Sunday 12 August 2012


राक्षसों की राम कहानी (5)

दुनिया भर में शव की अन्तिम क्रिया के जितने भी तौर-तरीके पाए जाते हैं, वे सब के सब भारत की विभिन्न जातियों-जनजातियों में भी किसी न किसी रूप में प्रचलित हैं. इनमें से उत्तर भारतीय आर्यों के साथ-साथ मध्य भारत की वन-पर्वतीय अनार्य राक्षस जाति में प्रचलित शव के क्रिया-कर्म के विवरण भी वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध हैं. इस क्रिया-कर्म की विशेषता यह है कि अलग-अलग कुल के राक्षसों का क्रिया-कर्म राम के हाथों या उनकी सरपरस्ती में सम्पन्न होता है.  
बालकाण्ड में ताड़का और सुबाहु के वध-प्रसंग हैं, राम अनेक राक्षसों का संहार भी करते हैं, लेकिन उनके क्रिया-कर्म का कोई उल्लेख नहीं है.  
अरण्यकाण्ड के प्रारम्भ में ही विराध-वध का प्रसंग है. विराध की प्रार्थना पर राम-लक्ष्मण उसका क्रिया-कर्म करते हैं. आइए, देखें:
तपसा पुरुषव्याघ्र राक्षसोsयं न शक्यते.
शस्त्रेण युधि निर्जेतुं राक्षसं निखनावहे.. (अरण्य. 4.10)
(राम ने लक्ष्मण से कहा --पुरुषसिंह, यह राक्षस तपस्याजनित वरदान पाकर शस्त्र से अवध्य हो गया है. इसे पराजित करने के लिए हम गड्ढा खोदकर गाड़ दें.)
अवटे चापि मां राम निक्षिप्य कुशली व्रज.
रक्षसां गतसत्त्वानामेष धर्मः सनातनः.
अवटे ये निधीयन्ते तेषां लोकाः सनातनाः. (अरण्य. 4.23-24)
 (विराध ने कहा –-राम, मेरे शरीर को गड्ढे में गाड़कर आप कुशलपूर्वक चले जाइए. मृत राक्षसों के शरीर को गड्ढा खोदकर दफ़ना देना उनके लिए परम्परागत धर्म है. गड्ढे में गाड़े गए राक्षसों को सनातन लोकों की प्राप्ति होती है.)
 बभूव स्वर्गसम्प्राप्तो न्यस्तदेहो महाबलः. (अरण्य. 3.25)
(दफ़नाए जाने के बाद महाबली विराध अपना शरीर छोड़कर स्वर्ग-लोक को चला गया.)
तदेव रामेण निशम्य भाषितं कृता मतिस्तस्य बिलप्रवेशने.
बिलं च तेनातिबलेन रक्षसा प्रवेश्यमानेन वनं विनादितम्.. (अरण्य. 4.24)
(विराध की बात मानकर राम ने उसे गड्ढे में गाड़ देने का मन बना लिया था. गड्ढे में डालते समय उस अत्यन्त बलवान राक्षस ने अपने चीत्कार से सारे वन-प्रान्त को गुँजा दिया.)
प्रहृष्टरूपाविव रामलक्ष्मणौ विराधमुर्व्यां प्रदरे निपात्य तम्.
ननन्दतुर्वीतभयौ महावने शिलाभिरन्तर्दधतुश्च राक्षसम्.. (अरण्य. 4.33)
(विराध को गहरे-चौड़े गड्ढे में गिराकर राम-लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे बहुत सारे मिट्टी-पत्थर से पाट दिया.)
यह सही है कि राम ने राक्षसों की पहली शाखा के प्रतिनिधि भीमकाय विराध को जीवित ही भूमिगत कर दिया. गड्ढे में ही उसकी मृत्यु हुई. वस्तुतः राम ने राक्षस-शव को दफ़नाकर मध्य भारत की वन-पर्वतवासी अनार्य जातियों में प्रचलित द्राविड़ रिवाज का पालन किया और इस क्रिया-कर्म में आर्य रिवाज तनिक नहीं थोपा.
आइए, अब देखें कि राम के ही हाथों मारे गए एक और राक्षस कबन्ध की क्या गति हुई:
अहं हि मतिसाचिव्यं करिष्यामि नरर्षभ.
