राक्षसों
की राम कहानी (3)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)
देश हो चाहे विदेश,
हम चाहे किसी भी क्षेत्र या किसी भी भाषा में रामायण पढ़ने वाले क्यों न हों,
राम की छवि सभी के मन में असाधारण व्यक्तित्व के धनी सामान्य मनुष्य की है –-इन्द्र
के समान तेजस्वी-सुकुमार मुखमण्डल, नील कमल
के समान आँखें, सरल-मधुर वाणी,
सिर
पर चिकने केशों का जटाजूट, पुष्ट
कन्धे, चौड़ी छाती,
बलिष्ठ आजानु भुजदण्ड, सिंह समान क्षीण कटि,
सुघड़-गजगामी पैर, ऊँचा कद, श्याम
वर्ण युक्त सर्वशः सुगठित देहयष्टि, हाथ में
धनुष, पीठ पर तूणीर,
धोती बान्धे हुए नंगे पाँव. धार्मिक पुस्तक हो,
पोस्टर हो या फिर मूर्ति, राम को कामदेव
के सदृश्य कुछ ऐसा ही चित्रित किया जाता है. द्वन्द्व युद्ध हुआ तो तलवार और ढाल
के सहारे तथा रण-क्षेत्र में इन्हीं धनुष-बाण जैसे सामान्य हथियारों से तरुण राम
अकेले दम रावण सहित सहस्रों राक्षसों का वध कर देते हैं. और ये राक्षस? कौन हैं?
कैसे हैं?
हम पीछे स्पष्ट कर आए हैं
कि राक्षस मध्य भारत की उन्नत अनार्य जनजाति थी.
रामायण में हमें राक्षस
कुल की तीन शाखाएं मिलती हैं. इनमें से एक शाखा का प्रतिनिधि विराध है. दूसरी का
कबन्ध. तीसरी शाखा लंका के राक्षसों की है,
जिनका प्रतिनिधि रावण है.
महर्षि वाल्मीकि के
आदिकाव्य में अपनी काव्य-कला और सम्पादन-कला आज़माने वाले सूत,
सौती, हरिवंशकार,
पर्वसंग्रहकार और अन्यान्य रचनाकारों ने राक्षसों को प्रायः विकृत-विकराल बताने
में मुक्तहस्त उदारता का परिचय दिया है. वे इस महाकाव्य के खलनायक जो ठहरे. पीछे
हम ताड़का के रूप की चर्चा कर आए हैं. आइए,
देखें कि सूत जी ने अपने राम पर काम-मोहित[i]
शूर्पणखा को क्या रूप दिया है:
सुमुखं
दुर्मुखी रामं वृत्तमध्यं महोदरी.
विशालाक्षं
विरूपाक्षी सुकेशं ताम्रमूर्धजा.
प्रियरूपं
विरूपा सा सुस्वरं भैरवस्वना..
तरुणं
दारुणा वृद्धा दक्षिणं वामभाषिणी.
न्यायवृत्तं
सुदुर्वृत्ता प्रियमप्रियदर्शना.. (अरण्य. 16.8-10)
(शूर्पणखा
का मुख भद्दा था. वह बेडौल-तोन्दिल बुढ़िया थी. उसकी आँखें डरावनी,
केश ताम्बई, रूप वीभत्स-विकराल-घृणास्पद,
स्वर कर्कश जैसे भैरव-नाद, बातें
कुटिल[ii]
और स्वभाव से दुराचारिणी थी.)
कवि ने आगे उसे शूर्पनखीं,
विरूपा-महाघोरा, घोरदर्शना भी कहा है. इसके
विपरीत, संवाद के बीच शूर्पणखा को राम पहले
तो ‘विशाललोचने’ और
‘वरारोहे’
कहते हैं तथा लक्ष्मण उसीको कमलवर्णिनी, मुदितामलवर्णिनी,
विशालाक्षी बताते हुए कहते हैं:
को हि
रूपमिदं श्रेष्ठं सन्त्यज्य वरवर्णिनी.
मानुषीषु
वरारोहे कुर्याद्भावं विचक्षणः.. (अरण्य. 17.12)
(सुन्दर
कटिप्रदेश वाली वरवर्णिनी! कौन ऐसा
बुद्धिमान मनुष्य होगा, जो
तुम्हारे इस श्रेष्ठ रूप को छोड़कर मानव कन्याओं से प्रेम करेगा?)[iii]
वही राम,
शूर्पणखा के क्रुद्ध होने पर लक्ष्मण से क्या कहते हैं,
देखें:
इमां
विरूपामसतीमतिमत्तां महोदरीम्.
