Sunday 12 August 2012


राक्षसों की राम कहानी (6)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)

तत्रस्थः स तदा गन्धं पानभक्ष्यान्नसम्भवम्.
दिव्यं सम्मूर्छितं जिघ्रन्नूपवन्तमिवानिलम्.
स गन्धस्तं महासत्त्वं बन्धुर्बन्धुमिवोत्तमम्.
इत एहीत्युवाचेव तत्र यत्र स रावणः.. (सुन्दर. 7.16-17)
किस कदर स्वादु पेय, अन्न और आहार होंगे वे जो रावण के महल में सीता को खोजते हुए हनुमान को सुन्दर-सुरभित पवन की तरह रावण की ही दिशा में आकर्षित किए जा रहे  थे, जैसे कोई भाई अपने योग्य भाई को अपनी ओर बुलाता है –-इधर चले आओ, इधर चले आओ.

खान-पान किसी भी जाति-समाज की सभ्यता और जीवन स्तर को आँकने के पैमानों में एक होता है. वाल्मीकि रामायण में राक्षस जाति के रहन-सहन और आचरण के साथ-साथ उनके खान-पान के भी ख़ासे विवरण उपलब्ध होते हैं. आइए, पहले रावण की स्त्रियों के मदिरा-पान की झलकियां देखें.
परिवृत्तेsर्धरात्रे तु पाननिद्रावशं गतम्.
क्रीडित्वोपरतं रात्रौ सुष्वाप बलवत्तदा.. (सुन्दर. 7.31)
(आधी रात बीत जाने पर वे मनोरंजन से पल्ला झाड़कर मधुपान के नशे और नींद से लाचार बेसुध सो गई थीं.)
व्यावृत्तगुरुपीनस्रक्प्रकीर्णवरभूषणाः. (सुन्दर. 7.41)
(मधुपान के बाद रंगरेलियों के दौरान उनके केश खुलकर बिखर गए थे.)