मित्रं चैवोपदेक्ष्यामि युवाभ्यां संस्कृतोsग्निना.. (अरण्य. 67.17)
(नरश्रेष्ठ, आप दोनों जब अग्नि-कर्म से मेरा दाह संस्कार कर देंगे, तब मैं आपकी बौद्धिक सहायता करूँगा.)
काष्ठान्यानीय शुष्काणि भग्नानि काले कुञ्जरैः.
धक्ष्यामस्त्वां वयं वीर श्वभ्रे महति कल्पिते. (अरण्य. 67.22)
(वीर, हम लोग स्वयं एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदकर उसमें तुम्हारा शरीर रख देंगे. फिर हाथियों के तोड़े हुए सूखे लट्ठे इकट्ठा करके उसे जला देंगे.)

किं तु यावन्न यात्यस्तं सविता श्रान्तवाहनः.
तावन्मामवटे क्षिप्त्वा दह राम यथाविधि.. (अरण्य. 67.28)
(राम, सूर्यास्त से पहले-पहले मुझे गड्ढे में डालकर शास्त्रीय विधि अनुसार मेरा दाह-संस्कार कर दीजिए.)
एवमुक्तौ तु तौ वीरौ कबन्धेन नरेश्वरौ.
गिरिप्रदरमासाद्य पावकं विससर्जतुः.. (अरण्य. 68.1)
(कबन्ध के इस अनुरोध पर नरेश्वर राम और लक्ष्मण ने उसके शरीर को एक पर्वत के गड्ढे में डालकर उसमें आग लगा दी.)
लक्ष्मणस्तु महोल्काभिर्ज्वलिताभिः समन्ततः.
चितामादीपयामास सा प्रजज्वाल सर्वतः.. (अरण्य. 68.2)
(लक्ष्मण ने उसके शरीर के चारों ओर बड़ी-बड़ी लुकारियां जमा दीं. फिर तो उसकी चिता हर तरफ़ से धधक उठी.)
हम देख सकते हैं कि राक्षसों के दूसरे कुल के निवास स्थान तक बढ़ते-बढ़ते राक्षस शव के क्रिया-कर्म ने आर्य-अनार्य पद्धतियों का मिला-जुला रूप ले लिया है. मूल राक्षसी रिवाज गौण और उस पर विजेता की गहरी छाप अंकित हो गई है.
आगे हम देखेंगे कि राक्षसों की लंका निवासिनी सबसे प्रबल शाखा के मुखिया का अन्तिम संस्कार कैसे किया गया:  
त्वत्सकाशान्महाबाहो संस्कारं विधिपूर्वकम्. (युद्ध. 99.40)
(राम ने विभीषण से कहा -–महाबाहू, रावण धर्म अनुसार  तुम्हारे हाथों शीघ्र ही विधिपूर्वक अन्तिम संस्कार पाने योग्य है.)
स प्रविश्य पुरीं लङ्कां राक्षसेन्द्रो विभीषणः.
रावणस्याग्निहोत्रं तु निर्यापयति सत्वरम्.. (युद्ध. 111.103-4)
(राक्षसराज विभीषण ने लंकापुरी में प्रवेश करके रावण के अग्निहोत्र को शीघ्र ही विधिपूर्वक समाप्त किया.)
शकटान् दारुरूपाणि अग्नीन् वै याजकांस्तथा.
तथा चन्दनकाष्ठानि काष्ठानि विविधानि च.
अगरूणि सुगन्धीनि गन्धांश्च सुरभींस्तथा.
मणिमुक्ताप्रवालानि निर्यापयति राक्षसः. (युद्ध. 111.103-4)
(इसके बाद छकड़ा, अग्निहोत्र की अग्नियां, पुरोहित, चन्दन और विविध प्रकार की लकड़ी, सुगन्धित अगर और अन्यान्य सुवासित पदार्थ, मणि, मोती तथा मूँगा जैसी सारी वस्तुएं उन्होंने एकत्र कीं.)
सौवर्णीं शिबिकां दिव्यामारोप्य क्षौमवाससम्.
रावणं राक्षसाधीशमश्रुवर्णमुखा द्विजाः.
तूर्यघोषैश्च विविधैः स्तुवद्भिश्चाभिनन्दितम्.. (युद्ध. 111.107-8)
(भाँति-भाँति के वाद्य-घोष से स्तुति करने वाले मागधों से अभिनन्दित राक्षसराज रावण के शव को रेशमी वस्त्र से ढँककर सोने की दिव्य अरथी में रखने के बाद पुरोहित वहाँ आँखों से आँसू बहाते खड़े हो गए.)
