Sunday 12 August 2012


राक्षसों की राम कहानी (4)
(TRUE STORY OF RAKSHASAS)

महर्षि वाल्मीकि के कर-कमलों से राम कथा को काव्यबद्ध शास्त्रीय रूप प्राप्त हुए कमोबेश तीन हजार वर्ष बीते होंगे. तब मध्य भारत के वन-पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली मनुष्यों की राक्षस प्रजाति[i] न केवल इसी संज्ञा से स्वाभिमानपूर्वक जानी जाती होगी, बल्कि वहाँ (राक्षसानामयं वासः = राक्षसों का निवास स्थान -–अरण्य. 44.27) डेरा डालने वाले ऋषि-मुनि और राम के रूप में चढ़ आने वाले आक्रान्ताओं से उनकी सचमुच मुठभेड़ भी हुई होगी. इसे कविता में ढालने वाले आदिकवि वाल्मीकि उत्तर और मध्य भारत के उन हिस्सों के लगभग बीच में रहने वाले थे, जहाँ ये घटनाएं घट रही थीं. वह स्थान था चित्रकूट. अयोध्या और आर्य उनके लिए आँखिन देखी थी, जबकि लंका और राक्षस सुनी-सुनाई पर आधारित अनुमान. यही कारण है कि वाल्मीकिकृत राक्षस पात्रों के नाम उनके माता-पिता के दिए हुए नहीं मालूम होते. वे गढ़े हुए और वर्णनात्मक हैं, मसलन खर, दूषण, त्रिशिरा, शूर्पणखा, कुम्भकर्ण, विभीषण, रावण, इन्द्रजित, प्रहस्त, नरान्तक तथा इस सूची को बड़ी सरलता से आगे बढ़ाया जा सकता है. इसी कारण वाल्मीकि को राक्षसों का वर्णन परदेसी के रूप में करना पड़ा और हमें रामायण से राक्षसों के रीति-रिवाज, जीवन-शैली आदि के कुछ ज़्यादा विवरण नहीं मिल पाते. फिर भी, जीवन के दो महत्वपूर्ण मौके हैं, जिनके तौर-तरीके की चर्चा आदिकाव्य में बिखरी हुई है. वे हैं शादी-ब्याह और शव का क्रिया-कर्म. इनके आधार पर हमें यह देखने का प्रयत्न करना है कि क्या कोई ऐसी जनजाति अब तक मौजूद है, जिसमें राक्षसों में प्रचलित ऐसे ही रीति-रिवाज पाए जाते हों.
वैदिक-पौराणिक परम्परा में आठ प्रकार के विवाह धर्म-सम्मत और सामाजिक माने गए हैं. इनमें राक्षस विवाह भी एक है, भले ही उसे अधम कोटि का विवाह माना गया है. दरअसल, विवाह चाहे जिस तरह किया जाए, वह इन आठ प्रकार के विवाह-भेद के दायरे में आ ही जाता है. तो आइए, देखें राक्षस विवाह क्या होता है.
राम-लक्ष्मण-जानकी को वनवास में एक अरसा गुज़र चुका है और वे वन में काफ़ी दूर भी निकल आए हैं. उनका आमना-सामना विकट-विकराल विराध नामक राक्षस से होता है. राक्षस को तपस्वी जान पड़ने वाले इन दोनों भाइयों के साथ किसी रूपवती युवती का विचरना स्वीकार्य नहीं है. अतः वह कहता है:
इयं नारी वरारोहा ममभार्या भविष्यति. (अरण्य. 2.13)
(यह स्त्री बड़ी सुन्दर है. यह मेरी भार्या बनेगी.)
इस वनवासी त्रिमूर्ति के कष्टों का सिलसिला चल निकला है. शूर्पणखा अपने बलशाली भाई रावण को लंका में उकसाती है:
सा सुशीला वपुःश्लाघ्या रूपेणाप्रतिमा भुवि.
तवानुरूपा भार्या सा त्वं च तस्यास्तथा पतिः.. (अरण्य. 32.17)
(सीता का शील-स्वभाव बहुत उत्तम है. उसका अंग-प्रत्यंग स्तुत्य एवं स्पृहणीय है. उसके समान रूपवती स्त्री भू-मण्डल में दूसरी नहीं है. वह तुम्हारे योग्य भार्या और तुम उसके योग्य पति होओगे.)
