Sunday 12 August 2012


राक्षसों की राम कहानी (1)
                         (TRUE STORY OF RAKSHASAS)

प्रजापतिः पुरा सृष्ट्वा अपः सलिलसम्भवः.
तासां गोपायने सत्त्वानसृजत्पद्मसम्भवः..
(जल से प्रकट हुए कमल से उत्पन्न प्रजापति ने पूर्व-काल में समुद्रगत जल की सृष्टि करके उसकी रक्षा के लिए अनेक प्रकार के जलचरों को उत्पन्न किया.)
ते सत्वाः सत्त्वकर्तारं विनीतवदुपस्थिताः.
किं कुर्म इति भाषन्तः क्षुत्पिपासाभयार्दिताः..
(भूख-प्यास के भय से पीड़ित होकर वे जलचर अब क्या करें कहते हुए अपने जन्मदाता के पास विनीत भाव से पहुँचे.)
प्रजापतिस्तु तान्याह सत्त्वानि प्रहसन्निव.
आभाष्य वाचा यत्नेन रक्षध्वमिति मानदः..
(प्रजापति ने मुस्कुराते हुए उन्हें सघोष हिदायत दी, “तुम इस जल की जतन से रक्षा करो”.)
रक्षाम इति तत्रान्यैर्यक्षामेति तथापरैः.
भुङ्क्षिताभुङ्क्षितैरुक्त स्ततस्तानाह भूतकृत्..
(वे सारे जलचर भूखे-प्यासे थे. कुछ ने कहा, ‘हम इस जल की रक्षा करेंगे और कुछ ने कहा, ‘हम इसकी पूजा करेंगे’. तब उन भूतों की सृष्टि करने वाले प्रजापति ने कहा--)
रक्षाम इति यैरुक्तं राक्षसास्ते भवन्तु वः.
यक्षाम इति यैरुक्तं ते वै यक्षा भवन्तु वः.. (उत्तर. 4.9 से 13)
(तुममें से जिन्होंने रक्षा करने की घोषणा की है, वे राक्षसनाम से और जिन्होंने पूजन करना स्वीकार किया है, वे यक्ष नाम से जाने जाएंगे.)
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सो, राक्षस और यक्ष दोनों ही उसी प्रजापति के सिरजे हुए हैं, जिसने सृष्टि में और-और प्राणियों को भी उत्पन्न किया है. प्रजापति को यक्षों पर विशेष स्नेह था. यक्ष उनके ख़ास कृपाभाजन थे. उन्होंने पुष्पक विमान का निर्माण किया तो उसे यक्षों के राजा वैश्रवण को दे डाला:
तदेतदृश्यते दूराद्विमलं चन्द्रसंनिभम्.
विमानं पुष्पकं दिव्यं मनसा ब्रह्मनिर्मितम्.. (युद्ध.115.23)
(वह रहा पुष्पक विमान, जो दूर से चन्द्रमा के समान दिखाई देता है. इस दिव्य विमान का निर्माण ब्रह्म ने अपने मनःसंकल्प से किया था.)
मनसा ब्रह्मणा सृष्टे विमाने लक्ष्मणाग्रजः.
रराज पृथुदीर्घाक्षो वज्रपाणिरिवापरः.. (युद्ध.115.29)
(ब्रह्म के मनःसंकल्प से निर्मित उस विमान पर आरूढ़ विशाल नेत्रों वाले राम, वज्रधारी इन्द्र के समान शोभायमान हो रहे थे.)
इससे उत्न्न ईर्ष्या ने आगे चलकर राक्षसों को उनका बैरी बना डाला:
पुष्पकं नाम भद्रं ते विमानं सूर्यसंनिभम्.
मम भ्रातुः कुबेरस्य रावणेनाहृतं बलात्.. (युद्ध.109.09)
(मेरे पास अपने बड़े भाई कुबेर का सूर्य तुल्य तेजस्वी पुष्पक विमान मौजूद है. इसे महाबली रावण ने कुबेर से छीन लिया था.)