पताकाभिश्च चित्राभिः सुमनोभिश्च चित्रिताम्.
उत्क्षिप्य शिबिकां तां तु विभीषणपुरोगमाः.
दक्षिणाभिमुखाः सर्वे गृह्य काष्ठानि भेजिरे. (युद्ध. 111.108-9)
(चित्र-विचित्र पताकाओं और फूलों से सजी हुई वह अरथी खूब शोभा पा रही थी. विभीषण आदि राक्षस उसे कन्धे पर उठाए और अन्य लोग हाथों में सूखी लकड़ी लिए दक्षिण दिशा में श्मशान भूमि की ओर चले जा रहे थे.)
अग्नयो दीप्यमानास्ते तदाध्वर्युसमीरिताः.
शरणाभिगताः सर्वे पुरस्तात् तस्य ते ययुः. (युद्ध. 111.110-11)
(याजकों के साथ शव के आगे-आगे कुण्ड में ले जाई जा रही त्रिविध अग्नियां सुलग उठीं.)
अन्तःपुराणि सर्वाणि रुदमानानि सत्वरम्.
पृष्ठतोsनुययुस्तानि प्लवमानानि सर्वतः. (युद्ध. 111.111-12)
(अन्तःपुर की सारी स्त्रियां रोती-लड़खड़ाती हुई शव के पीछे-पीछे तेज़ी से चल पड़ीं.)
रावणं प्रयते देशे स्थाप्य ते भृशदुःखिता.
चितां चन्दनकाष्ठैश्च पद्मकोशीरचन्दनैः.
ब्राह्म्या संवर्तयामासू राङ्क्वास्तरणावृताम्. (युद्ध. 111.112-13)
(रावण की अरथी को एक स्वच्छ स्थान पर रखकर विभीषण आदि शव-यात्रियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के चन्दन, भोजपत्र, खस आदि लगाकर शास्त्रीय विधि से चिता बनाई और उस पर कृष्णसार मृग की खाल बिछा दी.)
प्रचक्रू राक्षसेन्द्रस्य पितृमेधमनुत्तमम्.
वेदिं च दक्षिणाप्राचीं यथास्थानं च पावकम्.
पृषदाज्येन सम्पूर्णं स्रुवं स्कन्धे प्रचिक्षिपुः.
पादयोः शकटं प्रापुरूर्वोश्चोलूखलं तदा. (युद्ध. 111.114-15)
(उसके ऊपर राक्षसराज रावण के शव को लिटाकर उन्होंने उत्तम विधि से उसका दाह-संस्कार किया. उन्होंने चिता के दक्षिण-पूर्व में वेदी बनाकर उस पर यथास्थान अग्नि स्थापित की थी. फिर दही मिश्रित घी से भरा स्रुवा शव के कन्धे पर, छकड़ा पैरों पर और ओखली जाँघों पर रखी.)
दारुपात्राणि सर्वाणि अरणिं चोत्तरारणिम्.
दत्त्वा तु मुसलं चान्यं यथास्थानं विचक्रमुः.. (युद्ध. 111.116)
(काठ के पात्र, आग सुलगाने की लकड़ी, शव दाह की लकड़ी और मूसल आदि को भी यथास्थान रख दिया.)

शास्त्रदृष्टेन विधिना महर्षिविहितेन च.
तत्र मेध्यं पशुं हत्वा राक्षसेन्द्रस्य राक्षसाः.
परिस्तरणिकां राज्ञो घृताक्तां समवेशयन्.
गन्धैर्माल्यैरलंकृत्य रावणं दीनमानसाः.. (युद्ध. 111.117-18)
(शास्त्रोक्त विधि और महर्षियों से निर्दिष्ट रीति से क्रिया-कर्म किया गया. वहाँ पशु-बलि देकर रावण की चिता पर बिछाए गए मृग-चर्म को राक्षसों ने घी से तर कर दिया. फिर शव को चन्दन और फूलों से अलंकृत करके राक्षस मन ही मन शोकाकुल होने लगे.)
विभीषणसहायास्ते वस्त्रैश्च विविधैरपि.