राक्षसीं
पुरुषव्याघ्र विरूपयितुमर्हसि.. (अरण्य. 17.20)
(पुरुषसिंह!
तुम्हें इस कुरूपा, कुलटा,
अत्यन्त मतवाली और तोन्दिल राक्षसी को विरूपित --अंगहीन— कर देना चाहिए.)
स्पष्ट है कि राम-लक्ष्मण
पहले तो शूर्पणखा से परिहास कर रहे थे. उनके पहले बोल प्रशंसा-सूचक हैं. तो क्या
वे झूठ बोल रहे थे? अरण्यकाण्ड में ही सीता की
साखी है:
त्रीण्येव
व्यसनान्यत्र कामजानि भवन्त्युत.
मिथ्यावाक्यं
परमकं तस्माद्गुरुतरावुभौ..
परदाराभिगमनं
विना वैरं च रौद्रता.
मिथ्यावाक्यं
न ते भूतं न भविष्यति राघव. (8. 3-4)
(जगत में
काम से उत्पन्न होने वाले तीन ही व्यसन हैं. एक है झूठ बोलना,
किन्तु उससे भी भारी दो और व्यसन हैं परस्त्री-गमन और बिना वैर के ही दूसरों से
क्रूरतापूर्ण बर्ताव. राघव! इनमें से झूठ बोलने का व्यसन आपमें कभी नहीं रहा और
आगे भी नहीं रहेगा.)
राम इसी प्रसंग में सीता
को आश्वासन देते हैं: सत्यमिष्टं हि मे सदा (9.17) अर्थात्,
सत्य का पालन मुझे सदा ही प्रिय है. राम आगे चलकर सुग्रीव के सामने दावा करते हैं:
अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन (किष्किन्धा. 7.21) अर्थात्,
मैंने पहले कभी झूठ नहीं बोला और भविष्य में भी नहीं बोलूंगा.
इस आलोक में,
प्रश्न उठता है कि क्या मर्यादा पुरुषोत्तम परिहास में ही सही,
झूठ बोल सकते हैं? क्या बिना किसी बैर के शूर्पणखा
की खिल्ली उड़ाकर उसके प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार कर सकते हैं?
या फिर, महर्षि वाल्मीकि के कवि-सम्पादक ही
झूठ बोल रहे हैं?
नहीं,
भग्नांग शूर्पणखा रावण के पास फ़रियाद लेकर पहुँची तो उसका सम्बोधन क़ाबिल-ए-ग़ौर है:
तत्वं
ब्रूहि मनोज्ञाङ्गि केन त्वं च विरूपिता. (अरण्य. 34.4)
(मनोहर
अंगों वाली शूर्पणखे, तुम्हें कुरूप किसने बनाया है?)
इसी प्रकार लक्ष्मण से
प्रणय-याचना करने वाली दूसरी विशालकाय-विकृतानना राक्षसी (अरण्य. 69.11) है
अयोमुखी:
भयदामल्पसत्त्वानां
बीभत्सां रौद्रदर्शनाम्.
लम्बोदरीं
तीक्ष्णदंष्ट्रां करालीं परुषत्वचम्..
भक्षयन्तीं
मृगान् भीमान् विकटां मुक्तमूर्धजाम्. (अरण्य. 69.12-13)
(वह छोटे-छोटे
जन्तुओं को डराने वाली भयानक पशुओं को पकड़कर खा जाने वाली, देखने
में सूरत से वीभत्स-भयंकर और आकार में विकट-विकराल थी. उसकी तोंद निकली हुई,
दाढ़ें तीखी और त्वचा कठोर थी.)
