Sunday 12 August 2012


राक्षसों की राम कहानी (2)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)

तीन हजार साल से कुछ अधिक अरसा बीता होगा, जब मध्य भारत के वन-पर्वतों में अनेक जनजातियां निवास करती थीं. इन यक्ष, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर, नाग आदि मानुष जनजातियों में यक्ष और विशेषतः राक्षसों ने अपने बुद्धिबल, भुजबल और परिश्रम से सम्पूर्ण जनजातीय समाज में उन्नत स्थान प्राप्त कर लिया था. वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड के अध्ययन से मालूम पड़ता है कि इन यक्ष-राक्षसों के बीच नातेदारी थी और रिश्तेदारी भी. इसके बावजूद, राज्य-विस्तार और शक्तिवर्धन के लिए राक्षसों की नीति-संयमहीन युयुत्सु प्रवृत्ति के चलते इनमें कभी बनी नहीं, हमेशा ठनी रही.
यक्ष भी राक्षसों और आर्यों के समान ही तपस्या करते और वैदिक देवताओं से वरदान प्राप्त करते थे.
पूर्वमासीन्महायक्षः सुकेतुर्नाम वीर्यवान्.
अनपत्यः शुभाचारः स च तेपे महत्तपः.. (बाल. 24.4)
(पूर्वकाल में सुकेतु नामक महान यक्ष थे. वह बड़े पराक्रमी और सदाचारी थे. उन्हें कोई सन्तान नहीं थी. उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की.)
यक्ष मनुष्यसदाचारी थे और अकारण लड़ाई-झगड़े से दूर रहते थे. आर्य मनुष्योंसे उनकी शत्रुता या युद्ध दिखाई नहीं पड़ता. वानर और राक्षसों की तरह इन यक्षों को भी मनचाहा रूप धारण करने की शक्ति प्राप्त थी:
कामरूपधरा सा तु कृत्वा रूपाण्यनेकशः.
अन्तर्धानं गता यक्षी मोहयन्ती स्वमायया.. (बाल. 26.19)
(वह इच्छानुसार रूप धारण करने वाली यक्षी वै कामरूपिणी (बाल. 23.24) थी. अनेक प्रकार के रूप बनाकर राम-लक्ष्मण को मोह में डालती हुई अदृश्य हो गई.)
पता चलता है कि राक्षसों के संसर्ग में आने के बाद इन सज्जन यक्षों का चाल-चलन बिगड़कर राक्षसवत् हो जाता था, फिर वे कितने ही वरद् क्यों न हों:
पितामहस्तु सुप्रीतस्तस्य यक्षपतेस्तदा.
कन्यारत्नं ददौ राम ताटकां नाम नमतः.. (बाल. 24.5)
(राम, यक्षराज सुकेतु की तपस्या से प्रसन्न ब्रह्म ने उसे एक कन्यारत्न प्रदान किया. उसका नाम ताटका {ताड़का} था.)
तां तु जातां विवर्धन्तीं रूपयौवनशालिनीम्.
जम्भपुत्राय सुन्दाय ददौ भार्यां यशस्विनीम्.. (बाल. 24.7)
(वह यक्ष बालिका धीरे-धीरे बड़ी होने लगी और रूप-यौवन से सुशोभित भी. उस यशस्विनी को सुकेतु ने जम्भपुत्र सुन्द नामक बुद्धिमान राक्षस से ब्याह दिया:)
ताटका नाम भद्रं ते भार्या सुन्दस्य धीमतः. (बाल. 23.25)
वाल्मीकि का अद्भुत-अभिशप्त चरित्र मारीच इसी ताड़का का पुत्र था:
मारीचो राक्षसः पुत्रो यस्याः शक्रपराक्रमः. (बाल. 23.25)
प्रश्न उठता है, यह रूप-यौवन सम्पन्न, यशस्विनी कन्या ताड़का आक्रामक-नरभक्षी राक्षसी में क्यों और कैसे परिवर्तित हो गई?