शर्करासवगन्धः स प्रकृत्या सुरभिः सुखः.
तासां वदननिःश्वासः सिषेवे रावणं तदा.. (सुन्दर. 7.53)
(उन सुन्दरियों के मुख से निकलने वाली सहज सुगन्धित साँसें खाण्ड से बनाई हुई ख़ालिस मदिरा की मनोहर महक धारण किए रावण के लिए और भी सुखदसेवी हो उठती थीं.)
नृत्तेन चापराः क्लान्ताः पानविप्रहतास्तथा. (सुन्दर.9.4)
(कुछ स्त्रियां नृत्य करके थक गई थीं और कई खूब सारा मद्यपान करके अचेत हो रही थीं.)
यदि स्त्रियों का यह हाल था तो रावण सवा सेर था:
चूतपुंनागसुरभिर्बकुलोत्तमसंयुतः.
मृष्टान्नरससंयुक्तः पानगन्धपुरःसरः.
तस्य राक्षससिंहस्य निश्चक्राम मुखान्महान्.
शयानस्य विनिःश्वासः पूरयन्निव तद्गृहम्.. (सुन्दर.8.21-22)
(सोए हुए राक्षसराज रावण के विशाल मुख से निकलने वाली आम-नागकेसर की सुगन्ध, मौलसिरी की सुवास, उत्तम अन्न-रस की सुरभि तथा फूलों से खींची हुई शराब की महक भरी साँस घर भर को ख़ुशबू से सराबोर कर रही थी.)
रावण के महल में एक विशिष्ट भाग को वाल्मीकि ने पानभूमिकहा है. देखिए, हनुमान को इस मधुशाला में क्या-क्या नज़र आया:
सर्वकामैरुपेतां च पानभूमिं महात्मनः.
ददर्श कपिशार्दूलस्तस्य रक्षःपतेर्गृहे.
मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च भागशः.
तत्र न्यस्तानि मांसानि पानभूमौ ददर्श सः.. (सुन्दर. 9.10-11)
(राक्षसराज के घर में कपिश्रेष्ठ ने मधुशाला देखी. वहाँ मन-वांछित भोगों के सारे सामान मौजूद थे. किस्म-किस्म के हरिणों के मांस सहित भैंस और सूअर का मांस वहाँ रखा था.)
रौक्मेषु च विशालेषु भाजनेष्वर्धभक्षितान्.
ददर्श कपिशार्दूलो मयूरान्कुक्कुटांस्तथा.
वराहवार्ध्राणसकान्दधिसौवर्चलायुतान्.
शल्यान्मृगमयूरांश्च हनूमानन्ववैक्षत.. (सुन्दर. 9.12-13)
(वानरसिंह ने वहाँ सोने के बड़े-बड़े पात्रों में मोर-मयूर, मुर्ग, सूअर, गेण्डा, साही और हरिण का मांस देखा. इसे दही-नमक मिलाकर रखा गया था और जूठा नहीं किया गया था.)
कृकलान् विविधांश्छागान् शशकानर्धभक्षितान्.
महिषानेकशल्यांश्च मेषांश्च कृतनिष्ठितान्.
लेह्यमुच्चावचं पेयं भोज्यानि विविधानि च.
तथाम्ललवणोत्तंसैर्विविधै रागषाडवैः.. (सुन्दर. 9.14-15)
(तीतर, किस्म-किस्म के बकरे, खरगोश, खाने से बचे हुए भैंसे, एक काँटे वाली मछली और भेड़ें -–सभी राँध-पकाकर रखे हुए थे. इनके साथ अनेक प्रकार की चटनियां, पेय और भोज्य पदार्थ भी विद्यमान थे. रसनानन्द के लिए अंगूर-अनार के रस में मधु-मिश्री मिलाकर तैयार किए गए गाढ़े-पतले शोरबे भी रखे थे.)[i]
पानभाजनविक्षिप्तैः फलैश्च विविधैरपि. (सुन्दर. 9.16)
(मद्यपान के लुढ़के हुए पात्र और विभिन्न फल भी बिखरे पड़े थे.)
बहुप्रकारैर्विविधैर्वरसंस्कारसंस्कृतैः.
मांसैः कुशलसंयुक्तैः पानभूमिगतैः पृथक्.
दिव्या: प्रसन्ना विविधा: सुराः कृतसुरा अपि.
शर्करासवमाध्वीकाः पुष्पासवफलासवाः.
वासचूर्णैश्च विविधैर्मृष्टास्तैस्तैः पृथक् पृथक्.. (सुन्दर. 9.18-19)
(रसोइयों ने छौंक-बघार लगाकर ना-ना प्रकार के मांस पकवान पानभूमि में अलग-अलग सजाकर रखे थे. इनके साथ खाण्ड, शहद, महुआ और फलों से बनाई गई शराब सहित परिष्कृत ताड़ी भी रखी थी. सुरा-शराब को महकाने के लिए उनमें सुगन्धित चूर्ण मिलाए गए थे.)