यदि तस्यामभिप्रायो भार्यार्थे तव जायते.
शीघ्रमुद्ध्रियतां पादो जयार्थमिह दक्षिणः.. (अरण्य. 32.20)
(यदि तुम्हें सीता को भार्या बनाने की इच्छा हो तो राम को जीतने के लिए अपना दायां पैर आगे बढ़ाओ.)
सीता तवानवद्याङ्गी भार्यात्वे राक्षसेश्वर. (अरण्य. 34.25)
(सर्वांग-सुन्दरी सीता को अपनी भार्या बनाने का प्रयत्न करो.)
शूर्पणखा का दाँव चल गया. रावण ने योजनाबद्ध तरीके से सीता से चोरी-चोरी एकान्त में मिलकर प्रस्ताव रखा:
बह्वीनामुत्तमस्त्रीणामाहृतानामितस्ततः.
सर्वासामेव भद्रं ते ममाग्रमहिषी भव.. (अरण्य. 45.24)
(मैं जगह-जगह से उत्तम स्त्रियों को हरकर ला चुका हूँ. उन सबमें तुम मेरी पटरानी बन जाओ.)
पञ्च दास्यः सहस्राणि सर्वाभरणभूषिताः.
सीते परिचरिष्यन्ति भार्या भवसि मे यदि.. (अरण्य. 45.27)
(सीते, यदि तुम मेरी भार्या हो जाओ तो हर प्रकार के आभूषणों से विभूषित पाँच हजार दासियां तुम्हारी सेवा करेंगी.)
बहूनां स्त्रीसहस्राणां मम योsसौ परिग्रहः .
तासां त्वमीश्वरी सीते मम भार्या भव प्रिये.. (अरण्य. 53.17)
(सीते, मेरा अन्तःपुर अपनी अनेक हज़ार पत्नियों से भरा पड़ा है. तुम उन सबकी स्वामिनी बन जाओ. प्रिये, मेरी भार्या बन जाओ.)[ii]
भव मैथिलि भार्या मे मोहमेनं विसर्जय.
बह्वीनामुत्तमस्त्रीणां ममाग्रमहिषी भव.. (सुन्दर. 18.16)
(मैथिली, तुम मेरी भार्या बन जाओ. पतिव्रत-धर्म का मोह छोड़ो. मेरे यहाँ बहुत सारी सुन्दरी रानियां हैं. उन्हें पीछे छोड़कर तुम मेरी पट्टमहिषी बन जाओ.)
आर्षोsयं दैव निष्यन्दो यस्त्वामभिगमिष्यति. (अरण्य. 53.32)
(देवी, तुम्हारे साथ प्रस्तावित मेरा सख्य-सम्बन्ध आर्ष धर्म-शास्त्रों से समर्थित है.)
स्वधर्मो रक्षसां भीरु सर्वथैष न संशयः.
गमनं वा परस्त्रीणां हरणं सम्प्रमथ्य वा. (सुन्दर. 18.5)
(भीरु, इसमें सन्देह नहीं कि पराई स्त्रियों के पास जाना और उन्हें बलपूर्वक हर लाना सदा से ही राक्षसों का अपना धर्म रहा है.)
रावण तो तक्षक को हराकर उसकी पत्नी भी छीन लाया था:
तक्षकस्य प्रियां भार्या पराजित्यः जहार्य. (युद्ध. 12.30)
राजर्षिपितृदैत्यानां गन्धर्वाणां च योषितः. रक्षसां चाभवन्कन्यास्तस्य कामवशं गताः..
युद्धकामेनताः सर्वा रावणेन हृताः स्त्रियः. (सुन्दर. 9.65)
(राजर्षियों, ब्रह्मर्षियों, दैत्यों, गन्धर्वों तथा राक्षसों की भी कन्याएं काम के वशीभूत होकर रावण की पत्नियां बन गई थीं, जिनका उसने युद्ध की इच्छा से अपहरण किया था.)
भरपूर ललचाने और डराने-धमकाने के बावजूद, सीता ने रावण की सेज पर जाने से मना कर दिया तो रावण को परामर्श दिया गया -–आप शक्तिशाली हैं, सो मुर्गा-मुर्गी के दृष्टान्त पर अमल करें:
बलात् कुक्कुटवृत्तेन प्रवर्तस्य महाबल.