सुन्दे तु निहते राम अगस्तमृषिसत्तमम्.
ताटका सहपुत्रेण प्रधर्षयितुमिच्छति.. (बाल. 24.9)
(राम, अगस्त्य ने शाप देकर ताड़का के पति को मार डाला. अब ताड़का पुत्र की सहायता से अगस्त्य को मार डालना चाहती थी.)
भक्षार्थं जातसंरम्भा गर्जन्ती साभ्यधावत. (बाल.25.11)
(वह कुपित होकर मुनि को खा जाने के लिए गरजती हुई दौड़ी.)
ध्यातव्य है कि ताड़का जब तक रूप-यौवन सम्पन्न यक्षिणी थी, वह मनुष्य ऋषियों के लिए निरापद थी, यद्यपि ब्रह्म से उसे वरदानस्वरूप एक हजार हाथियों का बल प्राप्त था:
ददौ नागसहस्रस्य बलं चास्याः पितामहः. (बाल. 24.6)
बलं नागसहस्रस्य धारयन्ति तदा ह्यभूत्. (बाल. 23.24)
वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड को समाविष्ट करने वाले कवि-सम्पादक महोदय यह नहीं बताते कि सुन्द और अगस्त्य के बीच ऐसा क्या हो गुज़रा था कि ऋषि ने उसे शाप दे डाला, लेकिन वह यह बताने से नहीं चूकते कि पुत्र सहित ताड़का प्रतिशोध लेने के लिए अगस्त्य की ओर बढ़ी तो ऋषि ने उसे और मारीच को शाप दे डाला:
राक्षसत्वं भजस्वेति मारीचं व्याजहार सः.
अगस्त्यः परमक्रुद्धस्ताटकामपि शप्तवान्..
पुरुषादी महायक्षी विकृता विक्रतानना.
इदं रूपमपाहाय दारुणं रूपमस्तु ते.. (बाल. 24.10-11)
(भगवान अगस्त्य मुनि ने मारीच से कहा -–तू देवयोनि को तजकर राक्षस भाव को प्राप्त हो जा. फिर अत्यन्त क्रोध में भरे अगस्त्य ने ताड़का को भी शाप दे डाला: तू विकराल-मुख नरभक्षिणी राक्षसी हो जा. तू है तो महायक्षिणी, लेकिन इस रूप को त्यागकर अब तेरा रूप शीघ्र ही भयंकर हो जाए.)
परिणामस्वरूप:
वृत्तबाहुर्महाशीर्षो विपुलास्यतनुर्महान्. (बाल. 24.27)
(उसकी भुजाएं गोल, मस्तक बहुत बड़ा, मुँह फैला हुआ और शरीर विशाल है.)
तां दृष्ट्वा राघवः क्रुद्धां विकृतां विकृताननाम्.
प्रमाणेनातिवृद्धां च लक्ष्मणं सोsभ्यभाषत..
पश्य लक्ष्मण यक्षिण्या भैरवं दारुणं वपुः.
भिद्येरन्दर्शनादस्या भीरूणां हृदयानि च.. (बाल. 25.9-10)
(उसका क़द बहुत ऊँचा था, मुखाकृति विकृत. उस क्रुद्ध-विकराल राक्षसी की ओर देखकर राम ने कहा, “लक्ष्मण! देखो तो सही, इस यक्षिणी का शरीर कैसा दारुण एवं भयंकर है. इसे तो देखने भर से ही भीरू पुरुषों के हृदय विदीर्ण हो जाएं.”)
इतने पर भी, राम के मन में निहत्थी ताड़का के वध को लेकर संकोच है. उसके हाथ में अस्त्र-शस्त्र तो छोड़िए, मामूली लाठी तक नहीं है. वह उसे अन्य राक्षसियों की भाँति केवल अंग-भंग करके छोड़ देना चाहते हैं. लेकिन, गुरु की आज्ञा और पिता के आदेश के आगे बेबस हैं:
सोsहं पितुर्वचः श्रुत्वा शासनाद्ब्रह्मवादिनः.
करिष्यामि न सन्देहस्ताटकावधमुत्तमम्.. (बाल. 25.4)