लाजैरवकिरन्ति स्म बाष्पपूर्णमुखास्तथा.. (युद्ध. 111.119)
(फिर विभीषण के साथ अन्यान्य राक्षसों ने भी सजल नेत्रों से चिता पर ना-ना प्रकार के वस्त्र और खीलें अर्पित कीं.)
स ददौ पावकं तस्य विधियुक्तं विभीषणः.
स्नात्वा चैवार्द्रवस्त्रेण तिलान् दर्भविमिश्रितान्.
उदकेन च सम्मिश्रान् प्रदाय विधिपूर्वकम्.
ताः स्त्रियोsनुनयामास सान्त्वयित्वा पुनः पुनः.. (युद्ध. 111.120-21)
(तदनन्तर विभीषण ने विधि अनुसार चिता को मुखाग्नि दी. फिर स्नान करके भीगे वस्त्र धारण किए हुए ही उन्होंने रावण को तिल और कुश सहित विधिवत् जलांजलि दी. इसके बाद रावण की स्त्रियों[i] को बारम्बार सान्त्वना देकर घर लौटने के लिए अनुनय-विनय की.)
रावण के अन्तिम संस्कार की आद्योपान्त प्रक्रिया को देख जाने के बाद प्रसंगोचित होगा कि स्वयं राम के पिता दशरथ के अन्तिम संस्कार के वृत्तान्त पर भी एक नज़र डाल लें:
राजा दशरथ के पार्थिव शरीर को धो-पोंछकर ना-ना प्रकार के रत्नों से विभूषित उत्तम शय्या पर सुला दिया गया. राजा की अग्निशाला से बाहर लाई गई अग्नियों में ऋत्विजों-याजकों ने विधिपूर्वक हवन किया. दशरथ के निष्प्राण शरीर को अरथी पर लिटाकर परिचारक श्मशान भूमि ले चले. राजपुरुष अरथी के आगे-आगे सोना-चाँदी तथा किस्म-किस्म के वस्त्र लुटाते चल रहे थे.
श्मशान भूमि में पहुँचकर चिता तैयार की जाने लगी. किसीने चन्दन लाकर रखा तो किसीने अगर, कोई गुग्गुल तो कोई चीड़, कोई भोजपत्र और देवदारु की लकड़ी ला-लाकर चिता में डालने लगे. कुछ लोगों ने तरह-तरह के सुगन्धित पदार्थ लाकर छोड़े. तब ऋत्विजों ने शास्त्रोक्त मन्त्रों का जप किया. सामगान करने वाले विद्वान शास्त्रीय पद्धति से साम-श्रुति गाने लगे.
चिता में आग लगाई गई. वृद्ध रक्षकों से घिरी हुई कौसल्या आदि रानियां यथायोग्य पालकियों में तथा रथों पर सवार होकर नगर से निकलीं. ऋत्विजों सहित दशरथ की शोक सन्तप्त स्त्रियों ने श्मशान भूमि में अपने पति के शव की परिक्रमा की. दाह-कर्म के बाद वे विलाप करती हुई अपनी-अपनी सवारी से सरयू तट पर उतरीं. मुखाग्नि देने वाले भरत के साथ रानियों, मन्त्रियों और पुरोहितों ने भी राजा के लिए जलांजलि दी. (अयोध्या. 70.5-23)    
आइए, देखें कि राक्षसों में शव के क्रिया-कर्म की क्या विधि थी. रावण का अन्तिम संस्कार आर्य पद्धति से किया गया, क्योंकि विजेता राम ऐसा चाहते थे:  
त्वत्सकाशान्महाबाहो संस्कारं विधिपूर्वकम्. (युद्ध. 99.40)
(महाबाहू, धर्म अनुसार रावण तुम्हारी ओर से शीघ्र ही विधिपूर्वक दाह संस्कार पाने का अधिकारी है.)
विराध के सन्दर्भ में कहा गया है कि राक्षसों का सनातन धर्म तो शव को दफ़नाना है. कबन्ध के बारे में राक्षस और आर्यजनों की मिली-जुली पद्धति अपनाई गई. न केवल उसका शव दफ़नाए जाने वाले गड्ढे में ही चिता लगाकर जला दिया गया, बल्कि उसकी भस्म भी उसी गड्ढे में दफ़ना दी गई.