एक नज़र उन राक्षसियों पर
भी, जो अशोक वाटिका में सीता की पहरेदार हैं:
कई राक्षसियों की सूरत
बकरी, हाथी,
गाय, भैंस,
सियारिन, सूअर,
घोड़े, ऊँट,
और गधों जैसी थी. कई के सिर और गरदन बेहद लम्बे थे. उनमें से किसीके एक आँख थी तो
दूसरी के एक कान. किसी-किसीके कान इतने बड़े थे कि वे उन्हें चादर की भाँति ओढ़े हुए
थीं. किसीके कान ही नहीं थे और किसीके ऐसे कि मानो खूँटे गड़े हों या फिर
गधे-घोड़े-हाथी या सिंह के हों. किसीकी नाक माथे पर थी,
किसीकी बड़ी-तिरछी या हाथी की सूँड जैसी. किसीके कपाल पर केश थे ही नहीं तो किसीके
केश इतने लम्बे थे कि वह उनसे कम्बल का काम ले रही थी. किसीके स्तन और उदर लम्बे थे.
किसीके अधर इतने लम्बे कि लटक रहे थे तो किसीके ठोढ़ी में घुसे हुए. कितनों के पैर
हाथी, ऊँट,
घोड़े और गाय के पैर समान थे तथा उनमें वेणी गूँथने लायक लम्बे बाल उगे थे. बहुत
सारी अपने अंगों में रक्त-माँस का लेप लगाए रहती थीं (सुन्दर. 15.5-17). कवि आगे
(20.31-35) इसी खुलासे को वर्णनात्मक समासों में दोहराता है.
अयोमुखी के तुरन्त बाद
हमारी मुलाक़ात राक्षस कुल की दूसरी शाखा ‘दानव’
के
प्रतिनिधि कबन्ध से होती है -–सुमहाकायं राक्षसं विपुलोरसम्. विशालकाय,
न मस्तक, न गरदन,
चौड़ी छाती. केवल धड़ ही उसका स्वरूप. चेहरा उदर में ही बना हुआ: विवृद्धमशिरोग्रीवं
कबन्धमुदरेमुखम् (अरण्य. 65.15). फिर—
रोमभिर्निचितैस्तीक्ष्णैर्महागिरिमिवोच्छ्रितम्.
नीलमेघनिभं
रौद्रं मेघस्तनितनिःस्वनम्.. (अरण्य. 65.16).
(विशाल
पर्वत के समान उसके शरीर में नुकीले-पैने रोएं थे. उसकी आकृति बड़ी भयंकर थी --नील
मेघ के समान काला और गम्भीर मेघ-गर्जना करने वाला.)
अग्निज्वालानिकाशेन
ललाटस्थेन दीप्यता.
महापक्ष्मेण
पिङ्गेन विपुलेनायतेन च..
एकेनोरसि
घोरेण नयनेनाशुदर्शिना.
महादंष्ट्रोपपन्नं
तं लेलिहानं महामुखम्.. (अरण्य. 65.17-18).
(ललाट
उसकी छाती में, ललाट में ही बड़ी-सी पलक के तले एक
लम्बी-चौड़ी ज्वाला के समान धधकती हुई भूरी-भयंकर आँख,
जो भली प्रकार देख सकती थी. उसकी दाढ़ें बहुत बड़ी थीं और वह लपलपाती जीभ से अपना
मुँह बारम्बार चाट रहा था.)
भक्षयन्तं
महाघोरानृक्षसिंहमृगद्विपान्.
घोरौ
भुजौ विकुर्वाणमुभौ योजनमायतौ..
कराभ्यां
विविधान्गृह्य ऋक्षान्पक्षिगणान्मृगान्.
आकर्षन्तं
विकर्षन्तमनेकान्मृगयूथपान्.. (अरण्य. 65.18-20)
(अत्यन्त
भयंकर रीछ, सिंह और हिंस्र पशु-पक्षी उसके
भोजन थे. ...उसकी भुजाएं एक-एक योजन लम्बी थीं.)
यह भीम-दारुण कबन्ध इस क़दर
ख़तरनाक था कि एक बार तो वीरवर लक्ष्मण के भी प्राण सूख गए:
मयैकेन
तु निर्युक्तः परिमुच्यस्व राघव.
मां हि
भूतबलिं दत्त्वा पलायस्व यथासुखम्.. (अरण्य. 69.39)
(रघुनन्दन!
इस भूत को भेंट-स्वरूप एकमात्र मेरी ही बलि चढ़ाकर आप स्वयं इसके बाहुपाश से मुक्त हो
जाइए.)
