), हाथी, भालू, बन्दर, लंगूर, भेड़, गीदड़, जुगनू, तोता, कारण्डव(हंस
की जाति का पक्षी), बत्तख, गीध, बाघ, सिंह, चीता, मोर, वंजुल,
सियार, मेंढक, गाय, बैल, साँड, भैंसा, गधा, कौआ, जलकौआ, मच्छर, झींगुर, मगरमच्छ, घड़ियाल, मछली, साँप, मुर्गा, घोड़ा आदि.
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