सोsपश्यच्छातकुम्भानि शीधोर्मणिमयानि च.
क्वचिन्नैव प्रपीतानि पानानि स ददर्श ह. (सुन्दर. 9.22-23)
(महाकपि ने देखा कि वहाँ मदिरा से भरे स्वर्ण-मणियों के भिन्न-भिन्न पात्र रखे हैं.)
क्वचिद्भक्ष्यांश्च विविधान्क्वचित्पानानि भागशः.
क्वचिदन्नावशेषाणि पश्यन्वै विचचार ह. (सुन्दर. 9.24)
(कहीं ना-ना प्रकार के भोज्य पदार्थ तो कहीं पेय अलग-अलग रखे थे. इनमें से कहीं-कहीं आधी-आधी सामग्री ही बच रही थी.)
एक नज़र कुम्भकर्ण के भोजन पर भी:
ततश्चक्रुर्महात्मानः कुम्भकर्णाग्रतस्तदा.
मांसानां मेरुसंकाशं राशिं परमतर्पणम्.. (युद्ध. 48.24)
(महाकाय निशाचरों ने कुम्भकर्ण के सामने मांस के मेरु पर्वत जैसे ढेर लगा दिए, जो उसे परम तृप्ति प्रदान करने वाले थे.)
मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च संचयान्.
चक्रुर्नैर्ऋतशार्दूला राशिमन्नस्य चाद्भुतम्.. (युद्ध. 48.25)
(श्रेष्ठ राक्षसों ने वहाँ हिरणों, भैंसों और सूअरों के झुण्ड के झुण्ड खड़े कर दिए. उन्होंने अनाज के भी ढेर के ढेर लगा दिए.)
ततः शोणितकुम्भांश्च मद्यानि विविधानि च.
पुरस्तात्कुम्भकर्णस्य चक्रुस्त्रिदशशत्रवः.. (युद्ध. 60.32)
(उन देव-शत्रुओं ने कुम्भकर्ण के आगे रक्त से भरे हुए घड़े और ना-ना प्रकार के मद्य भी धर दिए.)
राक्षसों की लंका निवासी उन्नत नस्ल के आहार के विवरण स्पष्ट करते हैं कि वे न केवल मांसाहारी थे, बल्कि उनका भोजन पूर्णतः मांस आश्रित था. रसोइयों के हाथ तैयार होने वाले उनके पकवान मसालेदार और सुस्वादु होते थे, जिनमें महकाने वाले द्रव्य भी पड़ते थे. हाँ, खाने में अन्न और फलों का ज़्यादा दख़ल नहीं था. सब्ज़ियों का तो जैसे उन्हें पता ही न था. सुन्दरियों सहित प्रकृति से प्राप्त प्रसंस्कृत सुरा और फल-फूलों से खींची गई भिन्न-भिन्न प्रकार की महमहाती शराब उनके भोजन का अभिन्न अंग थी.
इससे पहले कि हम देखें कि कोई तीन हजार वर्ष प्राचीन राक्षस नस्ल की सन्तति मानी जाने वाली गोण्ड जनजाति में किस प्रकार का आहार-विहार प्रचलित है, वन्य कबन्ध के भोजन का भी सिंहावलोकन कर लें:  
भक्षयन्तं महाघोरानृक्षसिंहमृगद्विपान्.
घोरौ भुजौ विकुर्वाणमुभौ योजनमायतौ.
कराभ्यां विविधान्गृह्य ऋक्षान्पक्षिगणान्मृगान्.
आकर्षन्तं विकर्षन्तमनेकान्मृगयूथपान्.. (अरण्य. 65.18-20)
(अत्यन्त भयंकर रीछ, सिंह, हिंसक पशु-पक्षी ही उसके भोजन थे. वह अपनी योजन भर लम्बी भयानक भुजाओं को फैला देता. उनके घेरे में आ जाने वाले मोटे-ताज़े भालू, हिरण और पशु-पक्षियों को पकड़कर वह खींच लेता था. जो प्राणी उसे रुचिकर नहीं लगते, उन्हें वह पीछे धकेल देता था.)
गोण्ड स्त्री-पुरुष मादक पेय के बड़े शौकीन होते हैं. वे किस्म-किस्म की शराब पीते हैं. महुआ के सूखे फूलों से खींची हुई शराब (सं. माध्वीक) इन्हें बहुत पसन्द होती है. रागी की दलिया में ख़मीर उठाकर तैयार की हुई तेज़ लोन्दा जश्न के मौके पर ज़रूरी चीज़ होती है. इसी प्रकार है शहद-पानी के मेल से बनी मधु. फिर वे साबूदाने के पौधे से प्राप्त ताड़ी का सेवन भी खूब करते हैं. 