राक्षस परिश्रमी थे और पराक्रमी भी. इसीके बल-बूते उन्होंने मध्य भारत के सघन वन-पर्वतों में अपनी स्वशासित दुनिया, अपने रीति-रिवाज कायम किए थे, जिन्हें आम तौर पर हम राक्षस संस्कृति कहते हैं. यह वेदोक्त यज्ञ-अनुष्ठान से भिन्न अनार्य संस्कृति थी. इसीको द्रविड़ संस्कृति भी माना जाता है. उन्हें अपनी संज्ञा राक्षसपर बला का अभिमान था. सुरा-सुन्दरी में संलिप्त, काहिल, वरद्-वरदायी देवताओं को वे हेय और उनके पिछलग्गू आर्यों (मनुष्य, मानुष और मानव) को तुच्छ दृष्टि से देखते थे. यही कारण है कि पुरुषोत्तम राम के बल-वीर्य की स्वीकृति के बावजूद (जौं नर तात तदपि अति सूरा), रामायण में राक्षस उन्हें स्थान-स्थान पर नीची नज़र से मामूली मनुष्य, कुमानुष और निरा मानव कहकर सम्बोधित करते हैं:
मानुषौ यन्न शक्नोषि हन्तुं तौ रामलक्ष्मणौ.
...निःसत्त्वस्याल्पवीर्यस्य वासस्ते कीदृशस्त्विह.. (अरण्य.20.16-17)
(राम-लक्ष्मण मनुष्य हैं. यदि तुममें उन्हें मारने की भी शक्ति नहीं है तो तुम जैसा निःसत्व-निर्वीर्य राक्षस यहाँ कैसे रह पाएगा?)
देवराजमपि क्रुद्धो मत्तैरावतयायिनम्.
वज्रहस्तं रणे हन्यां किं पुनस्तौ च मानवौ.. (अरण्य.22.24)
(मैं रण-भूमि में कुपित होकर मतवाले ऐरावत पर चलने वाले वज्रधारी देवराज को भी ठिकाने लगा सकता हूँ. फिर उन दो मानवों की तो बात ही क्या है?)
महत्या सेनया सार्धं युद्ध्वा रामं कुमानुषम्. (अरण्य. 26.25)
(तुम सभी राक्षस बहुत बड़ी सेना के साथ आक्रमण करके इस दुष्ट मनुष्य राम के साथ युद्ध करो.)
प्रतीत होता है, लंका के राक्षसों की सीमान्त वन-बस्ती जनस्थान में आर्य-संस्कृति के पोषक ऋषि-मुनि-तापस-साधकों ने एक तो उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ अड्डा जमा लिया था, जिसे आर्ष ज़बान में हम आश्रम कहते हैं. दूसरे, इस अनधिकृत कब्ज़ाए हुए इलाके में वे जगह-जगह से किस्म-किस्म के घातक हथियार जुटाकर राक्षसों के शत्रुओं को उपहार-स्वरूप देते और पाने वाले इन हथियारों का इस्तेमाल राक्षसों के ही विनाश के लिए करते. याद कीजिए, पन्द्रह (बारह?) बरस की उम्र में विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए अयोध्या से रवाना होते समय राम के पास कोई दिव्यास्त्र नहीं थे. इस अवसर पर दशरथ कहते हैं:

बालो ह्यकृतविद्यश्च न च वेत्ति बलाबलम्.
न चास्त्रबलसंयुक्तो न च युद्धविशारदः. (बाल. 19.7)
(मेरा राम अभी बालक है. इसने अभी युद्ध-विद्या नहीं सीखी है. यह दूसरे के बलाबल को नहीं जानता है. यह न तो अस्त्र-बल सम्पन्न है, न ही युद्ध-कला में निपुण.)
और यह रहा ऋषि विश्वामित्र का आश्वासन कि मैं उन्हें निश्चित रूप से अनेक प्रकार का श्रेय प्रदान करूँगा:
श्रेयश्चास्मै प्रदास्यामि बहुरूपं न संशयः. (बाल. 18.10)
उन्होंने अपना वादा निभाया भी –-मैं तुम्हें सभी दिव्यास्त्र दे रहा हूँ:
तानि दिव्यानि भद्रं ते ददाम्यस्त्राणि सर्वशः. (बाल. 26.4)
और वनगमन के दौरान ऋषि-मुनियों से, विशेषतः अगस्त्य से, मेल-मुलाक़ात के बाद:
रामो नाम महातेजाः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम्.