इस समझौतापूर्ण विधि से पता चलता है कि कबन्ध कुल के राक्षसों ने अपने यहाँ पारम्परिक दफ़न की विधि को प्रतीकात्मक रूप से सुरक्षित रखते हुए आर्य पद्धति को अपना लिया था. लेकिन, रावण की जनजाति में मामला कुछ अलग था. कुछ लोगों ने अपना पुरातन धर्म पूरी तरह त्यागकर आर्य रीति-रिवाज अपना लिए थे. विभीषण आर्य परम्परा में पूर्णतः  दीक्षित राक्षस है. कुछ लोग ऐसे थे, जो आक्रान्ताओं की चौंका देने वाली शक्ति के आगे न टिक सकने के कारण अस्थायी रूप से अपना धर्म खूंटी पर टाँगकर आश्रमवासियों की शान्तिपूर्ण जीवन-चर्या अपना रहे थे, लेकिन अवसर आने पर अपना पुराना रंग दिखाने को भी तैयार रहते थे. मारीच इसी श्रेणी का राक्षस था. मज़बूत गढ़ी लंका में सुरक्षित होने के कारण बहुसंख्यक राक्षस अपने जातिगत रीति-रिवाज से भली प्रकार चिपके हुए थे. उन्होंने इसमें बाहरी तत्वों का मिश्रण होने ही न दिया. वे ऐसी किसी भी बाहरी हवा से बे-परवाह थे. उन्होंने तो यहाँ तक प्रयत्न किया कि जमुना के सम्पूर्ण दक्षिणी प्रान्त में आर्यों का बढ़ता दबदबा रुक जाए और वहाँ अपनी गतिविधियां चलती रहें.
राक्षसों की तमाम गतिविधियों से राम शुरु में नावाकिफ़ थे. उन्हें लगता होगा कि मामूली दमन से वे सीधी राह पर आ जाएंगे. दण्डकारण्य में बसे आर्यों ने जब राम को क्रूर राक्षसों का कहर बताया तो राम ने सोचा होगा कि साधारण सबक देने से ये आर्यों के साथ शान्ति स्थापित कर लेंगे. इसलिए मारीच को उन्होंने दो बार मज़ा चखाकर छोड़ दिया, जिसका अहसास उसे था भी. लेकिन, सच्चाई इसके विपरीत थी. 
पंचवटी में रहते हुए राम यह देखकर विस्मित रह गए कि वन्य राक्षसों पर उनके दमनकारी उपाय निष्प्रभ हो गए हैं. उन्हें लगा था कि खर को ससैन्य ख़त्म कर देने से राक्षस निर्मूल हो गए हैं. उलटे, उन्होंने एक दुर्दम शत्रु से वैर बढ़ा लिया. वे आर्यत्व तो ख़ैर क्या अपनाते, एक सामान्य मानुष से अपने रीति-रिवाज की रक्षा करते हुए उन्होंने प्राण तक न्योछावर कर दिए. इस प्रकार राक्षस कुल का ख़ात्मा तो हो गया, किन्तु उनका धर्म? वह बच रहा. जिस जाति में ज़्यादातर स्त्रियां ही स्त्रियां बच रही हों, वहाँ धर्म की प्रतिस्थापना कैसे सम्भव है?
राम को लगा, राक्षस-नायक के शव का आर्य-पद्धति से संस्कार स्थानीय धर्म की प्रतिस्थापना का प्रस्थान-बिन्दु हो सकता है. सो, राम ने रावण के उत्तर-कर्म के लिए वैदिक पद्धति युक्त  दाह संस्कार चुनने का फ़ैसला किया.
इसे थोड़ा समझ लें. अथर्ववेद के अनुसार श्मशान भूमि में शव को दाह से पहले नवीन वस्त्र पहनाए जाते, शव के मुख पर गो-घृत फैला दिया जाता, मृतक यदि ब्राह्मण हुआ तो उससे उसका धर्म-दण्ड और क्षत्रिय हुआ तो उसका धनुष ले लिया जाता. फिर चिता को मुखाग्नि दी जाती. आर्यों की शव-दाह पद्धति भले ही यह रही हो, रावण का अन्तिम संस्कार पूर्णतः इस रीति से नहीं किया गया. उसके शव को आभूषणों और वस्त्रों से सजाया गया, उस पर खीलें बिखेरी गईं, ‘मेध्य पशु काटकर उसकी चिता पर रख दिया गया और उसके इस्तेमाल की सभी वस्तुएं भी चिता पर रखकर स्वाहा कर दी गईं.