आक्रम्याक्रम्य सीतां वै तां भुङ्क्ष्व च रमस्व च.. (युद्ध. 13.4)
(महाबली, आप कुक्कुटों के बर्ताव का अनुसरण करते हुए सीता के साथ बलात्कार कीजिए. बारम्बार आक्रमण करके सीता के साथ रमण कीजिए, उनका उपभोग कीजिए.)
मन्दोदरी अपने पति के शव पर विलाप करते हुए कहती है:
देवासुरनृकन्यानामाहर्तारं ततस्ततः. (युद्ध. 111.53)
(आप देवताओं, असुरों और मनुष्यों की कन्याओं को इधर-उधर से हर लाते थे.)
महर्षि वाल्मीकि की उपर्युक्त साखियों से पता चलता है कि राक्षस-विवाहक्या होता है. मालूम पड़ता है, राक्षस बग़ैर यह परवाह किए कि उनमें और हरण-अपहरण की जाने वाली स्त्री की अवस्था में कितना अन्तर है तथा उनके अपने राक्षस-कुटुम्ब में उनकी क्या हैसियत है, वे किसी भी स्त्री से, किसी भी जाति की स्त्री से विवाह कर सकते थे, फिर वह चाहे विवाहित हो या अविवाहित. इस सन्दर्भ में हम वनवासिनी सीता को ध्यान में रखते हुए, विराध और रावण दोनों ही की अवस्था का अनुमान लगा सकते हैं. रावण की सन्तानों में सुयोग्य मेघनाद परिपक्व अवस्था को प्राप्त विवाहित पुत्र है, अर्थात् सीता के अपहरण के समय से ही रावण महोदय ससुर जी भी हैं! इसका अर्थ यह नहीं कि राक्षस जाति में सामान्य विवाह न होते होंगे, लेकिन इस प्रकार के विवाह राक्षस जाति की अपनी अनन्य विशेषता है.
ये तो हुए राक्षस पुरुषों के विवाह प्रसंग. राक्षसियों का रुख़ भी देख लें.
राम-लक्ष्मण-जानकी प्रातःकालीन दिनचर्या से निपटकर पर्णशाला में बैठे थे और राम-लक्ष्मण बातचीत में लगे थे. कहीं से राक्षसी शूर्पणखा वहाँ आ पहुँची. सर्वशः देवोपम और मनुष्यों में अनुपम पुरुष राम को देखते ही वह उन पर कामासक्त हो उठी. शूर्पणखा का रूप-सौन्दर्य भले ही विवादास्पद हो, लेकिन दोनों तापस राजकुमारों का पूरा-पूरा परिचय पा लेने और यह जान लेने के बाद भी कि राम वन में सपत्नीक बसे हुए हैं[iii], वह उनसे विवाह का प्रस्ताव व्यक्त कर देती है:
समुपेतास्मि भावेन भर्तारं पुरुषोत्तमम्. (अरण्य. 16.21)
(मैं तुम सरीखे पुरुषोत्तम के प्रति पति-भाव रखकर बड़े प्रेम से पास आई हूँ.)
चिराय भव भर्ता मे सीतया किं करिष्यसि. (अरण्य. 16.21)
(तुम अब दीर्घ-काल के लिए मेरे पति बन जाओ. इस अबला सीता को लेकर क्या करोगे?)
अहमेवानुरूपा ते भार्यारूपेण पश्य माम्. (अरण्य. 16.22)
(मैं ही तुम्हारे अनुरूप हूँ. अतः मुझे अपनी पत्नी के रूप में देखो.)
ततः पर्वतशृङ्गाणि वनानि विविधानि च.
पश्यन्सह मया कान्त दण्डकान्विचरिष्यसि.. (अरण्य. 17.28)
(तुम कामोन्मत्त होकर मेरे साथ पर्वत शिखरों और ना-ना प्रकार की वन्य शोभा देखते हुए इस दण्डकारण्य में विहार करना.)
राम को अब दोहराना पड़ता है:
कृतदारोsस्मि भवति भार्येयं दयिता मम. (अरण्य. 17.2)
(देवी, मैं विवाह कर चुका हूँ. यह मेरी प्रिय पत्नी विद्यमान है.)
राम से निराश होकर और परामर्श-प्रशंसा सहित लक्ष्मण की ओर ठेल दिए जाने पर शूर्पणखा उनसे भी राज़ी है:
अस्य रूपस्य ते युक्ता भार्याहं वरवर्णिनी. (अरण्य. 17.7)
(लक्ष्मण, तुम्हारे इस सुन्दर रूप के योग्य मैं ही हूँ. अतः तुम्हारी परम सुन्दर भार्या मैं ही हो सकती हूँ.)