इसी बिन्दु पर आकर आदिकवि ‘कबन्धो
दानवोत्तमः’ कहते हैं और राम-लक्ष्मण के
हाथों ज़िन्दा जलाए जाने से पूर्व वह वेदनापूर्वक रहस्योद्घाटन करता है कि दरअसल
पहले उसका रूप महान बल-पराक्रम सम्पन्न, अचिन्त्य
और तीनों लोकों में विख्यात था. उसकी देह भी सूर्य, चन्द्रमा
और इन्द्र की तरह तेजस्वी थी. वह विकट राक्षस-रूप धरकर लोगों को डराता फिरता था.
एक बार वन में उसने स्थूलशिरा नामक ऋषि[iv]
को भी ऐसे ही डरा क्या दिया कि उन्होंने घोर शाप दे डाला -–दुरात्मन् आज से सदा के
लिए तेरा यही क्रूर-निन्दनीय रूप रह जाए! मामूली-सी क्षम्य शरारत की इतनी दुःसह्य
आजीवन सज़ा! वाह रे ऋषिवर, धन्य हैं
आप.
इतिहास-पुरातत्व के
विद्वान मानते हैं कि रामायण में तीन अलग-अलग जनजातियों को राक्षस नाम दिया गया है,
जो एक-दूसरे से कम से कम एक सौ मील के फ़ासले पर रहती हैं. इनमें पहली विराध शाखा
है. यह दण्डकारण्य के उत्तरी सिरे पर रहती है. आर्यों को राक्षस रूप में ज्ञात
दूसरी शाखा कबन्ध की है. दनु की सन्तान होने के कारण ये दानव कहलाते हैं. कबन्ध
स्वयं कहता है: श्रिया विराजितं पुत्रं दनोस्त्वं विद्धि लक्ष्मण. (3.67.7)
नामलिंगानुशासन के अनुसार
दानव पहले वस्तुतः देवता थे. लंका के राक्षस कुल से इनका बैर चला आता था. इसलिए
रावण को ‘दानवदेवशत्रुः’
(6.59.143) और ‘हन्तारं दानवेन्द्रानाम’
की उपाधि प्राप्त थी. दानव-राज्य से लगभग एक सौ मील के फ़ासले तक विराध कुल के
राक्षसों का शासन-क्षेत्र था. तो इसी क्रम में अब विराध से भी मिल लें:
वनमध्ये
तु काकुत्स्थतस्मिन्घोरमृगायुते.
ददर्श
गिरिशृङ्गाभं पुरुषादं महास्वनम्.. (अरण्य. 2.4)
(भयंकर
जंगली पशुओं से भरे वन में राम ने पर्वत-शिखर के समान ऊँचा ज़ोर-ज़ोर से गरजता हुआ
एक नरभक्षी राक्षस देखा.)
गभीराक्षं
महावक्त्रं विकटं विकटोदरम्.
बीभत्सं
विषमं दीर्घं विकृतं घोरदर्शनम्.. (अरण्य. 2.5)
(उसकी
आँखें गहरी, मुँह बहुत बड़ा,
आकार विकट और उदर विकराल था. वह विकृत वेश के कारण बड़ा भयंकर,
घृणित, विशालाकार और बेडौल दिखाई देता था.)
वसानं
चर्म वैयाघ्रं वसार्दं रुधिरोक्षितम्. (अरण्य. 2.6)
(उसने
रक्त और चर्बी से लथ-पथ व्याघ्र-चर्म पहन रखा था.)
त्रीन्सिंहांश्चतुरो
व्याघ्रान्द्वौ वृकौ पृषतान्दश.
सविषाणं
वसादिग्धं गजस्य च शिरो महत्..
अवसज्यायसे
शूले विनदन्तं महास्वनम्. (अरण्य. 2.7-8)
(वह लोहे
के शूल में तीन सिंह, चार बाघ,
दो भेड़िए, दस चितकबरे हिरण और दाँतों सहित
बहुत बड़े हाथी का चर्बी में सना मस्तक गाँथकर ज़ोर-ज़ोर से दहाड़ रहा था.)
काल,
अन्तक और यमराज के समान (विराधे राक्षसे तस्मिन् कालान्तकयमोपमे -–अरण्य. 3.15)
महाभयंकर अट्टहास करते (प्रहस्य महारौद्रः) राक्षस विराध को देखकर राम का क्या हाल
हुआ? उनका मुँह सूख गया --मुखेन परिशुष्यता.