दिव्यास्त्रगुणसम्पन्नः परं धर्मं गतो युधि.. (अरण्य. 31.15)
(जिनका नाम राम है, वह संसार के सारे धनुर्धरों में श्रेष्ठ और महातेजस्वी हैं. वह दिव्य अस्त्रों के प्रयोग में भी निष्णात हैं. युद्ध-कला में तो वह पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए हैं.)
ज़ाहिर है कि राम को सारे के सारे अस्त्रों की आपूर्ति वनवासी ऋषि-मुनियों ने ही की थी. तीसरे, ये वनवासी आर्य वहाँ उन्हें सिरे से नापसन्द वैदिक यज्ञ-अग्निहोत्र जैसे कर्म-काण्ड के ज़रिए आदिवासी जनजातियों के बीच आस्था-परिवर्तन के उद्देश्य से अपने धर्म-सम्प्रदाय के प्रचार-प्रसार में अहर्निश संलग्न रहते थे. उनकी यह जी-तोड़ कसरत रंग भी लाने लगी थी. इस कारण ऋषि-मुनि-तापस-साधकों से उन्हें विशेष घृणा थी और समय-समय पर वे उनका बेरहमी से शिकार करते रहते थे.
रामायण वैदिक काल के तुरन्त बाद की रचना है. इसलिए ऐसा नहीं कि राक्षसों और मनुष्यों के बीच इसी दौर में एकाएक ठन गई हो. वैदिक साहित्य, विशेष रूप से अथर्ववेद में रक्षस्, राक्षस, पिशाच आदि भूतों का उल्लेख मिलता है. तभी से ये मनुष्य के शत्रु हैं. अथर्ववेद में इनके विरुद्ध बहुत सारे मन्त्र मिलते हैं. मनुष्यों के लिए राक्षस एक तरह से अनिष्ट, अशुभ, हिंसा और पाप के प्रतीक बन गए थे. आगे चलकर रावण के क्रूर-हिंसात्मक अनुयायियों को भी यही नाम मिला. रामकथा के बाबा कामिल बुल्के के अनुसार, रामायण में उपलब्ध राक्षसों का वर्णन ऋग्वेद में वर्णित अनार्य दस्युओं से बहुत कुछ मिलता-जुलता है. 
आइए, रामायण में बालकाण्ड के राक्षसों से मिलते हैं. पहले मारीच और सुबाहु. बकौल विश्वामित्र:
मारीचश्च सुबाहुश्च वीर्यवन्तौ सुशिक्षितौ. (बाल. 19.25)
               (मारीच और सुबाहु दोनों ही बलवान और सुशिक्षित हैं.)              
मारीचो राक्षसः पुत्रो यस्याः शक्रपराक्रमः. (बाल. 23.25)
(मारीच इन्द्र के समान पराक्रमी है.)
मारीचं नाम दुर्धर्षं अगस्त्य मुनि के शाप (तू देवयोनि-रूप का परित्याग करके राक्षस भाव को प्राप्त हो जा) से राक्षस हो गया था –-राक्षसत्वं भजस्वेति मारीचं सः. एकदम स्पष्ट है कि राक्षस भी मनुष्य ही थे -–राक्षस मनुष्य’, केवल उनका स्वभाव, उनकी वृत्ति-प्रवृत्ति आर्य मनुष्य से अलग होती थी.
मारीच-सुबाहु विश्वामित्र के यज्ञ में आदतन विघ्न डालने पहुँचे. मारीच को तो राम ने शीतेषु नामक मामूली मानवास्त्र से दूर समुद्र में फेंक दिया (बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा), लेकिन सुबाहु को आग्नेयास्त्र से मार ही डाला.
मारीच यक्ष से रूपान्तरित अभिशप्त राक्षस है. इसलिए उसमें शिष्टाचार-संस्कार निःशेष नहीं हुए हैं. रावण पहली बार उसके आश्रम में पहुँचा तो मारीच ने आसन, जल आदि से उसका पूजन किया, उसे अलौकिक पकवान अर्पित किए --करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात.