लक्ष्मण की ओर से राम की ओर दुबारा लौटा दिए जाने पर भी शूर्पणखा को किसी प्रकार लाज-संकोच नहीं है. वह राम से दोबारा प्रणय-याचना करती है और लक्ष्मण के हाथों नाक-कान गँवा बैठती है.
अब एक कम चर्चित राक्षसी को देखें. यह है अयोमुखी. सीता-हरण के बाद दण्डकारण्य में दक्षिण दिशा की ओर बढ़ते हुए राम-लक्ष्मण क्रौंचारण्य पार करके मतंग मुनि के आश्रम के पास पहुँचे. वहाँ उनका सामना रौद्र-वीभत्स अयोमुखी[iv] से हुआ. लक्ष्मण आगे-आगे चल रहे थे. आगे देखिए क्या हुआ:
सा समासाद्य तौ वीरौ व्रजन्तं भ्रातुर्ग्रत:.
एहि रंस्यावहेत्युक्त्वा समालम्भत लक्ष्मणम्..
(वह राक्षसी उन दोनों वीरों के पास आई. उसने लक्ष्मण की ओर देखकर कहा -–आओ, हम दोनों रमण करें. और उसने लक्ष्मण का हाथ पकड़ लिया.)
उवाच चैनं वचनं सौमित्रिमुपगुह्य च.
अहं त्वयोमुखी नाम लाभस्ते त्वमसि प्रियः..
(फिर उसने सौमित्र को अपनी भुजाओं में भींच लिया और बोली —मेरा नाम अयोमुखी है. मैं तुम्हें पत्नी रूप में मिल गई तो समझ लो बड़ा लाभ हुआ. तुम मेरे प्रिय पति हो.)
नाथ पर्वतदुर्गेषु नदीनां पुलिनेषु च.
आयुश्चिरमिदं वीर त्वं मया सह रंस्यसे.. (अरण्य. 69.14-16)
(प्राणनाथ, वीर! दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली आयु पाकर तुम पर्वत की दुर्गम कन्दराओं में और नदी तटों पर मेरे संग सदा रमण करोगे.)
मुक्त-भाव से अनुरक्ति की अभिव्यक्ति का परिणाम अयोमुखी को शूर्पणखा से भी बदतर भुगतना पड़ा -–क्रोधावतार लक्ष्मण ने उसके नाक, कान और स्तन तीनों काट डाले!
स्पष्ट है कि स्त्री हो या पुरुष, राक्षस-राक्षसियां अपनी कुव्वत के बल-बूते किसी भी स्त्री-पुरुष से बलात् विवाह रचा सकते थे. इस इच्छा की पूर्ति की राह में दोनों में से किसीका भी पहले से विवाहित होना या बाल-बच्चेदार होना कहीं आड़े नहीं आता था.
वाल्मीकि ने आदि-रामायण में राक्षसों का वर्णन निश्चित रूप से मनुष्यों के रूप में किया है, न कि हेय-तुच्छ दानवों के रूप में. प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्यों की यही प्रजाति मध्य प्रदेश के अमरकण्टक, जबलपुर और अन्य ज़िलों में फैली हुई थी? यह सच है कि इस इलाके में गोण्ड जनजाति का बोलबाला रहा है. इसलिए मुग़ल इतिहासकारों ने इसे गोण्डवाना नाम दिया था. आइन-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल ने इसे गढ़कटण्ङ्ग कहा है. यह प्राचीन शालकटङ्कट का अवशेष है. इस इलाके के गोंड अपने आपको पौलस्त्य वंश का मानते हैं. मध्य प्रान्त के एक मध्य कालीन शासक संग्रामशाही देव (1493-1563) ने तो अपने सिक्कों पर भी पौलस्त्यवंशीअंकित करवाया था. गोण्डों का एक कुल विशेष अपने रावण-वंशी होने तक का दावा करता है. लेकिन, यह कहने के लिए कि गोण्ड ही राक्षस थे -–इतने साक्ष्य पर्याप्त न होंगे. इस लेख-शृंखला में हम इन साक्ष्यों की प्रसंग अनुसार चर्चा करते रहेंगे. 