वरदान से प्राप्त अमित बल और ताड़का के भीषण-भयंकर रूप के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन को बाज़ू रखकर देखें कि राम के सामने पड़ने पर उसने क्रोध में क्या किया? वह बाँह उठाकर गरजती हुई झपटी:
उद्यम्य बाहू गर्जन्ती राममेवाभ्यधावत. (बाल. 25.13)
उद्धुन्वाना रजो घोरं ताटका राघवावुभौ. (बाल. 26.15)
(उसने भारी मात्रा में धूल उड़ाना आरम्भ किया.)
ततो मायां समास्थाय शिलावर्षेण राघवौ. (बाल. 26.17)
(माया का आश्रय लेकर भारी पथराव करने लगी.)
इसके उत्तर में राम ने अपने तीक्ष्ण बाणों से उसके दोनों हाथ काट डाले: करौ चिच्छेद पत्रिभिः. (बाल. 26.17)
दोनों भुजाएं कट जाने से बेचारी थकी हुई ताड़का उनके पास खड़ी होकर ज़ोर-ज़ोर से गरजने[i] लगी. यह देखकर लक्ष्मण भला क्यों पीछे रहते? उन्होंने ताड़का के नाक-कान भी काट लिए, जिसमें वे कुशल थे[ii]:
ततश्छिन्नभुजां श्रान्तामभ्याशे परिगर्जतीम्.
सौमित्रिरकरोत् क्रोधाद्धृतकर्णाग्रनासिकाम्.. (बाल. 26.18)
बुरी तरह से घायल होकर अपने अंग हमेशा-हमेशा के लिए गँवा चुकी ताड़का पहले तो वहाँ से भाग निकली. आदिकवि(?) कहते हैं, वह लौटकर दुबारा पत्थर बरसाने लगी. दोनों हाथ (नाक-कान भी) गँवाकर लौटी अबला से ऐसे पलटवार की कल्पना भी नहीं की जा सकती. और, यहीं आकर हक़ीकत सामने आती है. विश्वामित्र अबला-वध के पुराने दृष्टान्त देकर राम को उत्प्रेरित करते हैं --राम, इस पर तुम्हारी दया व्यर्थ है. यह बड़ी पापिनी और दुराचारिणी है. यज्ञों में सदा विघ्न डालती है. इसे मार डालो[iii]:
दृष्ट्वा गाधिसुतः श्रीमानिदं वचनमब्रवीत्.
अलं ते घृणया राम पापैषा दुष्टचारिणी..
यज्ञविघ्नकरी यक्षी पुरा वर्धेत मायया.
वध्यतां तावदेवैषा पुरा सन्ध्या प्रवर्तते.. (बाल. 26.21-22)
उनकी अपनी पारम्परिक जीवन-शैली के अनुसार वन में गुज़र-बसर करने वाली क़ौम के निवास-क्षेत्र में जबरन घुस जाना; केवल इसलिए कि वे विजातीय हैं, किसी युवा रमणी के पति की अकारण जान ले लेना; झगड़ने आए तो उसे और उसके पुत्र को शाप देकर पहले जाति-बहिष्कृत कर देना; उसका रूप-सौन्दर्य छीन लेना; फिर बलवान पुरुषों की बर्बरतापूर्ण सहायता से उसके अंग-भंग करके मरवा देना --यह था आर्यों का आक्रामक सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनैतिक साम्राज्यवाद. एक तो राक्षस अधिकृत वन-क्षेत्र में ऋषियों की मनमानी घुसपैठ, वहाँ राक्षसों को अत्यन्त नापसन्द यज्ञ-कर्मकाण्ड का आयोजन, प्रतिरोध पर शक्तिशाली क्षत्रियों को विशेष रूप से बुलाकर दमन और आपत्ति जताने वाली निहत्थी-निर्बल स्त्रियों तक का निर्मम-निर्वत्सल वध! क्या ऋषि-मुनियों के यज्ञ में विघ्न डालना इतना बड़ा पाप-अपराध है कि आप दोषी के प्राण हर लें? फिर वह चाहे निहत्थी स्त्री ही क्यों न हो? इस पूरे के पूरे प्रकरण को मन्थरा-प्रसंग के आलोक में देखना होगा:
राजा दशरथ के रानी बहुल राजमहल में मन्थरा के स्वामिनीभक्ति-पूर्ण षड्यन्त्र के कारण कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा विधवा हो गईं, राम-लक्ष्मण-जानकी को दुःखदायी वनवास पर जाना पड़ा, भाई-भाई वर्षों तक बिछुड़े रहे तथा अयोध्या कई बरस के लिए शासक विहीन हो गई. इसी मन्थरा को श्मशान-भूमि में ही प्राणदण्ड देने पर उतारू शत्रुघ्न को भरत हिदायत देते हैं:
अवध्याः सर्वभूतानां प्रमदा: क्षम्यतामिति.. (अयोध्या. 72.20)
(सौमित्र, इसे क्षमा कर दो. स्त्रियां सभी प्राणियों के लिए अवध्य होती हैं.)
इमामपि हतां कुब्जां यदि जानाति राघवः.
त्वां च मां चैव धर्मात्मा नाभिभाषिष्यते ध्रुवम्.. (अयोध्या. 72.22)
(यदि धर्मात्मा राम को इस कुब्जा के मारे जाने का समाचार मिलेगा तो निश्चय जानो कि वह तुमसे और मुझसे बोलना ही छोड़ देंगे.)
भरतस्य  वचः श्रुत्वा शत्रुघ्नो लक्ष्मणानुजः.
न्यवर्तत ततो दोषात् तां मुमोच च मूर्छिताम्.. (अयोध्या. 78.24)
(भरत का कहा मानकर शत्रुघ्न मन्थरा-वध के दोष से बच गए...)
अपने और पराए समाज की स्त्री के प्रति कैसे हैं ये घोर अन्तर्विरोधी दोहरे मानदण्ड? मन्थरा ने तो पूरी की पूरी अयोध्या और उसके सम्पूर्ण राजपरिवार के ही यज्ञ में आग लगा दी थी न! और कैकेयी?  
आगे चलकर अहिंसक-अनुग्र बौद्ध-जैन धर्मावलम्बियों ने जब मानवता के हित में इस तरह के कर्मकाण्ड का विरोध जताया तो वैदिक-पौराणिक धर्मावलम्बियों ने उन पर भी ऐसा ही अत्याचार किया, इतना भयानक कि भारत में आज बौद्ध-जैन सम्प्रदाय अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक होकर रह गए हैं. लगता तो यह है कि राक्षसों की तो केवल रूप-आकृति ही भयानक है, जिन मनुष्य-आर्यों के समर्थन में आर्य करकमलों से यह महाकाव्य रचा गया है उनके तो कर्म-व्यवहार ही कतिपय स्थानों पर अमानुषिक-विकराल हैं.
    --बृहस्पति शर्मा




स्रोत:
  1. VALMEEKI RAMAYANA: TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION, ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर.           
  3. रामचरितमानस
  








       


[i] तात्पर्य स्त्रियोचित गालियां देना, जैसाकि हम रोज़मर्रा के जीवन में स्त्रियों के झगड़े में देखते हैं.
[ii] लक्ष्मण ने शूर्पणखा और अयोमुखी के भी नाक-कान काटे थे.
[iii] गुसाईं जी ने बालकाण्ड (208.3) में ताड़का प्रसंग को एक ही चौपाई में निपटा दिया है:
चले जात मुनि दीन्हि देखाई. सुनि ताड़का क्रोध करि धाई.
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा. दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा.. 

No comments:

Post a Comment