रावण का अपना अनुचर अकम्पन उसे सीता के अपहरण की सलाह देता है, ताकि राम की जीवन-लीला विरह में ही समाप्त हो जाए. लेकिन, मारीच निर्भय-निर्भीक स्पष्टवक्ता है -–तासों तात बयरु नहिं कीजै. चापलूसी और मुँहदेखी बात करनी जैसे वह जानता ही नहीं. रावण को वह राम की शक्ति का यथार्थ ब्योरा देता है और यह परामर्श भी कि वह राम से खुन्नस न पाले, अन्यथा सम्पूर्ण राक्षस जाति का विनाश सुनिश्चित है --तिन्ह सन बयरु भल नाहीं. फलस्वरूप, रावण तदर्थ रूप से लंका लौट जाता है. 
शूर्पणखा के लंका पहुँचकर रावण को यह सीख देने के बाद कि वह राम की ब्याहता सीता को अपनी पत्नी बना ले, रावण जल्द ही मारीच के पास लौटा. अब मारीच का बाना देखने लायक है:
तत्र कृष्णाजिनधरं जटावल्कलधारिणम्.
ददर्श नियताहारं मारीचं नाम राक्षसम्.. (अरण्य. 34.37)
(शरीर पर काला मृग-चर्म और सिर पर जटा-वल्कल धारे संयमित आहार करते हुए वहाँ मारीच नामक राक्षस रहता था.)
उसने पहली ही बार की तरह रावण का अतिथि सत्कार किया, धैर्यपूर्वक उसकी बात सुनी और अपनी तथ्यपूर्ण प्रशंसा भी:
वीर्ये युद्धे च दर्पे च न ह्यस्ति सदृशस्तव.
उपायतो महाञ्शूरो महामायाविशारदः.. (अरण्य. 36.16)
(पराक्रम, युद्ध, वीरोचित अभिमान में तुम्हारे समान कोई नहीं है. ना-ना प्रकार के उपाय बताने और अमोघ माया के प्रयोग में भी तुम कुशल हो.)
लेकिन, ‘वाक्यविशारद और महातेज मारीच उसके झांसे में आए बगैर बोला:
सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः.
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः.. (अरण्य. 35.2)
(राजन्, सदा प्रिय वचन बोलने वाले पुरुष तो सर्वत्र सुलभ होते हैं. लेकिन, जो अप्रिय होने पर भी हितकर हो, ऐसी बात कहने और सुनने वाले दोनों ही दुर्लभ हैं.)
इस हितू, स्पष्टवादी मन्त्रणा पर तो किसी भी राजा को निछावर हो जाना चाहिए. लेकिन, मारीच को मिला क्या -–सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी.
वह रावण को नीति बता रहा है तो लगता है, अपने यक्ष से राक्षस में तब्दील होने की आपबीती ही बता रहा है:

अकुर्वन्तोsपि पापानि शुचयः पापसंश्रयात्.
परपापैर्विनश्यन्ति मत्स्या नागह्रदे यथा.. (अरण्य. 36.22)
(आचार-विचार से शुद्ध और पाप-अपराध न करने वाले लोग भी यदि पापियों की संगत में चले जाएं तो दूसरों के पाप से ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे साँप वाले सरोवर में निवास करने वाली मछलियां भी साँप के साथ ही मारी जाती हैं.)
राक्षसों को बहुविवाह और किसीकी विवाहिता पत्नी से विवाह में भी कोई परहेज नहीं था. इसके बावजूद, रावण जैसे राक्षस एवं राजा को एक अन्य राक्षस की यह मन्त्रणा सम्पूर्ण रामायण में विरल है:
परदाराभिमर्शात् तु नान्यत् पापतरं महत्.
प्रमदानां सहस्राणि तव राजन् परिग्रहे.. (अरण्य. 38.30)
ध्यातव्य है कि स्वयं राम भी तो इधर बहुविवाह प्रचलित आर्यों के समाज में धारा के विपरीत एकपत्नी-व्रत की ही नींव रख रहे थे.
यह वही मारीच है, जो कहता है:
नीलजीमूतसंकाशस्तप्तकाञ्चनकुंडलः.
भयं लोकस्य जनयन्किरीटी परिघायुधः..
व्यचरन् दण्डकारण्यमृषिमांसानि भक्षयन्. (अरण्य. 36.2)
(मेरा शरीर नील मेघ के समान काला था. मैंने कानों में सोने के कुण्डल, मस्तक पर किरीट और हाथ में परिघ धारण कर रखा था. मैं ऋषियों का माँस खाता और दुनिया भर के मन में डर जगाता हुआ दण्डकारण्य में घूमता रहता था!)