बहरहाल,
राम-लक्ष्मण राक्षस-युगल जव-शतहृदा के ब्रह्म से वरदान प्राप्त,
किन्तु कुबेर से शापित पुत्र विराध[v]
को कठिनाई से वशीभूत करके ज़िन्दा दफ़न कर देते हैं!
वाल्मीकि रामायण में दुर्दम
राक्षसों की रूपाकृति को विकट-विकराल दिखलाने और उनका अन्त भी समान रूप से दयनीय
दिखलाने के लिए रचनाकार ने बड़ी कड़ाई से काम ज़रूर लिया है,
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि राक्षसों में सुन्दर स्त्री-पुरुष बिल्कुल ही नहीं हैं. इन
रमणियों के नज़ारे के लिए हमें हनुमान के साथ रात के समय लंका स्थित रावण के महल
में चुपके से घुसना होगा:
ततोsपश्यत्कुथासीनं
नानावर्णाम्बरस्रजम्.
सहस्रं
वरनारीणां नानावेषबिभूषितम्.. (सुन्दर. 7.30)
(रंग-बिरंगे
वस्त्रों से अनेक प्रकार की वेश-भूषा में पुष्पमाला धारण किए कालीन पर बैठी हुई
हजारों सुन्दरियां!)
प्रबुद्धानीव
पद्मानि तासां भूत्वा क्षपाक्षये. (सुन्दर. 7.34)
(रात्रि
के अन्त में खिले हुए कमल-पुष्पों के समान उन सुन्दरियों के मुखारविन्द हर्ष से
उत्फुल्ल दिखाई देते थे.)
याश्च्यवन्तेsम्बरात्ताराः
पुण्यशेषसमावृताः.
इमास्ताः
संगताः कृत्स्ना इति मेने हरिस्तदा.. (सुन्दर. 7.39)
(आकाश से
भोगावशिष्ट पुण्य के साथ नीचे उतरी हुई सारी की सारी तारिकाएं मानो यहाँ इन
सुन्दरियों के रूप में एकत्र हो गई हों.)
हंसकारण्डवाकीर्णाश्चक्रवाकोपशोभिताः.
आपगा इव
ता रेजुर्जघनैः पुलिनैरिव.. (सुन्दर. 7.47)
(वे हंस,
जलकाक तथा चक्रवाकों से सुशोभित सरिताओं के समान शोभायमान थीं. उनकी जंघा नदी-तट
के समान जान पड़ती थी.)मृदुष्वङ्गेषु कासांचित्कुचाग्रेषु च संस्थिताः.
बभूवुर्भूषणानीव
शुभा भूषणराजयः.. (सुन्दर. 7.49)
(सुन्दरियों
के कोमल अंगों और स्तनों के अग्रभाग पर उभरी हुई आभूषणों की सुन्दर रेखाएं नए
गहनों के समान ही शोभायमान थीं.)
न चाकुलीना
न च हीनरूपा नादक्षिणा नानुपचारयुक्ता.
भार्याभवत्तस्य
न हीनसत्त्वा न चापि कान्तस्य न कामनीया.. (सुन्दर. 7.67)
(रावण की
कोई पत्नी ऐसी न थी, जिसका जन्म उत्तम कुल में न हुआ
हो या फिर जो कुरूप, बीहड़ या उत्तम वस्त्र-आभूषण से
वंचित, निःशक्त तथा प्रियतम को अप्रिय
हो.)
शशिप्रकाशवदना
वरकुण्डलभूषिताः. (सुन्दर. 8.29)
(उनके चन्द्रमा
के समान प्रकाशमान मुख सुन्दर कुण्डलों से विभूषित थे.)
कवि आगे इन राक्षसियों को
कहीं स्तनुमध्यमा, कहीं विन्यस्तशुभसर्वांगी,
कहीं चारुसर्वांगी, कहीं शुभस्तनी,
कहीं कमललोचना, कहीं कनकसंकाशैर्मृदुपीनैर्मनोरमैः
(सुवर्ण सदृश्य गौर वर्ण, कोमल,
पुष्ट और मनोरम अंग), कहीं कृशोदरी,
कहीं सुश्रोणी तो कहीं पूर्णेन्दुसदृशानना कहते नहीं थकता[vi].