इससे पता चलता है कि रावण के अन्तिम संस्कार में आर्य पद्धति को किस सीमा तक अपनाया गया है. शव-दाह के सिवा इसमें आर्यत्व कहीं नहीं है. राम ने विभीषण से कहा भी इतना ही था: क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव. (युद्ध. 99.39)  
फिर संस्कारेणानुरूपेण योजयामासा रावणम् (युद्ध.99.41)[ii] से पता चलता है कि उसका राक्षसोचित दाह संस्कार किया गया. यह कहना उचित न होगा कि रावण का अन्तिम संस्कार ठीक वैसे ही किया गया, जैसे एक याज्ञिक का वेदोक्त रीति से किया जाता है. जिन लोगों में शव को दफ़नाने की प्रथा है, वे मृतक का साज-सामान कब्र में साथ रख देते हैं. प्राचीन कब्रें भी यही सूचित करती हैं. इन लोगों ने जब शव को जलाने की प्रथा अपनाई, तो मृतक के साथ उसका सामान भी चिता पर रखने लगे. वाल्मीकि रामायण के दक्षिण भारतीय संस्करणों में बताया गया है कि रावण का दण्ड, बरतन और आभूषण भी उसकी चिता पर रखे गए. इस प्रकार रावण का अन्तिम संस्कार आर्यों के शव-दहन और राक्षसों के शव-दफ़न के बीच का रास्ता था.
अब हमें यह देखना है कि राक्षसों की सन्तति समझी जाने वाली कुइ (गोण्ड) जनजाति में शव के क्रिया-कर्म की क्या प्रक्रिया है. कुइ जनजाति के लोग शव से आभूषण नहीं उतारते. शव को कपड़े से ढँक देते हैं. वे शव-यात्रा में मृतक के कपड़े, खान-पान के बरतन और दूसरे आभूषण भी साथ ले जाते हैं. यदि मृतक के कोई हथियार हों, तो वे भी. गुमसूर मालिआ के कुइ शव के पैर से मेंढा बान्ध देते हैं. अन्य स्थानों के कुइ मेंढा को श्मशान भूमि साथ ले जाते हैं और उसे वहीं छोड़ देते हैं. कुइ जनजाति में अन्तिम संस्कार की रस्में बारह दिनों तक चलती रहती हैं और आर्यों में वर्णाश्रम के अनुसार बारह-तेरह दिनों तक, लेकिन रावण का अन्तिम संस्कार एक ही दिन में पूरा हो गया.
कुइ लोगों में मृतक को लेकर बहुतेरे अन्धविश्वास भी हैं. इनमें मुख्य है कि ये बाघ का रूप धारण करके मनुष्य या ढोर का शिकार कर सकते हैं. थर्सटन कहते हैं, “उन्हें विश्वास होता है कि वे अपने आपको बाघ या साँप में रूपान्तरित कर सकते हैं, उनकी आधी आत्मा अपने शरीर में रहकर आधी आत्मा से वे यह रूप धर सकते हैं फिर उन्हें चाहे अपने शत्रु को ठिकाने लगाना हो या जंगल में ढोरों के शिकार से भूख मिटानी हो.” 
यही अन्धविश्वास राक्षसों में भी प्रचलित था. मारीच ने रावण को बताया था कि उसने हिंसक पशु का रूप धरकर दण्डक वन में रहने वालों का रक्तपान किया था.  
दरअसल, मध्य भारत से लेकर दक्षिण भारत तक सभी वन-पर्वतीय जनजातियों में शव को दफ़नाने का रिवाज था. आनुवांशिक दक्षिण भारतीय तो आज भी शव को ज़्यादातर दफ़नाते ही हैं, फिर वह चाहे नगर हो, चाहे गाँव या फिर टाण्डा. उनमें मृतक सम्बन्धी यथोक्त अन्धविश्वासों की भी कमी नहीं है.  
--बृहस्पति शर्मा



स्रोत:
  1. VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. THE VALMIKI RAMAYANA, EDITED BY T. R. KRISHNAMACHARYA, PUBLISHED BY THE MADHAVA VILAS BOOK DEPOT, KUMBAKONAM.
  4. रामचरितमानस




[i] मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि. (लंका. 104.105)
[ii] कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका. करहु क्रिया परिहरि सब सोका..
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी. बिधिवत देस काल जियँ जानी.. (लंका. 104.4) 

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