रावण ने मारीच को मायाविशारद यों ही नहीं कहा था. कहने की आवश्यकता नहीं कि मारीच अकेला ऐसा राक्षस है, जो राम के विरुद्ध अपनी मुहिम में पूरी तरह कामयाब हुआ. उसने सीता को अपनी ओर सफलतापूर्वक इस तरह आकर्षित किया कि पहले तो राम को उसका पीछा करने के लिए आश्रम छोड़कर दूर तक जाना पड़ा. फिर मरते समय उसने ऐसे ज़ोर का कपट हाहाकार मचाया कि विवश लक्ष्मण भी सीता को आश्रम में अकेली छोड़कर राम की तलाश में निकल पड़े. इस प्रसंग ने रामायण की दिशा ही बदलकर रख दी और आदिकवि अपने सृजन को अभीष्ट अन्त तक पहुँचाने में सफल हुए.
मारीच रामायण का अनन्य राक्षस पात्र है, जिसमें दो व्यक्तित्व, दो संस्कार, दो स्वभाव, दो प्रवृत्तियां सविवेक साथ-साथ मौजूद हैं. अपने भगवान-भगवती की जुगल जोड़ी को छोड़कर अन्य पात्रों के निरूपण में बेहद कंजूसी बरतने वाले गुसाईं जी भी मारीच के मायावी स्वरूप के आगे बेबस  होकर कोई छब्बीस दोहा-चौपाई इस प्रसंग पर खर्च करने से पीछे न हट सके. उन्होंने ताड़का, विराध और कबन्ध को एक-आध दोहा चौपाई में ही निपटाकर रख दिया है तो उधर लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न के विवाह पर भी एक-एक से ज़्यादा चौपाई शायद नहीं लगाई है. वाल्मीकि हैं कि उन्होंने पूरे ग्यारह सर्गों में इस कल्पनातीत चरित्र को बड़े मणिकांचन मनोयोग से गढ़ा और जड़ा भी कुछ ऐसे ही विलक्षण है:
स तु रूपं समास्थाय महदद्भुतदर्शनम्.
मणिप्रवरशृङ्गाग्रः सितासितमुखाकृतिः..
रक्तपद्मोत्पलमुख इन्द्रनीलोत्पलश्रवाः.
किंचिदभ्युन्नतग्रीव इन्द्रनीलनिभोदरः..
मधूकनिभपार्श्वश्च कञ्जकिञ्जल्कसंनिभः..
वैदूर्यसंकाशखुरस्तनुजङ्घः सुसंहतः
इन्द्रायुधसवर्णेन पुच्छेनोर्ध्वं विराजितः.. (अरण्य. 40.13 से 15)
(उसने अद्भुत रूप धारण कर रखा था. सींगों के ऊपरी भाग श्रेष्ठ मणि इन्द्रनील के बने हुए जान पड़ते थे. लाल कमल के समान मुख पर श्वेत-श्याम बूँदें, नील कमल तुल्य कान, गरदन तनिक ऊँची, उदर भाग इन्द्रनीलमणि की तरह कान्तिमान. पार्श्व भाग महुए के फूल के समान श्वेत वर्ण और शरीर का सुनहरा रंग कमल-केसर की भाँति सुशोभित. उसके खुर वैदूर्य मणि के समान, पिण्डलियां छरहरी और पूँछ का ऊपरी भाग इन्द्रधनुष के रंग का था, जिससे उसका सुगठित शरीर विशेष शोभा पा रहा था –-अति बिचित्र कछु बरनि न जाइ. कनक देह मनि रचित बनाई..)
इसे देखकर बेचारी सीता को तो माया के फेर में पड़ना ही था, बच मन से राम भी नहीं सके: बभूव राघवस्यापि मनो विस्मयमागतम् (अरण्य. 41.21).
...सत्यसंध प्रभु बधि करि एहि. आनहु चर्म कहति बैदेही..
...मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा. करतल चाप रुचिर सर साँधा..
और तुलसीदास जी के ही शब्दों में इसका पारितोषिक--
अंतर प्रेम तासु पहिचाना. मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना..
--बृहस्पति शर्मा





    
 स्रोत:
  1. VALMEEKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. रामचरितमानस

  

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