और, ये तो हुईं रूपयौवनसम्पन्ना रावणस्य
वरस्त्रियः (सुन्दर. 16.22). फिर यह अनिन्द्य सुन्दरी कौन है:
गौरीं
कनकवर्णाभामिष्टामन्तःपुरेश्वरीम्.
कपिर्मन्दोदरीं
तत्र शयानां चारुरूपिणीम्..
स तां
दृष्ट्वा महाबाहुर्भूषितां मारुतात्मजः.
तर्कयामास
सीतेति रूपयौवनसम्पदा.
हर्षेण
महता युक्तो ननन्द हरियूथपः. (सुन्दर. 8.48-49)
(वह गौर
वर्ण थी. उसकी अंग-कान्ति स्वर्ण के समान
दमक रही थी. वह रावण की प्रियतमा और उसके अन्तःपुर की स्वामिनी मन्दोदरी थी. वह
अपने मनोहर स्वरूप से सुशोभित हो रही थी. हनुमान रूप-यौवन की सम्पदा से विभूषित और
वस्त्र-आभूषणों से सुशोभित मन्दोदरी को सीता ही समझ बैठे!)
चलते-चलते संक्षेप में
रावण का रूप-रंग भी देख लें:
...सुरूपं
कामरूपिणम्. (सुन्दर. 8.7)
(वह
सुरूपवान और इच्छानुसार रूप धारण करने वाला था.)
वृतः
परमनारीभिस्ताराभिरिव चन्द्रमाः. (सुन्दर. 16.25)
(तारिकाओं
से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति वह परम सुन्दरी युवतियों से घिरा हुआ था.)
स च
ताभिः परिवृतः शुशुभे राक्षसाधिपः.
यथा
ह्युडुपतिः श्रीमांस्ताराभिरभिसंवृतः.. (सुन्दर. 7.38)
(उन
स्त्रियों से घिरा हुआ राक्षसराज रावण तारिकाओं से घिरे हुए कान्तिमान नक्षत्रपति
चन्द्रमा के समान शोभायमान हो रहा था.)
नीलजीमूतसंकाशो
महाभुजशिरोधरः.
सिंहसत्त्वगतिः
श्रीमान्दीप्तजिह्वोग्रलोचनः..(सुन्दर. 20.24)
(उसका
वर्ण नीलमेघ के समान और देहयष्टि विशाल थी. भुजाएं और ग्रीवा लम्बी. गति और
पराक्रम में वह सिंह समान था और तेजस्वी दिखाई देता था...)
निष्कर्षतः,
एक
बात माननी पड़ेगी कि रामायण के नायक और रचनाकार दोनों ही आर्य हैं और प्रतिनायक अनार्य
राक्षस. इसलिए प्राकृतिक मनुष्य के रूप में आर्य जाति का पलड़ा भारी रखने और राक्षसों
को दैहिक-मानसिक रूप से अप्राकृतिक मनुष्य चित्रित करने में रामायणकारों ने असाधारण
कल्पना-शक्ति से काम लिया है. लेकिन, जब
उन्हें इसी राक्षस जाति के पात्रों को सुन्दर दिखलाने की बारी आई तो उसमें भी
उन्होंने न्यायपूर्वक अतीव कल्पना-शक्ति का निवेश करने में कसर नहीं छोड़ी. सृजन की
यही सूझ-बूझ भरी सौन्दर्य-दृष्टि हमें बताती है कि राक्षस जाति में भीषण असुन्दर
स्त्री-पुरुषों के साथ-साथ अतिशय सुन्दर स्त्री-पुरुष भी थे,
जैसे किसी भी जाति में सामान्य तौर पर होते हैं.
--बृहस्पति
शर्मा
स्रोत:
- VALMIKI
RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE,
VADODARA.
- श्रीमद्वाल्मीकीय
रामायण, गीता प्रेस,
गोरखपुर
- रामचरितमानस
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी. यह संजोग बिधि
रचा बिचारी.. (अरण्य. 32.4)
[iv] गोस्वामी जी के अनुसार कबन्ध को शाप दुर्वासा
ऋषि ने दिया था. उन्होंने कबन्ध को इस पंक्ति में निपटा दिया है:
आवत पंथ कबंध निपाता. तेहिं सब कही साप कै
बाता.. (अरण्य. 32.3)
मिला असुर विराध मग जाता. आवतहीं रघुबीर
निपाता.. (अरण्य. 6.3)
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