वाल्मीकि रामायण में मिलने वाले विवरण से पता चलता है कि राक्षस कुल के अनेक रीति-रिवाज पूर्वी घाट के जंगलों में निवास करने वाली कुइ जनजाति में आज भी प्रचलित हैं, अनेक लुप्त हो चुके हैं और वे द्रविड़ भाषाओं से जुड़ी ज़बानें बोलते थे. आइए, इस पर विचार करें.
इस कुइ जनजाति को ज़माना बिल्कुल अलग ही नाम से जानता है. ख़ुद उन्हें कुइ कहलाने में गर्व का अनुभव  होता है, लेकिन उनके तेलुगु पड़ोसी उन्हें खोण्ड कहते हैं और ओडिया लोग कन्ध’. गोण्ड अपने आप को कोइटॉर कहते हैं.
ग्रियर्सन मानते हैं, “इस जनजाति को सामान्यतः खोण्ड नाम से जाना जाता है. ओड़िशा के लोग इन्हें कन्धऔर तेलुगु लोग गोण्ड या कोड कहते हैं. वे ख़ुद अपने आपको कु कहते हैं. इसलिए उनकी ज़बान को कुइ कहना चाहिए. कु सम्भवतः कोइ से सम्बन्धित है. गोण्ड स्वयं को कोइ नाम भी देते हैं. गोण्डी की कोइ बोली अलबत्ता कुइ से बहुत अलग है.”
काल्डवेल का कहना है, “यह बात बिल्कुल पक्की है कि गोण्ड अपनी भाषा में ख़ुद को कोइटॉर कहना पसन्द करते हैं. यह शब्द कोइ से नियमित रूप से बनने वाला जातिवाचक बहुवचन है.”
काल्डवेल और ग्रियर्सन जैसे विद्वान खोण्ड और गोण्ड को सगोत्र शब्द मानते हैं. वे उनकी व्युत्पत्ति तमिल शब्द कुण्ड्रु से मानते हैं, जिसका तेलुगु रूप कोंडा है. इसका अर्थ है पहाड़ी या छोटी पहाड़ी (याद करें: गोलकोण्डा). पहाड़ी लोगों के नामकरण के लिए यह बड़ी ही स्वाभाविक व्युत्पत्ति है, लेकिन संयोगवश, खोण्डों के निकटतम पड़ोसी उन्हें खोण्ड नहीं, ‘गोण्ड या कोड कहते हैं, जबकि वे अपने आप को कु’. कुइ भाषा के एक व्याकरणकार के अनुसार इसमें सन्देह है कि कु’, ‘कुण्ड्रु और कोण्ड शब्दों के बीच कोई सम्बन्ध है भी. कु स्पष्टतः कोइसे जुड़ा है. गोण्ड अपने आपको यही कहते भी हैं और उसे फैलाकर कोइटार कहलाने के शौकीन हैं.”
वे पहाड़ियों पर रहते हैं. सो, उन्हें खोण्ड कहना सही है. रामायण में राक्षसों के लिए भी यही बताया गया है. उन्हें लङ्कानिवासिनः कहा गया है. लंका आदि-द्रविड़ शब्द है, जिसका अर्थ है ऊँचा, सो पहाड़ी. इससे पहाड़ी लोगों की सूचना मिलती है. वे अपने आप को जो कुइ कहते हैं, उसका उनकी अपनी भाषा में अर्थ है लड़वैये’. ‘कुइगिवा अर्थात आक्रमण करना. प्रत्येक कुइ अपने साथ एक हथियार रखता है कुरारि या कुराड़ी (कुल्हाड़ी). इसका अर्थ ही है आक्रामक हथियार. कोइ और कोया इसीके दूसरे रूप हैं. वे जिस जातिगत नाम पर गर्व करते हैं, उससे उनके प्रकृत स्वभाव (मनमानी से दूसरों पर आक्रमण कर देना) की सूचना मिलती है. जातीय अध्ययन बताता है कि कुइ, लंकावासी राक्षसों के वंशज हैं. उनका वर्तमान नाम कुइ उनकी निर्दय प्रवृत्ति का परिचायक है.
अब कुइ जनजाति में विवाह पर नज़र डालें. यदि इनमें कोई पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता हो और उसे बलपूर्वक उठा लाए तो वह स्त्री उसकी पत्नी बन जाती है. थर्सटन बताते हैं, “वनवासी समाज में शादियां सामान्यतः स्त्रियों को बलात् कब्ज़े में लेने से तय होती हैं. वक़्त के चलते यह रिवाज दोस्ताना रस्म में बदल गया है. बिरादरी से बाहर विवाह अब शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो जाते हैं.”