स्वाभाविक है कि भाँति-भाँति की मदिरा के साथ उन्हें माँस भी चाहिए होता है. आम दिनों में मुर्ग-बकरी से काम चल जाता है, लेकिन उत्सव के मौकों पर तो गाय-भैंस-सूअर-तीतर आदि पशु-पक्षी चाहिए ही चाहिए. उन्हें ज़मीन पर रेंगने वाले छोटे से छोटे प्राणी से लेकर चौपायों तक से कोई परहेज़ नहीं होता. हाँ, कुत्ता और भेड़िया नहीं खाया जाता.
कुइ के लिए पक्षियों में कौआ मित्र होता है. अतः कौए को मारना मित्रघात के समान पाप माना जाता है और वे कौआ छोड़कर हर पक्षी खा जाते हैं. आदिकवि ने राक्षसों के अन्धविश्वास के आधार पर रामायण में कौए को राम के शत्रु रूप में चित्रित किया है:
मत्कृते काकमात्रेsपि ब्रह्मास्त्रं समुदीरितम्. (सुन्दर. 36.33)
(एक साधारण अपराध करने वाले कौए पर भी आपने मेरी ख़ातिर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया था.)[ii] 
फिर भी, आदिकवि ने कुइ-गरुड़ बैर का ज़्यादा लाभ उठाया है. कुइ गरुड़ को देखते ही मार डालते हैं. वाल्मीकि ने गरुड़ और उनके पुत्रों को राम और उनके सहायकों के लिए मित्रवत् चित्रित किया है.
राम पंचवटी में रहने आए तो गरुड़ के छोटे बेटे जटायु ने उनकी ओर मित्रता का हाथ बढ़ाते हुए वादा किया कि वह निवास में उनकी सहायता करेगा और शिकार के लिए दोनों भाइयों के जंगल में रहते वह पर्णकुटी में सीता की रखवाली करेगा:
सोsहं वाससहायस्ते भविष्यामि यदीच्छसि.
सीतां च तात रक्षिष्ये त्वयि याते सलक्ष्मणे.. (अरण्य. 14.34)
रावण सीता को बलपूर्वक ले जा रहा था तो उन्हें मुक्त कराने के लिए जटायु ने युद्ध में प्राण भी गंवा दिए. रावण ने जिस निर्दयता से जटायु का वध किया था, उससे कुइ की गरुड़ पक्षी के प्रति घृणा व्यक्त होती है. राम-लक्ष्मण के आने तक प्राण रोककर उन्हें सीता अपहरण की सूचना भी सबसे पहले गरुड़ जटायु ने ही दी थी. उधर, सीता को खोजते-खोजते जब वानर थक-हार गए तो गरुड़ के बड़े बेटे सम्पाति ने ही उन्हें बताया था कि सीता को छिपाकर कहाँ रखा गया है. फिर, मेघनाद ने राम-लक्ष्मण को नागपाश में बान्ध डाला तो उस अस्त्र से मुक्त भी उन्हें गरुड़ ने ही कराया था. यही नहीं, आगे चलकर गरुड़ विष्णु का वाहन ही बन गया, जिनके अवतार राम माने जाते हैं. इस प्रकार, कुइ जनजाति जिस पक्षी-कुल को बैर और नफ़रत की निगाह से देखती है, वही पक्षी-कुल राम और उनके अनुयायियों से सौहार्द जताता है.
राक्षसों और कुइ (गोण्ड) जनजाति के खान-पान, आहार-विहार और मित्र-अमित्र सम्बन्धों को देखकर यह कहने में संकोच नहीं होता कि वर्तमान गोण्ड जनजाति ही मध्य भारत के पुराकालीन राक्षसों की प्रामाणिक सन्तति है.
--बृहस्पति शर्मा
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स्रोत:
  1. VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. रामचरितमानस


 







[i] कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छ्हीं. (सुन्दर. 3)
[ii] देवराज इन्द्र के पुत्र जयन्त ने कौए का रूप धरकर वनवासिनी सीता को तंग किया था. राम ने उसकी जान बख़्श दी और चश्म-ए-बद फोड़कर क्षमा कर दिया था. पूरे प्रसंग के लिए देखें वाल्मीकि रामायण में सुन्दरकाण्ड, सर्ग 38 में श्लोक 12 से 36.  

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