अत्यन्त सभ्य तमिल-तेलुगु समाज तक में यह रस्म प्रतीकात्मक रूप में आज भी प्रचलित है. फ़र्क है तो इतना कि दूल्हा अपनी दुल्हन की जगह उसके घर से कोई वस्तु उठा लाता है. फिर वर-वधू पक्ष के बीच झगड़े की रस्म भी अदा की जाती है. इस प्रकार इन जातियों में राक्षस विवाह के तत्व किसी न किसी रूप में अवश्य मौजूद हैं. अपहरण करने वाले को चाहिए कि वह वधू और उसके पक्ष को किसी न किसी तरह प्रसन्न करे. वधू तभी जाकर उससे शादी को राज़ी होती है. वधू-मूल्य चुकाने का रिवाज अनेक जनजातियों में मौजूद है. यह मूल रूप से अपहरणकर्ता के साथ ज़िन्दगी गुज़ारने की दृष्टि से पीड़ित स्त्री को मनाने के लिए अमल में आया होगा. यही कारण है कि रावण सीता को अपनी धन-सम्पदा-शक्ति बार-बार दिखा-दिखाकर फुसला रहा है कि वह उनसे विवाह कर ले:   
लोकेभ्यो यानि रत्नानि सम्प्रमथ्याहृतानि मे.
तानि ते भीरु सर्वाणि राज्यं चैतदहं च ते..
विजित्य पृथिवीं सर्वां नानानगरमालिनीम्.
जनकाय प्रदास्यामि तव हेतोर्विलासिनि..
नेह पश्यामि लोकेsन्यं यो मे प्रतिबलो भवेत्.
पश्य मे सुमहद्वीर्यमप्रतिद्वन्द्वमाहवे..  (सुन्दर. 18.17-19)
(भीरु, मैं अनेक लोकों का मन्थन करके वहाँ से जो-जो रत्न लाया हूँ, वे सब तुम्हारे ही होंगे और यह राज्य भी मैं तुम्हीं को समर्पित कर दूँगा. विलासिनी, तुम्हें प्रसन्न करने के लिए मैं विभिन्न नगरों रूपी मालाओं से अलंकृत इस सारी पृथ्वी को जीतकर राजा जनक के हाथ सौंप दूँगा. सारे संसार में मुझे ऐसा कोई और पुरुष दिखाई नहीं देता, जो मेरा सामना कर सके. तुम युद्ध में मेरा वह महान् पराक्रम देखना, जिसके सामने कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं टिक पाता.)[v]
पुराने ज़माने में कुइ जनजाति में वधू-मूल्य ढोर देकर चुकाया जाता था और अब मुद्रा में. लेकिन, दूर-दराज़ के इलाक़ों में यह मूल्य अब भी वस्तु-विनिमय से ही चुकाया जाता है.
गोण्ड जनजाति में विद्यमान प्राचीन राक्षस-जाति में प्रचलित बलात् विवाह के अवशेष देखकर इस निष्कर्ष पर पहुँचना समीचीन ही है कि लुप्तसंज्ञ राक्षसों के वंशज हैं गोण्ड.
--बृहस्पति शर्मा

स्रोत:
  1. VALMIKI RAMAYAN (TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION), ORIENTAL INSTITUTE, VADODARA.
  2. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
  3. रामचरितमानस

      





   


[i] राक्षसानामयं वासो घोराणां कामरूपिणाम्. (अरण्य. 44.23)
[ii] कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी. मंदोदरी आदि सब रानी.
तव अनुचरी करउँ पन मोरा. एक बार बिलोकु मम ओरा. (सुन्दर. 8.2)
[iii] इयं भार्या च वैदेही मम सीतेति विश्रुता. (अरण्य. 18.16) अर्थात्, सीता के नाम से प्रसिद्ध यह वैदेही मेरी पत्नी हैं.
[iv] यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण के दाक्षिणात्य-औदीच्य संस्करण में मिलता है. गोस्वामी जी ने अयोमुखी का उल्लेख नहीं किया है.
[v] बहु बिधि खल सीतहि समुझावा. साम दान भय भेद देखावा. (सुन्दर. 8.2) 

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